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यादें विनोद दुआ की

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 याद विनोद दुआ की....

घूम जाता हूं ज़फर मार्ग पर  

किसी भी बहादुर शाह की तरह

पूछता हुआ- है कोई गिराक,

अब तो रेट की भी परवा नहीं,

रात आपकी है, बात आपकी है


ये लाइनें उन दिनों लिखी थीं, जिन्हें हम संघर्ष के दिन कहते हैं. हालांकि इस शब्द का इस्तेमाल करते वक्त हमें जेएनयू मे अपने सीनियर संजय चौहान जी याद आते हैं. जो पटकथा लेखक है और बहुत सी सार्थक फिल्में लिखीं है. वो कहते थे संघर्ष का मतलब समझते हो, क्या होता है ये. फैशन मत बनाओ इसे. सही कहते थे. लेकिन करियर की शुरुआत थी. गुरुवर अशोक चक्रधरजी के अंडर में पीएचडी की तैयारी थी. गुरुजी ने कहा कि पीएचडी करते रहना पहले टीवी सीखो, कई कथाओं के प्लॉट तैयार करने की प्रक्रिया में हमें शामिल किया. माता-पिता हिंदी-संस्कृत के विद्वान रहे. सो विज्ञान के छात्र होने के बावजूद साहित्य का भान और हिंदी का श्रुति ज्ञान अभिमन्यु की भांति मिलता रहा. लेकिन साहित्य की राजनीति का चक्रव्यूह भेदना नहीं सीख पाया. खैर, कविता-कहानी बपौती बन गई. भोपाल दैनिक भास्कर में अरुण साकल्य जी और साप्ताहिक पत्र निकालने वाले अरुण माथुरजी ने लेखन से परिचय कराया. दो तीन अभिन्न मित्रों ने पत्रकारिता से रूबरू करा दिया. तो दुष्यंतजी की बिटिया अर्चना राजकुमार ने रेडियो सिखाया था. तरुणाई के प्रेम संबंधों ने कविताओं में पीड़ा और संवेदना पिरो दी...दिल्ली विश्विवद्यालय में दर्शनशास्त्र के ब्रिज कोर्स के जरिए हर कॉलेज में भाषण और लेखन प्रतियोगिताओं के बहाने राजधानी का डीटीसी की बसों में भ्रमण किया. तब पवन दुग्गल साहेब और महेश तिवारी जी भी वेन्यू पर मिल जाया करते थे. सो पुरुस्कार की संभावनाएं कम हो जाया करती थी.

सो श्रीमानजी नामके एक कॉमेडी सीरियल का कंसेप्ट अशोकजी ने बता दिया था. उनके घर में ही बैठ कर कल्पनाओं की उड़ान भरते हुए लिखना, मिटाना, फिर अशोकजी को सुनाना काम था. अशोकजी पैसे भी देते थे. हम भौचक रह जाते थे. क्योंकि हमारे पिता जब पीएचडी कर रहे थे, तो उनसे गाइड की पत्नी साल भर का क्विंटल भर अनाज मंगवा लेती थी. यहां तो उल्टी गंगा बह रही थी. लेकिन कॉमेडी लिखते लिखते जिंदगी की डार्क कॉमेडी शुरू हो गई.

अशोकजी के घर फोन आया कि माता-पिता दिल्ली आए हैं, तुरंत पहुंचिए.. आननफानन पहुंचे और आननफानन शादी तय हो गई. था प्रेम विवाह ही, सो मना भी क्या करना था. सुनीता के पिता कैंसर की अंतिम अवस्था में थे. तो पहला-दूसरा माह बत्रा हॉस्पिटल के कैंसर वार्ड में ही गुजरा.. उनके जाने के बाद जीवन की सुध ली..जेएनयू के बीएनसी क्वार्टर में ,कर्मचारियों के फ्लैट में एक कमरा ले लिया था. पिताजी से पैसा लेना मान के खिलाफ था. वो भी किसी आकस्मिक संकट में उलझे हुए थे.   

 बेर सराय में जवाहर बुक डिपो वाले मजूमदार जी की बड़ी मदद रही, अनुवाद करके देते, हाथोंहाथ पैसे मिलते, तो दिन की दाल रोटी का जुगाड़ हो जाता, बाकी टाइम नौकरी की तलाश...

कुछ वक्त पहले ही संडे मेल, संडे ऑबजर्वर में हमारे आईएमसी के साथी शुरुआत के हिसाब से अच्छे खासे वेतन पर ज्वाइन हो चुके थे. हम साहित्य में भविष्य तलाश रहे थे. जेएनयू में अच्छी श्रेणी में उत्तीर्ण होने के बाद भी मैनेजर पांडेय के कोप भाजन बन गए थे. हम तीसरे स्थान पर थे, पहले दूसरे स्थान पर विनोद कुमार और जितेंद्र उत्तम को भी एमफिल में दाखिला नहीं दिया गया, हमें तो रोने का भी हक नहीं था. जितेंद्र संघर्षशील रहे. वो कोरियन सीख कर कोरिया के रास्ते फिर से जेएनयू पहुंच गए और पढ़ा रहे हैं. वहीं, विनोद बस्तर में हैं, विद्वान होने के साथ अंतर्मुखी बहुत थे और अब तो अपने आप में खो गए हैं, उन्हें जेएनयू में होना चाहिए था. मन में बहुत सालता है ये. कभी नामवरजी हमें अच्छे नंबर सेमिनार पेपर में देते थे, तो वो कहा करते थे कि नामवरजी भी वाक्जंजाल में फंस जाया करते हैं. हम भी जानते थे कि ज्ञान में विनोद आगे हैं, हम लफ्फाज़ी में...

बहरहाल नौकरी ढूढ़ते वक्त प्रिंट में कही नहीं मिली. जबकि जेएनयू और आईआईएमसी के दौरान हमें पीटीआई की हिंदी सेवा “भाषा” में काम का मौका मिला था. तब वेद प्रताप वैदिकजी ने हमें वहीं नौकरी के लिए कहा था. लेकिन तब मंजिलें कहीं और थी. हवा में ज्यादा थे. लेकिन अब धरातल पर आ चुके थे. पैरों के नीचे हर दिन ज़मीन खिसक रही थी... कई महीने गुजर गए...दिन में तारे नज़र आने लगे...तब पत्रकारिता की नौकरी में प्रवेश के प्रयास में ऐसे अनोखे और दिलचस्प अनुभव हुए, जिन्होंने रूमानियत को रगड़ रगड़ कर धो दिया था. लेकिन इस काले कंबल पर दूसरा रंग नहीं चढ़ पाया.

तब टीवी एक नया चस्का था. वीएचएस टेप में बिकने वाली वीडियो न्यूज़ मैग़ज़ीन अभिनव प्रयोग था. विनोद दुआजी रिलायंस के इसी प्रयोग में शामिल हुए. वो संडे ऑब्जर्वर वीडियो मैगज़ीन के संपादक थे. मधु त्रेहान के न्यूज़ ट्रैक ने महम हिंसा के वीडियो कवरेज के जरिए टीवी न्यूज़ मीडिया की धमक पैदा कर दी थी. संभवतया राहुल श्रीवास्तव की रिपोर्टिंग थी और चौटालाओं के खौफ की कहानी थी. “आई विटनेस” लेकर एचटी मीडिया उतरा हुआ था. अमित खन्ना मुंबई से पिपुल्स प्लस., बिजनेस प्लस, इंटरटेनमंट प्लस चला रहे थे. सो, विनोदजी का नाम सुन कर उनकी तरफ रुख किया. शायद टीवी में ही कुछ हो जाए.

अशोक चक्रधरजी ने आशीर्वाद दे दिया था. बागश्री जी ने पत्नी को साड़ी और ढेर सारा प्यार. चक्रधरजी ने कहा पीएचडी  होती रहेगी, अब जीविका की तलाश में जुटो. उनकी वजह से बायोडाटा में टीवी भी जुड़ गया था.  तीन चार बातें जोड़ कर हम विनोदजी के पास पहुंचे सफदरजंग एनक्लेव के उनके दफ्तर में. विनोदजी ने धीरज से सीवी देखा. पीठ थपथपाई, कहा कि मेरी टीम बन चुकी है. तुम संजीव उपाध्यायजी से मिलों, वो “इंडिया व्यू” के लिए टीम बना रहे हैं. इंडिया व्यू वीडियो मैगज़ीन संडे मेल का वीडियो प्रोजक्ट था. खैर, जहां अखबारों के दफ्तर में महीने महीने भर संपादक रिसेप्शन पर वेट कराया करते थे, वहां विनोदजी का आत्मीय रूप हौसला देने वाला था. 

और फिर संजीव उपाध्यायजी ने टीवी में पहला मौका दिया. टीम उनकी भी बन चुकी थी. लेकिन उन्होंने हमारे लिए जगह बनाई. फिर कई बार हमारी डॉक्यूमेंटरीज़ के लिए वॉइस ओवर भी किया और लेखन के लिए पीठ भी थपथपाई.

उसके बाद कई मुकाम पर विनोदजी से मुलाकात और बात होती रही. परख के दौरान उनसे मुलाकात की कोशिश ने अजित साहीजी और विजय त्रिवेदीजी से रूबरू कराया. फिर दूरदर्शन पर शाम सात बजे न्यू वेव नामका समाचार कार्यक्रम लेकर आए. तब हम सहारा टीवी में थे और योजनाओं के प्रारूप बना रहे थे. लेकिन विनोदजी से जुड़ने के लिए आश्रम के पास होटल मेनोर के परिसर में थर्ड आई स्टूडियो पहुंचे. लेकिन एक मिनट की स्टोरी लिखना, वो भी आमफहम जुबान में, नहीं सीखा था. विनोद जी ने ये बात कही भी. नौकरी नही मिली, लेकिन इस सीख ने मांज दिया.

एक बार पवन दुग्गल के चेंबर मुलाकात हुई, 95-96 में. तब आजतक में रिपोर्टर हुआ करता था. दक्षिण दिल्ली के पॉश इलाके अनंतराम डेयरी फॉर्म में बड़ी-बड़ी हस्तियों के अवैध निर्माण पर स्टोरी करने के दौरान हम पीटे जा चुके थे. आजतक ने लगातार दो तीन दिन तक कई स्टोरी चलाई थी. तब विनोदजी ने हंसते हुए कहा था कि आप तो हेडलाइन बनाने के बजाय खुद हेडलाइन बन गए.

फिर बीबीसी में काम करते वक्त भी विनोदजीने बुलाया. सोनी टीवी को हिंदी बुलेटिन का प्रस्ताव दिया जाना था. विवेक डेबरॉय भी मौजूद थे. प्रस्ताव को लेकर चर्चा हुई और कुछ होम वर्क भी दिया. हालांकि बाद में सोनी टीवी ने न्यूज़ बुलेटिन का आइडिया छोड़ दिया था.

लेकिन इस बात का लेकर आज भी दिल में कसक है कि कई बार कोशिशों के बाद भी उनकी टीम का हिस्सा नहीं बन पाया. लेकिन विनोदजी मेरे दिल में हमेशा के लिए जगह बना चुके हैं. और जब वो याद आते हैं तो तो वो दौर भी याद आता है..तो तथाकथित संघर्ष को रोमेंटिसाइज़ करने वाली ये लाइनें भी याद आती हैं..

घूम जाता हूं ज़फर मार्ग पर 

किसी भी बहादुर शाह की तरह

पूछता हुआ- है कोई गिराक,

अब तो रेट की भी परवा नहीं,

रात आपकी है, बात आपकी है


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