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रवि अरोड़ा की नजर से.......

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पब्लिक मान जायेगी  / रवि अरोड़ा 



मुख्य चुनाव आयुक्त की प्रेस कांफ्रेंस का सीधा प्रसारण गौर से देखा । पता नहीं आपको कैसा लगा मगर मुझे तो ऐसा लगा जैसे पान पराग के विज्ञापन में शम्मी कपूर कह रहा हो- बारात ठीक आठ बजे पहुंच जाएगी ...। कोरोना गया तेल लेने । चुनाव तो अब होकर ही रहेंगे । बेशक पान पराग की शर्त का पुछल्ला लगा कर हों । चुनाव आयोग भी बेचारा क्या करे । सभी तो चुनाव चुनाव चिल्ला रहे हैं । जब दूल्हा घोड़ी चढ़ने को तैयार है तो बैंड बाजे वाले की क्या बिसात कि भोंपू न बजाए ? सो मास्क पहन कर बैंड वाले बैंड बजाएंगे । एक दूसरे पर सैनिटाइजर छिड़क कर बाराती नाचेंगे और और दस्ताने पहन कर दूल्हे के घरवाले इन मटकते बारातियों के सिर पर नोट वारेंगे । बेगानी शादी में कोई अब्दुल शोर न मचाए सो सोशल डिस्टेंसिंग की नौटंकी भी खूब होगी और पूरी बारात कोविड नियमों का पालन करेंगे-कोविड नियमों का पालन करेंगे चिल्लाएगी । 


बेशक कोई चुनाव आयोग को गरियाए कि कोरोना संकट में चुनाव क्यों करवा रहे हैं मगर अपनी नजर में तो वे बेचारे मासूम हैं । उनकी अपनी मजबूरी है । नौकरी तो उन्हे भी प्यारी है । इसी नज़र से देखूं तो सारे राजनीतिक दल भी भले मानुष दिखाई पड़ते हैं । योगी जी कुछ साबित करने निकले हुए हैं तो मोदी जी को 2024 का पूर्वाभ्यास करना है । अखिलेश वनवास से उकताए पड़े हैं तो बहनजी किसी तरह से ईडी और इनकम टैक्स वालों से पीछा छुड़ाना चाहती हैं । कांग्रेस की अपनी मजबूरी है । राहुल की तरह प्रियंका भी न चलीं तो क्या होगा सो दिन रात एक करना पड़ रहा है । हिंदू-मुस्लिम करने वालों को भी यह बेला अपनी परीक्षा की घड़ी लग रही है और उधर सरकार से बदले की भावना वाले अब नहीं तो कभी नहीं के भाव में हैं । जिसे देखो वही चुनाव के इंतजार में मरे जा रहा है । चुनाव न हुआ जैसे जीना-मरना हो गया । चुनाव तंत्र को लोकतंत्र समझने वाली आम पब्लिक भी कहां मासूम है ? वो भी अपने वोट की पूरी कीमत वसूलने के चक्कर में है । तभी तो उसके मनोभाव पढ़ने में माहिर नेताओं को वोटों की बोलियां लगानी पड़ रही हैं । कोई कहता है बिजली आधे दाम पर दूंगा तो कोई कहता है फ्री ले लो । कोई स्कूटी दे रहा है तो कोई मोबाइल फोन । किसी ने लैप टॉप का चुग्गा डाला है तो कोई नकद ही दे रहा है । दूसरी ओर अनपढ़ सा दिखने वाला वोटर बड़े चाव से विंडो शॉपिंग कर रहा है और मुंह से कुछ फूट ही नहीं रहा कि उसे क्या खरीदना है ? और सब तो छोड़िए यह भी किसी ने नहीं पूछ रहा कि ऐसी आफत क्यों कूट रहे हो । चार छः महीने सब्र कर लो । कोरोना से बचेंगे तभी तो वोट डालेंगे ? नदी किनारे रेत में दबा दिए गए या बहा दिए गए तो किससे वोट लोगे ?


सच कहूं तो मुझे तो अपने राजनीतिक दलों और कोरोना में गठबंधन नज़र आता है । जब जब चुनाव होते हैं , कोराेना आ जाता है । या यूं कहिए कि जब जब कोरोना आता है हमारे नेताओं को चुनाव याद आ जाते हैं । सुबह मुंह पर मास्क लपेट कर कोरोना नियंत्रण की बैठक करते हैं और शाम को लाखों की भीड़ में नंगे मुंह घुस जाते हैं ।   उन्हें भी पता है  पब्लिक 'की फर्क पैंदा है 'वाली है । वैसे भी हिसाब किताब किसी को आता हो तो डरें भी । कह देंगे कोई नहीं मरा । टोटल ही तो बदलना होता है । समझाने का तरीका आना चाहिए । पढ़ा देंगे- सौ के किए साठ , आधे दिए काट , दस दे दिए , दस दे देंगे और दस का देना क्या .. पब्लिक मान जायेगी ।


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