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हिन्दी बालपत्रकारिता का सफरनामा*/ सुरेन्द्र विक्रम



हिन्दी बाल पत्रकारिता का सफरनामा*/ सुरेन्द्र विक्रम 


                   बच्चों का बालसाहित्य से सीधा संबंध होता है। स्वस्थ बालसाहित्य जहाँ एक ओर बच्चों को ईमानदार नागरिक बनाने में मदद करता है वहीं दूसरी ओर उनमें अच्छे संस्कार डालकर उनके भावी जीवन की नींव मजबूत करता है। बच्चे  स्वस्थ बालसाहित्य से अनायास ही जुड़ते चले जाते हैं। यह सच है कि आरंभिक दौर में हिन्दी का बालसाहित्य केवल मनोरंजन के लिए लिखा गया। उस समय बच्चों को केंद्र में रखकर कोई विशेष लेखन भी नहीं हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी का पहला दशक इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण है कि उस  समय हिन्दी बालपत्रिकाओं की शुरुआत हुई। भारतेंदु युग हिन्दी साहित्य का क्रांतिकारी युग रहा है। इस काल में कई साहित्यिक विधाओं का उद्भव - विकास हुआ। बालपत्रकारिता को गौरव प्रदान करने का श्रेय भी भारतेंदु युग को ही जाता है।


                 यह सच है कि ढेर सारा बालसाहित्य बालपत्रकारिता की ही देन है। समय-समय पर प्रकाशित होने वाला बालसाहित्य बालपत्रिकाओं के माध्यम से ही सबसे पहले बच्चों तक पहुँचा। बाद में यह पुस्तकाकार प्रकाशित होकर अनेक पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाने के काम आया। बालपत्रकारिता प्रारंभ से ही अनेक चुनौतियों का सामना करती रही है। 

               बालसाहित्य प्रकाशित करने वाली पत्र-पत्रिकाओं के दो रूप हैं। प्रथम प्रकार की वे पत्रिकाएंँ हैं जो प्रमुख रूप से बड़ों का साहित्य प्रकाशित करती हैं और साथ में चार या आठ पृष्ठों की सामग्री बच्चों के लिए भी प्रकाशित करती हैं। बड़ों के लिए लगातार छप रही कुछ पत्र-पत्रिकाएँ ऐसी भी हैं जो बीच-बीच में बालसाहित्य विशेषांक निकालकर बच्चों को जोड़ने का काम कर रही हैं। बालसाहित्य के लिए वे दिन गौरव और गरिमा के रहे हैं जब साप्ताहिक धर्मयुग में बच्चों का स्तंभ बालजगत तथा साप्ताहिक हिन्दुस्तान में फुलवारी नियमित प्रकाशित होता था। धर्मयुग में रहकल लंबे समय तक लगातार छपने वाले बच्चों का स्तंभ बालजगत का संपादन करने वाले योगेन्द्र कुमार लल्ला ने जिस मनोयोग से बालसाहित्य प्रकाशित किया वह विचारणीय, अनुकरणीय और प्रशंसनीय तीनों है। संपादक डाॅ0 धर्मवीर भारती ने लल्ला जी को बालसाहित्य चयन के लिए खुली छूट प्रदान कर रखी थी। लल्ला जी ने बालजगत स्तंभ के लिए हिन्दी के तत्कालीन बड़े साहित्यकारों से भी अनुरोध करके बालसाहित्य लिखवाया और ससम्मान प्रकाशित किया। उन दिनों को याद करते हुए योगेन्द्र कुमार लल्ला जी ने राष्ट्रीय बालभवन नई दिल्ली की संगोष्ठी में कहा था कि-

              *''बालसाहित्य को स्थापित करने के लिए अनेक बालसाहित्यकारों के अतिरिक्त बड़े साहित्यकारों ने भी 'धर्मयुग'में नियमित रचनाएँ भेजकर महत्त्वपूर्ण पहल की। उस समय लगातार बच्चों का साहित्य लिखने की होड़ मची रहती थी। आज भी बालसाहित्य के अध्येता, समीक्षक और स्वयं बालसाहित्यकार यह स्वीकार करते हैं कि बालसाहित्य के विकास में 'धर्मयुग'के बालपृष्ठों का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता है।''*

               योगेन्द्र कुमार लल्ला जी ने धर्मयुग के बालपृष्ठ बालजगत के बाद कलकत्ता से प्रकाशित मेला नामक बालपत्रिका का भी संपादन किया। थोड़े समय में ही इस पत्रिका ने कामयाबी के झंडे गाड़ दिए, उस समय के श्रेष्ठ बालसाहित्यकारों के अतिरिक्त बड़े साहित्यकार भी इसमें नियमित लिखा करते थे।


               इन महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं के अतिरिक्त नवनीत( तब बम्बई अब मुंबई समाज कल्याण (नई दिल्ली) पालिका समाचार (नई दिल्ली) हरियाणा संवाद (हरियाणा) राष्ट्रधर्म और अतएव (लखनऊ) अवकाश (वाराणसी) आदि में भी लगातार बालसाहित्य प्रकाशित होता था। दुर्भाग्यवश इनमें से कुछ पत्रिकाएँ तो बंद हो गई हैं और अन्य पत्रिकाओं ने किन्हीं कारणों से बालसाहित्य छापना बंद कर दिया है। फिलहाल साहित्य समीर दस्तक और राष्ट्र समर्पण जैसी पत्रिकाएँ बालसाहित्य लगातार प्रकाशित कर रही हैं। 

               दूसरे प्रकार की वे पत्रिकाएँ हैं जो संपूर्ण रूप से बच्चों के लिए ही प्रकाशित होती हैं। ऐसी बालपत्रिकाओं में - नंदन, बालहंस, सुमन सौरभ, चंपक, बालभारती, लोटपोट, मधु मुस्कान, चकमक, देवपुत्र, नन्हें- सम्राट, बच्चों का देश, साइकिल,प्लूटो, बालवाटिका, पाठक मंच बुलेटिन, स्नेह, अभिनव बालमन, बालवाणी, बालप्रहरी, बालप्रभा, अनुराग, किलकारी आदि उल्लेखनीय हैं। इन बालपत्रिकाओं के अतिरिक्त मेरठ से बच्चों का अखबार, भोपाल से अपना बचपन तथा राजस्थान से टाबर टोली नाम से बच्चों के अखबारों का भी प्रकाशन होता है। हरिभूमि समाचार पत्र द्वारा हर सप्ताह बालभूमि के नाम से तथा भास्कर अखबार बालभास्कर शीर्षक से बच्चों के लिए विशिष्ट परिशिष्ट का प्रकाशन करते हैं। जनसत्ता भी प्रत्येक रविवार को नियमित बालसाहित्य प्रकाश कर रहा है। दैनिक ट्रिब्यून, राजस्थान पत्रिका, पंजाब केसरी, नई दुनिया आदि समाचार-पत्रों में भी बच्चों के लिए रचनाएँ अवश्य प्रकाशित होती हैं। 

                इसमें कोई दो राय नहीं है कि हिन्दी बालसाहित्य और बालपत्रकारिता दोनों की शुरुआत बहुत धीमी रही। भारतेंदु हरिश्चंद्र के विशेष प्रयत्नों से प्रकाशित 'बालदर्पण' (1882) भाषा, विषय और विविधता की दृष्टि से बहुत स्तरीय नहीं थी परंतु हिन्दी बालपत्रकारिता को स्वतंत्र रूप से विकसित करने में आज भी बालदर्पण का ऐतिहासिक महत्त्व है।

 

                  वैसे तो बच्चों की प्रतिक्रियाओं को जानने का साधन वे हस्तलिखित छोटी-छोटी बालपत्रिकाएँ  रही हैं जिनमें उनका बचपन हिलोरें लेता दिखाई देता था। प्रारंभ में ऐसी लघु पत्रिकाएँ और समाचार-पत्र काफी संख्या में अलग-अलग  स्थानों से निकलते थे। एक आँकड़े के अनुसार सन् 1940 के आसपास हिन्दी में लगभग 30 मुद्रित और 20  हस्तलिखित बालपत्रिकाएँ निकलती थी। यह प्रयास इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है कि ऐसे ही बच्चों की लेखन प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है। 

              वस्तुतः बालसाहित्य के उत्थान में बाल पत्र-पत्रिकाओं ने बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन पत्र -पत्रिकाओं ने तमाम बिखरे हुए बालसाहित्य की श्रृंखलाओं को एक साथ जोड़ने का काम किया है। बालपत्रिकाएँ बच्चों के लिए एक कुशल उपदेशक, सफल अभिभावक, उचित मार्गदर्शक और सच्चे मित्र का कार्य करती हैं। अगर हम यह कहें कि आज जो भी बालसाहित्य उपलब्ध है वह पत्र-पत्रिकाओं की ही देन है तो इसमें अतिशयोक्ति नहीं होगी। 

              पहली प्रकाशित पत्रिका बालदर्पण के बाद लोगों का ध्यान बच्चों की पत्रिकाओं को बढ़ाने की ओर नहीं गया, इसीलिए लंबे समय तक बच्चों की किसी प्रमुख पत्रिका का प्रकाशन नहीं हुआ। हाँ, छिटपुट कहीं-कहीं से कोई बालपत्रिका निकल जाती थी जिसकी आयु अत्यंत अल्प होती थी। ऐसी बालपत्रिकाओं में सन् 1891 में लखनऊ से प्रकाशित 'बालहितकर', 'विद्याप्रकाश', सन् 1906 में अलीगढ़ से प्रकाशित 'छात्र हितैषी'तथा बनारस से प्रकाशित 'बालप्रभाकर'आदि महत्त्वपूर्ण हैं। 

               उपर्युक्त इन बालपत्रिकाओं में से कोई भी चिरस्थायी नहीं रह सकीं, क्योंकि उस समय बालपत्रिकाएँ निकालना जोखिम भरा काम था। 'बालप्रभाकर'  के संपादक पं0 किशोरी लाल गोस्वामी की दृष्टि आधुनिक थी इसलिए उनके संपादन में पत्रिका को थोड़ा स्थायित्व मिला। इसके अतिरिक्त और कोई भी बालपत्रिका न तो लोकप्रिय हुई और न ही बच्चों को कोई  दृष्टि दे सकी। बालसाहित्य को सही दिशा और दृष्टि देने का काम मुख्य रूप से विद्यार्थी (1914), शिशु(1915) तथा बालसखा(1917) ने किया। विद्यार्थी सामान्य बाल पाठकों के साथ साथ-साथ विद्यार्थियों के लिए भी अपने नाम के अनुरूप विशेष उपयोगी पत्रिका थी। इसके संपादक पं0 रामजी लाल शर्मा बालसाहित्य के विशेषज्ञ थे। उनके संपादन में विद्यार्थी पत्रिका ने खूब उन्नति की। इसमें तत्कालीन चर्चित रचनाकार- मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, कामता प्रसाद गुरु तथा छबिनाथ पांडेय आदि की रचनाएँ प्रमुखता से प्रकाशित होती थीं।

               शिशु पत्रिका को निकालने का श्रेय पं0 सुदर्शनाचार्य को है। लंबे समय तक शिशु पत्रिका में संपादक के रूप में उनकी पत्नी का नाम छपता रहा, परंतु संपादन, मुद्रण से लेकर पत्रिका के प्रेषण तक का सारा काम सुदर्शनाचार्य खुद देखते थे। लगभग चार दशकों से भी अधिक समय तक यह पत्रिका बच्चों में ही नहीं अपितु अभिभावकों में भी काफी लोकप्रिय रही। इसका आखिरी अंक सन् 1957 में प्रकाशित हुआ। 

                    शिशु में अधिकतर वही रचनाएँ प्रकाशित होती थीं, जिनके माध्यम से बालक-बालिकाओं में सदाचार, शक्ति, आदर्श और राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत करने की प्रेरणा मिले। पं0 सुदर्शनाचार्य ने शिशु पत्रिका को जिन बुलंदियों तक पहुँचाया था उसे उनके सुयोग्य पुत्र ने आगे भी जारी रखा। अगर यह कहा जाए कि शिशु ने हिन्दी बालसाहित्य को उँगली पकड़कर चलना सिखाया बालसाहित्य के सशक्त हस्ताक्षर विष्णुकांत पांडेय का कहना बिल्कुल सही है कि- *''बालमन की जिन गहराइयों को पं0 सुदर्शनाचार्य ने समझा था उनको अब तक कोई नहीं समझ सका था। यही कारण है कि 'शिशु'की ख्याति-पताका दूसरे हिन्दी संसार में फहरती रही। लेकिन यह भी एक क्रूर विडंबना ही थी कि परतंत्र भारत में जिस पत्रिका ने युग-युगों तक संघर्षरत रहकर हिन्दी माध्यम से देश के अनगिनत बालगोपालों की सेवा की और बड़ी-बड़ी हस्तियाँ पैदा की वह पत्रिका देश की आजादी के बाद बंद होने को विवश हो गई।''*

                   उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभिक दौर में हिन्दी बालसाहित्य के लिए बालसखा (1917) ने जो जमीन खोजी, उसी पर आज एक भव्य प्रासाद बना दिखाई दे रहा है। सन् 1917 से सन् 1968 ई0 तक लगातार बालसखा का प्रकाशन अपने आप में एक रिकॉर्ड रहा है। दिसंबर 198 में बालसखा का आखिरी अंक प्रकाशित हुआ था। वास्तव में बालसखा पत्रिका हिन्दी बालपत्रकारिता के इतिहास में मील का पत्थर सिद्ध हुई। इसके प्रथम संपादक पं0बदरीनाथ भट्ट थे, तदनंतर पं0 लल्ली प्रसाद पांडेय, पं0 देवीदत्त शुक्ल, देवीदयाल चतुर्वेदी 'मस्त, 'पं0कामता प्रसाद गुरु, पं0 सोहनलाल द्विवेदी, पं0 गिरिजा शंकर शुक्ल 'गिरीश'तथा ठाकुर श्रीनाथ सिंह ने इसका संपादन किया। 

              बालसखा को बच्चों तथा बालसाहित्यकारों में लोकप्रिय बनाने का श्रेय पं0 लल्ली प्रसाद पांडेय को है।  उन्होंने जिस लगन निष्ठा उत्साह और ऊर्जा के साथ बालसखा को सँवारा और सजाया उससे हिन्दी बालसाहित्य के विकास के लिए एक खुला मार्ग मिल गया। तत्कालीन लगभग सभी प्रतिष्ठित लेखकों ने संपादक पं0 लल्ली प्रसाद पांडेय के अनुरोध पर बच्चों के लिए बड़े मन से लिखा और उन्होंने उसी मन से उसे बालसखा में ससम्मान छापा। जिस प्रकार महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती पत्रिका के माध्यम से हिन्दी साहित्य को ऊर्ध्वगामी रास्ता दिखाया उसी प्रकार लल्ली प्रसाद पांडेय ने बालसखा के माध्यम से हिन्दी बालसाहित्य को एक नया आयाम दिया। बालसखा के मई 1945 में प्रकाशित उनका खरा-खरा संपादकीय आज भी बालसाहित्य लेखन के संदर्भ में अत्यंत प्रासंगिक है- *"बालसखा कार्यालय में आने वाली रचनाओं में - गर्मी आई, जाड़ा आया, वर्षा गई, शिशिर भी भागा इस ढंग की तुकबंदियों की भरमार रहती है। फिर उनमें ऐसी कोई बात भी नहीं रहती, जिससे वे छापी जा सकें। बिल्ली पूसी कुतिया मुन्ना भैया छोटा भाई भी बहुत आते हैं। चीज ऐसी होनी चाहिए, जिससे भेजने वाले के सिवा पढ़ने वालों को भी आनंद मिले। उक्त कारण से ऊपर लिखे शीर्षकों की रचनाओं को स्वीकार करने में बालसखा असमर्थ है। स्वयं बालसखा की प्रशंसा में आई हुई रचनाएँ भी छापी नहीं जा सकतीं। इसके बनिस्पत उपयोगी रचनाओं को बालसखा में सहर्ष स्थान दिया जाता है।"*

                  लल्ली प्रसाद पांडेय जी बालसखा में प्रकाशित होने वाली रचनाओं के प्रति इतने सतर्क रहते थे कि बार-बार  बालसाहित्यकारों को आगाह करते रहते थे- *"मैं 'बालसखा'के कवियों को बताना चाहता हूँ कि वे अपना स्वर बदलें। अब सूरज के उगने में, फूलों के खिलने में, कोयल के कूकने में कोई नई बात नहीं रही, यह बातें तो सैकड़ों वर्षों से लिखी जा रही हैं। आज तो आवश्यकता वह सब कुछ लिखने की है जो हमारे सामने ने रूप में आया है और जो भविष्य में नई उपलब्धियोंकी आशा दे रहा है।"*

               उन्होंने बालसाहित्यकारों के साथ साथ-साथ बड़ों के लिए लिखने वाले साहित्यकारों में भी ऐसा जोश भरा कि वे सहज भाव से बच्चों के लिए लगातार लिखने लगे। यह लल्ली प्रसाद पांडेय की धुन और लगन का ही परिणाम है कि हिन्दी बालपत्रकारिता का इतिहास बालसखा के उल्लेख के बिना अधूरा है। 

                 बालसखा की भाँति पटना से प्रकाशित बालक(1926) को भी हिन्दी बालपत्रकारिता के इतिहास में महत्त्वपूर्ण दर्जा दिया जाता है। इसके संपादक आचार्य रामलोचन शरण बालमनोविज्ञान के मर्मज्ञ तथा साहित्य के ज्ञाता थे। इसी कारण बालक पत्रिका में स्तरीय उच्च कोटि की रचनाएँ प्रकाशित होती थीं। बालक पत्रिका में समय के साथ साथ-साथ इसके आकार प्रकार में भी परिवर्तन होता रहा। रचनाधर्मिता की दृष्टि से इससे समकालीन बालसाहित्यकारों का बराबर जुड़ाव बना रहता था। लंबे समय तक यह पत्रिका न्यूजप्रिंट पेपर पर भी छपती रही। बाद में व्यावसायिकता की दौड़ में पीछे रहने के कारण इसका प्रकाशन बंद हो गया। 

              स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व जो बालपत्रिकाएंँ प्रकाशित हो रही थीं उनमें छात्र सहोदर (1920, जबलपुर), बीर बालक (1924, दिल्ली), खिलौना (1927, इलाहाबाद), चमचम (1930,इलाहाबाद), वानर (1931,इलाहाबाद), कुमार (1932,कालाकांकर), अक्षय भैया ( 1934,इलाहाबाद), बालविनोद ( 1936,मुरादाबाद), बालहित (1937,उदयपुर), किशोर (1938,पटना), बालसंदेश (1940,दिल्ली), हमारे बालक(1942,दिल्ली), होनहार (1944, लखनऊ), तितली (1946,इलाहाबाद), बालबोध (1947,इलाहाबाद) आदि ने बच्चों में चेतना जगाने का काम किया।

                   स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व प्रकाशित होने वाली बालपत्रिकाओं में देश को आजाद कराने का उद्घोष था। बच्चों में संस्कार भरने की भावना थी तथा देश के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर देने का संकल्प था। वस्तुतः हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में बालपत्रकारिता का प्रादुर्भाव भारतेन्दु युग में ही हो गया था परंतु उसका पुष्पित-पल्लवित रूप हमें द्विवेदी युग में देखने को मिलता है। द्विवेदी युग में पहले की अपेक्षा हिन्दी बालपत्रकारिता की स्थिति संतोषजनक कही जा सकती है। 

                    एक आँकड़े के अनुसार उस समय हिन्दी में लगभग 30 मुद्रित और 16 हस्तलिखित बालपत्रिकाओं का उल्लेख मिलता है। डाॅ0 श्रीप्रसाद के अनुसार - वह बालपत्रिकाओं का स्वर्ण युग था। तब से बालपत्रकारिता में अनेक उतार-चढ़ाव आए हैं, मगर इतना तय है कि इस युग का बालसाहित्य तत्कालीन बालपत्रिकाओं में समग्र रूप में देखने को मिलता है। प्रो0 उषा यादव का मानना है कि-

*"स्वतंत्रतापूर्व की बालपत्रकारिता में हस्तलिखित पत्रिकाओं की गणना करना जरूरी है। ये पत्रिकाएँ काफी संख्या में छपती थीं। यद्यपि इनका प्रसार थोड़े क्षेत्र तक ही रहता था, पर बच्चों को पत्र-पत्रिकाओं की ओर आकृष्ट करने में इन हस्तलिखित पत्रिकाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।"*

                 स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी बालपत्रकारिता के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी बदलाव आया, फलतः कई नई बालपत्रिकाओं का पदार्पण हुआ। ऐसी बालपत्रिकाओं में कुछ तो अभी भी प्रकाशित हो रही हैं। परंतु कुछ आर्थिक बोझ तथा अन्य संपादकीय, व्यवस्थापकीय कठिनाइयों के कारण अधिक समय तक न चलकर बीच में ही काल के गाल में समा गईं। 

                   इस समय स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व से प्रकाशित होने वाली बालपत्रिकाओं में -शिशु, बालक और बालसखा अपनी पूरी दमखम के साथ बालसाहित्य को नई दिशा देने का कार्य करती रहीं। मनमोहन अपनी साधारण साज-सज्जा के बावजूद बच्चों में बहुत लोकप्रिय पत्रिका थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर आज तक प्रकाशित होने वाली बालपत्रिकाओं का गौरवशाली इतिहास है। ये बालपत्रिकाएँ इस प्रकार हैं- लल्ला(1948,इलाहाबाद),प्रकाश(1948,जालंधर),बालभारती (1948, दिल्ली), बच्चों का खिलौना (1948, अंबाला), चंदामामा (1949,मद्रास), चुन्नी-मुन्नू (1950,पटना), नन्हीं दुनिया (1951, देहरादून), कन्या (1952,मंदसौर),  वानर (1955,जयपुर), जीवन शिक्षा (1957,वाराणासी), स्वतंत्र बालक (1957,दिल्ली), पराग (1958, प्रारंभ बंबई बाद में नई दिल्ली), बालकल्याण (1958,हरिद्वार), राजा बेटा (1958,वाराणसी), बालबंधु (1958,मुरादाबाद), बालसुमन (1958, बंबई), राजा भैया (1958,नई दिल्ली), मीनू- टीनू (1959,चक्रधरपुर, बिहार), बाल फुलवारी (1959, अमृतसर), बेसिक शिक्षा (1959, सहारनपुर), राजा भैया (1959, दिल्ली), तितली (1959, दिल्ली), बालजीवन(1960, करनाल), बेसिक बालशिक्षा(1960,लखनऊ), फुलवारी (1961,वाराणसी), बालदुनिया (1962, दिल्ली), बालवाटिका (1962,लखनऊ), ज्ञानभारती (1962,लखनऊ), मनोरंजन (1962,दिल्ली), बालउपहार (1963, जालंधर), शेरसखा (1964,कलकत्ता), नंदन (1964, दिल्ली), शक्तिपुत्र (1965,दिल्ली), मिलिंद (1965,दिल्ली), दीवाना तेज (1965,दिल्ली), बालआश्रम (1966,हस्तिनापुर), चमकते सितारे (1966,पटना), बालजगत (1966,पटना), शिशु बंधु (1966,लखनऊ), मनमोहन (1967,इलाहाबाद), बच्चों का अखबार (1967, इंदौर), चंपक (1968,दिल्ली), बच्चों की पुकार (1968,लखीमपुर खीरी), पूत- सपूत (1968, दिल्ली), बालकुंज (1968, लुधियाना), बालजगत (1969,लखनऊ), चंद्रखिलौना (1969,मुजफ्फरपुर), लोटपोट (1969,दिल्ली), बालरंगभूमि (1970,दिल्ली), गोलगप्पा (1970,दिल्ली), मुन्ना (1970,दिल्ली), नन्हीं कलियाँ (1971, दिल्ली), हँसती दुनिया (1971, दिल्ली), चमाचम (1972,लखनऊ), बच्चे और हम (1972,दिल्ली), गुड़िया (1973,मद्रास), प्यारा बुलबुल (1974,जयपुर), शावक (1974,दिल्ली), लल्लू- पंजू (1975,लखनऊ), बालरुचि (1975,लखनऊ), बालदर्शन (1975,कानपुर), उभरते सितारे (1975,नालंदा, बिहार), आदर्श बालसखा(1977,वाराणसी), कलरव(1977,नई दिल्ली), बालसाहित्य समीक्षा (1977,कानपुर), बालपताका(1978,मथुरा), आदर्श चित्रकला (1979,दिल्ली), मेला (1979,कलकत्ता), बालकल्प(1979, जालंधर), , मधु मुस्कान (1979,दिल्ली), देवपुत्र (1979,ग्वालियर), बाल रत्न 1980,कानपुर),राकेट (1980,अकोला), बालमन (1980,दिल्ली), कुटकुट(1981,रतलाम), नन्हें तारे( 1981,चंडीगढ़), नन्हीं मुस्कान (1981,कानपुर), नन्हें मुन्नों का अखबार (1981,इलाहाबाद), दि चिल्ड्रेन टाइम्स (1981,लखनऊ), टिंकल(1981,बंबई), आनंददीप(1982,अहमदनगर), बालनगर(1982, इलाहाबाद), बालदुनिया (1982, मुजफ्फरनगर), लल्लू जगधर (1982, लखनऊ), चंदन( बहराइच), सुमन सौरभ(1983, दिल्ली), किलकारी (1984,दिल्ली), उपवन( 1984,सीकर, राजस्थान ), चकमक (1985, भोपाल), बालकविता (1985,लखनऊ), अच्छे भैया (1986, इलाहाबाद), ने फूल धरती के (1986,मथुरा), बालहंस (1986, जयपुर), बालमंच (1987,दिल्ली), नन्हें सम्राट ( 1988,दिल्ली), किशोर लेखनी (1988, कटिहार, बिहार), बालमेला (1989, दिल्ली), समझ झरोखा (1989,भोपाल), यूपी  नन्हा समाचार (1989,लखनऊ), पमपम(1992, दिल्ली), बच्चों की प्रिय पत्रिका बालवाणी (1994,लखनऊ), बालवाटिका (1995,भीलवाड़ा), पाठक मंच बुलेटिन (1996,नई दिल्ली), बालमितान (1998,दुर्ग), तितली (1998,बरेली),बच्चों का देश (1998, जयपुर अब राजसमंद, राजस्थान), स्नेह(1998,भोपाल), बालप्रहरी ( 2004, अल्मोड़ा, उत्तराखंड), अपना बचपन (2005,भोपाल), बाल अखबार (2005,भोपाल) , बालमन (2008, अलीगढ़), गुप्तगंगा (2008,जयपुर), कल्लोल (2008, जयपुर), बालप्रभा (2012, शाहजहाँपुर), साइकिल (2018 भोपाल) प्लूटो (2019,भोपाल) आदि।

                

उपर्युक्त बालपत्रिकाओं में नंदन, पराग, बालभारती, चंपक, चंदामामा, मिलिंद, आदर्श, बालसखा  लोटपोट, बारबंधु तथा हँसती दुनिया अपने आकर्षक आवरण रोचक सामग्री तथा रंगीन चित्रों के कारण बालपाठकों में अधिक लोकप्रिय रहीं। इनकी रचनाएँ बच्चों में जहाँ एक ओर पठनवृत्ति को बढ़ावा दे रही थीं, वहीं दूसरी ओर उन्हें संस्कारित कर एक नए समाज का निर्माण कर रही थीं। आजाद भारत में इस कार्य को इन बालपत्रिकाओं ने बड़े चुनौतीपूर्ण ढंग से स्वीकार किया। इस समय बालसाहित्य के सामने भी एक चुनौती यह थी कि बालपत्रिकाओं को घर-घर पहुँचाकर बच्चों को ऐसा रास्ता दिखाना था जिस पर चलकर वे आसानी से अपनी मंजिल प्राप्त कर सकें। यह खुशी की बात है कि इन बालपत्रिकाओं ने अपने-अपने ढंग से बच्चों के साथ-साथ अभिभावकों में भी अपनी जगह बनाई।

                   नंदन और पराग जहाँ बड़े बच्चों की पत्रिकाएँ रही हैं, वहीं चंपक छोटे बच्चों में बहुत लोकप्रिय है। जानवरों को आधार बनाकर लिखी गई कहानियाँ आज भी चंपक में प्रकाशित होकर बच्चों का मनोरंजन कर रही हैं। चंपक हिन्दी के अतिरिक्त अन्य दूसरी भाषाओं में भी प्रकाशित होती है मगर इसमें यह उल्लेख नहीं होता है कि मूल रचना किस भाषा में लिखी गई है। प्रायः हिन्दी के अनेक बालसाहित्यकारों की रचनाएँ चंपक के अंग्रेजी संस्करण में उनके नाम के साथ छपती हैं। इससे अनुमान लगाना कठिन होता है कि रचनाकार हिन्दी भाषा का है या अंग्रेजी का। चूँकि दिल्ली प्रेस एकमुश्त धनराशि देकर कॉपीराइट खरीद लेता है इसलिए वहाँ रचनाओं का उपयोग अपनी मर्जी से अलग-अलग भाषाओं में करने में आसानी रहती है।


                 पराग पत्रिका अपनी ढेर सारी अच्छाइयों को समेटे हुए दुर्भाग्यवश बंद हो गई परंतु उसकी महक आज भी बरकरार है। आधुनिक भावबोध की कहानियों, किशोर मन के अंतर्गत चित्रों तथा रसबोध से परिपूर्ण बालकविताओं के कारण आज भी पराग बालसाहित्य के प्रेमियों के मन में साँसें ले रहा है। चींटीपुरम के भूरेलाल (मुद्राराक्षस), बहत्तर साल का बच्चा (आबिद सुरती), शाबाश श्यामू ( डॉ0 श्रीप्रसाद), पाँवों से पंखों तक तथा चंदामामा दूर के ( हरिकृष्ण देवसरे), नेहरू चाचा का भतीजा ( रजिया सज्जाद जहीर), हम सबका घर( नरेन्द्र कोहली), वीर विक्रमादित्य ( विनोद कुमार) तथा सोमबाला और सात बौने( आनंद प्रकाश जैन) जैसे रोचक बाल उपन्यास सबसे पहले पराग में ही धारावाहिक प्रकाशित हुए थे। शिशु गीतों को मजबूत जमीन देने का भी श्रेय पराग को ही है। 

                     पराग की दृष्टि जहाँ आधुनिक थी वहीं नंदन की दृष्टि परंपरावादी थी। राजा-रानी की कहानियाँ, लोककथाओं तथा दादी-नानी की परंपरागत कहानियों के बल पर नंदन ने कई वर्षों का सफर तय किया। परीकथाओं को लेकर नंदन का अपना अलग दृष्टिकोण था। नंदन के परीकथाओं के समर्थन में अनेक विशेषांक भी प्रकाशित हुए। एक दौर ऐसा भी आया जब परीकथाओं को लेकर धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान के पृष्ठों पर खूब ज़ोरदार बहस हुई, बल्कि बहस धारावाहिक चलती रही इस बहस में नंदन को जहाँ परीकथाओं का समर्थक तथा राजा - रानी की कहानियों में सामंतवाद की झलक दिखाने वाली पत्रिका माना गया वहीं पराग को वैज्ञानिक दृष्टिकोण, विज्ञान फंतासी तथा आधुनिक भावबोध की पत्रिका का दर्जा दिया गया। 

                  नंदन पत्रिका के संदर्भ में एक बात अवश्य उल्लेखनीय है कि उसमें प्रकाशित कहानियों और कविताओं से ज्यादा स्थायी रूप से छपने वाले स्तंभ बच्चों में अधिक लोकप्रिय थे। चीटू-नीटू, आप कितने बुद्धिमान हैं, वर्ग पहेली तथा तेनालीराम जैसे स्तंभ बच्चे पत्रिका में पहले पढ़ते थे। 'विश्व की महान कृतियाँ'ऐसा स्तंभ था जिससे बच्चों में विदेशी बालकथाएँ पढ़ने की ललक जगी। 

               

 आज नंदन का स्वरूप पूरी तरह बदला हुआ है। उसमें आधुनिक भावबोध की बेहतरीन रचनाएँ प्रकाशित हो रही है। संपादक जयंती रंगनाथन ने बच्चों की नब्ज़ पकड़ ली है। विज्ञान को भी लोकप्रिय बनाने की दिशा में नंदन के प्रयास की सराहना की जानी चाहिए। 

               इस समय की एक अन्य महत्वपूर्ण बालपत्रिका बालभारती ने अपने छह दशकों से अधिक के समय में अनेक  उतार-चढ़ाव देखे हैं। अनेक हिचकोले खाया मगर सँभलती रही। सरकारी प्रकाशन होने के कारण विभिन्न आकार-प्रकार ग्रहण करती यह पत्रिका भारत सरकार की नीतियों और रीतियों के बावजूद अपना अस्तित्व बनाए हुए है।

                    बालभारती में कविताओं और कहानियों के अतिरिक्त बालनाटकों और धारावाहिक उपन्यासों को भी प्रमुखता से प्रकाशित किया जाता रहा है। अमर चित्रकथा के सर्जक अनंत पै की धारावाहिक चित्रकथा कपीश लंबे समय तक बालपाठकों का मनोरंजन करती रही है। वैज्ञानिक तथ्यों से भरपूर रोचक आलेख भी बालभारती में निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं। आज के बालभारती के पाठक इस तथ्य से अनभिज्ञ होंगे कि एक समय ऐसा भी आया था जब यह पत्रिका बंद होने के कगार पर आ गई थी परंतु पं० जवाहरलाल नेहरू के हस्तक्षेप के बाद ऐसा जीवनदान मिला कि यह पत्रिका आज भी खूबसूरत साज-सज्जा और मनोरंजक तथा उपयोगी रचनाओं के साथ प्रकाशित हो रही है। 

                  

चंदामामा अपने समय की ऐसी ही पत्रिका रही है जो बच्चों से कहीं ज्यादा अभिभावकों में लोकप्रिय रही है। इसमें अधिकतर लंबी-लंबी कथाओं को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत किया जाता था। ऐयारी, जासूसी, हैरतअंगेज तथा चमत्कार दिखाने वाली कहानियाँ चंदामामा की उपलब्धि रही हैं। धारावाहिक विक्रम और बैताल की कथा इसका जीता जागता उदाहरण है। इधर चंदामामा की रचनाओं में आंशिक फेर-बदल हुआ है मगर उसका पुराना परंपरावादी दृष्टिकोण आज भी देखा जा सकता है। 

                

वैसे तो इस काल में ऊपर संदर्भित अनेक बालपत्रिकाओं ने अपनी उपस्थिति से बालसाहित्य को आंदोलित किया परंतु लोकप्रियता की दृष्टि से अधिकांश बालपत्रिकाओं का ग्राफ़ नीचे ही रहा। हाँ, इस अवधि में बड़ों के लिए प्रकाशित होने वाली दो ख्यातिप्राप्त प्रमुख पत्रिकाओं- धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान में क्रमशः बालजगत और फुलवारी शीर्षकों से बच्चों के लिए जो सामग्री प्रकाशित हुई उनमें सही अर्थों में बचपन का प्रतिनिधित्व हुआ। सैकड़ों पृष्ठों में फैला यह दस्तावेज हिन्दी बालसाहित्य की अनमोल धरोहर है। सातवें दशक से बीसवीं शताब्दी तक प्रमुखता से छपने वाले इन पृष्ठों में बालकविताओं और बालकहानियों के अतिरिक्त वैज्ञानिकों का बचपन, धारावाहिक बालउपन्यास, रोचक संस्मरण, पहेलियाँ और यात्रा-विवरण भी प्रकाशित हुए। मनहर चौहान का रोचक बालउपन्यास जादुई खड़िया धर्मयुग के बालपृष्ठों में धारावाहिक प्रकाशित हुआ था। 

                  

उस समय प्रकाशित होने वाले लगभग सभी समाचार पत्रों में बच्चों की दुनिया, बच्चों का पन्ना, बाललोक, बचपन, बालरंग, नन्हीं दुनिया, बालपृष्ठ तथा बालसंसद आदि शीर्षकों से हर रविवार को बालसाहित्य प्रकाशित होता था। इन समाचार-पत्रों में बच्चों के द्वारा लिखी गई रचनाएँ भी प्रकाशित की जाती थी। वाराणसी से प्रकाशित आज अखबार में तो बाकायदा बालसंसद स्तंभ के अंतर्गत बच्चों को सदस्य बनाया जाता था तथा उनकी रचनाएँ सदस्य संख्या और छायाचित्र सहित प्रकाशित की जाती थीं। इन पंक्तियों के लेखक ने अपने लेखन की शुरुआत आठवें दशक में इसी समाचार-पत्र से शुरू की थी। कुछ समाचार-पत्रों में तो सामग्री को लेकर होड़ मची रहती थी।

                    नवें दशक के बाद से लेकर बीसवीं शताब्दी के अंत तक बालसाहित्य में प्रतिमानों की तलाश शुरू हुई। किशोरों के मन में उठने वाली अनेक संवेदनाओं को पराग जैसी बालपत्रिका ने शिद्दत से प्रकाशित रचनाओं में उठाया। हालाँकि इस काल में भी कुछ बालपत्रिकाएँ फार्मूलबद्ध ढंग से भी प्रकाशित होती रहीं। उस समय पराग में प्रकाशित एक कविता को उद्धत करने का मैं लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ-


पापा जी तुम देर से घर क्यों आते हो? 

क्यों मम्मी का इतना  दिल  दुखाते हो? 

रोज शाम को मम्मी रोती रहती हैं 

और हमसे बात भी नहीं करती हैं। 

मैं गुड़िया के संग खेलूँ कब तक पापा? 

माँ को ऐसे रोते देखूँ कब तक पापा? 

जब मैं एक सहेली के घर जाती हूँ

उसको हँसती देख-देख पछताती हूँ।

उसके मम्मी-पापा कितने खुश रहते हैं।

ना तो झगड़ा करते हैं वे ना ही लड़ते हैं।

अपने घर में झगड़ा क्यों होता है पापा?

सोच- सोचकर मेरा मन  रोता है  पापा।


 राकेश 'मिलिंद'

    



  - इस दौर की महत्त्वपूर्ण बालपत्रिकाओं में बालहंस ने भी एक नया इतिहास बनाया है। इसमें बच्चों की लेखनी को भरपूर प्रोत्साहन मिलता रहा है। बालहंस ने एक अद्भुत पहल करके अलग-अलग प्रदेशों को लेकर वहाँ के बालसाहित्यकारों पर केन्द्रित इतनी महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रकाशित की थी कि कभी-कभी बड़ा आश्चर्य होता है। इस संपूर्ण सामग्री को मिलाकर इकट्ठा किया जाए तो हिन्दी बालसाहित्य के इतिहास की एक झलक आसानी से देखी जा सकती है। कवि एक: रंग अनेक स्तंभ में अलग- अलग मिजाज की इतनी कविताएँ प्रकाशित हुईं कि पृष्ठ के पृष्ठ भर गए।

                     बालहंस के तत्कालीन संपादक अनंत कुशवाहा बड़े कुशल और महत्त्वपूर्ण चित्रकार थे इसलिए उसमें कई चित्र कथाएँ प्रमुखता से प्रकाशित होती थीं। बालहंस को उँचाइयों तक पहुँचाने में मनोहर वर्मा के योगदान को भी भुलाया नहीं जा सकता है। मनोहर वर्मा एक अनुभवी संपादक के साथ-साथ लब्धप्रतिष्ठ बालसाहित्यकार भी थे। उन्होंने अनेकों बालसाहित्यकारों को बालहंस में लिखने के लिए प्रेरित किया। हालाँकि बालहंस आज भी प्रकाशित हो रही है परंतु उसमें पुरानी वाली चमक गायब है।

                बच्चों का देश के संपादक संचय जैन पूरी निष्ठा और लगन के साथ पत्रिका को निकाल रहे हैं। आवरण सहित 52 पृष्ठों की यह पत्रिका पूरी रंगीन, आकर्षक और भरपूर साज-सज्जा के साथ प्रति माह बच्चों के बीच में अपनी पैठ बनाए हुए है। इसे समकालीन बालसाहित्यकारों का भरपूर सहयोग प्राप्त है। पत्रिका में कविताएँ, कहानियाँ, ज्ञानवर्धक लेख, पहेलियाँ, चित्रकथाएँ, बच्चों के लिए रोचक जानकारियांँ, वर्ग-पहेली, सुडोकू तथा पुस्तक परिचय सभी कुछ उपलब्ध है। इसके संपादन में बालसाहित्यकार प्रकाश तातेड़ का लगातार भरपूर सहयोग मिल रहा है। पत्रिका निश्चय ही अत्यंत उपयोगी और  बच्चों के लिए आवश्यक है। 

                भोपाल से प्रकाशित स्नेह बालपत्रिका भी बच्चों को जोड़कर उपयोगी सामग्री उपलब्ध करा रही है। यह संपादक की सूझबूझ और परिश्रम का परिणाम है कि इसे विद्यालयों के माध्यम से बच्चों तक पहुँचाया जा रहा है। बच्चे अपनी संस्कृति से जुड़ें तथा उनमें संस्कार को जानने और समझने का भाव उत्पन्न हो इसी उद्देश्य से पत्रिका का नियमित प्रकाशन हो रहा है है। इसमें प्रमुख रूप से कविताएँ, कहानियाँ, जानकारी भरे आलेख तथा देश-दुनिया के समाचारों से भी बच्चों को लाभान्वित कराया जाता है। संपादक कमलाकांत अग्रवाल का प्रयास सराहनीय है। 

                   वैसे तो अपने समय में धूम मचाने वाली पत्रिका लोटपोट भी प्रकाशित हो रही है जो अब साप्ताहिक से पाक्षिक हो गई है। इसे हँसी और मस्ती की पाठशाला नया नाम दिया गया है परंतु इसमें अब पहले वाली बात नहीं है। एक समय था जब इसमें प्रमुख रूप से व्यंग्य चित्र तथा हास्य कथाओं को प्रकाशित किया जाता था। कुछ साहसिक और प्रेरणाप्रद कथाएँ भी कभी-कभी देखने को मिल जाती थीं।

                  हँसती दुनिया पत्रिका बच्चों को संस्कारित करने का दावा करती है परंतु इसकी पहुँच बच्चों तक नहीं है। यह पत्रिका हिन्दी के अतिरिक्त पंजाबी, अंग्रेजी और मराठी में भी प्रकाशित होती है। संत निरंकारी मंडल का प्रकाशन होने के कारण हँसती दुनिया चार दशकों से लगातार प्रकाशित हो रही है। मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि यह पत्रिका लोकप्रियता के उस ग्राफ़ को नहीं छू सकी है जिसे इतनी लंबी यात्रा के बाद उसे छू लेना चाहिए था।

                  बालप्रहरी पत्रिका भी अपने ढंग से प्रकाशित ही हो रही है परंतु उसकी न तो कोई रीति-नीति है और न ही उसकी कोई दृष्टि है। संपादक अभी तक अपना कोई उद्देश्य भी तय नहीं कर पाए हैं। खिचड़ी रचनाओं के सहारे अंक निकल रहे हैं। बीच-बीच में लखनऊ से प्रकाशित अनुराग बाल पत्रिका के अंक भी दिखाई दे जाते हैं। इसमें साभार ली गई रचनाओं की संख्या अधिक होती है। इसकी विषयवस्तु में कभी-कभी नयापन नजर आता है परंतु प्रस्तुति में मौलिकता का अभाव नजर आता है। खेद की बात है कि कुछ बालपत्रिकाएँ सिर्फ़ खानापूर्ति के लिए प्रकाशित हो रही हैं। 

                 यहाँ असमय बंद हो गई दो बालपत्रिकाओं का मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूँगा। ये पत्रिकाएँ हैं---नई पौध और नन्हीं कलम। नई पौध एक संतुलित पत्रिका थी जिसमें महत्त्वपूर्ण बालसाहित्यकारों के साथ बच्चों की भी रचनाएँ प्रकाशित होती थीं। इसके संपादक रामकुमार कृषक की दृष्टि इतनी व्यापक होती थी कि उसमें बच्चों का मन स्वत: हिलोरें लेने लगता था। पत्रिका बच्चों से सीधा संवाद करने का एक सशक्त माध्यम थी परंतु यह हिन्दी बालसाहित्य का दुर्भाग्य ही था कि पत्रिका असमय कालकवलित हो गई। 

                  

दूसरी हस्तलिखित पत्रिका नन्हीं कलम के पीछे बालसाहित्यकार श्याम सुशील की एक सुनियोजित सोच थी। शिवांक और शिप्रा तथा अन्य बच्चों के सहयोग से इस की हस्तलिपि प्रति तैयार की जाती थी। बाद में इसकी फोटोकाॅपी कराकर बच्चों तथा बालसाहित्यकारों को प्रेषित की जाती थी। समकालीन बालसाहित्यकारों से हस्तलिखित रचनाएँ मँगाकर पत्रिका में बड़े सुन्दर ढंग से सजाकर प्रस्तुत किया जाता था। इस पत्रिका के माध्यम से बच्चे और बालसाहित्यकार साथ-साथ एक मंच पर मिलते थे। आज के इलेक्ट्रॉनिक युग में बच्चों के ऐसे प्रयास हमें निश्चय ही आश्चर्य में डालकर सुखद अनुभूति कराते हैं। 

                    लंबे समय से प्रकाशित हो रही बालवाटिका पत्रिका में इधर काफी बदलाव आया है। रचनाओं के स्तर पर अब इसे किशोरोपयोगी बनाने का प्रयास किया जा रहा है। अब इसमें बालसाहित्य पर आलोचनात्मक आलेखों को भी प्रमुखता से प्रकाशित किया जाता है। बालवाटिका ने कई मूर्धन्य बालसाहित्यकारों पर महत्त्वपूर्ण विशेषांक निकालकर एक अच्छा काम किया है। पुस्तक समीक्षा स्तंभ में समय-समय पर प्रकाशित होने वाली बच्चों की पुस्तकों की जानकारी मिलती रहती है। कभी-कभी अच्छे साक्षात्कार और संस्मरण भी बालवाटिका में पढ़ने को मिल जाते हैं। यह सुखद है कि पत्रिका अपने प्रकाशन के रजत जयंती वर्ष में पहुँच गई है इसका लगातार छपना भी हमें आश्वस्त करता है। 

                 देवपुत्र प्रकाशन की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक प्रसार संख्या वाली बालपत्रिका बन गई है। एक आँकड़े के अनुसार इसकी प्रसार संख्या 3,68,925 प्रति अंक दर्शाई गई है। पहले साधारण ढंग से प्रकाशित होने वाली यह पत्रिका अब पूरी तरह बहुरंगी हो गई है। इसमें प्रकाशित चित्रों का संयोजन बड़े अच्छे ढंग से किया जाता है। भारतीय संस्कृति और परंपराओं को इसमें विशेष रूप से स्थान दिया जाता है। कुछ धारावाहिक चलने वाली जानकारियाँ भी उपयोगी होती हैं। 

                  

चकमक की गणना इस समय प्रकाशित होने वाली बच्चों की बेहतरीन पत्रिकाओं में कई जाती है। वैज्ञानिक सोच और आधुनिक परिवेश का प्रतिनिधित्व करने वाली यह पत्रिका आरंभ से ही बच्चों और बालसाहित्यकारों में बहुत लोकप्रिय रही है। इसका सौवाँ अंक जितना महत्त्वपूर्ण प्रकाशित हुआ था, उससे कहीं ज्यादा विविधता लिए हुए इसका 150वाँ अंक प्रकाशित हुआ। इसमें बच्चों के द्वारा लिखी गई रचनाओं और उनके द्वारा बनाए गए चित्रों को प्रमुखता से प्रकाशित किया जाता है। कुछ विदेशी विद्वानों की उत्कृष्ट रचनाएँ भी अनुवाद के माध्यम से बराबर पढ़ने को मिलती रही हैं। यह पत्रिका आज भी अपना स्तर बनाए हुए है। 

                 नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली से प्रकाशित पाठक मंच बुलेटिन की गणना भी अपने समय की अच्छी पत्रिकाओं में की जानी चाहिए। यह पत्रिका लगातार उत्कृष्ट रचनाएँ प्रकाशित कर रही है। इसमें हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी में भी रचनाएँ छपती हैं। बच्चों की लिखी हुई रचनाओं और उनके द्वारा बनाए गए चित्रों का इसमें अच्छा-खासा प्रतिनिधित्त्व रहता है। यह पत्रिका अब रीडर्स क्लब बुलेटिन के नाम से राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के राष्ट्रीय बालसाहित्य केन्द्र द्वारा प्रकाशित हो रही है। इसे राष्ट्रीय बालसाहित्य केन्द्र से जुड़े पाठक मंचों को नि:शुल्क वितरित किया जाता है। यह पत्रिका भी अपने प्रकाशन के रजत जयंती वर्ष में पहुँच गई है।

                 अलीगढ़ से प्रकाशित अभिनव बालमन पत्रिका भी लगातार अपनी उपस्थिति का आभास करा जाती है। इसमें वरिष्ठ बालसाहित्यकारों के साथ-साथ नए लेखकों को भी प्रकाशन का भरपूर अवसर प्रदान किया जाता है। विशेष रूप से बच्चों की रचनाएँ और उनके बनाए हुए चित्रों को प्रकाशित किया जाता है।पत्रिका के बैनर पर समय-समय पर होने वाली बच्चों की कार्यशालाओं के माध्यम से उनकी रचनाधर्मिता को आगे लाने का अवसर भी प्रदान किया जाता है।

                  शाहजहाँपुर से डाॅ0 नागेश पांडेय 'संजय'के संपादन में वार्षिक बालप्रभा पत्रिका प्रकाशित हो रही है। अब तक इसके कई अंक प्रकाशित हो चुके हैं जिन्हें बराबर सराहना मिलती रही है। पत्रिका आवरण से लेकर अंतिम पृष्ठों तक बच्चों के अनुकूल प्रकाशित हो रही है। धरोहर के रूप में कई वरिष्ठ बालसाहित्यकारों की रचनाएँ प्रकाशित करके संपादक ने अपनी सार्थक सोच वृहत्तर आयाम दिया है।इस पत्रिका का भविष्य उज्ज्वल है।

             दिल्ली प्रेस से प्रकाशित सुमन-सौरभ किशोरों की पत्रिका है। इसमें किशोरों पर केन्द्रित अलग-अलग मूड्स की कहानियांँ आकर्षण साज-सज्जा के साथ प्रकाशित होती हैं। कभी-कभी विश्व में प्रचलित कहानियों को भी आज के परिवेश में ढालकर प्रस्तुत किया जाता है। दिल्ली प्रेस की अपनी कुछ रीतियांँ और नीतियाँ हैं उसी के तहत इसमें रचनाएँ स्थान पाती हैं। एकमुश्त धनराशि के एवज में रचनाओं का काॅपीराइट बेचने वाले लेखक ही सुमन सौरभ में स्थान पा सकते हैं। इस पत्रिका में कविताएँ नहीं छपती हैं। कभी-कभी रोचक जानकारियाँ देने वाले आलेख अवश्य छप जाते हैं। 

                  

उ0प्र0 हिन्दी संस्थान, लखनऊ से प्रकाशित होने वाली बच्चों की प्रिय पत्रिका बालवाणी पहले मासिक थी। लगातार पाँच वर्षों तक प्रकाशित होने के बाद इसका प्रकाशन बंद हो गया था। बाद में इसे द्विमासिक के रूप में प्रकाशित किया गया। सरकारी प्रकाशन होने के नाते उ0प्र0 हिन्दी संस्थान लखनऊ के कार्यकारी अध्यक्ष इसके मुख्य संपादक/प्रधान संपादक, निदेशक प्रबंध संपादक तथा प्रधान संपादक/संपादक इसके संपादन का दायित्व निर्वहन करते हैं। 

                 इस समय प्रो0 सदानंद प्रसाद गुप्त के मुख्य संपादन में बालवाणी सचित्र, रंग-बिरंगी, आकर्षक कलेवर वाली तथा विविध रचनाओं से परिपूर्ण लगातार प्रकाशित हो रही है। इसके स्मरण और धरोहर स्तंभ ऐसे दिवंगत रचनाकारों की याद दिलाते हैं जिन्होंने बच्चों के लिए महत्वपूर्ण साहित्य का सृजन किया है। कविताओं और कहानियों के अतिरिक्त इसमें ज्ञान-विज्ञान, चित्रकला, बच्चों की तूलिका, वर्ग पहेली जैसे स्तंभों में विविधतापूर्ण बालसाहित्य प्रकाशित होता है। बच्चों की लेखनी को भी भरपूर प्रोत्साहन देकर बालवाणी एक नई जमीन तैयार कर रही है। 

                  भोपाल से प्रकाशित बच्चों का दुपहिया साइकिल तथा प्लूटो पत्रिकाएँ एक नई  सोच के साथ लगातार प्रकाशित हो रही हैं। प्लूटो छोटे बच्चों की पत्रिका है तो साइकिल में थोड़े बड़े बच्चों को केन्द्र में रखकर रचनाओं का चयन किया जाता है। आकर्षक साज-सज्जा और रंग-बिरंगी प्रस्तुतियाँ दोनों पत्रिकाओं की विशेषताएँ हैं। इनमें आजकल के बच्चों के मनोविज्ञान पर आधारित नए-नए विषयों पर संपादक बालसाहित्यकारों से रचनाएँ आमंत्रित करके प्रकाशित करते हैं जिन्हें भरपूर सराहना मिलती है। प्रकाशन संस्थान की ओर से बच्चों के लिए अनेक कार्यशालाएँ भी आयोजित की जाती हैं जिसमें रचनाधर्मिता के रुचिकर नमूने देखे जा सकते हैं।

                   इस प्रकार प्रारंभ से लेकर आज तक की बालपत्रकारिता में अनेक पड़ाव आए हैं परंतु दुख की बात है कि हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य समीक्षकों ने अपने इतिहास ग्रंथों में बालसाहित्य और बालपत्रकारिता को कोई महत्त्व नहीं दिया। धीरे-धीरे समय बदला और परिस्थितियों ने भी पलटी खाई। अब हिन्दी बालसाहित्य दोयम दर्जे से उबरकर मुख्य धारा में आ गया है। बालपत्रकारिता पर भी न केवल चर्चा शुरू हुई अपितु बालपत्रकारिता का इतिहास भी पुस्तकाकार सामने आया। और छपकर आते ही उस पर लोगों का ध्यान भी गया। कई विश्वविद्यालयों ने भी बालपत्रकारिता को अपने पत्रकारिता विषयक पाठ्यक्रमों में सम्मिलित करके प्रशंसनीय कार्य किया। अब स्थिति यह है कि बालपत्रकारिता की अवहेलना करना आसान नहीं रह गया है।

                   जिस प्रकार बालसाहित्य के मूल्यांकन के अपने मानदंड हैं उसी प्रकार बालपत्रिकाओं के मूल्यांकन की भी अलग कसौटी है। बालपत्रकारिता का यह लंबा सफर अनेक सवालों से जूझता हुआ इस मुकाम पर पहुँचा है। आज जो भी बालपत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं उनमें से अधिकांश ने अपने को बालसाहित्य की मुख्य धारा से जोड़ लिया है। उसमें भरपूर रोचक सामग्री के साथ चित्ताकर्षक और नयनाभिराम चित्रों का संयोजन है। आज के मल्टीमीडिया युग में बहुरंगी चित्रों का चयन और चलन आसान हो गया है। अब कई बालपत्रिकाएँ इण्टरनेट पर उपलब्ध हो गई हैं, ऐेसे में संपादकीय कौशल से बालपत्रिकाओं को जनसुलभ कराना आसान हो गया है।

                     आज बालपत्रिकाओं ने बच्चों की बदलती भाषा को भी अच्छी तरह पकड़ लिया है। विशेष रूप से अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों का भी हिन्दी के प्रति अनुराग जगाना बालपत्रिकाओं का मुख्य उद्देश्य हो गया है। बोझिल भाषा और थोपी गई शब्दावली को नकारकर बच्चों को सहज और सरल भाषा में जानकारी देना बालसाहित्यकारों ने अपना लक्ष्य बना लिया है। आज प्रचलन में आए दूसरी भाषाओं के शब्दों को भी रचनाओं में पिरोकर बालपत्रिकाओं में प्रकाशित किया जा रहा है। 

                    आज बालपत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं की विषयवस्तु पर बहुत ध्यान दिया जा रहा है। अब बालसाहित्यकारों ने इस तथ्य को अच्छी तरह समझ लिया है कि आज का बच्चा यथार्थ की दुनिया में साँस ले रहा है। अतः उसे यथार्थवादी रचनाएँ ही दी जानी चाहिए। मात्र आदर्श की घूँटी पिलाना एवं हवाई कल्पना के महल बनाना आज के बालसाहित्य का उद्देश्य बिलकुल नहीं होना चाहिए। 

                  व्यावसायिकता के इस दौर में बहुरंगी, आकर्षक और नयनाभिराम बालपत्रिकाएँ निकालना हँसी-खेल नहीं है। केवर पूँजीपति या बड़े व्यावसायिक संस्थान ही ऐसी बालपत्रिकाएँ निकाल सकते हैं। यह बात बिलकुल सत्य है कि बच्चों के मस्तिष्क पर पत्रिका के गेट-अप और सामग्री का गहरा प्रभाव पड़ता है। वह बहुरंगी और आकर्षक बालपत्रिकाएँ ही पढ़ना चाहता है। 

                    अंत में, यह कम चिंता की बात नहीं है कि लगभग एक करोड़ तीस लाख की आबादी वाले भारत देश में हजार तो क्या ढंग की सौ बालपत्रिकाएँ भी नियमित प्रकाशित नहीं होती हैं। कुछ लोग अपने दम पर बिना सरकारी सहयोग के बालपत्रिकाएँ निकालने का जोखिम जरूर उठाते हैं, मगर दो-चार अंक निकालकर थक-हारकर इसलिए बैठ जाते हैं कि न तो वे सदस्य बना पाते हैं और न ही बालपत्रिकाओं की काउंटर पर कोई बिक्री होती है। नि:शुल्क और लेखकीय प्रतियाँ देकर धीरे-धीरे संपादक का जोश ठंडा हो जाता है। उन्हें न तो कोई सरकारी सहायता मिलती है और न ही सामाजिक संस्थाएँ उनका कोई सहयोग करती हैं।

                   

महँगाई के इस दौर में बालपत्रिकाओं के भविष्य को अगर सुरक्षित रखना है तो सरकारी स्तर पर बालपत्रिकाएँ निकालने के लिए सब्सिडी दी जानी चाहिए उन्हें सरकारी/गैर-सरकारी विज्ञापन भी भरपूर मात्रा में मिलने चाहिए। बालपत्रिकाओं के मुद्रण के लिए विशेष प्रबंध किए जाने चाहिए। इस दिशा में काम करने के लिए कुछ उत्साही और बच्चों के लिए समर्पित लोगों और संस्थाओं को भी आगे आना चाहिए ताकि बालसाहित्य और बालपत्रकारिता का मार्ग प्रशस्त हो सके।


*- डॉ0 सुरेन्द्र विक्रम*

एसो0 प्रोफेसर एवं अध्यक्ष

हिन्दी विभाग

लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज

लखनऊ (उ0प्र0)-226018


*आवास-*


सी-1245,एम0आई0जी0

राजाजीपुरम लखनऊ (उ0प्र0) -226017

मोबाइल नंबर

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