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एक था उर्दू बाजार / विवेक शुक्ला



उर्दू बाजार में चहल-पहल का  मंजूर है।  उधर जामा मस्जिद से अजान की आवाज सुनाई दे रही  है।  उस भीड़- भाड़ भरे माहौल में उर्दू के नामवर शायर बशीर बद्र और गुलजार देहलवी गप-शप कर रहे हैं। देहलवी साहब इसरार कर रहे हैं बशीर बद्र से कि वे बुंदू मियां का पान खाकर ही लें। बुंदू मियां के पान के साहब क्या कहने होते थे।उर्दू बाजार में इस तरह के नजारे दस-पंद्रह साल पहले तक रोज दिखाई दे जाते थे। यहां उर्दू के शायर,लेखक,उपन्यासकारऔर विद्यार्थी नई किताबों की तलाश में कुतुब खानों ( किताबों की दुकानों) की खाक छान रहे होते थे। ये यहां से झोला भरकर किताबें लेकर जाते थे। 


उर्दू बाजार को ना जाने किसी की नजर लग गई। अब यहां पर किताबों की दुकानें तेजी से खत्म हो रही हैं। उनकी जगह ले रही हैं कबाब, चिकन, टिक्का  बेचने वालों की दुकानें। दिल्ली के आसपास के शहरों से भी शब्दों के शैदाई उर्दू बाजार में फिल्मी पत्रिकाओं से लेकर इब्ने सफी, मंटो, किशन चंदर, प्रेमचंद और दूसरे लेखकों की  किताबों को लेने आया करते थे। इधर के कुतुबखानों में रौनक लगी रहती थी। 


 अब हरेक कुतुब खाने वाला बस यही कह रहा है कि  पहले जैसे उर्दू पढ़ने वाले नहीं रहे । इसलिए उनका धंधा अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। कमबख्त कोरोना ने कुतुबखानों के बचे – खुचे काम की भी जान  निकाल दी है। पहले जामा मस्जिद में आने वाले  टुरिस्ट भी उर्दू बाजार में आकर कुछ खरीददारी तो कर लिया करते थे। उर्दू बाजार में उर्दू की सेकिंड हैंड दुर्लभ किताबें भी बिका करती थीं। पर सोशल मीडिया के दौर में लोग किताबों से दूर हो रहे हैं। ये  सेल्फी और फेसबुक पर लाइक  का दौर है।


उर्दू बाजार बेशक दिल्ली-6 की सियासी  हलचल का भी केन्द्र था। यहां पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी,समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के भी दफ्तर हुआ करते थे। इनके नेताओं में वैचारिक मतभेद हुआ करते थे,पर बातचीत होती रहती थी। कभी-कभी  एम.ओ.फारूकी(भाकपा), मीर मुश्ताक अहमद ( कांग्रेस) और दूसरे नेता किसी कुतुबखाने के बाहर खड़े मिल जाते थे। वे दुनिया- जहां  की बातें कर रहे होते थे। अफसोस  वे बातें अब गुज़रे जमाने की हो गई हैं।


 उर्दू बाजार के कई कुतुब खाने वाले फख्र के साथ बताते हैं कि उनके पास जोश मलीहाबादी से लेकर राजिंदर सिंह बेदी भी आया करते थे। यहां पर ही मंटो और किशन चंदर ने ना जाने कौन- कौन सी किताबें खरीदी थीं।


दरअसल हर शाम उर्दू बाजार के पास सुलेमान टी स्टाल पर शायर और अदीब रात 12 बजे तक बैठकी करते थे। ये जामा मस्जिद में करीम होटल के ठीक साथ में होता था। इसे सुलेमान साहब चलाते थे। इधर दिल्ली के मुशायरों की जान  कैसर हैदरी, कुंवर महेन्द्र सिंह बेदी, मुख्तार उस्मानी, सहर इश्काबादी, हीरालाल फलक, मुशीर झुंझानवी जैसी हस्तियां आती थीं। ये शायर एक-दूसरे को अपने ताजा कलाम और गजलें सुनाते और उन्हें बेहतर करते  थे। 


इन्हें जिस दिन किसी मुशायारे में जाना होता था तो ये कुर्ता-पायजामा और नेहरू जेकेट या शेरवानी पहनकर ही आते थे। यहां से कड़क चाय के साथ कुछ खाकर सब लोग टैक्सी में मुशायरे में शामिल होने के लिए निकलते थे।  अब सुलेमान टी स्टाल  बंद हो चुका है। ये 1947 से  चल रही थी! इसके स्पेस को करीम होटल ने खरीद लिया था।


 सुलेमान टी स्टाल से कुछ ही दूरी पर कल्लन होटल भी था। वहां भी दिल्ली-6 के समाज सेवी से लेकर बुद्धिजीवी ताजा घटनाओं पर सुबह से शाम तक गुफ्तुगू किया करते थे। इन सबके हाथों में उर्दू बाजार से खरीदी कोई पत्रिकाएँ या किताबें हुआ करती थी। अब वह भी तो नहीं रहा। अब उर्दू बाजार में  किताबों की खुशबू नहीं बल्कि  नान वेज डिशेज की महक आती है। दिल्ली यहां पर मेट्रो रेल से आती है लजीज डिशेज  के साथ इंसाफ करने।


 उर्दू बाजार 1857 से पहले आबाद हो गया था। इसे गदर में तबाह कर दिया गया था। इधर ही चचा गालिब अपने बल्लीमरान के घर से नई किताबों को देखने और खरीदने के लिए आते थे। जरा सोचिए कि वे क्या दिन होते होंगे। पर अब वो सब गुजरे दौर की बातें हो गईं हैं।


 विवेक शुक्ला,नवभारत टाइम्स (साड्डी दिल्ली) 20 जनवरी, 2022 में छपे लेख के अंश.


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