वह भोपाल में रहता है । उम्र है लगभग 37 साल । सिर पर उस जाली वाली टोपी को पहने रखता है जिसके नाम पर कुछ लोग अपनी नफरती दुकान चलाते हैं । बेशक बिना मूछ के दाढ़ी भी रखता है । कपड़े भी वही हैं जिन्हें बड़े भाई के कुर्ते और छोटे भाई के पायजामे की उपाधि दी जाती है । काम भी बढईगिरी का करता है ।विगत पांच फरवरी की शाम वह नमाज़ पढ़ कर भी लौट रहा था जब यह वाकया पेश आया । बरखेड़ी इलाके में एक तीन वर्षीय बच्ची अपने माता पिता का हाथ छुड़ा कर रेल की पटरियों के बीच जा गिरी और ऊपर से ट्रेन आ गई । आस पास बहुत लोग थे मगर खुद को असहाय महसूस कर रहे थे । लेकिन वह युवक न जाने किस मिट्टी का बना था जो बिना डरे पटरियों पर पहुंच गया । समय कम था और एक मालगाड़ी आ गई । बच निकलने का कोई रास्ता न देख वह युवक बच्ची को लेकर पटरियों के बीचों बीच लेट गया और सिर नीचे कर बच्ची की जान बचा ली ।
भोपाल के इस युवक का नाम है मोहम्मद महबूब । महबूब ने जिस बच्ची की जान बचाई उसकी जाति और धर्म किसी को नहीं मालूम । कोई नेता भी मौके पर नहीं था, जो यह तहकीकात करता । महबूब भी बच्ची को उसके मां बाप के हवाले कर अपने घर चला गया । बच्ची का धर्म पूछने की जरूरत उसे भी पेश नहीं आई । यदि इसकी वाकई जरूरत वह महसूस करता तो अवश्य ही पटरियों पर कूदने से पहले ही बच्ची से पूछ लेता । गनीमत है कि इस मुल्क में अभी तक तीन साल की उम्र का लिबास भी ऐसा नहीं होता कि किसी बच्ची का धर्म पता चल सके । खैर, महबूब बिना किसी शिनाख्त के अपने घर लौट गया मगर तमाशबीनों द्वारा बनाई गई इस घटना की वीडियो सफर पर निकल पड़ी और आज महबूब को पूरा मुल्क जान गया है ।
इसमें कोई दो राय नहीं कि यह देश महबूबों से भरा पड़ा है । सच बात तो यह है कि इन महबूबों का कोई नाम भी नहीं होता । ये महबूब भी हो सकते हैं मुकेश भी । मनेंद्र सिंह भी हो सकते हैं और माइकल भी। इनकी जाति धर्म तो हम जैसे नादान ही ढूंढते हैं । होता बस इतना है कि एक इंसान को तकलीफ में देख कर दूसरे आदम जात के दिल में भी हूक उठती है और फिर कुछ यादगार हो जाता है। हर पल, हर कदम और हर जगह ऐसा हो रहा है । मगर कुछ लोग ऐसे हैं जो इस सत्य को स्वीकार ही नहीं करना चाहते । आदमी और आदमी के बीच बंटवारे की बात किए बिना उन्हें रोटी ही हजम नहीं होती । ये कपड़ों से आदमी को पहचानने की बात करते हैं । इन्हे सबका संख्या बल पता है कि कौन अस्सी है और कौन बीस । दूसरों की गर्मी निकालने का भूत भी इन्हीं के सिर पर सवार होता है । चुनावों की बेला में ये सब खेल वे लोग खूब करते हैं । आजकल तो यह मजमागिरी बेइन्हा ही हो रही है । क्या छोटा और क्या बड़ा , हर कोई इसी के इर्द गिर्द घूम रहा है । मगर वाह री इंसानियत , तेरी लाठी भी बे आवाज है । तू भी चुपके से अपनी बात कहती है । इस बार भी तो तूने यही किया और झूठों को आईना दिखाया । शायद तूने भी कुछ सोच कर इस बार अपना संदेश किसी महबूब के जरिए हम तक पहुंचाया । और वह भी उस सभी प्रतीक चिन्हों के साथ जिस पर सुबह शाम जहर उगला जाता है ।