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1/
मधुर महुए का
मुग्ध गंध-गीत
गूँज रहा घाटी में
आज पुन:, मीत !
चहचहा रहीं
रुपहली किरणें सतरंगी,
सपने देखे होंगे
किसी वय किशोर ने;
भोली उम्मीदों ने
ली होंगी अंगड़ाई,
बाँसुरी बजायी है
सोनाली भोर ने;
शोर हो रहा हल्का-हल्का
दिशाओं में,
पात-पात, शाख-शाख
बाँच रही प्रीत.
शरमाओ मत,
देखो, वक्त बहुत नाजुक है,
पल भर में मौसम का
रंग बदल सकता है,
इस दौर में और
यकीं कहाँ खुद पर भी
क्षण भर में
सोचने का ढंग बदल सकता है;
मन को मन से मिलकर
मन की कर लेने दो,
नहीं तो समय
सत्वर जाएगा बीत.
2/
मूल्यों के संक्रमण काल में
क्या कुछ सिखती है?
यार! तुम्हारी कविता
बिलकुल कविता दिखती है।
किसी अजायबघर के
वस्त्रों की कुछ अनुकृति-सी
पहन टहलती है चहुँदिशि
चौकों-चौराहों पर;
देश-काल की बात चले तो
भजन सुनाती है,
अक्सर मिल जाती है
मंदिर में, दरगाहों पर;
पता नहीं किसको संबोधित,
पर मैंने देखा,
आवेदन-सा हरदम
वह कुछ लिखती रहती है।
पता नहीं तुम क्या सोचोगे
पर मैं तो चाहूँ
मेरे गीत दिगम्बर होकर
ताण्डव नृत्य करें;
विजय! व्यवस्थाएँ कंपित हों
उनके गायन से,
वे चैतन्य अराजक जैसा
मौलिक कृत्य करें;
ठकुरसुहाती गाकर तुम
किसको बहलाओगे?
सत्ता एक बिकाऊ शय है,
हरदम बिकती है।
राजपथों पर चलकर कविता
कहीं न पहुँचेगी,
उसको अपने पंथ विनिर्मित
करने पड़ते हैं;
फूट रहे छाले पग के
पर चलना पड़ता है,
जलते अंगारे होठों पर
धरने पड़ते हैं;
शुद्ध स्वर्ण-सा तप-तपकर
जब अग्नि-बीन कविता
बन जाती है तभी कसौटी
पर वह टिकती है।
- 3/
-चैन की बीन बजाता
निर्भय गाँव-नगर हो,
अमराई के बीच हमारा
छोटा-सा इक घर हो.
जुते हुए उर्वर खेतों में
अंकुर अभिनव फूटे,
विश्वासों की थाती कोई
नहीं किसी की लूटे;
चारा चुगती हुई चहकती
चिड़िया के अंतर में
किसी ओर से किसी तरह का
नहीं कहीं कुछ डर हो.
पवन चले तो पकी बालियाँ
सोनाली बलखायें,
निरख-निरख दहकान उल्लसित
पहरों नहीं अघाए;
मन ही मन मुस्काये गोरी
पाती पा प्रियतम की,
वृन्दावन की कुञ्ज गली-सा
प्रेमिल डगर-डगर हो.
किलकारी-कल्लोल, खनकती
हँसी रहे आँगन में,
रात दिवाली, दिवस दशहरा,
जैसे फागुन मन में;
पहन गुलाबी साड़ी सर्दी
जाए घर मधु-ऋतु के,
उड़ता रहे गुलाल वर्षभर,
व्रज-भू शहर-शहर हो.
4/
: दुनिया तो ऐसी ही है, जी,
इसको लेकर अब क्या रोना ?
चलो, करें कुछ ऐसा जिससे
साधु यहाँ फिर छला न जाए .
पट्टी बांध दृगों पर अपने
अधिकाधिक जन दौड़ रहे हैं,
जहाँ ठहरना था उनको वे
उसी जगह को छोड़ रहे हैं;
सबको पीछे करनेवाले
सबसे पीछे हुए जा रहे,
छाले फूट रहे पाँवों के
और अधिक अब चला न जाए.
खेल साँप-सीढ़ी का दिन-दिन
दूर-दूर तक आम हो रहा,
बहुत कठिन है पता लगाना
किसका कैसे काम हो रहा;
चढ़ मचान पर चतुर शिकारी
बकरी को यह सिखा रहा है,
'जगी रहो औ'रव करती रह,
पता नहीं कब शेर आ जाए'.
क्षत प्रणालियों के विवरों से
काले धन का जल बह-बहकर
कीचड़ बनकर पसर रहा है,
कोई कितना चले संभलकर?
कर कंगन तो नहीं, आरसी
लेकर घर-घर घूम रहे हैं,
अच्छे दिन के इस्तहार के
सांचे में अब ढला न जाए.
5/
: आज चाँदनी चहक रही है,
मन की बात कहो;
नदी बनो, मेरे मन-मरु से
होकर विकल बहो.
जीवन है तो लगी रहेंगी
दुख-सुख की बातें,
अमां-यामिनी कभी, कभी तो
शुचि राका-रातें;
ध्यान रहे पर मरुथल हो या
शस्य-श्याम धरती,
साथ न छूटे अपना
ऐसे कसकर भुजा गहो.
पाप-पुण्य कुछ नहीं
विसंगति-संगति स्वीकृत पथ से,
अपने पंथ बनाते पुंगव
पैदल हों या रथ से;
हानि-लाभ, यश-अपयश द्वय में
सुस्थिर चित्त रहो.
ईश मंच पर कुछ नहीं करता,
बस उपकरण सजाता,
अपनी क्षमताभर हर वादक
अपने वाद्य बजाता;
नियत समय है मिला सभी को,
विभ्रम में न रहो.
5/
बावली, सुबह-सुबह ही मैंने एक तमाशा देखा,
गर्दभ के सिर सिंघ उगे थे, रवि के हाथ बतासा देखा.
हरिश्चंद्र के वंश-वृक्ष की हेम-कुसुम-सी मंजुल बधुएँ
हाथों में हथकड़ियाँ पहने कारा की दिशि चली जा रहीं;
कोई कहता कठिन काल है, कोई कहता करनी-भरनी,
कुछ कहते हैं असुरों के कर निज इच्छा से छली जा रहीं;
राजपथों से दूर नगर की एक बहुत संकीर्ण गली में
छोटे-से इक घर के भीतर पसर रहा सन्नाटा देखा.
पर्वत के उत्तुंग शिखर से अंचल की गहरी घाटी तक,
कांसा जैसे पिघल रहा हो, एक नदी बहती आती है;
कुछ कहते हैं पलाश फूले, कुछ कहते हैं दावानल है,
कुछ कहते हैं प्रकृति कातर अग्नि-कथा कहती जाती है;
नये नृपति के राजमहल में देश-देश के वणिक जुटे हैं,
कल वसुंधरा की बोली है, बजता ढोल औ'ताशा देखा.
मेरे बेटे ने सिलवाया सूट नया बखरी बंधक रख,
कहता है वह भी जाएगा क्योंकि खुली हुई बोली है;
माँ ने समझाया तो बोला, "एक चांस लेना ही होगा,
रिस्क नहीं तो गेन नहीं है,माँ! तुम तो अब भी भोली है."
मैं कुछ समझ नहीं पाता हूँ, शायद सठियाता हूँ मैं अब,
सच कहता हूँ अपने भीतर उगती एक हताशा देखा.
# 6/
व्यसनी होते हम गये स्वयं कुछ लोक-लुभावन नारों के,
हम जाति-धर्म में बंटे हुए मोहरे बने सरकारों के.
जनतंत्र धूर्त कम्पनियों के उत्पादों के रैपर जैसा
ऊपर से बहुत लुभाता है,
जन-गण लेकिन क्रेताओं-सा इक बार परखने के भ्रम में
हर बार ठगा रह जाता है;
हम वेद-उपनिषद वाले थे, साधारण पुस्तक भी न रहे,
अब पन्ने हैं अख़बारों के.
हर पांच वर्ष पर नियमित ही हम धूम-धाम से, श्रद्धा से
इक महायज्ञ-सा करते हैं,
चुनते हैं निज प्रतिनिधियों को जो झूठे वादों के बल पर
हर बार हमें ही छलते हैं;
कैसी विडम्बना यहाँ, बन्धु! देवी कानून-विधानों की
लूटी जाती रखवारों से.
चाहे जिस दल की सत्ता हो, आयी चाहे जिन वादों पर,
अन्तर न व्यवस्था के रुख में,
चाँदी सरमायेदारों की, बहुरूपियों और दलालों की,
बेबस-गरीब हरदम दुख में;
यह चारागाह धन-पशुओं का, इसकी हरियाली कायम है
पी रक्त-स्वेद लाचारों के.
चहुँओर शोर कुछ ऐसा है सचमुच जैसे भारत-भू पर
त्रेता युग फिर से उतर रहा,
सच्चाई इसके उलट मगर, निजता की गरिमा के पन्ने
सुनियोजित शासन कुतर रहा;
ऐसे अच्छे दिन आये हैं इंसा अपमानित यहाँ और
अर्चन मूर्तियों-मजारों के.
वह संविधान जिस पर उदग्र इस लोकतंत्र का महल खड़ा,
हाथी के दांत बना केवल,
जातियों-धर्म की सेनाएँ हर ऐसे-वैसे मुद्दों पर
अब तोल रहीं हैं उसका बल;
अंतिम चिराग़ न्यायालय हैं, जो बने अखाड़े लगते हैं
अब नये सियासी जारों के.
# 7/
भेड़ -बकरियों ने मिल कर है
मारा बब्बर शेर-
जमाना बदल गया है.
नागनाथ को अपने विष पर
इतना अधिक गुमान
डंस ना डाले, थर-थर कांपे
सचमुच सकल जहान;
मगर नेवले की हिम्मत की
देनी होगी दाद,
रगड़-रगड़ कर फन
विषधर को
कर ही डाला ढेर-
जमाना बदल गया है.
बूढ़ा था गजराज
मगर किसकी हिम्मत ललकारे,
पर संयोग कि
पहुँचा इक दिन गहरे खड्ड किनारे,
बंदर ने इक कंकड़ मारा-
हाथी जी गड्ढे में,
घात लगाये गीदड़ दल ने
तनिक न की अब देर-
जमाना बदल गया है.
कस्तूरी मृग की गति तो
हरदम ईर्ष्या का कारण,
विफल हो चुके मंत्र सकल
मोहन-उच्चाटन-मारण;
पर प्रतिकूल समय तो
कोई कबतक खैर मनाए,
वन्य श्वान दल ने आखिर,
हाँ, लिया उसे भी घेर-
जमाना बदल गया है.
इतने पुंगव नहीं रहे तो
जंगल का क्या होगा?
(उनके वंशज घास चरेंगे
जिसने हर सुख भोगा?)
उनको, इनको नहीं पता कुछ,
पता नहीं कुछ मुझको,
लेकिन तय है, रस्ता तो
निकलेगा देर-सबेर-
जमाना बदल गया है.
# 8/
: सूख जाता है नदी का स्रोत जैसे,
अकड़ जाती हैं उँगलियाँ शीत से,
सृजन की सब प्रेरणाएं हिम हुई हैं,
आँच दो, मनमीत, अपने प्रीत से.
संक्रमण का काल यह, इस प्रहर में
सत-असत का भेद कर पाना कठिन,
काँच हीरे-सा चमकता है, प्रिये!
और हीरा काँच जैसा लग रहा;
इक रुपहला-सा कुहासा व्याप्त है
वीथियों में, विपिन, पुर, आकाश में;
युग स्वयं अरि बन उपस्थित हो गया,
विजय मुश्किल है पुरानी रीति से.
छेद करना नभ में कुछ आसान है,
सरल चलना है नदी की धार पर,
किन्तु लड़ना उनसे दुष्कर है, प्रिये!
धमनियों में जिनकी अपना रक्त हो;
कौन चाहेगा दुबारा हो यहाँ
महाभारत इस धरा के वक्ष पर ?
कर मुनादी, क्लीव अर्जुन हो गया,
राग उसको नहीं रक्तिम जीत से.
# 9/