पत्रकारिता का यह संक्रमण काल है। बात हम विद्यार्थी जी की करते हैं और आचरण हमारा रूपक मर्डोक की तरह है। यह दोग्लपन हम पत्रकारों का नहीं बल्कि मीडिया हाउस के मालिकों का है। ऐसे में कोई पत्रकार कैसे विद्यार्थी जी जैसा पत्रकार बने, यह सवाल बड़ा है। जब तक नकेल मीडिया मुगलों के हाथ में है, तब तक कोई क्रांति, कोई विद्यार्थी, कोई पराड़कर या बाबा बनने की बात सिर्फ कपोल कल्पना है। हम साथियों पर खबर बेचने और बिक जाने का आरोप अब सारे आम है लेकिन क्या कभी किसी ने पत्रकारों के घर जाकर देखा है? शायद नहीं।
आज समाज और देश में जो शुचिता है, वह कर्मठ पत्रकारिता के कारण है। हमारे साथी भले ही विद्याथी ना दिखते हों लेकिन बीज उन्हीं का बोया है। पत्रकारिता में आने वाले लोगों के दिल में समाज और देश के लिये पीड़ा होती है। जज्बे और जूनून के कारण हमें लगता है कि यही एक जरिया शेष है, जहां से हम गरीबों, पीड़ितों की लड़ाई लड सके।
तमाम दुश्वारियों के बाद भी आज किसी का भय है तो वह पत्रकारिता है जिसे हमारे पुरखों ने सिंचा है। आज विद्यार्थी जी का पुण्य स्मरण करते हुए हम समाज को आश्वस्त कर सकते हैं कि पत्रकारिता हमेशा उसुलों की लड़ाई लडती रहेगी।
🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿सच जिंदा रहें 🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿