जब जोर शोर से विकास की बात होती है तो अंग्रेजीदां एनजीओ-बाज़ जोर शोर से सस्टेनेबल डेवलपमेंट का जुमला भी उछालते हैं। ये सस्टेनेबल डेवलपमेंट, उस विकास को कहते हैं जो स्थायी हो। इस सस्टेनेबल डेवलपमेंट के आने से समृद्धि तो आती है, लेकिन ये भारतीय कुबेर टाइप नहीं होता, कुछ कुछ लक्ष्मी जी टाइप होता है। इसके आने पर पुराना कुछ जाता नहीं, नया आकर परंपरागत में और जुड़ जाता है, एक्स्ट्रा हो जाता है। शुरू के सालों में इसे अपना कर खुश होने वाले दस साल बाद ग्रीन रिवोल्यूशन में खुश हो रहे किसानों जैसा अपना सर नहीं धुन रहे होते। आत्महत्या भी नहीं करते।
ये एक आश्चर्य ही है कि साहित्य, कला, फिल्मों में जब किसानों का शोषण करने वाले ठाकुर-लाला-पंडित कि तिकड़ी होती थी उस दौर में किसान खुद-कशी करता नहीं सुनाई देता था। पता नहीं कैसे कोआपरेटिव, बैंक, उन्नत बीजों वाली विदेशी कंपनियों और बिजली से सिंचाई के दौर में वो मरने भी लगा है। किसानों के खेती छोड़ने और शहरों की ओर पलायन में भी बढ़त ही होती रही है। कहा जा सकता है कि विकास तो हुआ मगर ये विकास की नहर कुछ चुनिन्दा फार्म हाउस से होती निकली है, आम गरीब किसान तक इसका पानी नहीं पहुंचा। उस से भी मजेदार है कि भारत की करीब पचास प्रतिशत आबादी को खेती पर निर्भर बताने वाले अखबारों के पहले पन्ने पर खेती से जुड़ा कुछ भी नहीं छपता।
सच कबूलने की हिम्मत ना होने की वजह से सस्टेनेबल डेवलपमेंट कैसे “विकास” की भेंट चढ़ता है ये देखना हो तो तालाब ढूंढिए। परंपरागत रूप से तालाब गावों या शहरों में मंदिर की सम्पति होती थी। उसके रखरखाव का जिम्मा भी स्थानीय पुजारी का ही होता था। अब जब ज्यादातर को पाट कर उसपर बहुमंजिला इमारतें बन चुकी हैं तो उसका नुकसान भी साफ़ साफ़ दिख गया होगा। ये हुआ कैसे ? सबसे पहले तो १८१० के दौर में अंग्रेजों ने मंदिरों की संपत्ति को सरकारी संपत्ति घोषित कर के कानूनी तौर पर हड़पना शुरू किया। स्थानीय ब्राह्मण / पंडित के पास जब तालाब के अधिकार नहीं रहे तो जिम्मेदारी भी नहीं बची। जमीन उसके पास पहले ही नहीं थी, तो वो शहरों की तरफ पलायन करने लगा।
जैसे जैसे अंग्रेजों के पास भारत का ज्यादा हिस्सा आता गया वैसे वैसे तालाब और जलस्रोत गायब होते गए। इसका नतीजा भयानक अकालों के रूप में भारत ने झेला भी, लेकिन उस दौर में ऐसे विषयों की कोई जांच होती नहीं थी। फिरंगियों को भी भूखे मरते हिन्दुस्तानियों से कोई लेना देना नहीं था तो बात आई गई हो गई। आजादी मिलने के फौरन बाद की एक घटना ने एक क्षेत्र विशेष पर अपना असर दिखाया। गांधी की हत्या हो गई थी और मारने वाले के नाम में गोडसे था। महाराष्ट्र के ब्राह्मणों पर फौरन इसका असर पड़ा। अहिंसावादी गाँधी के अनुयायियों के कहर से बचने के लिए ब्राह्मण अपना घर-संपत्ति छोड़कर, जैसे तैसे जान बचाकर भागे। बेकार इनकार मत कीजिये, गाँधी की हत्या के बाद के ब्राह्मण विरोधी दंगे रिकार्डेड हिस्ट्री होते हैं।
इसका नतीजा ये हुआ कि अचानक से नहरों, तालाबों और जलस्रोतों के रखरखाव के लिए गावों में कोई नहीं बचा। विदर्भ-महाराष्ट्र के इलाकों के दर्जनों मालगुजारी तालाब सूख कर ख़त्म हो गए। पालीवाल ब्राह्मणों के जल संरक्षण के डिजाईन को खादीन कहा जाता था, और ये जैसलमेर के इलाकों में शुरू हुआ था। गुजरात और महाराष्ट्र में भी इसी का थोड़ा सा बदला रूप इस्तेमाल होता था, जो अब नहीं मिलेगा। थोड़ा ढूँढने का मन हो तो धुले और नासिक जिलों में तापी नदी के इलाकों छोटी नदियों को देखा जा सकता है। पंझारा, मोसम जैसी नदियों पर एक किस्म का चेक डैम बनाया जाता था जो कि स्थानीय समुदाय बनाता था और वही देखभाल भी करता था। अब गायब हो चले हैं, लेकिन मिल जायेंगे।
ट्रेन से जब पानी महाराष्ट्र भेजा जाता है तो हमें कोई आश्चर्य नहीं होता। मिशनरी फण्ड खाकर किसी कल्पित विकास की दौड़ लगाईं गई है। समाज के हर हिस्से का अपना योगदान होता है ये भूलकर सिर्फ मेरा घर कैसे भरे भी नहीं, पडोसी कैसे भूखा मर जाए, ये सोचने में समय और मेहनत खर्च हुई। अगले सौ साल कैसे कटेंगे ये सिर्फ महाराष्ट्र को ही नहीं सोचना, पानी की कमी लगभग पूरे भारत के मैदानी क्षेत्रों में शुरू हो चुकी है। ये पूरे भारत के लिए सस्टेनेबल डेवलपमेंट का नहीं अब सस्टेन करने का मामला है।
काफी पहले की बात है जब हमारे एक मित्र के भड़कने वाले चाचा हम लोगों को बड़े रोचक लगा करते थे। रोचक इसलिए क्योंकि उनकी सारी सृजनात्मकता गालियाँ देने में नजर आती थी। स्कूल-कॉलेज के मैदान जैसी जगह किसी कोने में बठे वो किस्म-किस्म के विशेषणों का सृजन करते और हम लोग उन्हें उकसा उकसा कर रस लेते। उम्र में 5-7 साल बड़े ये चाचा कहलाने भर के चाचा थे, बाकी व्यवहार तो उम्र में ज्यादा बड़े न होने के कारण मित्रवत ही रहता था। इनके भड़कने का कारण भी बिलकुल तय था। मिथिलांचल में कोई न कोई बुजुर्ग हर दूसरे-तीसरे दिन मिथिला की संस्कृति अर्थात पान-मखान पर अहो-महो करता लोटने सा लगता और उससे ये भड़क जाया करते थे।
चाचा का कहना था कि किसी पढ़ाई में अच्छे नौजवान को बर्बाद करना हो तो उसे पान खाना सिखा दो! इससे होगा ये कि जब भी वो देर रात गए जागकर पढ़ाई कर रहा होगा तब उसे पान की तलब होगी। देर रात गए आस-पास की पान वाली दुकानें बंद होंगी और लड़के को पान खाने स्टेशन तक जाना होगा। आधा घंटा जाने में, आधा आने में, और फिर थकान, इससे उसका रात का पढ़ने का समय नष्ट हो जाएगा। यानी पान खाने भर का शौक लग गया, तो उसके किसी प्रतियोगिता परीक्षा में कामयाब होने की संभावना क्षीण हो जायेगी। कहने की जरूरत नहीं कि पान के नाम पर अहो-महो करते मैथिलों को पानी पी पी कर कोसने वाले ये चाचा खुद पान खाते थे।
एक छोटी सी बुरी आदत से लम्बे समय में कैसा नुकसान हो सकता है ये अब जरूर ध्यान में आ जाता है, उस दौर में हम लोग मजे लेने के लिए किसी बहाने से “मिथिला का कल्चर” जैसा कुछ जिक्र किसी घर आये बुजुर्ग के पास छेड़कर निकल लेते थे। फिर चाचा के कान में उस बुजुर्ग का आह-वाह करना जाता, और फिर पूरी शाम कहीं बैठे वो चुनिन्दा विशेषणों से उसे विभूषित करते। ऐसी ही छोटी-मोटी सी चीजों को बदलकर किस्म-किस्म के नुकसान किये गए हैं। फिरंगियों के दौर में तालाबों-जलाशयों पर राजा-महाराजाओं के खर्च का उपनिवेशवादियों को कोई फायदा नहीं दिखा। स्थानीय जल-वायु या पर्यावरण पर इनका क्या असर होता है, इससे फिरंगी उपनिवेशवादियों को कोई लेना-देना भी नहीं था।
नतीजा ये हुआ कि पहले तो तालाब-जलाशयों को मिलने वाला राज्य का समर्थन कम हो गया। फिंरंगियों के बाद जो भूरे साहब आये, उन्हें लगा सब कुछ तो हमारे कब्जे में होना चाहिए! लिहाजा अपनी आयातित विचारधारा के मुताबिक उन्होंने सारे अधिकार हथियाए और कर्त्तव्य भूल गए। आयातित विचारधारा के नारों में आज भी आपको “अधिकार” और “हकों” का जिक्र मिलेगा, कर्तव्यों की या जिम्मेदारी की बात वो किसी और पर थोपते हैं, खुद के लिए कभी नहीं करते। तालाब-जलाशय इस तरह पीडब्ल्यूडी नाम के विभाग को दे दिए गए और अधिकार जाते ही जिम्मेदारियां भी ग्राम पंचायतों और ग्रामीणों ने छोड़ दीं। जिम्मेदारियां छोड़ना, मतलब कम काम करना उस वक्त तो मजेदार लगा होगा, लेकिन ये भी कुछ पान खाने जैसा ही मज़ा था, जो थोड़े ही वर्षों में सजा देने वाला था।
इसपर एक तरफ से हमला हुआ हो ऐसा सोचना भी मूर्खता होगी। जो तालाब ग्रामीण संस्कृति का हिस्सा थे उनसे लोगों को अलग करने के लिए बरसों प्रपंच रचे गए। भारत विविधताओं का देश है ये आयातित विचारधारा अच्छी तरह जानती थी। इसलिए इस “विविधता” पर “समानता का अधिकार” नाम के जुमले से लगातार प्रहार किया गया। पोखर-तालाब अक्सर मंदिर की देखरेख में होते थे तो मंदिरों की देख-रेख करने वाले महंतों-पुजारियों को मनगढ़ंत कहानियों-फिल्मों के जरिये धूर्त सिद्ध किया गया। कोई तालाब मवेशियों का होता, कोई सिंचाई और नहाने इत्यादि के लिए, पीने के पानी का तालाब अलग होता था। “समानता” होनी चाहिए कहकर ये सिद्ध करने की कोशिश की गयी कि “ठाकुर के कुँए” पर छोटी ज़ात वालों को जाने नहीं दिया जाता। अब जब जलाशय सबके हो गए, तो वो किसी के नहीं रहे।
जब नियंत्रित करने का अधिकार ही न हो, तो भला उसकी साफ़-सफाई और रख-रखाव का खर्च और जिम्मेदारी कोई क्यों झेलेगा? जो अल्पसंख्यक बिरादरी (धूर्त बामन पढ़ें) इन तालाबों-जलाशयों की देखभाल करती थी वो इन्हें छोड़कर जीविका की तलाश में कहीं और निकल गयी। जल संरक्षण के लिए परंपरागत उपायों के अलावा कोई और तरीका नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि आयातित विचारधारा जिस तथाकथित वैज्ञानिक पद्धति को परंपरागत से श्रेष्ठ बताते हुए साहित्य, फिल्म, नाटक, भाषण इत्यादि की रचना करती है, उस “वैज्ञानिक पद्दति” से जल का निर्माण नहीं किया जा सकता। पानी पहले बड़े शहरों से ख़त्म हुआ, और अब ये कमी आगे बढ़कर गाँव तक पहुँचने लगी है। दो चार दिन पहले एईएस से मर रहे जिन बच्चों के गांववालों ने प्रदर्शन किया था, और फिर शू-शासन ने पूरे गाँव पर मुकदमा किया, मुजफ्फरपुर के उस गाँव में भी टैंकर से पानी पहुँचता है।
तालाब-पोखरों के लिए जाने जाने वाले दरभंगा से तालाब करीब-करीब विलुप्त हो चुके हैं। स्मार्ट सिटी बन रहे पटना में जो तालाब थे उनमें से अधिकांश भरे जा चुके हैं। यहाँ का तारामंडल और “ईको-पार्क” भी किसी न किसी भरे हुए तालाब पर बना है। कोई एक विभाग भी ऐसा नहीं जिसके पास ये डाटा हो कि शहर में तालाब आखिर थे कितने और वो कहाँ-कहाँ मौजूद थे। स्मार्ट सिटी बनाने की कवायद में बिहार के जो पांच शहर शामिल हैं, उनमें पहले से मौजूद तालाबों के अलावा नए तालाब कितने बनेंगे, इसकी कोई ख़ास योजना भी नहीं है। हाँ कुछ पुराने तालाबों का “जीर्णोद्धार” जैसा कुछ करने की सरकार बहादुर की कोशिशें दिखती हैं।
बाकी अगर आप शहरों में रहते हैं तो पानी की किल्लत और टैंकरों से होती जलापूर्ति तो देख ही चुके हैं। एक मामूली सा बदलाव क्या क्या बदल सकता है ये आपको पता है और पानी की समस्या पर सोचना होगा ये भी समझते होंगे। सोचियेगा, फ़िलहाल सोचने पर जीएसटी नहीं लगता!
✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहीत
अगर दाँव पर जो भी लगा हो, उसमें नुकसान आपका होना है, मगर फायदा हो गया तो हमें भी होगा, तो फिर तो हम आपका सब कुछ दाँव पर लगा देने की सलाह देंगे ही!
https://youtu.be/s3eL7F5cYYU