Saturday, 19 March 2016
इतिहास की एक विस्मृत प्रेम कहानी : दाताराम नागर और नारघाट की पगली
"कालापानी कहाँ है...?"सुंदर हर आने जाने वाले से यह सवाल पूछा करती थी। यही एक सवाल था जिसे मिर्जापुर की गलियों, सड़कों, मुहल्लों से पूछती हुई सुंदर शाम होते होते नारघाट की सीढ़ियों पर गंगा मे पाँव लटकाकर बैठ जाती थी।
"दूर, बहुत दूर कोई टापू है, जहां से लौटकर कोई नही आता।''
इतना सुनकर तो सुंदर का हृदय ही भर आता और उसके होंठ हिलने लगते। वह गुनगुनाने लगती-
सबकर नइया जाला रामा कासी हो बिसेसर रामा,
नागर नईया जाला कालेपनियां रे हरी...!
उसका स्वर धीरे धीरे ऊंचा होता जाता। इधर निस्तब्ध घाट और उधर जनरव का कोलाहल इन दोनों की छाती चिरती चली जाती। आकाश मे गूँजती करुण ध्वनि सूने पाषाण तटों, चंचल तरंगो और थपेड़ती हवाओं मे क्रंदन मचाती, कजरी पर कान धरे लोगों के कानों के पार हो जाती---
घरवा मे रोवे नागर माई और बहिनियाँ रामा,सेजिया पे रोवे बारी धनियाँ रे हरी...!
खूँटियाँ पर रोवे नागर ढाल तरवरिया रामा,
कोनवा मे रोवे कड़ाबिनियाँ रे हरी...!
घाट से गूँजता यह गीत सुनकर लहरों पर नाचती नौकाएँ घाट की ओर सरकने लगती--
रहिया मे रोवे तोर संगी और साथी रामा,नारघाट पर रोवे कसबिनियाँ रे हरी...!
इतने मे हवाएँ रो पड़ती, लहरें कराह उठतीं, आँखें नदी हो उठती, पतवारे टकराने लगतीं और सुनने वाले फूट फूट कर रोने लगते। बहुत दिन बीते यह कजरी गाते और आँखों से गंगा जमुना बहाते सुंदर एक दिन पागल हो गयी। दिन के दिन और रात के रात बावली-सी फिरती और सुदूर दक्खिन को देखा करती। किसी दीवाने ने बताया था वो उधर दक्खिन मे समुंदर के बीचोबीच है कालापानी। बस यही एक कजरी थी, जिसे सीने मे समाये समाये सुंदर पहले दीवानी हुई और एक दिन पागल हो गयी। उसके अंतिम दिनों मे मिर्जापुर के लोग नारघाट की पगली को पैसे दे दे कर उससे यही कजरी गवाते और करुणा खरीदते रहे। सुनने वालों की आँखों मे नदी बाढ़ बन कर उतर आती, जब वह कलेजे का सारा दर्द निचोड़कर गाती --
जौ मै जनती नागर जाइबा कालेपनियाँ रामा,हमहूँ चली अवतिन बिनु गवनवा रे हरी...!
यह काशी के इतिहास का एक विस्मृत पन्ना है, जिसे ठीक से पढ़ा नही गया। सन 1772 की काशी अपने गुंडो के प्रसिद्ध थी। हिंदुस्तान मे पाँव पसारते अंग्रेजों का दिया काशी के आसमान मे जलने लगा था। वारेन हैस्टिंग्स द्वारा काशी राज्य की लूट के बाद महाराज चेतसिंह दुर्दशा को प्राप्त हो चुके थे। यद्यपि राजमाता पन्ना की कूटनीतिक चतुराइयों ने वारेन हैस्टिंग्स को काशी से भागकर चुनार मे शरण लेने पर मजबूर कर दिया था लेकिन वह अलग कहानी है। पराभूत हुए राजा की लुटी हुई काशी लगभग अचेत हो चली थी। विदेशी शासन के आतंक ने जब राज्य वीरों की तलवारें म्यान मे रखवा दीं तब काशी के वे नालायक बेटे सचेत हुए और तलवार उठा ली, जो तब के गुंडे कहलाते थे। ये वे गुंडे थे, जिनकी आँखों से निकली चिनगारियाँ लोकमन मे क्रांति के बीज बो रही थी, विद्रोह की पटकथा लिख रही थी और विदेशी गुलामी के साथ-साथ भारत मे आज़ादी के आंदोलन की नींव रख रही थी। ऐसे लोगों मे दाताराम नागर और भंगड़ भिक्षुक प्रमुख थे। अलईपुर मे वाराणसी सिटी स्टेशन के पास जहां आज टीवी अस्पताल है, वहीं भंगड़ भिक्षुक का बगीचा था। बगीचा तो अब नही रहा लेकिन वह कुआं अभी मौजूद है। वहीं ये गुंडे इकट्ठा होते और फिरंगियों को नुकसान पहुंचाने की योजनाएँ बनाया करते थे। एक तरफ ये लोग थे जो कहलाते तो गुंडे थे, लेकिन यह गुंडई मातृभूमि पर कुर्बान थी तो दूसरी तरफ शंभूराम पंडित,बेनीराम पंडित, मौलवी अलीउद्दीन, मुंशी फ़ैयाज़ अली और मिर्जापुर मे अंग्रेजों के ठेकेदार बनकट मिसिर अंग्रेजों की ठकुरसुहाती और सहायता करते थे। इनमे से अधिकतर तो अक्सर इन गुंडो के भय से छुप के ही रहते थे लेकिन मुंशी फ़ैयाज़ अली बनारस के नायब और बनकट मिसिर बनारस से दूर मिर्जापुर मे रहने के कारण अपने को खतरे से बाहर समझते थे। नागर के शागिर्दों ने तय किया कि पहले मिसिर से ही निपट लिया जाय। नागर ने मिसिर को सनेसा भेजकर कहलाया कि अगली पूर्णिमा को ओझला नाले पर भांग छानने का न्योता है। मिसिर ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया। उसने भी कहला भेजा कि भोजन पानी का प्रबंध मेरी ओर से होगा। खुल्ली लड़ाई का खुल्ला न्योता था।
बनकट मिसिर अपने साथ सौ लठैतों को लेकर आया था। नागर भी अपने भाइयों,मित्रों और शागिर्दों की पलटन के साथ पहुंचा था। एक ओर पच्चीसों सिलबट्टे खटक रहे थे,तो दूसरी ओर कड़ाहियों मे पूड़ियाँ छन रही थी। भांग बूटी छानने और खाना पानी हो जाने के बाद दोनों दलों मे जमकर भिड़ंत हुई । और अंत आते आते दोनों दलप्रमुख एक दूसरे के सामने आ खड़े हुए। नागर ने खांडा चलाया और मिसिर ने अपनी लाठी पर वार रोका। लेकिन खाँड़े की धार मे लाठी तिनके की तरह बह गयी। मिसिर पीछे हटा। नागर की तलवार मे दुर्गा बसती थी। इस मार से मिसिर लड़खड़ाया और अचानक पीछे घूमकर भाग चला। अजोरिया रात होने के कारण मिसिर नागर की नजर से ओझल नही हो पाता था। लेकिन मर्दों की जात के साथ जैसा होता है वैसा ही हुआ। सहसा नागर ने सोचा भागते हुए निहत्थे शत्रु का पीछा करना अधर्म है और वह ठिठक गया। नागर मिसिर का पीछा छोडकर लौट पड़ा। रात लगभग आधी बीत चुकी थी, चाँदनी सोलहों कलाओं मे खिली हुई, दूर-दूर तक फैला बालू रेत का इलाका चाँदनी मे चमक रहा है। निस्तब्ध रजनी मे धप धप चलते नागर के पैरों के स्वर उठ रहे हैं। सात फुट का नागर.....यूं लगे कि जैसे नाहर ही चला आता हो कोई। अचानक उसकी नज़र ठिठकी। देखा तो दूर सामने टीले से सटकर एक सफ़ेद गठरी-सी कोई वस्तु पड़ी है। उसका हृदय संदेह से भर उठा। शत्रु की कोई चाल तो नही है। उसने निगाह जमाये रखी। ज़रा करीब आया तो समझ मे आया कोई स्त्री है शायद। नागर की देह पर रोएँ भरभरा उठे, पूरा शरीर कांप गया। वीर हृदय मे जरा देर को भय-सा व्याप्त हुआ कि इस निचाट वन प्रदेश मे कोई भूत प्रेत तो नही...! पूरे वातावरण की गोलाई मे घूमती हुई उसकी नज़र अपने हाथ की तलवार पर पड़ी। तलवार की चमक आँखों मे उतरी तो मन ज़रा मजबूत हुआ। लोहे के सामने प्रेत नही ठहरते। तलवार की मूठ पर हाथ धरे नागर आगे बढ़ा। उसे पास आते देखकर नारी-मूर्ति उठ खड़ी हुई। लज्जा, संकोच, भय और दुविधा भरी एक दृष्टि उसने नागर पर डाली। नागर ने भी उसे भरी आँख से देखा। गौरवर्ण सौंदर्य की अद्वितीय निर्मिति। अत्यंत मनोहर एक युवा स्त्री का सामीप्य और निरभ्र, निस्तब्ध आधी रात। इस अनपेक्षित किन्तु प्रिय-सी लगी उपस्थिति से आलोड़ित पुरुष सिंह ने आँखों ही आँखों मे स्त्री का मूक परिचय मांगा। इस सिंह सदृश पुरुष मूर्ति को अपने सामने खड़े देखकर स्त्री कुछ आश्वस्त हुई।
नागर की मरोड़ी हुई नोकदार मूंछें, कमर मे खोंसी हुई कटार, लंबा छरहरा कमाया हुआ शरीर, पट्टेदार घुँघराले बाल और डोरा पड़ी रतनार आँखें। स्त्री का संकोच जाता रहा। अत्यंत प्रगल्भा की तरह वह धीरे से हंसी और आगे बढ़कर नागर का हाथ थाम लिया। नागर के शरीर मे बिजली दौड़ गयी और मांसपेशियाँ सनसना उठीं। स्त्री सौंदर्य का स्नेहिल साहचर्य पाकर पुरुष मन भी स्नेहार्द्र प्रलुब्ध हो उठा। झनझनाए हुए हाथों ने स्त्री को अपनी ओर खींचा। यह जो हो रहा था, अभी आगे भी होता और न जाने किस सीमा तक होता ही जाता, आगे नही हुआ। वह उसे खींच रहा था। वह उसमे खिंची आती थी....कि अकस्मात नागर की रतनारी आँखों के सामने स्वर्गीय पिता की मूरत नाच उठी। पिता के बोल कान मे कौंधे--''बेटा, वीर-व्रत मे दीक्षित पुरुष परस्त्री को माता समझता है।''
नागर तड़पकर पीछे हटा और कड़कती हुई आवाज मे पूछा--'तू कौन है स्त्री...?"''ऐसे ही पूछते हैं क्या...?''स्त्री ने प्रश्न के जवाब मे प्रश्न ही उछाला।
नागर कुछ कदम पीछे हटकर खड़ा हुआ। जो किसी नारी के सामने कभी पुरुष हुआ ही नही, उस नागर का हृदय पहले व्यथा से भरा फिर स्निग्ध हो आया। वह हताश होकर बोला--"अच्छा भई, तुम कौन हो...?''स्त्री हंसकर बोली--''पहले एक प्रतिष्ठित ठाकुर की कन्या थी, अब किसी की रखैल, कसबिन हूँ।''
''ऐसा कैसे हुआ...?''नागर ने पूछा।"वैसे ही जैसे यहाँ आते आते तो तुम मर्द थे, पर यहाँ आते ही देवता बन गए।''
"तुम्हें कसबिन किसने बनाया...?"
"सब बनकट मिसिर की किरपा है। सालभर हुआ। मै अपनी बारी मे आम बीन रही थी। वहीं से मिसिर ने मुझे उठवा लिया और कसबिन से भी बदतर बनाकर रख छोड़ा। "
"इस बखत यहाँ कैसे...?"
"सुना था आज मिसिर से किसी की ठनी बदी है। देखने आई थी कि मिसिर का गला कटे और मेरी छाती ठंडी हो। लेकिन भागते हुए मिसिर ने मुझे यहाँ देख लिया है। अब बड़ी दुर्दशा है मेरी। तुम्हारी सरन हूँ। राच्छा करो।"
नागर ने दो मिनट कुछ सोचकर कहा- "तुम नारघाट चलो। मै वहीं तुमसे मिलता हूँ।"
नागर ने वहीं उसी क्षण तय किया कि अब आज मिसिर का अंतिम दिन है। वह फिर उसी ओर को चला जिधर उसे भागता छोडकर वह लौटा था। नागर की आहट मिली पर मिसिर ने पीछे घूमकर नही देखा। नागर चिल्लाया- "ठहरो मिसिर। किसी भरम मे मत रहना। काट के फेंक दूंगा आज।''मिसिर ठठाकर हंसा--"मालूम है नागर, तुम्हारा शागिर्द भी निहत्थे पर वार नही करता।"
"लेकिन मिसिर, तुमने काम बहुत खराब किया है। एक तो देश फिरंगियों के हाथ मे बेच दिया। तिसपर एक कुँवारी कन्या की इज्जत भी उतार ली। तुम्हें तो आज काटना ही पड़ेगा"गुमशुदा इतिहास के इन पन्नो मे दर्ज है कि नागर ने निरस्त्र शत्रु को अपनी कटार दे दी और खुद अपना बिछुआ संभाला। लेकिन यह लड़ाई दो मिनट भी नही ठहरी और देखते ही देखते देश और देश की स्त्री का गद्दार बनकट मिसिर गंगा की घाटी मे बालू पर पड़ा तड़प रहा था। नागर की खुखरी उसके सीने मे थी और नागर गहरी साँसे ले रहा था। इसी तड़प मे तड़पता नागर नारघाट की ओर चला। समाज से बहिष्कृत सुंदर को उसने निःस्वार्थ भाव से आश्रय दिया और नारघाट मे ही किराये का एक घर लेकर उसे वहाँ टिकाया। उसके खाने पीने की व्यवस्था की और उसे नृत्य तथा गीत संगीत की शिक्षा दिलाने लगा। बनारस से जब कभी भी वह मिर्जापुर जाता तो उसकी सारी परेशानियाँ सुलझाता, सारी व्यवस्था देखता और खास बात ये कि दिन रहते रहते उसके यहाँ से वापस चला आता। रात उसने उसके घर पर कभी नही गुजारी। उसे वह सुंदर कहकर बुलाता था। वह उसे सुंदर लगती थी।
एक दिन मिर्जापुर मे ही उसे खबर मिली कि बनारस के गद्दार और बनकट मिसिर के साथी नायब फ़ैयाज़ अली इस बार फिर मुहर्रमी जुलूस के दुलदुल घोड़े को ठठेरी बाजार की ओर से निकलवाने की कोशिश कर रहे हैं। जब से कंपनी का राज हुआ था, नायब साहब की शामें फिरंगी अफसरों के साथ गुजरने लगी थीं। पिछले दो सालों से नायब फ़ैयाज़ अली मुहर्रमी जुलूस के लिए नए नए रास्ते निकालने की कोशिश कर रहे थे। नागर फिरंगियों की चाल समझता था और दोनों ही बार उसने नए रास्तों से जुलूस न जाने दिया था। इस बार उसने सुना कि फ़ैयाज़ अली जुलूस के साथ फिरंगी पलटन भी भेजेंगे। नागर का खून खौल उठा। वह मिर्जापुर से सीधे बनारस आया और ठठेरी बाज़ार मे उस समय पहुंचा जब दुलदुल का घोडा उसके ठीक सामने से गुजर रहा था। नागर ने पूरी ताक़त से तलवार घोड़े पर चला दी। घोडा दो टुकड़े होकर गिर गया। फिरंगी पलटन नागर पर टूट पड़ी। लेकिन गोरों की संगीनों का सामना भी नागर की तलवार से था। अंततः संगीनें झुक गईं और तलवार रास्ता चीरती आगे बढ़ गयी। इस घटना के बाद ब्रहमनाल मे उमरावगिरि की बावड़ी के एक नाले मे नागर दो दिन छिपा रहा। यहाँ कुछ असुरक्षित महसूस करके वह एक रात राजघाट निकल आया और रातभर किले की खोह मे छिपा रहा। फिरंगी पागल कुत्ते की तरह खोज रहे थे नागर को। एक दिन पड़ाव से होते हुए रामनगर मार्ग पर कटेसर गाँव के नजदीक लोटे मे पानी लेकर निपटने जाते समय सटीक मुखबिरी पर गोरी पलटन ने नागर को सुबह सुबह निहत्थे घेर लिया। खाली हाथ होते हुए भी केवल लोटे से दो चार सिपाहियों की खोपड़ी तोड़ने के बाद नागर आखिर गिरफ्तार हो गया। अंग्रेजों ने राहत की सांस ली। फ़ैयाज़ अली का जी जुड़ाया और बनारस का मान मस्तक झुका। डरे हुए अंग्रेजों ने नागर को बीस साल कालापानी की सजा सुनाई। कालापानी की सजा सुनकर नागर के संगी साथी और शागिर्द रो पड़े। उन बहादुरों का पत्थर जैसा कलेजा भी हिल गया और हिचकियाँ बंध गईं। लेकिन हथकड़ियों और जंजीरों मे जकड़ा हुआ शेर बिलकुल लाठी की तरह सीधा तनकर खड़ा हो गया। आँखों के डोरे और लाल हो गए। उसके पतले होंठों पर घृणा मुस्कान बनकर फैल गयी। उसने जज की तरफ आँखें तरेरकर देखा। नागर की आँखों की आग सहन नही हुई तो जज ने आँखें नीची कर लीं और होंठों ही मे बुदबुदाया- "बहादुर आदमी है...!"नागर की जलती हुई आँखें साथियों की ओर घूम गईं। आँखों मे क्रोध भरा था, जुबान गरजकर बोली--"ये नामर्दों की तरह रोते क्यो हो रे...? बीस बरस कोई ब्रह्मा के दिन नही हैं। चुटकियों मे उड़ जाएँगे। जाओ गुरु जी से कह देना कि सुंदर की खोज खबर लेते रहेंगे। नागर के चेले भारी मन से अदालत से बाहर निकले। "नागर एक बार पैर के पंजों पर जरा सा उठा तो सारी नसें कड़कड़ाकर बोल उठीं। अपना शरीर जरा दाहिने बाएँ हिलाया तो भुजदंडो पर मछलियाँ उभर आयीं। बेड़ियाँ झनझनाईं और बंधे हुए शेर की मानिंद नागर झूमता हुआ जब चला तो गिरते पड़ते फिरंगी सिपाही उसके पीछे हो लिए।
भंगड़वा फिरंगी को उसकी जात बताएगा और जयरामगिरि गोसाईं सुंदर को खाने पीने का कष्ट नही होने देंगे। जेल की कालकोठरी मे पड़ा पड़ा दाताराम नागर अक्सर ये दो बातें सोचा करता था। सुंदर का ध्यान आते ही उसने करवट बदली और मन पंछी ने उड़ान भर ली। सावन की मेघभरी काली रात है। आकाश के एक कोने मे एक चमकदार तारा झिलमिला रहा है। नागर का साथी भंगड़, शागिर्द बिरजू और गुरु गोसाईं जी मिर्जापुर के चील्ह गाँव मे इक्के से उतरे हैं और नारघाट के लिए नाव मे सवारी की है। इनमे से किसी को नही मालूम कि सुंदर को नागर के कालेपानी जाने की खबर मिल चुकी है। उन्हे यह भी नही मालूम कि सुंदर इस भयावन रात मे भी नारघाट की सीढ़ियों पर बैठी बूढ़ी गंगा के पानी मे पैर झुलाए आकाश की ओर एकटक निहार रही है। किसी को कुछ नही मालूम कि सुंदर ऊपर आसमान मे क्या देख रही है। क्या सोच रही है। सुंदर का मन नीले आकाश के पार तक चला जाता है। क्या वहाँ भी कोई नागर है...? क्या वहाँ भी कोई सुंदर है...? क्या वहाँ भी ऐसे ही तृप्तिहीन, आश्रयहीन घर हैं...? क्या वहाँ भी ऐसी ही लांछना है, ऐसा ही अविचार है...? सुंदर सोचती है कि उससे कितना कम परिचय था...! लेकिन वह तो जन्म जन्मांतर का हो गया। कैसी प्यारी टीस देकर वह कालापानी चला गया....! बीच धारे मे डोलती नौका आधी रात मे कजरी सुन रही है-
सबकर नइया जाला रामा कासी हो बिसेसर रामा,
नागर नईया जाला कालेपनियां रे हरी...
रहिया मे रोवे तोर संगी और साथी रामा,
नार घाट पर रोवे कसबिनियाँ रे हरी।
नागर नईया जाला कालेपनियां रे हरी...
रहिया मे रोवे तोर संगी और साथी रामा,
नार घाट पर रोवे कसबिनियाँ रे हरी।
(ये कहानी एक उपन्यास का हिस्सा है, जिसे 1967 मे लिखा था रूद्र काशिकेय ने और आज हमने अपने शब्दों मे कहने की कोशिश की है। )
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बहुत दिलकश है सर ।।
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जबरदस्त ✌🏼👌👍
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