अजब माहौल है । तमाम दुश्वारियों के बीच राजनीतिक दल चुप बैठे हैं और लेखक-कलाकार मुखर हैं । नेता घरों में दुबके हुए हैं और कलाकार सड़कों की खाक छान रहे हैं । जिन्हें जनता के वोट चाहिए वे जनता की ओर पीठ किए हुए हैं और जिन्हें कुछ नहीं चाहिए वे गांव-गांव, कस्बे-कस्बे और शहर- शहर अलख जगा रहे हैं । बात हो रही है भारतीय जन नाट्य संघ यानी इप्टा की जन यात्रा 'ढाई आखर प्रेम 'की , जो विगत 9 अप्रैल को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से शुरू होकर अब 22 मई को इंदौर में जाकर समाप्त हुई है ।
44 दिन तक लगातार चली यह यात्रा छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार , उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश समेत पांच राज्यों के 250 से अधिक गांवों, कस्बों और शहरों से होकर गुजरी और तमाम जगह इप्टा के कलाकारों ने जन सरकारों से जुड़े गीत-संगीत और नाटकों के माध्यम से लोगों के बीच प्यार, भाईचारे और इंसानियत का संदेश पहुंचाया । इस भीषण गर्मी की तपती दुपहरियों में ये रंगकर्मी भला सड़कों की खाक क्यों छान रहे थे, क्या यह सवाल विचारणीय नहीं होगा ?
अस्सी साल पुरानी संस्था इप्टा किसी परिचय की मोहताज़ नहीं है । मुल्क के तमाम बड़े शहरों में ही नहीं सुदूर कस्बों में भी इप्टा की शाखाएं हैं और रंगकर्म के माध्यम से ये रंगकर्मी शोषण और सांप्रदायिकता के खिलाफ अलख जगाते ही रहते हैं । देश की आजादी के 75 साल होने पर इस बार इप्टा ने ढाई आखर प्रेम यात्रा निकाली जिसकी आज सचमुच बहुत जरूरत महसूस की जा रही थी ।
शायद कबीर के उस काल खंड से भी ज्यादा जब उन्होंने कहा था- ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होई । तभी तो ये रंगकर्मी गांव गांव जाकर यह समझाते नजर आए कि देश भक्ति का मतलब केवल देश के नक्शे और झंडे से प्यार ही नहीं है, देश की जनता से प्यार ही देशभक्ति की बुनियादी शर्त है । रंगकर्मी दुःख व्यक्त करते दिखे कि हमारे नेता बात तो देश प्रेम की करते हैं मगर काम सारे जनता के खिलाफ करते हैं ।
ये रंगकर्मी अपनी इस यात्रा के दौरान कला के माध्यम से अपना एजेंडा भी स्पष्ट करते रहे कि वे आने वाली पीढ़ी को सुंदर और अधिक मानवीय दुनिया सौंपना चाहते हैं और यही वजह है कि वे बात बार लोगों के बीच दोहराते दिखे कि अपनी संतानों को धार्मिक नहीं मनुष्यता की पहचान दें । पूरी यात्रा के दौरान इप्टा का एक ही नारा रहा- सच कहना ही प्रतिरोध है और प्रेम करना ही नफरत का विरोध ।
इस पूरी यात्रा का संचालन कर रहे इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणबीर सिंह, महासचिव राकेश वेदा और राज्यों के महासचिव अरुण कटोठे, उपेंद्र मिश्र, संतोष डे, तनवीर अहमद, अमिताभ पांडे और शिवेंद्र शुक्ला को मैंने नजदीक से जाना है । अधिकांश 65 - 70 की उम्र पार कर चले हैं । बावजूद इसके इस भीषण गर्मी में ये लोग आज चहुओर फैली सांप्रदायिकता की आग से टकराने निकल पड़े ।
वैसे कहना न होगा कि मुल्क के हालात हैं ही कुछ ऐसे कि कुछ कर गुजरने को हर इंसानियत परस्त आदमी बेचैन है । अब ऐसे में पहल की जिम्मेदारी इप्टा जैसी संस्था ही तो ले सकती थी । मुझे फक्र है कि मैंने भी लगभग दस साल तक इप्टा के साथ काम किया है और आज भी मन से इप्टा का ही हूं ।