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एक सड़क, दो राष्ट्रपति / विवेक शुक्ला

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ज्ञानी जैल सिंह भारत के 1982-87 के दौरान राष्ट्रपति रहे। वे वास्तव में जन नेता थे और वे जब राष्ट्रपति थे तब राष्ट्रपति भवन के दरवाजे आम जन के लिए लगभग खुल गए थे। राष्ट्रपति भवन के भीतर की एक सड़क का नाम हुक्मी माई रोड है। अगर आप दारा शिकोह रोड ( पहले डलहौजी रोड) के रास्ते राष्ट्रपति भवन में गेट नंबर 37 से अंदर जाते हैं, तब आपको हुक्मी माई रोड मिलती है। ज्ञानी जैल सिंह ने राष्ट्रपति पद पर रहते हुए राष्ट्रपति भवन परिसर की इस सड़क का नाम हुक्मी माई रोड रखवाया था। वह हिन्दू और सिख धर्म की प्रकांड विद्वान थीं। उनका जन्म पंजाब में सन 1870 के आसपास हुआ।


नामधारी सिखों का एक प्रतिनिधिमंडल ज्ञानी जैल सिंह से मिला। इस टोली में झारखंड के प्रमुख नामधारी सिख नेता इंदरजीत सिंह नामधारी भी थे। इन्होंने ज्ञानी जैल सिंह जी से आग्रह किया कि वे हुक्मी माई जी के नाम पर नई दिल्ली की किसी सड़क का नाम रखवा दें। जैल सिंह जी को हुक्मी माई की शख्सियत की जानकारी थी। उन्होंने तुरंत इस बाबत निर्देश दिए। जाहिर है, राष्ट्रपति की इच्छा को लागू करने में नई दिल्ली नगर परिषद (एनडीएमसी) को देरी नहीं हुई।


के.आर. नारायणन जानना चाहते थे उस सड़क के बारे में


भारत के दसवें राष्ट्रपति के.आर.नारायणन की शख्सियत के बहुत से आयाम थे। वे जब राष्ट्रपति भवन में रहन लगे तो उन्हें एक सड़क का नाम समझ नहीं आया। वे जानने चाहते थे कि उस सड़क का नाम किसके नाम पर रखा गया। कहते हैं कि एक दिन डॉ. के.आर. नारायणन का काफिला राष्ट्रपति भवन से दारा शिकोह रोड की तरफ बढ़ा तो उनकी नजर वहां पर स्थित एक छोटी सी सड़क के नाम पर पड़ी। नाम था हुक्मी माई रोड। वे चौंके इस नाम को पढ़कर। वे जब भी उस ओर से गुजरते तो हुक्मी माई रोड नाम पढ़कर सोचने लगते कि ये नाम किस शख्सियत का है। उन्होंने अपने स्तर पर इस नाम की असलियत जानने की भी चेष्टा की। पर बात नहीं बनी। एक दिन उन्होंने अपनी जिज्ञासा अपने स्टाफ के माध्यम से नई दिल्ली नगर परिषद ( एनडीएमसी) के चेयरमेन के पास भिजवाई। पूछा गया कि हुक्मी माई कौन हैं? 


 राष्ट्रपति के दफ्तर से मांगी गई जानकारी के बाद तो एनडीएमसी का सारा स्टाफ लग गया हुक्मी माई के बारे में जानकारी एकत्र करने के लिए। आखिर देश के  महामहिम कुछ जानकारी प्राप्त करना चाहते थे। तब मदन थपलियाल जी NDMC के सूचना निदेशक थे. 


कौन थीं हुक्मी माई 


     हुक्मी माई नामधारी सिख समाज की एक पूज्नीय स्त्री थीं। वो हिन्दू और सिख धर्म की  विद्वान थीं। उनका जन्म पंजाब में सन 1870 के आसपास हुआ। वह विश्व बंधुत्व, प्रेम और भाई-चारे का संदेश देती रहीँ। हुक्मी माई ने भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, अंधविश्वासों, जर्जर रूढ़ियों और पाखंडों पर हल्ला बोलते हुए जन-साधारण को धर्म के ठेकेदारों, पण्डों, पीरों आदि के चंगुल से मुक्त किया। उन्होंने प्रेम, सेवा, परिश्रम, परोपकार और भाई-चारे का संदेश दिया था। जब महामहिम को हुक्मी जी के बारे में जानकरी दी गई तो वे संतुष्ट हुए।


इस बीच,ज्ञानी जैल सिंह का 1956 से ही दिल्ली से संबंध कायम हो गया था। वे तब बतौर राज्य सभा सदस्य के रूप में दिल्ली आ गए थे। वे राष्ट्रपति पद से मुक्त होने के बाद राजधानी में ही रहने लगे थे। सरकार ने उन्हें तीन मूर्ति के करीब सर्कुलर रोड में सरकारी आवास अलॉट कर दिया था। पंजाबी के कवि और खालसा कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. हरमीत सिंह ने बताया कि ज्ञानी जैल सिंह पहाड़गंज में बाबा नामदेव लाइब्रेयरी बिल्डिंग के उदघाटन के लिए 1987 में आए थे। वे बेहद विनम्र और सज्जन पुरुष थे। उनसे जो मिलने आता था उससे वे आराम से बात करते थे। मिलने वाले को अहसास करवा देते थे कि वह उनके लिए खास इंसान है। उन्होंने सिख धर्म के ग्रंथों की पढ़ाई की थी इसलिए उन्हें ज्ञानी का कहा जाने लगा।


ज्ञानी जैल सिंह जैसी प्रधान कौर जी


ज्ञानी जैल सिंह की तरह ही मां की तरह का स्नेह और प्यार देन वाली उनकी पत्नी प्रधान कौर जी भी थीं। प्रधान कौर जी राष्ट्रपति भवन के चर्तुथ श्रेणी के मुलाजिमों के घरों में सुख-दुख में भाग लेने चली जाती थी। किसी परिवार से उन्हें शादी ब्याह का निमंत्रण मिलता तो वह उपहार लेकर पहुंच जाती थी। उन्हें बेहद नेक महिला के रूप में याद किया जाता है। हालांकि वह अपने पति के साथ देश विदेश की यात्राओं में तो नहीं जाती थीं। प्रधान कौर जी राष्ट्रपति भवन परिसर में कभी-कभी घूमते हुए वहां के स्टाफ का हाल-चाल पूछने के लिए रूक जाती थीं। स्टाफ से प्रेम से बात किया करती थीं।

 इस बीच, राजधानी के वरिष्ठ पत्रकार Manmohan Sharma ji मनमोहन शर्मा ने बताते हैं कि  उनकी ज्ञानी जैल सिंह से दोस्ती थी।  एक बार उनका राष्ट्रपति भवन काफी दिनों तक जाना नहीं हुआ। तब ज्ञानी जैल सिंह ने अपने एक  स्टाफ को उनके लक्ष्मी नगर स्थित घर में उनका हाल-चाल लेने के लिए भेजा क्योंकि उनके घर में फोन नहीं था।


बहरहाल,डॉ. के. आर. नारायणन जब राष्ट्रपति चुने गए तब  दलितों के पक्ष में देश में माहौल था। 1992 से 1997 तक भारत के नौवें उपराष्ट्रपति भी रहे। वे उपराष्ट्रपति के रूप में 6 मौलाना आजाद रोड स्थित उपराष्ट्रपति आवास में रहे।


खामोश, वहां सो रहे हैं पूर्व राष्ट्रपति


डॉ. के. आर. नारायणन इंडिया गेट से कुछ आगे पृथ्वीराज रोड पर स्थित यार्क सिमिटरी में दफन हैं। उनका 9 नवंबर 2005 को निधन हो गया था। वे विद्वान राष्ट्रपति थे। उनकी कब्र के ऊपर एपिटेफ ( समाधि लेख) पर उनका संक्षिप्त परिचय लिखा हुआ है। उनकी कब्र बाकी सैकड़ों कब्रों के बीच है। उनके साथ ही उनकी पत्नी उषा जी की भी कब्र है, जो मूल रूप से बर्मा से थीं। डॉ. के.आर. नारायणन मलयाली भाषी थे। उनका पूरा नाम कोच्चेरील रामन नारायणन था। सरकारी दस्तावेजों के हिसाब से उनका जन्म 27 अक्टूबर, 1920 को केरल के एक छोटे से गांव पेरुमथॉनम उझावूर, त्रावणकोर में हुआ था। उनका कार्यकाल विवादों से दूर रहा। उनकी कब्र पर कभी-कभार ही कोई आ  पहुंचता है फूल चढ़ाने। 


ये राजधानी के सबसे पुराने ईसाई कब्रिस्तानों में से एक है। इधर ही पूर्व केन्द्रीय मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज और जेसिका लाल भी दफन हैं। ‘शोना’ कहते थे प्यार से जेसिका लाल को  उसके दोस्त और घरवाले। उसकी छोटी सी, काले ग्रेनाइट से बनी कब्र पर, कुछ साल पहले तक उसके अपने करीबी उसके जन्मदिन, ईस्टर और क्रिसमस पर आना नहीं भूलते थे। वे कब्र पर फूल चढ़ा कर जाते थे। पर अब उनका भी यहां कम ही हुआ है।


Vivek Shukla 20 July, 2022, Dainik Tribune


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