हमारे रोजमर्रा के लेन-देन में केवल लेन-देन डिजिटल तरीके से होता है, जबकि हमारी मुद्रा वही रुपया, डॉलर, इत्यादि होती है। जबकि क्रिप्टोकरेंसी मुद्रा ही अलग होती है। इस मुद्रा में इसकी सुरक्षा के लिए गुप्त कोड होते हैं जो इसे सुरक्षित रखते हैं और धारक की पहचान को गुप्त रखते हैं। गुप्त कोडिंग की इस प्रक्रिया को क्रिप्टोग्राफी कहते हैं, इसीलिए ऐसी मुद्राओं को क्रिप्टोकरेंसी कहते हैं। दुनियाभर में ऐसी लगभग 13,000 मुद्राएं चलन में हैं। इनमें से सबसे ज्यादा चर्चा ‘बिटक्वायन’ की ही होती है। बजट भाषण के दौरान वित्तमंत्री ने क्रिप्टोकरेंसी को कानूनी मान्यता देने की घोषणा तो नहीं की, लेकिन इस करेंसी तथा अन्य सभी आभासी परिसंपत्तियों की खरीद-बिक्री से होने वाली आय पर 30 फीसदी कर लगाने की घोषणा करके उन्होंने परोक्ष रूप से यह मान्यता दे दिया है। इस तरह उन्होंने इस मुद्रा की माइनिंग, जेनेरेटिंग, होल्डिंग, सेलिंग और डीलिंग-जैसी सभी गतिविधियों को मान्यता दे दिया है। उन्होंने रिजर्व बैंक द्वारा सीबीडीटी (सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी) यानी डिजिटल रुपया जारी किए जाने की योजना की भी घोषणा की। हालांकि क्रिप्टोकरेंसी बिल्कुल अलग चीज है, इसकी किसी भी डिजिटल करेंसी से तुलना नहीं की जा सकती। इनमें से सबसे ज्यादा चर्चा ‘बिटक्वायन’ की ही होती है। हालांकि आभासी मुद्रा बाजार में इसके अलावा ‘इथेरियम’, ‘बिनान्स’, ‘कॉरनेडो’, ‘टीथर’, ‘एक्सआरपी’, ‘डॉजीक्वायन’, ‘पोलकाडॉट’ जैसी मुद्राओं का भी बहुत ज्यादा प्रसार है।
यह मुद्रा किसी टकसाल में नहीं छपती है। बड़े-बड़े कंप्यूटरों द्वारा जटिल एल्गॉरिदमों (गणित के सवालों को हल करने के नियमों की प्रणाली) के हल करने से यह मुद्रा पैदा होती है। इसके पैदा होने की इस प्रक्रिया को ही ‘माइनिंग’ कहते हैं। ‘माइनिंग’ करने वाले ये ‘माइनर’ जटिल गणितीय गुत्थियों को हल करते हैं। इस प्रक्रिया में वे कंप्यूटरों के इस निजी नेटवर्क के मौजूदा एल्गॉरिदम के साथ आगे के संभावित अनुमानों का सहारा लेते हैं। ऐसा हर कदम लेन-देन का एक ब्लॉक सृजित करता है जो उस गुत्थी के पिछले ब्लॉक से जुड़ा, यानी चेन्ड (श्रृंखलाबद्ध) होता है। इसीलिए इन्हें ‘ब्लॉकचेन’ कहते हैं। जब गुत्थी हल होती है तो ‘माइनर’ को कुछ निश्चित आभासी सिक्कों (जैसे बिटक्वायन) का इनाम मिलता है। कदम-दर-कदम ये गुत्थियां और जटिल होती जाती हैं। चूंकि इन मुद्राओं की उपलब्धता इनके लिए बनाये गए नियमों के तहत ही कृत्रिम तौर पर सीमित रखी जाती है, इसलिए इनकी ‘माइनिंग’ करने वालों तथा खरीदने वालों की निगाह इनकी कीमतों में वृद्धि की ओर लगी रहती है। बिटक्वायन को जारी करने की सीमा 2.1 करोड़ की रखी गई है, जहां इसे 2040 में पहुंचना है। अत: बाजार में इन मुद्राओं के अधिकाधिक प्रचलन के कारण इनकी मांग बढऩे पर ही इनकी कीमतों में वृद्धि निर्भर होती है। इसी वजह से इनकी कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव लगा रहता है। मई, 2010 में 1 बिटक्वायन की कीमत मात्र 1 सेंट (100 सेंट = 1 डॉलर) थी, जबकि अभी 28,000 डॉलर के लगभग है। 14 अप्रैल, 2021 को 1 बिटक्वायन की कीमत 64,800 डॉलर की ऊंचाई तक पहुंच चुकी थी।
क्रिप्टोकरेंसी के पैरोकार कहते हैं कि इस मुद्रा के पीछे का उद्देश्य ही यह है कि इसे किसी भी संस्थागत विनियमन से मुक्त रखते हुए, किसी भी मात्रा में, न केवल इसके वित्तीय बल्कि हर तरह के लेन-देन को पूर्णत: ईमानदार, पारदर्शी और सुरक्षित रखना है। इस मुद्रा के धारक जो टेक्नोलॉजी इस्तेमाल करते हैं, वही उनकी सुरक्षा करती है। ब्लॉकचेन टेक्नोलॉजी विश्वसनीय है, इसमें डेटा सुरक्षित रहता है और उसे खोजा भी जा सकता है। इसके पैरोकारों की नजर में यह मुद्रा धन के लेन-देन को न केवल विकेंद्रीकृत करती है, बल्कि उसका लोकतंत्रीकरण भी करती है। इसके पैरोकार जिस चीज को क्रिप्टोकरेंसी की ताकत बताते हैं, और कहते हैं कि इसका प्रबंधन विकेंद्रीकृत है और एक ऐसे समुदाय द्वारा किया जाता है, जो लोगों द्वारा इस मुद्रा के लेन-देन का सत्यापन करते हुए इसके ईमानदारी पूर्वक संचालन को सुनिश्चित कर सकता है। उसी चीज को इसके आलोचक इसकी कमजोरी मानते हैं। आलोचकों का कहना है कि न तो किसी केंद्रीय बैंक जैसी कोई संस्था इस मुद्रा को जारी करती है, न किसी अन्य संस्थान की मध्यस्थता रहती है, न ही इसके पीछे राज्य का संबल होता है। कोई देश, कोई सरकार, या भारतीय रिजर्व बैंक-जैसी कोई संस्था इसका न तो हिसाब-किताब रखती है, न ही नियंत्रित करती है। एक बार बाजार में प्रवेश कर लेने के बाद बाजार के ‘मांग और आपूर्ति’ के सिद्धांत के आधार पर ही इनकी कीमत में बढ़ोत्तरी या कमी होती है। कंप्यूटरों और मोबाइल एप्स व वैलेट के माध्यम से ही इनका ऑनलाइन लेन-देन और हस्तांतरण होता है।
क्रिप्टोकरेंसी की एक खूबी यह है कि इसकी भारी मात्रा को पलक झपकते ही दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचाया जा सकता है, वह भी भेजने वाले और पाने वाले की पहचान को उजागर किए बिना। इसी वजह से दुनियाभर के भांति-भांति के अपराधियों के बीच धन के लेन-देन के लिए यह मुद्रा काफी लोकप्रिय रही है। बिटक्वायन का शुरुआती उभार तो मुख्यत: दुनियाभर में नशे के कारोबारियों द्वारा ‘सिल्क रोड’ नाम की बेबसाइट के माध्यम से इसी मुद्रा में अपना भुगतान करने के कारण हुआ था। बिटक्वायन और गैरकानूनी कारोबार के बीच रिश्ते की खबरें अक्सर प्रकाश में आती रहती हैं। दुनियाभर में ‘मनी लांडरिंग’, यानी काले धन को सफेद बनाने में भी इस मुद्रा का भारी पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। इनका लेन-देन लगभग नि:शुल्क होने के कारण भी टैक्स से बचने का एक विकल्प बन गई हैं ये मुद्राएं।
इस मुद्रा के सुरक्षित होने के दावे की पोल भी बार-बार खुलती रहती है। अनेक बार भारी-भारी मात्रा में इसकी चोरियां हो चुकी हैं, और धारक की गलती के कारण वैलेट के डिलीट हो जाने की घटनाएं तो आए दिन की बात हैं। एक बार डिलीट हो जाने के बाद इनको फिर से पाने का कोई जरिया नहीं है। इसके विकेंद्रीकरण और लोकतंत्रीकरण संबंधी दावे भी लगातार खोखले साबित हो रहे हैं। इस व्यवस्था की बनावट और संस्थागत बुनावट ही ऐसी है कि इसके भीतर ही अनेक धारकों के पास भारी मात्रा में मुद्रा का जमावड़ा हो रहा है, और पूंजीवाद की अंतर्निहित बीमारी, ‘एकाधिकार’ और ‘विपन्नता के महासागर के बीच समृद्धि के टापू’ सृजित हो रहे हैं। इतना ही नहीं, इन आभासी मुद्राओं का दुष्प्रभाव पर्यावरण को भी झेलना पड़ रहा है। जब बिटक्वायन शुरू हुई थी तो इसकी माइनिंग साधारण घरेलू कंप्यूटर से हो जाती थी और माइनिंग करने वालों को 2 डॉलर का इनाम मिलता था, जबकि आज इनकी माइनिंग विशाल आकार के माइनिंग फार्मों में की जाती है जिनमें हजारों कंप्यूटर काम करते हैं। 159 देशों की कुल बिजली की खपत से ज्यादा बिजली केवल बिटक्वायन की माइनिंग में लगती है। इस मुद्रा की शुरुआत 2008 के आस-पास हुई। उस समय पूंजीवाद ‘सबप्राइम’ संकट से जूझ रहा था। 2000 के दशक के मध्य में जो हाउसिंग सेक्टर में बूम आया था, उसके पीछे कारण यह था कि ब्याज दरें बेहद कम थीं और बैंकों ने भारी मात्रा में ऐसे ऋण दे दिए थे, जिनकी वसूली के लिए बंधक परिसंपत्तियों का मूल्य बेहद कम था। इन बंधक परिसंपत्तियों की नीलामी से भी इस ऋण की वसूली संभव नहीं थी। अत: रियल एस्टेट का यह गुब्बारा फट गया, दुनिया के कुछ सबसे बड़े बैंक दिवालिया हो गए, करोड़ों लोगों की जीवन भर की कमाई डूब गई और पूंजीवाद भयानक मंदी का शिकार हो गया।
एक से बढ़ कर एक मंदी के भंवर में फंसना पूंजीवाद की नियति है, लेकिन हर बार वह बचने का कोई न कोई रास्ता ढूंढ ही लेता है। यह अलग बात है कि नया रास्ता उसे कुछ मोहलत देने के बाद पहले से भी बड़े भंवर में ले जाकर फंसा देता है। इस बार सबप्राइम संकट की वजह से एक नियामक और विश्वसनीय संस्था के रूप में बैंकों की साख दांव पर लग चुकी थी। ऐसे दौर में एक ऐसी मुद्रा का उभरना, जो बैंकों जैसी किसी नियामक संस्था और राज्य जैसी किसी नियंत्रक संस्था से खुद के मुक्त होने, किसी एक देश की सीमाओं तक ही सीमित न होने और ज्यादा विकेंद्रित, ज्यादा लोकतांत्रिक, ज्यादा सुरक्षित, ज्यादा पारदर्शी और पूर्णत: गोपनीय होने का दावा करती हो, एक और नए पूंजीवादी शिगूफे से ज्यादा कुछ नहीं हो सकता था। पूंजीवाद अपने प्रति एक भरोसे के टूटते ही एक अन्य भरोसे का छलावा गढ़ लेता है और उस नए फंदे में अपना शिकार फांस लेता है। नया फंदा शिकार के गले में पहले से भी ज्यादा कस जाता है, किंतु यह सिलसिला सदियों से चलता ही जा रहा है। लेकिन इस क्रिप्टोकरेंसी ने एक बार फिर 2008 की मंदी से भी पूंजीवाद के डूबते हुए जहाज को बचा लिया और उसमें एक नई जान फूंक दी। लेकिन इन मुद्राओं के उदय के साथ पूंजीवाद एक नए चरण में प्रवेश कर चुका है, जिसे ‘अधीर पूंजीवाद’ कह सकते हैं। यह एक नए संपत्तिशाली वर्ग को सामने लाया है जो हर समय इनकी कीमतों के बढऩे का अधीरता-पूर्वक इंतजार करता रहता है ताकि वह भविष्य में कभी इन्हें अपने से किसी बड़े मूर्ख के हाथों ऊंची कीमतों पर बेच सके। जैसे-जैसे बिटक्वायन की कीमतें बढ़ती जा रही हैं, वैसे-वैसे इसे खरीदने के लिए लोगों में बदहवासी बढ़ती जा रही है। इसके प्रति लोगों के रुझान का आलम यह है कि अमेरिका में सबसे बड़े क्रिप्टोकरेंसी एक्सचेंजों में से एक ‘क्वायनबेस’ में नवंबर 2021 में मात्र एक दिन में 1 लाख नए खाते खुले। नए खाते खोलने के लिए आतुर उपभोक्ताओं के दबाव में एक्सचेंज का पूरा सिस्टम बार-बार बैठ जा रहा था। इसी तरह दिसंबर में एप्पल एप स्टोर से सबसे ज्यादा डाउनलोड होने वाला एप बिटक्वायन का ही था। बिटक्वायन अत्यधिक विश्वास करने वाले कुछ लोग तो ‘हाइपर बिटक्वायनाइजेशन’ जैसी एक ऐसी अवस्था की उम्मीद लगाए बैठे हैं, जब बिटक्वायन पूरी वैश्विक वित्त-व्यवस्था पर कब्जा कर लेगी और इतनी ताकतवर हो जाएगी कि डॉलर सहित दुनिया की सारी मुद्राओं का खात्मा कर देगी, फिर सब कुछ बिटक्वायन से संचालित होने लगेगा। इस तरह ये लोग बिटक्वायन द्वारा परंपरागत सरकारों को दरकिनार करते हुए एक ऐसी विकेंद्रीकृत वित्तीय व्यवस्था की रचना करने की उम्मीद करने लगे हैं जिसकी देख-रेख किसी अकेले संस्थान के जिम्मे न रहे।
क्रिप्टोकरेंसी के आलोचकों में वारेन बफेट जैसे लोग भी शामिल हैं, जो इसे ”चूहे मारने की दवा’’ कहते हैं। दरअसल इस मुद्रा का कोई अंतर्भूत मूल्य नहीं होता है। यह एक गैर उत्पादक परिसंपत्ति होती है जिसका वास्तविक उत्पादन से कोई लेना-देना नहीं होता। इनका व्यापार महज इसलिए हो रहा है कि इनकी मांग है। कैसिनो, यानी जुए की तरह जल्दी से जल्दी ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने के लिए स्वतंत्रता पूर्वक और खुशी-खुशी इसका व्यापार करो। लोग किसी कंपनी का शेयर खरीदने से पहले भी उस कंपनी और उसके उत्पादों का विश्लेषण करते हैं। शेयरों के निवेशक, व्यापारी और विशेषज्ञ दशकों तक कंपनियों, उनके बिजनेस मॉडलों, उनके मूल्यांकनों का अध्ययन करते रहते हैं और ऐसे शेयरों की सूचियां तैयार करते रहते हैं जिनमें निवेश की सलाह दी जा सके। इसी वजह से कंपनी के शेयरों का मूल्य उसकी सेहत से जुड़ा होता है और उसमें उतार-चढ़ाव भी उसी के साथ-साथ होता है। लेकिन क्रिप्टोकरेंसी में ऐसा कुछ भी नहीं है। इनमें मूल्यांकन विशेषज्ञों और बिजनेस मॉडल विशेषज्ञों की कोई भूमिका नहीं होती। इनकी कीमतें जितनी ऊंची रहती हैं, बाजार में उतनी ही ज्यादा उनकी मांग बढ़ती जाती है, नए-नए लोग इनकी तरफ आकर्षित होते रहते हैं, इससे कीमतें और ज्यादा बढऩे लगती हैं। इसी तरह से कभी-कभी यह चक्र उल्टा भी चलता है और देखते ही देखते इनकी कीमतें धड़ाम से गिर जाती हैं। यानी, इनकी मांग को निरंतर बनाए रखने के लिए इनकी कीमतों का निरंतर ऊंचा बने रहना जरूरी है।
पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने भी एक बार कहा था कि ”इन ज्यादातर मुद्राओं का मूल्य महज इसलिए बना हुआ है कि ढेर सारे मूर्ख इसे खरीदने के लिए तैयार बैठे हैं।‘’ किसी कंपनी के शेयर की कीमत ऊंची रहने पर इस बात पर बहस हो सकती है कि यह कीमत कंपनी के वास्तविक मूल्यांकन और परफॉर्मेंस से मैच करती है या नहीं। उसका मूल्यांकन उसके वास्तविक मूल्य से अत्यधिक होने की अवस्था में उसे बुलबुला की संज्ञा देते हैं। मगर आभासी मुद्राओं का कोई अंतर्भूत मूल्य ही न होने के कारण उनके वास्तविक मूल्याकन या परफॉर्मेंस पर ऐसी किसी बहस के कोई मायने नहीं हैं। इसीलिए इन्हें तो बुलबुला भी नहीं कह सकते। इनकी किसी भी कीमत को अच्छी या बुरी कीमत नहीं कहा जा सकता।
शेयर बाजारों में, जब शेयरों के दाम अचानक गिरने लगते हैं और बाजार में अफरा-तफरी मच जाती है, उस समय स्टॉक एक्सचेंज सर्किट ब्रेकर की तरह काम करने लगते हैं और शेयरों की खरीद-फरोख्त पर विराम लगा कर आग को फैलने से रोक देते हैं। अनेक वित्तीय संकटों के झटकों के असर को बैंकों और सरकारों के माध्यम से इसी तरह से कम किया जाता रहा है। अब तक इस सर्कस में खतरनाक छलांग लगा रहे खिलाडिय़ों के नीचे जाल बिछा होता था। लेकिन क्रिप्टोकरेंसी पूंजीवाद का अब तक का चरम प्रयोग है। इसके खिलाड़ी जाल हटा कर छलांग लगाने को तैयार हैं। पूंजीवाद अब तक की अपनी यात्रा में आम लोगों को किसी न किसी लालच में फंसाए रख कर उनकी सारी जमा-पूंजी को अपनी मुठ्ठी में करता रहा है। छड़ी में बंधे गाजर के पीछे चलते जा रहे गधे की तरह मध्यवर्ग एक सपने के ध्वस्त होते ही दूसरे सपने पर विश्वास करके चलता जाता है। मुनाफा पूंजीवाद की चालक शक्ति है और लोभ-लालच की संस्कृति मुनाफे का अनिवार्य सहउत्पाद। इसी के बल पर वह सपनों का कारोबार जारी रखता है। आज का कॉरपोरेट पूंजीवाद राज्य, सरकार, सेना, बैंक आदि का जिस हद तक चाहता है, सहारा लेकर अपने मुनाफे की हवस शांत करता रहता है, लेकिन एक स्थिति में यही संरचनाएं उसे अपने मुनाफे में रुकावट जैसी प्रतीत होने लगती हैं। उस समय वह इनके गैरजरूरी होने की दलील देने लगता है। क्रिप्टोकरेंसी बेहिसाब मुनाफे की लालच में सभी तरह के वित्तीय नियंत्रणों से बाहर निकलने को बेताब अनुत्पादक और गैर-जिम्मेदार पूंजीवाद का चरमरूप है।