कंटेंट के मामले में क्षेत्रीय सिनेमा हिंदी यानी बॉलीवुड सिनेमा से बहुत आगे है। भाषाई दूरियों के कारण, अब तक सभी दर्शक खासकर हिन्दीभाषी इन फिल्मों को नहीं देख पाते थे। पहले डब या रीमेक फिल्मों के जरिये क्षेत्रीय सिनेमा पहुंचता था लेकिन ओटीटी प्लेटफॉर्म ने अब ये दूरियां मिटा दी हैं। नतीजा, आज समान विषय वाली तमिल फिल्म 'सरपट्टा'और हिंदी फिल्म'तूफ़ान'एक ही प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध हैं। दोनों फिल्में देखने के बाद आपको लग जाएगा कि तूफान बस नाम की तूफान है। पा. रंजीत की तमिल फिल्म के आगे राकेश ओमप्रकाश मेहरा की हिंदी फिल्म कहीं नहीं ठहरती। न कहानी, न पटकथा और न अदाकारी में। तूफान एक रेडीमेड और नकली फ़िल्म लगती है जबकि तमिल फिल्म बॉक्सिंग जैसे विषय के बावजूद 70 के दशक में मद्रास के जरिये इमरजेंसी, द्रविड़ राजनीति के साथ व्यक्तिगत और सामाजिक पहचान को आपके सामने रखती है। कॉस्ट्यूम, कैमरा, एडिटिंग, एक्टिंग सभी पर पा. रंजीत की छाप है। जबकि तूफान में आप नायक के साथ खुद को जोड़ भी नहीं पाते। सिर्फ मोहन अगाशे हैं जिनके किरदार को मजबूत बनाने में लेखक-निर्देशक ने बिलकुल भी दिलचस्पी नहीं ली है। उधर सरपट्टा के रंगन की आंखें और बॉडी लैंग्वेज ही फ़िल्म की थीम को ऊंचाइयों पर ले जाती है। रंगन फ़िल्म का नायक नहीं है। वह शोले के ठाकुर जैसा किरदार है जिसे अपना खोया हुआ सम्मान वापस चाहिए।
हिंदी फिल्म में ऐसा लक्ष्य है ही नहीं। हिंदी फिल्में कहानी और किरदारों से अधिक हीरो की करिश्माई इमेज और तूफानी प्रचार पर जोर देती हैं लेकिन अब क्षेत्रीय सिनेमा (बांग्ला, मराठी, कन्नड़, मलयालम, तमिल -तेलुगु) 'सब टाइटल्स'के साथ चुनौती बनकर बॉलीवुड के सामने है।
जय. सिंह