दिल्ली में संपन्न पुलिस महानिदेशकों और महानिरीक्षकों के 57वें अखिल भारतीय सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्षमताओं का लाभ उठाने और सर्वोत्तम तरीकों को शेयर करने के लिए राज्य पुलिस और केंद्रीय एजेंसियों के बीच सहयोग बढ़ाने पर उचित ही जोर दिया।
समझना जरूरी है कि राज्य और केंद्र की सुरक्षा एजेंसियाँ न तो एक दूसरे की प्रतियोगी हैं, न शत्रु। दोनों का उद्देश्य समाज में कानून और व्यवस्था की पहरेदारी करना है। इसके लिए आपसी तालमेल बेहद ज़रूरी हैं। दुर्भाग्य की बात है कि सियासी वजहों से बहुत बार राज्य और केंद्र की सुरक्षा एजेंसियों को एक दूसरे के खिलाफ खड़े होना पड़ता है। इसलिए आपसी सहयोग बढ़ाने की यह बात केवल आला पुलिस अधिकारियों से नहीं, बल्कि आला जनसेवकों से भी कही जानी चाहिए। किसी लोकतंत्र में इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि कोई राज्य किसी केंद्रीय एजेंसी का अपने यहाँ प्रवेश तक निषिद्ध घोषित कर दे। प्रधानमंत्री महोदय को इस मुद्दे पर भी ध्यान देना चाहिए कि सुरक्षा एजेंसियों को सियासत के लिए इस्तेमाल न किया जाए। अगर ब्रिटेन में सीट बैल्ट न बाँधने पर पुलिस प्रधानमंत्री पर भी जुर्माना ठोक सकती है और अमेरिका में गोपनीय दस्तावेज़ों के लिए पुलिस राष्ट्रपति के आवास पर भी छापा मार सकती है, तो यह इसीलिए संभव है कि वहाँ पुलिस किसी पार्टी या किसी सत्ता के प्रति नहीं, बल्कि देश और जनता के प्रति वफादार है। क्या भारत में ऐसा संभव है? संभव है, लेकिन तभी जब भारतीय पुलिस मध्यकालीन सामंती चरित्र और ब्रिटिश कालीन उपनिवेशी चरित्र से मुक्त हो। इस लिहाज से प्रधानमंत्री का यह संबोधन एक वैचारिक सुगबुगाहट ज़रूर पैदा कर सकता है कि पुलिस से जुड़े उपनिवेशकालीन कानूनों में आमूल-चूल बदलाव ज़रूरी है। इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने अप्रचलित आपराधिक कानूनों को निरस्त करने और राज्यों में पुलिस संगठनों के लिए मानकों के निर्माण की सिफारिश की। उनका यह सुझाव सचमुच अर्थपूर्ण है कि आंतरिक सुरक्षा व कानून व्यवस्था की समस्या से निपटने की रणनीति राज्य और जिला स्तर पर तैयार की जानी चाहिए। ऐसे बदलाव से शायद राज्य और केंद्र की सुरक्षा एजेंसियों के बीच बेहतर सहयोग कायम हो सके।
प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में एक और बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा पुलिस की संवेदनशीलता का उठाया। साथ ही इक्कीसवीं सदी में जिस तत्परता और त्वरा की ज़रूरत है, उसकी तरफ भी समुचित ध्यान दिलाया। उन्होंने पुलिस बल को और संवेदनशील बनाने और उन्हें आधुनिक तकनीकी का प्रशिक्षण देने का सुझाव दिया। यहाँ प्रसंगवश याद आता है कि अभी पिछले दिनों जब एक उच्च अधिकारी ने किसी थाने में तैनात सिपाही से बंदूक चलाकर दिखाने को कहा तो वह बंदूक की नली में ऊपर से गोली भरने लगा! नहीं, यह चुटकुला नहीं, सच्ची खबर है; और इससे पुलिस के प्रशिक्षण की कमज़ोरी सामने आती है। इसलिए आधुनिक तकनीक तो बाद में, पहले पारंपरिक प्रशिक्षण को भी चाक-चौबंद करने की ज़रूरत का पता चलता है। वरना हमारी पुलिस आज की तेज चाल वाली दुनिया में फिसड्डी साबित हो सकती है। बदलती जरूरतों के मुताबिक उसे नए संसाधनों से सुसज्जित किया जाना तो खैर ज़रूरी है ही। यह भी कहा गया कि प्रौद्योगिकी संसाधन अपनाने के साथ-साथ पैदल गश्त जैसी पारंपरिक प्रणाली को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
अंततः यह भी कि देश भर में हर साल बढ़ते अपराध के आँकड़े कहीं न कहीं कानून और व्यवस्था के लचर और लाचार होने को भी दर्शाते हैं! इस सवाल पर भी सोचे जाने की ज़रूरत है कि महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों से संबंधित दंडात्मक प्रावधान कड़े किए जाने के बावजूद ज़मीन पर उनका असर क्यों नहीं दिखाई दे रहा। 000