अशोक सिंघई
शब्द बनते हैं अक्षर और मात्रा की एकता से। इस देह में आत्मा की तरह ज्ञान छिपा होता है। शब्दों के सही संयोजन से ज्ञान और विज्ञान को घर मिलता है। शब्द की चेतना स्वायत्त और जनोन्मुख होती है। मुद्रित शब्द स्लेट पर लिखी हुई इबारत नहीं होते जिन्हें आसानी से पोंछ दिया जाये। ये शिलालेखों और ताम्रपत्रों की वे संतानें हैं जो समय की धूल से धूल-धुसरित नहीं होते। शब्द की यही गति सत्ता को धूल चटाती है और महिमा-मण्डित भी करती है तथा इतिहास के पन्नों पर या तो कैद कर देती है या इतिहास के स्वर्णिम अध्याय सजाती है। अँधेरे को देखने के लिये आँखों में उजाला होना चाहिये। समय और समाज में व्याप्त अँधेरे को कलमकार देखता है और उजाले की किरण से उसे भेदने का प्रयास करता है। व्यवस्था के सही चेहरे को सूरज की रोशनी में लाना साहित्य और पत्रकारिता का प्रथम ध्येय है। वैसे भी ये दोनों पराक्रमी प्रक्रम अपनी आत्मा और आम जनता के प्रति ही जवाबदेह और जिम्मेदार होते हैं।
साहित्य ऐसा परावर्तित चमकीला प्रकाश है जो अध्येता की क्षमतानुसार उसे दृष्टि प्रदान करता है। कल्पना से परहेज़ रखती पत्रकारिता स्मृतियों का इतिहास या कोश नहीं है वरन यह समाज और व्यवस्था के अन्तर्सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य में दिन-प्रतिदिन के घटितों, अपेक्षाओं और यथस्थितियों पर एक सरसरी और पैनी दृष्टि डालते रहने का निरन्तर कर्म है। पत्रकारिता समाज की, और समाज की इकाई व्यक्ति की विकास-यात्रा का दिक्सूचक यंत्र है। स्मृति की सीमाओं से परे, कल्पनाओं के आकाश को छोड़कर यथार्थ के धरातल पर अपने आसपास की दुनिया की गति को बाँधकर समेटने और परोसने की कला होती है पत्रकारिता। यह शाब्दिक-सर्जना की सामूहिकता का सबसे सबल प्रमाण है। सोच और संसाधनों के आधार पर विकसित होती इस सत्ता का विश्वास संसाधनों की ओर अधिक झुक रहा है। यह लक्षण मात्र है। कारणों की तलाश और निदान की खोज आज शब्दों की दुनिया की प्राथमिकताओं में से एक होना चाहिये। इस सत्ता का लोकतंत्रीकरण किये बिना लोकतंत्र की अवधारणा पूरी तरह प्रायोगित हो पावेगी, इसमें सुनिश्चित संदेह है।
साहित्य का सहस्राब्दियों का एक दीर्घ इतिहास है और असमाप्तेय भविष्य भी। पत्रकारिता की उम्र अभी अधिक नहीं हुई है। शिलालेखों, राजसी मुद्राओं सिक्कों, नक्कारों आदि के माध्यम से जनमत को सूचित और प्रभावित करने के पुरातन प्रयासों को जनसंचार माध्यमों का पूर्वज माना जा सकता है। इन्द्रियाँ ज्ञान का द्वार होती हैं। ज्ञान से चेतना कुलबुलाती हुई अपनी आँखें खोलती हैं और पुष्ट होने लगती हैं। फिर चेतना इन्द्रियों की शक्ति बढ़ा देती हैं। शक्तिशाली होती इन्द्रियाँ ज्ञान के दायरे को वैसा ही विस्तारित करती रहती हैं जैसे ताल के जल को भेदता कंकर, उसमें लहरों का जाल उठा देता है। दुनिया को और उसके अनंत सांसारिक व्यापार और व्यवहार से अपना रिश्ता ढूँढती, समाज व समूहों से तादात्म्य स्थापित रखती एकाकी काया अपनी भी अस्मिता की तलाश करती है। आकाश के अबूझ सितारों से लेकर भूगोल की घाटियों में भटकती, इतिहास की परतों और भविष्य की धुंध को टटोलती उसकी जिज्ञासा की अंगुलियाँ, सह-अनुभूतियों के शीतोश्म को जब महसूसती हैं तो वह उसे अभिव्यक्त भी करना चाहती है। इस आदिम सोच ने साझे के सिद्धांत को अपनाते हुए मनुष्य को अपनी अदृष्य और अनूठी शक्तियों- शक्ति, स्मृति और फिर कल्पना का आभास हुआ होगा। हर मनुष्य के लिए मानवता की यह यात्रा प्रारंभ और अंत के वलय से गुज़रती है। यह उसके लिए अंतिम, पर मानव की नस्ल के लिए अनन्तिम और अनन्त होती है। हर मनुष्य अपने जीवन में पूर्वातीत की सारी यात्राओं को एक बार फिर जीता है। हमारी सोच, हमारे विचार प्रस्तर-युग से चिप-युग तक की यात्रा का संजोया ज्ञान और अनुभव, समय की समझ और समय की मांग, हमारे स्वप्न, हमारे आदर्श, हमारे लक्ष्य साझे होने चाहिए, सबके होने चाहिए, सबके लिए होने चाहिए। हमारी सारी संगठनात्मकता, हमारा सारा ज्ञान ऐसा हो जो मनुष्य और अंततः मानवता के पक्ष में खड़ा नज़र आये।
ईस्वी पूर्व 60 में जूलियस सीजर ने ‘एक्टा डार्यना’ नामक दैनिक समाचार बुलेटिन शुरू करवाया था जो रोम के संवाद लेखक राजधानी से दूर के निवासियों के लिये लिखा करते थे। इसमे सरकारी घोशणायें प्रकाशित की जाती थीं। छापेखानों का आविश्कार होने तक हस्तलिखित समाचारों का प्रचलन बना रहा। इसी तरह के ऐतिहासिक साधनों के प्रयोग हमारी आजादी की लड़ाई में हुये और जन-जागरण के काम में पत्रकारिता ने अहम् भूमिका निभाई। इंग्लैण्ड में 1476 में छापाखाना शुरू हुआ और सम्भवतः पहला अखबार 1561 के लगभग ‘न्यूज आउट ऑफ केंट’ प्रकाशित हुआ। हमारे देश में मुगलकाल में बाकायदा ‘वाकयानवीस’ नियुक्त हुआ करते थे।
ईस्वी पूर्व 60 में जूलियस सीजर ने ‘एक्टा डार्यना’ नामक दैनिक समाचार बुलेटिन शुरू करवाया था जो रोम के संवाद लेखक राजधानी से दूर के निवासियों के लिये लिखा करते थे। इसमे सरकारी घोषणायें प्रकाशित की जाती थीं। छापेखानों का आविश्कार होने तक हस्तलिखित समाचारों का प्रचलन बना रहा। इंग्लैण्ड में 1476 में छापाखाना शुरू हुआ और सम्भवतः पहला अखबार 1561 के लगभग ‘न्यूज आउट ऑफ केंट’ प्रकाशित हुआ। तब स्वतंत्र अखबार छापने के लिये सरकार से विधिवत अनुमति ले पाना अत्यंत दुश्कर कार्य था। अंग्रेजी में 24 सितम्बर, 1621 तारीख के ‘न्यूज़ फ्राम इटली, जर्मनी, हंगरी’ नामक अखबार की प्रति मिल सकी है जिसमें प्रकाशक और सम्पादक के रूप में निकोलस बोर्ने का नाम छपा मिलता है। सत्रहवीं शताब्दी के पहले दो दशकों में किसी न किसी रूप में जर्मनी, आस्ट्रिया, नीदरलैण्ड और इटली में खुले टाइप की सहायता से पत्र छपने लगे थे। अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध में पत्रकारिता की जड़ें ने अपनी जमीन बना ली। 11 मार्च, 1702 को पहला अंग्रेजी दैनिक ‘कोरांट’ प्रकाशित हुआ। इसके पहले ही सितम्बर 1690 में चार पन्नों का एक मासिक पत्र ‘पब्लिक आकरेन्सेस बोथ फारेन एण्ड डोमस्टिक’ बोस्टन, अमेरिका से एक अंग्रेज बेंजामिन हैरिस ने निकाला था पर उसने पहले ही अंक में फ्रान्स के सम्राट पर अनैतिक होने का आरोप लगाया और फ्रान्स के बंदियों पर अंग्रेजों के बर्बर अत्याचारों की भर्त्सना की थी। शायद इन समाचारों को सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त करने की नियत से ही यह अखबार प्रकाशित किया गया रहा हो। इसे बंद कराया गया और वह भी इतनी सख्ती के साथ कि एक दशक के बाद ही 24 अप्रैल, 1704 को नियतकालीन समाचार पत्र ‘बोस्टन न्यूज़ लेटर’ शुरू हो सका।
भारतीय पत्रकारिता की शुरूआत ‘बंगाल गजट’ (29 जनवरी, 1780) से मानी जा सकती है। जेम्स आगस्टस हिकी ने बिना किसी भय के आत्मा और मन की स्वाधीनता के लिये प्रकाशित ‘बंगाल गजट’ में ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रशासन और अंग्रेज तानाशाहों के भ्रश्ट आचरणों का पर्दाफाश किया था। उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में पत्रकारिता को भारत में जगह मिल सकी। हमारा छत्तीसगढ़ अंचल और सौ साल पीछे रहा तथा बीसवीं सदी के प्रारम्भ में ही पत्रकारिता इस सुदूर अंचल तक पहुँच सकी। भारतीय भाशाओं में 1818 में पहला मासिक ‘दिग्दर्शन’ बांग्ला में प्रकाशित हुआ और ‘समाचार दर्पण’ के नाम से यह साप्ताहिक हुआ। यह बहुभाशी पत्र था जिसमें हिन्दी का भी प्रयोग होता था। राजा राममोहन राय ने 1821 में फारसी में पहला अखबार ‘मिरातुल अखबार’ प्रकाशित किया। 1822 में गुजराती भाशा का पहला अखबार ‘मुम्बई समाचार’ प्रकाशित हुआ जो कि 3 मई, 1832 को दैनिक बना। अंतराल में बांग्ला, अंग्रेजी, हिन्दी और फारसी में राजा राममोहन राय नेे ‘बंगदूत’ निकाला। 30 मई, 1826 को पं. युगलकिशोर शुकुल ने देवनागरी लिपि में हिन्दी का पहला पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ प्रकाशित किया। इसे ही हिन्दी पत्रकारिता का उद्भव माना जाता है। ‘बंगदूत’ ठीक उसके बाद 10 मई, 1829 को प्रकाशित हुआ।
राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिन्द’ ने 1843 में वाराणसी से ‘बनारस अखबार’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया पर पत्र की भाशा अरबी और फारसी होने के कारण यह लोकप्रिय नहीं हो सका। और फिर एक बाढ़ सी आई तथा 1847 में ‘अल्मोड़ा दरबार’, 1849 में ‘भोपाल अखबार’, 1853 में ‘ग्वालियर गजट’, 1854 में ‘मालवा अखबार’, 1854 में ही ‘समाचार सुधा वर्शण’, 1872 में ‘बिहार बन्धु’, 1874 में ‘बाल बोधिनी’, 1878 में ‘सार सुधा निधि’, 1857 में ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ आदि समाचार पत्रों का जन्म हुआ। स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ 1857 से पत्रकारिता का संकटकाल प्रारम्भ हुआ पर उसे शक्ति भी इसी आन्दोलन से मिली। राश्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में पत्रकारिता की विशिश्ट भूमिका रही। स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ 1857 से पत्रकारिता का संकटकाल प्रारम्भ हुआ पर उसे शक्ति भी इसी आन्दोलन से मिली। राश्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में पत्रकारिता की विशिश्ट भूमिका रही और साहित्यकारों ने अपने साहित्य को इसी माध्यम से जन-जन तक पहुँचा कर जनमत बनाया। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में ‘सरस्वती’, ‘नवजीवन’, ‘इंडियन ओपीनियन’, ‘हरिजन’, ‘अभ्युदय’, ‘मर्यादा’, ‘नृसिंह’, ‘प्रताप’, ‘महारथी’, ‘कर्मयोगी’, आदि समाचार पत्रों ने अपनी उपयोगिता सिद्ध कर दी। गाँधी जी के ‘यंग इंडिया’ और ‘हरिजन’ की भूमिका भला कौन भुला सकता है।
भारतेन्दु हरीशचन्द्र के सम्पादन में ‘कविवचन सुधा’ और पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा सम्पादित ‘सरस्वती’ साहित्यिक व हिन्दी पत्रकारिता के गोमुख हैं। पं. मदनमोहन मालवीय और लाला लाजपत राय के आर्शीवाद से श्री रामचन्द्र के सम्पादन में मासिक पत्र ‘महारथी’ को न जाने कितने साहित्य महारथियों ने अपना सक्रिय सहयोग दिया था। जयशंकर प्रसाद, अयोध्यानाथ ‘हरिऔघ’, मैथिलीशरण गुप्त, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, रामवृक्ष बेनीपुरी, नारायण प्रसाद ‘बेताब’ और गद्यलेखकों में आचार्य नंददुलारे बाजपेयी, गिरिजादत्त शुक्ल, भगवती प्रसाद बाजपेयी, कामताप्रसाद गुरू, जहूरबक्ष, किशोरीदास बाजपेयी आदि ने ‘महारथी’ के पनों को अपना स्पन्दन दिया और पत्रकारिता तथा साहित्य, दोनों को समृद्ध किया। पं. बनारसी दास चतुर्वेदी के ‘विशाल भारत’ को मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, प्रेमचन्द, सुदर्शन, राहुल सांस्कृत्यायन, हरिवंशराय बच्चन, सोहनलाल द्विवेदी, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामधारीसिंह दिनकर, हीरानन्द वात्सायन ‘अज्ञेय’, बालकृश्ण राय, अजीमबेग चुगताई, अनवर हुसैन रायपुरी, कमला चौधरी, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार, मोहन सिंह सेंगर, जैनेन्द्र कुमार जैन आदि लेखकों ने अपनी अमूल्य और श्रेश्ठ रचनायें देकर समृद्ध बनाये रखा। आज इस रिश्ते में खटास है। उन्नीसवीं शताब्दी में साहित्यिक क्षितिज पर प्रखर प्रतिभा और प्रचण्ड आभा के धनी पं. माधवराव सप्रे का उदय हुआ जिन्होंने हिन्दी पत्रकारिता की सीमाओं और सम्भावनाओं को अपार विस्तार दिया। द्विवेदी युग के अन्यतम हिन्दी मासिक ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन उनकी सक्रिय चेतना और अपराजेय जिजीविशा का सुपरिणाम था। छत्तीसगढ़ के पेण्ड्रा, बिलासपुर से प्रकाशित यह पत्र रायपुर के कय्युमी प्रेस से मुद्रित हुआ और 1900 से 1902 का तीन वर्शों का लघु जीवन ही जी सका पर इस अल्पावधि में भी इसने अखिल भारतीय स्वरूप बना लिया था। पं. सुन्दरलाल त्रिपाठी ने 1935 में मासिक पत्र ‘उत्थान’ प्रारम्भ किया था। रायपुर जिला कांग्रेस कमेटी ने पहला साप्ताहिक 1938 में ‘कांग्रेस पत्रिका’ निकाली। पं. ष्यामाचरण शुक्ला के मुख्य सम्पादन और स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी के सम्पादन में जनवरी 1951 में पहला हिन्दी दैनिक ‘महाकोशल’ प्रारम्भ हुआ जो कि 1958 तक एकमात्र दैनिक बना रहा। बाद में कुमार साहू, रामेन्द्र वर्मा, गुरूदेव कश्यप छविनाथ राय, सत्यदेव आदि इससे जुड़े।
मध्य भारत में हिन्दी पत्रकारिता के विकास में मराठी पत्रों की उल्लेखनीय भूमिका है। 5 जून, 1947 को एक सायंकालीन दैनिक के रूप में ‘नई दुनिया’ का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। मध्य प्रदेश बनने के बाद ‘नई दुनिया’ ने 1952 में रायपुर और 1956 में जबलपुर संस्करण प्रारम्भ किये जो 1971 तक अस्तित्व में रहे। 26 जनवरी, 1950 को ‘जागरण’ प्रारम्भ हुआ। इन दोनों पत्रों ने मध्य भारत को सबल और सक्षम पत्रकारों की एक पीढ़ी प्रदान की जिनमें से कइयों ने कालान्तर में अपने-अपने अखबार निकाल कर पत्रकारिता के अभियान को विस्तार दिया। 1956 में मध्य प्रदेश बन जाने के बाद लगभग हर जिला मुख्यालयों से अखबार निकलने लगे। अखबार पहले मासिक, फिर साप्ताहिक और फिर दैनिक हुये। अब तो दैनिक अखबार ही पत्रकारिता के पर्याय बन गये हैं। 1950 में ‘नवभारत’ के जबलपुर संस्करण के सम्पादक मायाराम सुरजन ने जबलपुर और रायपुर से ‘देशबन्धु’ प्रारम्भ किया जो आज भी अपनी छवि बनाये हुये है। 1965 में लाला जगदलपुरी ने हल्बी में ‘बस्तरिहा’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया। हमारे प्रदेश का पहला आंग्ल दैनिक ‘एम. पी. क्रानिकल’ गोविन्द लाल वोरा के सम्पादन में 1974 में अस्तित्व में आ सका। और इस तरह पत्रकारिता को एक अपेक्षाकृत उर्वर अंचल मिला और अब हमारे प्रदेश की पत्रकारिता ने सौ वर्शों से अधिक का सफर तय कर लिया है।
पत्रकारिता के सफर में अनेकों के अमिट पदचिन्ह हैं। हमारे प्रदेश में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, माधवराव सप्रे, मुकुटधर पाण्डेय, गजानन माधव मुक्तिबोध, चन्दूलाल चन्द्राकर ने राश्ट्रीय परिदृश्य में छत्तीसगढ़ की जिजीविशा का अनुपम आदर्श जगजाहिर किया। मायाराम सुरजन, हरि ठाकुर, प्रमोद वर्मा, श्रीकान्त वर्मा, रामाश्रय उपाध्याय, मधुकर खेर, बसंत तिवारी, कुमार साहू, गोविन्दलाल वोरा, बबन प्रसाद मिश्र, रमेश नैयर, राजनारायण मिश्र, रम्मू श्रीवास्तव, जयशंकर ‘नीरव’, देवीप्रसाद वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, श्यामलाल चतुर्वेदी, कमल ठाकुर, नारायणलाल परमार, लतीफ घोंघी, ललित सुरजन, प्रभाकर चौबे, शरद कोठारी, परितोश चक्रवर्ती आदि कुछ ऐसे यशस्वी नाम हैं जिनकी पहचान एक प्रखर लेखक, निर्भीक पत्रकार और सम्पादक के रूप में है तो वे साहित्य की दुनिया में भी कोई कम ख्यातिलब्ध नहीं हैं। इन्होंने साहित्य और पत्रकारिता के क्षीण होते सम्बन्धों को काफी हद बचाये रखा। व्यक्ति की तरह अखबार का भी अपना एक व्यक्तित्व होता है। जिस तरह कारण-अकारण कोई व्यक्ति सुहाता है, वैसे ही कोई अखबार अच्छा लगने लगता है। फिर उस अखबार में लिखने वाले लोग, सम्पादक से लेकर पूरी की पूरी टीम के साथ एक अपनत्व पैदा हो जाता है। साहित्यकार पत्रकारों को अपने गोत्र का मानने से गुरेज़ करते हैं और ऐसी बात भी नहीं है कि पत्रकार साहित्यकारों को बहुत सम्मान की दृष्टि से आंकते हैं। जरूरत शब्दों को हथियार बनाने वाले इन दोनों वर्गों की दिली और दिमागी एकता और परस्पर पसंदगी की है।
वर्तमान में समाचार पत्रों के विराट नेट-वर्क और असंख्य पाठकों तक उनकी पहुँच ने पत्रकारिता को विशेश पराक्रमी बना दिया है। प्रकाशनों के दुरूह जाल और पुस्तकों की आसमान छूती कीमतों के मद्देनज़र साहित्यकार भले ही अपने आप को राम मानते रहें पर समाज से उनकी और उनके सृजन की बढ़ती दूरियों को, पत्रकारिता की शर्तों पर ही सही, समाचार पत्रों की नाव ही पार लगा सकती है। कहा गया है कि कण भर सत्ता और मन भर सोने का मद बराबर होता है। सत्ता रूपी मदमस्त हाथी का अंकुश है अक्षर। अक्षर और सत्ता, दोनों की ही प्रभावशीलता समय और भूगोल की सीमाओं से परे हो गई। इधर सत्ता की ही तरह अपने अनगिन स्वरूपों में अक्षरों ने अपनी उपयोगिता निर्विवाद रूप से सिद्ध की और अपनी एक विशेष प्रतिष्ठा भी बनाई। संचार के अन्यान्य उपक्रमों में विगत दो शताब्दियों में अख़बार या यूँ कहें पत्रकारिता ने पूरी धरा पर एक चक्रवर्ती साम्राज्य स्थपित कर लिया और अक्षर-सैनिकों तथा अक्षर-किसानों ने मिल-जुलकर अपनी एक अजेय अद्वैत सत्ता कायम की जिसका लोहा अन्य सारी शक्तियाँ मानती हैं। लोकतंत्र के कुहासे में जन-भागीदारी की चेतना, जिसमें पत्रकारिता भी सन्निहित है, अभी दूर की भोर मालूम होती है। राजधानी के इर्द-गिर्द संस्कृतिकर्मियों की भगदड़ से उठी धूल जरा बैठे तो, शायद कुछ भविष्य दिखाई पड़े। श्रद्धेय त्रिलोचन जी याद आते हैं -
”शिशिर में ही एक दिन बिलकुल अलक्षित
उमड़ते हैं रंग भर कर बौर
सही तो अनुभूतियाँ हैं, कल्पनामय
मैं कहीं हूँ चाहिये क्या और’’
आनंद का घट
”शिशिर में ही एक दिन बिलकुल अलक्षित
उमड़ते हैं रंग भर कर बौर
सही तो अनुभूतियाँ हैं, कल्पनामय
मैं कहीं हूँ चाहिये क्या और’’
आनंद का घट
कहा जाता है कि दीर्घावधि तक चले देवासुर संग्राम में अन्ततः विजयी होने के लिये देवों ने अनेक प्रयास, अनुश्ठान आदि किये। सुफल के रूप में आनंद का घट देवताओं के हाथ लग गया। आनंद शक्ति और पराक्रम का अविरल स्रोत होता है। जहाँ आनंद होता है, वहाँ विजय सुनिश्चित होती है। आनंद का यह घट असुरों के हाथ न लग जाये, यह चिन्ता देवताओं को सताने लगी। वे सब भारी सोच में पड़ गये कि असुरों से इसे बचाकर रखना है तो आखिर कहाँ रखें? बहुत सोचने-विचारने के बाद आखिरकार देवताओं ने एक अति-सुरक्षित स्थान खोज ही लिया और वह था हृदय। सर्वदृश्टा सहित सभी, सब कुछ देखते हैं, पर हृदय में कोई नहीं झाँकता या यूँ कहें कि झाँक नहीं पाता। इसके लिये विशेश सामर्थ्य चाहिये। इस सबसे निरापद जगह पर देवताओं ने आनंद का घट छिपाकर रख दिया है। हम सब कुछ ढूँढते हैं, सब जगह खोजते हैं, परन्तु अपना हृदय नहीं टटोलते। आनंद का घट वहीं सुरक्षित पड़ा रहता है।