एक अत्यंत पठनीय आलेख
मणिपुर की एबीसीडी
(मणिपुर के इतिहास, भूगोल, सामाजिक व्यवस्था और राजनीति पर बेसिक विचार विमर्श)
के.पी.एस.वर्मा
नोट: कुछ पाठकों को लेख से असहमति हो सकती है। स्वागत है। मैं किसी असहमति पर विरोध जाहिर नहीं करूंगा। असहमति के कारण भी बताएंगे तो मेरे लिए अतिरिक्त जानकारी होगी। धन्यवाद।
क्या आप भारत के नक्शे में मणिपुर पर उंगली रख सकते हैं? रख सकते हैं तो ग्रेट! पर यदि नक्शा एनसीईआरटी की किताब में है तो आप नहीं रख पाएंगे। क्योंकि मणिपुर इतना छोटा है कि आपकी उंगली मणिपुर के अलावा नगालैंड और मिजोरम को भी ढक लेगी। जोक्स एपार्ट, यदि आप मणिपुर पर उंगली रख सकते हैं तो आप समझदार हैं। पर देश के 65% लोग मणिपुर पर उंगली नहीं रख पाएंगे। उनके लिए मणिपुर चाइनीज टाइप चपटी नाक वालों की कोई जगह है जहां पता नहीं क्या क्या खा जाते हैं। पूरा पूर्वोत्तर हमारे लिए एक अजूबा है जहां के लोगों को हम दिल से हिंदुस्तानी मानते भी नहीं। भले उनकी वजह से यदाकदा हमारा सीना चौड़ा होता हो, खासकर खेलों में।
जानते हैं कि बौक्सिंग में 2012 औलिंपिक ब्रोंज मेडलिस्ट मैरी कॉम कहां की हैं? केरल ! नहीं मणिपुर की हैं।
जानते हैं मीराबाई चानू कौन हैं? राजस्थान की महिला खिलाड़ी ! नहीं, मणिपुर की वेटलिफ्टर हैं जिन्होंने 2021औलिंपिक में रजत पदक जीता।
आप पहले से मणिपुर की A to Z जानते हैं तो बहुत अच्छा। काफी लोग जान गए हैं, आजकल मणिपुर के खबरों में रहने से। पर यदि अब भी कुछ लोगों में मणिपुर के बारे में जिज्ञासा है तो यह पोस्ट उन लोगों के लिए है।
इतिहास
1947 में मणिपुर स्वतंत्र राज्य था जिसके राजा बोध चंद्र सिंह ने भारत या पाकिस्तान में विलय या स्वतंत्र क्षेत्र रहने के अंग्रेजों के दिए औप्शन में से स्वतंत्र रियासत रहना चुना। पर जनता के दवाब में 1949 में भारत का हिस्सा बना केंद्र के सीधे नियंत्रण में। 1972 में पूर्ण राज्य का दर्जा मिला।
मणिपुर में कम से कम 150 साल से मुख्यतः तीन समुदाय के लोग रहते हैं। आज के संदर्भ में एक मैतेई समुदाय (लगभग 60%) जिसमें सब नहीं पर ज्यादातर (लगभग 80%) हिंदू हैं। दूसरा समुदाय कुकी (लगभग 25%) हैं जिन्हें मंगोल रेस का माना जाता है और हाल फिलहाल जिन्हें म्यांमार से आया माना जाता है । कुछ नागा समुदाय (लगभग 15%) के लोग भी हैं। बाकी समुदाय बहुत कम संख्या में हैं। शुरू से ही कुकी और नागा समुदाय पहाड़ियों के बीच रहते थे और वह लोग पहाडों के जंगल उत्पाद से ही अपना जीवन निर्वाह करते थे। जबकि अपेक्षाकृत बेहतर आर्थिक स्थिति वाले मैतेई समुदाय (जिन्हें मणिपुरी भी कहा जाता है) के अधिकांश लोग पहाड़ों के बीच घाटी भूमि पर रहते थे और कृषि और व्यवसाय आधारित जीवन निर्वाह करते थे। कुकी समुदाय के अधिकतर लोग ईसाई हैं और नागा लोगों में ईसाई भी हैं और अलग अपने संप्रदाय के लोग भी। गैर मैतेई सभी आदिवासी हैं और जैसा हम लोग जानते हैं, सभी क्षेत्रों के आदिवासी कोई स्थापित धर्म नहीं मानते थे और उनके स्थानीय देवताओं और परंपराओं से उनका जीवन संचालित होता था। स्वतंत्रता से पहले हिंदू संगठनों ने दुर्गम स्थानों पर बसे कुकी और नागा आदिवासियों को हिंदू बनाने का कोई प्रयास नहीं किया। जबकि ईसाई मिशनरियों ने वहां स्कूल और अस्पताल खोले और बदले में उन्हें, खासकर कुकी समुदाय को ईसाई बनाया।
कुकी और नागा लोगों को हमेशा से संख्या और संपन्नता में उनसे ज्यादा होने से मैतेई समुदाय द्वारा शोषण का खतरा रहा और उनमें से कुछ लोग, खासकर कुकी समुदाय से, उग्रवादी हो कर उपद्रव करते रहे। शायद जिसका उद्देश्य था कि मैतेई उनके जंगल संसाधनों पर नजर न गड़ाएं। दबे स्वरूप में अलग कुकीलैंड की मांग भी उठती रही। यह आंख मिचौली 2008 तक चली जब एक समझौते के तहत कुकी समुदाय को आदिवासी का दर्जा देने के साथ ही उनकी जंगल संपदा को दूसरे लोगों से बचाने के लिए उन्हें धारा 371 की सुरक्षा दी गई जिसके तहत गैर आदिवासी लोग यानी मैतेई जंगल पहाड़ क्षेत्र में जमीन नहीं खरीद सकते थे। उनकी स्वतंत्र गवर्निंग काउंसिल भी बना दी गई मणिपुर राज्य के अंदर ही। मणिपुर में सेना की विशेष शक्तियां भी खत्म कर दी गईं। और 2023 के आरंभ तक अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण रहा मणिपुर। फिर यह दोनों संप्रदाय अब इतने आंदोलित क्यों? इसकी जड़ में पोलिटिकल खेल है। वह बाद में, 'राजनीति'शीर्षक के तहत।
भूगोल
एक ऐसे स्टेडियम की कल्पना कीजिए जिसमें खेलने वाली समतल जगह का क्षेत्रफल X हो और दर्शकों के लिए बने स्टैंड्स का क्षेत्रफल 9X हो। अब यदि मणिपुर के संदर्भ में देखें तो यह इस स्टेडियम का बड़ा रूप है। कुल क्षेत्रफल लगभग 23000 वर्ग किलोमीटर। और जनसंख्या लगभग 34 लाख। इसमें मैतेई लगभग 60% और कुकी और अन्य 40%. पर मैतेई रहते हैं पहाड़ों के बीच वैली में और बाकी 90% पहाड़ी भूमि क्षेत्र कुकी और नागा समुदाय के नियंत्रण में है। हर अन्य जगह की तरह जंगल और बिना कब्जा वाले क्षेत्र औफिसियली सरकारी संपत्ति हैं।
इसका क्या प्रभाव सामाजिक परिस्थितियों पर पड़ा है, 'सामाजिक व्यवस्था'शीर्षक में देखेंगे।
सामाजिक व्यवस्था
2008 के समझौते के तहत जब कुकी और नागा समुदायों को धारा 371 की सुरक्षा मिल गई और मणिपुर राज्य में ही सेल्फ गवर्निंग काउंसिल का हक मिल गया तो आम मणिपुर वासी को लगातार चल रहे द्वंद्व से छुटकारा मिला। अपेक्षाकृत शांत मणिपुर ने अपनी खेल प्रवृत्ति का बेहतरीन परिचय दिया। क्या यह महज संयोग है कि मैरी कॉम (2012) और मीराबाई चानू (2021), दोनों ने इसी अवधि में देश का नाम रोशन किया।
मैरी कौम पर उसी नाम से बनी बायोपिक जब हिट हुई तो किसी ने नहीं पूछा कि वह ईसाई है और कुकी समुदाय से है। आज यदि वही वायोपिक बनती तो रंग में भंग डालने वाले कुछ सिरफिरे जरूर कहते कि फिल्म को बायकॉट करो। जैसा शाहरुख खान और आमिर खान की फिल्मों के साथ हुआ।
2021 औलिंपिक में मीराबाई चानू के सिल्वर मेडल जीतने के बाद जब मैरी कॉम, जो कुकी समुदाय से हैं और चानू, जो मैतेई समुदाय से हैं, मिलीं तो दोनों चिपट गईं थीं एक दूसरे से। एक का विश्वास मणिपुर की ही दूसरी मेडल विनर से जागा होगा शायद। आज दोनो मिलकर सरकार से मणिपुर को बचा लेने के लिए अपील कर रही हैं और शायद भारतीय और मणिपुरी खांचे से कुकी और मैतेई के नफरती खांचे में डालने की संभावित नफरती सोच से विचलित हो रही हों। मैरी कॉम को क्या यह सोच कर सिहरन नहीं हुई होगी कि निर्वस्त्र होकर घुमाई गई उन अनाम महिलाओं में वह भी हो सकती थीं, क्योंकि वह भी कुकी समुदाय से हैं। या चानू को नहीं लगता होगा कि कुकी उग्रवादी उनकी दुनिया भी उजाड़ सकते हैं।
मैतेई और कुकी समुदाय के उग्र विचारधारा वाले लोग एक दूसरे पर आरोप लगाते रहे हैं। अब उग्र मैतेई लोग 2008 समझौते को खत्म करना चाहते हैं क्योंकि उनके अनुसार समझौते की आड़ में उग्रवादी कुकी बाहर से कुकी लोगों को लाकर बसा रहे हैं और समझौते के तहत कैंप में जमा हथियारों का इस्तेमाल करते हैं। गांजा की खेती भी करने का आरोप है। लेकिन कुछ साल पहले एक सरप्राइज चैक में 60% पूर्व मिलिटेंट कैंप में थे और लगभग सभी हथियार मौजूद थे जमा की गई सुरक्षित जगह पर। इसलिए मोटामोटी माना जा सकता है कि समझौते का पालन कुकी समुदाय कर रहा था। और गांजा या कोई भी अवैध धंधे पर नियंत्रण सरकार की जिम्मेदारी है और उसे निभाना चाहिए ताकि समझौता तोड़ने का बहाना मैतेई समुदाय को न मिले।
आप कह सकते हैं कि नागा समुदाय मणिपुर में इतना उग्र क्यों नहीं है। शायद साइक्लौजीकल कारण है यहूदियों की तरह का। नागा लोगों को अपना बगल का राज्य नगालैंड मिला हुआ है। जरूरत पड़ने पर वहां शरण ले सकते हैं। कुकी समुदाय का मणिपुर के अलावा कोई ठिकाना नहीं है। भले कुछ लोग म्यांमार से आए हों पर वहां वापस जाना भी नामुमकिन है। इसलिए समझौते में 371 की सुरक्षा और सेल्फ गवर्निंग काउंसिल अपना इलाका होने का विश्वास पैदा करते हैं। जब जर्मनी ने यहूदियों का नरसंहार किया था तो यहूदियों की सबसे बड़ी कसक थी कि काश कोई उनका भी होमलैंड होता जहां भागकर वह जान बचाते। इजरायल उसी कसक का परिणाम है।
कुछ मैतेई कितने उग्र हो चुके हैं इसकी एक बानगी करण थापर के साथ इंटरव्यू में मैतेई समुदाय के प्रमोद सिंह ने दी। वह कहते हैं कि हम कुकी को जड़मूल खतम कर देंगे क्योंकि 'वह हमारी उन्नति में रोड़ा हैं'।
कुकी समुदाय का आरोप है कि कुछ सालों से मैतेई समाज कुछ न कुछ बहाना बनाकर घाटी में बसे गिने चुने कुकी परिवारों को प्रताड़ित कर भगा दे रहे हैं। यह 'कुछ साल'वही हैं जब से RSS मणिपुर में सक्रिय हुआ है। आज मणिपुर जैसी छोटी जगह में RSS की 105 से ज्यादा शाखाएं लगती हैं। एक यूट्यूब चैनल ने दिखाया कि 4 मई की शर्मनाक घटना का आरोपी RSS का स्वयंसेवक है और RSS की शाखा में जाने वाली ड्रेस में उसका फोटो अपलोड किया है। पर चूंकि फोटो फोटोशॉप किए जा सकते हैं तो फोटो के जेन्युइन होने की पुष्टि होने तक पक्का नहीं कहा जा सकता कि मुख्य आरोपी RSS स्वयंसेवक है ही।
लेकिन छिटपुट खटपट होने के बाद भी दोनों समुदायों के आम नागरिकों में समझौते से राहत थी।
यहां ज्ञात हो कि आसाम को छोड़कर बाकी उत्तर पूर्व के राज्य आदिवासी बहुल हैं और सेक्स Taboo नहीं होने से महिलाओं पर अपराधों के मामले में राष्ट्रीय औसत से कहीं बेहतर हैं। इसलिए भी महिलाओं के साथ 4 मई का हादसा बाहरी लोगों द्वारा नफरत फैलाकर उकसाए जाने का मामला लगता है।
राजनीति
राजनीति का एक सबसे प्रमुख काम ऐसे लोगों के बीच सामंजस्य बिठाना होता है जो परंपरागत रूप से अतीत में प्रतिद्वंद्वी माने जाते रहे हैं। उनको समान आर्थिक और सामाजिक अवसर देकर उनके अंदर किसी और वाद की जगह व्यक्तिवाद को विकसित किया जाता है। ऐसा करने के लिए कभी कभी ठीक परिवार की तरह कमजोर सदस्य में सुरक्षा की भावना जगाने के लिए कुछ झुनझुना भी पकड़ाया जाता है।
कुकी समुदाय को धारा 371 की सुरक्षा प्रदान करना आदि ऐसा ही झुनझुना था। लेकिन बहु संख्यक समुदाय को ऐसा लगा कि वह पीड़ित हैं क्योंकि उनके पास बहुमत है पर जमीन सिर्फ 10 प्रतिशत है।
इस बहुमत द्वारा पीड़ित महसूस करने के पीछे जो कारण हैं वह साफ नहीं हैं पर कुछ तार्किक लोगों के बीच कुछ परसेप्शन हैं। और कहावत है कि Perception is more important than reality तो इन परसैप्शन को दूर कर असलियत बताना उन लोगों का काम है जिनके बारे में यह परसैप्शन बने हैं। परसैप्शन का हिंदी पर्यायवाची शब्द अनुभूति है जो बहुत प्रचलन में नहीं है इसलिए मैं परसैप्शन शब्द ही प्रयोग करूंगा। अनुभूति का सरल मतलब है कि सच कुछ भी हो पर लोगों को जो लगता है वह अनुभूति या परसैप्शन है।
परसैप्शन 1:
आरऐसऐस ने नफरत को हवा दी है मैतेई कुकी समस्या को हिंदू ईसाई समस्या बनाकrर
आरऐसऐस हाल के वर्षों में उत्तर पूर्व में अपनी शाखाओं को फैलाने में सफल रहा है। जैसा ऊपर बताया गया, मणिपुर जैसे छोटे इलाके में उनकी आज 105 से ऊपर शाखाएं हैं। इसके लिए उसने अपने मूल सिद्धांतों में से कुछ को उत्तर पूर्व के संदर्भ में टैंपरेरी तौर पर ठंडे वस्ते में डाल दिया है। इनमें गौमांस भक्षण और यूनीफार्म सिविल कोड हैं। उसने कुकी और मैतेई प्रतिद्वंदता को हिंदू बनाम ईसाई प्रतिद्वंदता बना दिया है। मतलब पहले से चल रही नफरत, जो 2008 के समझौते के कारण कम हुई थी, उस पर हिंदू ईसाई का मुलम्मा चढ़ाकर नफरत को नया आयाम दिया है। धार तेज की गई है। लोगों को समझ में नहीं आरहा है कि करण थापर जी के इंटरव्यू में प्रमोद सिंह हर कुकी को खतम करने की बात आरऐसऐस के तोते की तरह बोल रहे थे या फिर हिटलर की यहूदी नीति को दुहरा रहे थे।
परसैप्शन 2:
60% मैतेई को 10% भूमि में समेटना और 40% कुकी + नागा समुदायों को 90% भूमि देना अन्याय है।
क्या सचमुच ऐसा है?
उत्तर जानने के लिए उत्तराखंड चलते हैं। आज के उत्तर प्रदेश का क्षेत्रफल उत्तराखंड के क्षेत्रफल का सिर्फ 4.5 गुना है। पर उत्तर प्रदेश की जनसंख्या उत्तराखंड की जनसंख्या का लगभग 25 गुना है। मतलब हर उत्तराखंड वासी के पास उत्तर प्रदेश के हर भैय्या के मुकाबले साढ़े पांच गुना जमीन है। उत्तराखंड की तरह मणिपुर के पहाड़ी लोगों को पर्यटन का कोई सहारा नहीं है। यदि उत्तराखंड के पास पर्यटन स्थल न होते तो पहाड़ों से पलायन कर आधे उत्तराखंडी देश के बाकी हिस्सों में होते और फिर उत्तराखंड में बचे हर आदमी के पास यूपी के आदमी से 10-15 गुना जमीन होती।
और मणिपुर की तरह ही उत्तराखंड सरकार के नियम के अनुसार यूपी वाला क्या कोई भी भारतीय उत्तराखंड में जमीन नहीं खरीद सकता।
क्या आपको लगता है कि यह यूपी वालों के साथ बहुत बड़ा अन्याय है या होता? यदि हां तो यहां आरऐसऐस वाले उत्तराखंड वालों के खिलाफ यूपी वालों के कान क्यों नहीं भरते? नफरत की चिंगारी क्यों नहीं सुलगाते? जवाब है, क्योंकि उत्तराखंड में भी हिंदू ही हैं। वहां भी यदि अल्पसंख्यक होते तो उत्तराखंड में जमीन न खरीद पाने का विरोध भी जरूर होता।
परसैप्शन 3:
मैतेई समुदाय को आदिवासी का दर्जे की पहल के पीछे ध्रुवीकरण का खेल
एक परसैप्शन यह है कि केंद्र सरकार ने मैतेई समुदाय को भी आदिवासी का दर्जा दिए जाने की पहल कर शांत तालाब में पत्थर फेंकने का काम इसलिए किया कि समुदायों में वैमनष्य हो और 2002 के बाद के गुजरात की तरह ध्रवीकरण हो। इसके लिए कुछ निर्दोषों का जीवन जाए या नरक बन जाए तो बन जाए। फिर मणिपुर पर्मानेंटली भाजपा का। मेरा अपना अनुमान है कि शीघ्र मणिपुर के संसदीय क्षेत्रों का परिसीमन होगा और दोनों नए इलाकों में मैतेई समुदाय का बहुमत होगा। दोनों सीट भाजपा भारी बहुमत से जीतेगी हालांकि पूरे मणिपुर में हिंदू 40-45% ही हैं पर गैर हिंदू मैतेई भी आदिवासी दर्जा पाने के बाद भाजपा के साथ खड़े हो सकते हैं। लखीमपुर खीरी याद है न। मरने वाले किसान सिख थे और किसान आंदोलन में सिख फ्रंट पर थे। हिंदू सिख के नफरती ध्रुवीकरण की अंडरकरेंट की वजह से लखीमपुर खीरी में भाजपा ने भारी फसल काटी। कुछ लोग मरे तो मरे। पंजाब में हुआ नुकसान उसके मुकाबले बौना था।
परसैप्शन 4:
कुछ लोगों का सोचना है कि एक बार मैतेई समुदाय को आदिवासी का दर्जा मिल गया तो उसके बाद मैतेई समाज के धनाढ्य लोग भारत के खनिज व्यवसाय में लगे लोगों से मिल जाएंगे और वहां के पहाडों के खनिज संपदा के दोहन के लिए लीज का रास्ता खुल जाएगा। मतलब इस मारकाट का कारण किसी सेठ की तिजोरी भरने की भूख भी हो सकती है।
परसैप्शन 5 :
सब को 4 मई की घटना का पता था
यह परसैप्शन सबसे अधिक पीड़ादायी है यदि सच साबित होता है। भूगोल पर फिर आते हैं। भले मणिपुर का क्षेत्रफल आगरा जिले के क्षेत्रफल से चार गुना हो पर जनसंख्या आगरा जिले से लगभग आधी है। तो सिर्फ आगरा की जनसंख्या के आधे के बराबर वाले प्रदेश में, और उस प्रदेश के 10% वाली घाटी वाले भूभाग की एक सड़क पर जो राजधानी से ज्यादा दूर नहीं हो सकती, ऐसा भयानक कृत्य क्या मुख्यमंत्री के संज्ञान में आने से बच सकता है। ऐसे ही कृत्य के लिए क्या आगरा जिले का डीएम कह सकता है कि उसे इस भयानक हादसे की खबर नहीं थी। खासकर तब जब उस परिवार को उपद्रवियों ने पुलिस की सुरक्षा से छीना था। क्या पुलिस ने अपने अफसरों और अफसरों ने सीएम को नहीं बताया होगा?
और यदि मुख्यमंत्री को पता था तो क्या यह संभव है कि उन्होंने भाजपा शीर्ष नेतृत्व को न बताया हो। और यदि बताया तो क्या मुख्यमंत्री को चुप रहने को कहा गया। इस विचार या परसैप्शन को बल इसलिए मिलता है कि हादसे के वीडियो को चला देने के लिए ट्विटर पर कार्यवाही होने की बात हो रही है। क्योंकि ट्विटर की कारिस्तानी की वजह से शीर्ष नेतृत्व का 'बुरा मत देखो न दिखाओ तो सब चंगा है'की सोच का पर्दाफाश हो गया। जबकि किसी भी विशाल ह्रदय नेतृत्व को ट्विटर का आभारी होना चाहिए कि उसने सत्य को सामने लाया और डीएम, सौरी सीएम को उन्हें अंधेरे में रखने के लिए बरखास्त करना चाहिए। चूंकि ऐसा नहीं हुआ तो लोगों को लगता है कि सबको पता था। आपको क्या लगता है?
एक और घटना संज्ञान में आई। आम समय में यह भी एक गलत काम माना जाता। पर यह गलत काम आज नारी के सम्मान की रक्षा में एक आशा की किरण दिख रही है। कुछ मैतेई महिलाओं ने उन कुकी महिलाओं के अपमान से व्यथित होकर इसमें लिप्त मैतेई पुरुषों के घरों पर धावा बोलकर उनके घरों में आग लगाने की कोशिश की। इंसानियत अभी जिंदा है हालांकि बिगड़े हालात में सीमाएं लांघ रही है। फिर भी स्त्री सम्मान की मुहिम में स्वागत योग्य है।
पुनश्च: मेरे एक विद्वान फेसबुक मित्र श्री सुरेश कुमार शर्मा जी ने कुछ कीमती तथ्य मणिपुर समस्या पर भेजे हैं। उनका अनुवाद यहां प्रस्तुत है:
■■ मैतेई समुदाय का कहना है कि वह भारत में विलय से पहले एक ट्राइब ही की तरह लिस्टेड थे। लेकिन 1950 की जारी लिस्ट में वह बाहर हो गए। लेकिन सच यह है कि भारत सरकार ने मणिपुर सरकार से 1950 में आदिवासी समुदायों की लिस्ट मांगी पर मैतेई समुदाय अपने को आदिवासी नहीं कहलाना चाहता था और बहुत ही कम लोगों ने में से बहुत कम ही मैतेई लोगों ने आदिवासी होना माना और जिन कुछ लोगों ने ऐससी या ओबीसी होना माना और उन्हें वह दर्जा दिया भी गया। 1956 में भारत सरकार ने मणिपुर प्रशासन से फिर मैतेई समुदाय में आदिवासी लोगों की लिस्ट मांगी पर मैतेई समुदाय ने आदिवासी होना नहीं माना। वह मानते थे कि आदिवासी अछूत हैं और वह उनसे अलग पहचान चाहते थे। मैतेई समुदाय को 18 वीं शताब्दी में वहां के राजा ने हिंदू बनाया। ■■
Kumar Narendra Singh की फेसवाल से