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Ak
“थोड़ा एक झुके, थोड़ा दूसरा― यह गाँधीजी के लिए सिर्फ व्यावहारिक बुद्धि की माँग नहीं थी। उनकी तथाकथित समझौता परस्ती में यह गहरी नैतिक और दार्शनिक मान्यता निहित थी कि सारा सत्य सिर्फ मेरी बपौती नहीं है। मेरे प्रतिपक्षी के पास भी सत्य का एक पहलू है जिस के साथ समायोजन किया जाना चाहिए। गाँधीजी की एक-एक बात उचित ठहराने की न जरूरत है न इच्छा। आधी सदी तक फैले इतने सक्रिय सार्वजनिक जीवन में गाँधीजी ने कई विवादास्पद काम किए, लेकिन जब कोई समाज अपनी ऐतिहासिक विभूतियों का आकलन करता है तो समग्रता में। साथ ही इस बात का अनुमान करते हुए कि विभूति-विशेष के विचार और व्यवहार की दिशा क्या थी, उसके सरोकार क्या थे?”
महात्मा गाँधी की पुण्यतिथि पर राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, पुरुषोत्तम अग्रवाल की किताब ‘संस्कृति वर्चस्व और प्रतिरोध’ में संकलित लेख ‘खड़े रहो गाँधी’ का एक अंश।
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