Quantcast
Channel: पत्रकारिता / जनसंचार
Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

मीडिया की आलोचना

$
0
0





१९८४ के दंगे के हालात में नया प्रस्तावित सेंसरशिप किस तरह लागू होगा। अभी तक आश्वासन मिला है कि नहीं लागू होगा मगर ये फाइल अभी बाबू की मेज़ पर है। संपदकों की एकजुटता और राजनेताओं की दिलचस्पी का नतीजा तो यह निकला कि खतरा टल गया है। मगर खत्म नहीं हुआ है। तीन हज़ार लोग मार दिए जाते रहेंगे। आप पत्रकार न्यूज़ रूम में चाय पीते रहेंगे और पांच बजने का इंतज़ार करेंगे। सवा पांच बजे तक डीसीपी ईस्ट आएगा और एक फुटेज देगा। छोटी सी बाइट देगा। आप शाम को खबर चला देंगे कि डीसीपी ईस्ट ने कहा है कि स्थिति सामान्य है।

इस प्रस्ताव का खतरा यह है कि उग्र कानून व्यवस्था की स्थिति में भी ज़िलाधिकारी मीडिया पर लगाम कस देगा। ज़िलों में पत्रकार पहले से ही नक्सली बनाकर जेल मे ठूंसे जाते रहे हैं अब डीएम की समझ के नेशनल इंटरेस्ट में अंदर जायेंगे। सवाल जेल जाने के डर का नहीं है। सवाल है कि ये डीएम और बाबू कौन होता है हमें नेशनल इंटरेस्ट समझाने वाला। नेशनल इंटरेस्ट क्या गवर्मेंटल इंटरेस्ट ही होता है??

इस तरह की पत्रकारिता से मीडिया को ज़िम्मेदार बनाने के ठेकेदारों की बुद्धि पद्म श्री के लायक है। भारत देश सर्वदा संकट काल से ग्रसित एक भूखंड है। यहां कोई राजू कोई टाइटलर कोई मेहता कोई गौतम दिन दहाड़े घपला कर जाते हैं। सत्यम का राजू हो या डीडीए घर घोटाले का एक आरोपी क्लर्क एम एल गौतम। इनमें से किसी के बारे में आप ज़्यादा बता दें तो लोगों को परेशानी होने लगती है। होनी चाहिए। क्योंकि हमारा समाज एक भ्रष्ट समाज है। मैंने पहले भी लिखा है। आप दहेज के खिलाफ एक शो बना कर देख लीजिए। टीवी देखने वाला ज़्यादातर दर्शक जब दहेज में मिले टीवी पर शो देखेगा तो उसे अचानक इंडियन आइडल की याद आएगी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम दहेज के खिलाफ न दिखायें। ज़रूर दिखायें और बार बार दिखाते रहें। लेकिन भ्रष्ट समाज के बारे में जानना ज़रूरी है।

क्या हम अखबारों के लिए तय कर सकते हैं कि मुंबई धमाके की खबर सिंगल कालम छपेगी। उसमें डिटेल नहीं होंगे। क्या टीवी और अखबारों के डिटेल में कोई फर्क है। क्या हमला करने वाले आतंकवादी टीवी देखने आए थे? क्या सरकार ने कोई ठोस सबूत दिये हैं कि टीवी कवरेज की वजह से उनका आपरेशन कामयाब नहीं हुआ। ओबेराय होटल में भी हमला हुआ। लेकिन मीडिया को ढाई सौ मीटर से भी ज़्यादा की दूरी पर रोक दिया गया। पूरे कवरेज़ में ओबेरॉय की सिर्फ बिल्डिंग दिखाई देती रही। यहां ज़रूर कोई समझदार अफसर रहा होगा जिसने मीडिया को दूर कर दिया होगा। किसी को ध्यान भी है कि ओबेराय के कवरेज़ में इतना एक्शन क्यों नहीं था।

ताज में ऐसा क्यों नहीं हुआ। इसके लिए मीडिया दोषी है या वो अफसर जो इस तरह की कार्रवाई के विशेषज्ञ हैं। क्या हमने नौकरशाही पर उंगली उठायी। नहीं। जब भी ऐसे मौके पर सुरक्षावाले मीडिया को चेताते हैं मीडिया सतर्क हो जाता है। मामूली सिपाही ठेल कर कैमरे को पीछे कर देता है। ताज के पास क्यों नहीं हुआ। जैसे ही कहा गया कि लाइव कवरेज़ मत दिखाओ...ज़्यादातर मामलों में नहीं दिखाया गया।
एक ही फुटेज को बार बार दिखाने के पीछे की दलील देने वाले टीवी को नहीं जानते। हमारे लिए हर बुलेटिन एक एडिशन होता है। हम हर बुलेटिन उसके लिए नहीं बनाते जो दिन भर बैठकर टीवी ही देखता है। देखे तो अच्छा है। लेकिन फुटेज दोहराने की मंशा यही होती है कि अलग अलग समय में अलग अलग लोग देखने आएंगे तो उन्हें पता होना चाहिए कि क्या क्या हुआ।

मीडिया के कवरेज से एक फायदा यह हुआ आतंकवाद को मज़हबी बनाकर टेरर फाइटर नेताओं की फौज की दुकान नहीं चली। न तो आडवाणी निंदा करते दिखे न मोदी दहाड़ते। वैसे मोदी गए थे शहीदों को एक करोड़ रूपये देने। सिर्फ वर्दी वाले सिपाहियों को। बाकी डेढ़ सौ लोगों के लिए नहीं। भारत वर्ष के बाकी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को गद्दार कहा जाना चाहिए क्योंकि वो तो गए नहीं मुआवज़ा बांटने। इसी आचरण की पोल खोल दी मीडिया ने। लाखों लोगों का गुस्सा इस फटीचर किस्म की राजनीति पर भड़का। क्या गलत था।
क्या हमारी नौकरशाही इतनी योग्य हो गई है जिसके यहां मीडिया अपनी आज़ादी शाम पांच बजे तक के लिए गिरवी रख दे। संकट काल में। इनका क्या ट्रेक रिकार्ड रहा है। तब तो कल यूपी के डीजीपी जी औरैया का फुटेज ही नहीं दिखाने देते। एक इंजीनियर को चंदे के लिए मार दिया गया। आप घर बैठिये और शाम पांच बजे वीर बिक्रम फुटेज भिजवा देंगे।


सेंसर खतरनाक है। मीडिया की आलोचना सही है। भूत प्रेत और रावण का ससुराल भी सही है। लेकिन क्या मीडिया में सिर्फ इसी तरह के लोग बच गए हैं? टीआरपी की आलोचना तो टीवी के ही लोग कर रहे हैं। पेज थ्री और तांत्रिकों और सेक्स कैप्सुलों का विज्ञापन अखबार ही छापते हैं. वो क्यों नहीं मना कर देते कि जापानी तेल की सत्यता हम नहीं जानते। किसी ने इस्तमाल किया तो क्या होगा हम नहीं जानते। दवा है या नकली सामान। छापते तो हैं न।
मकसद यह नहीं कि उनकी गलती बताकर अपनी छुपा लें। टीवी की इस बुराई की आलोचना किसी दूसरे स्वर और लॉजिक के साथ हो। टीवी की आलोचना करने के लिए टीवी को समझिये। अखबार भी किसी खबर को फार्मेट करता है। बाक्स बनाता है। हेडर देता है। हेडलाइन कैची बनाता है। हम भी स्लो मो करते हैं। डिजाल्व करते हैं। म्यूज़िक डालते हैं।

फर्ज कीजिए कि सेंसर लग गया है। हमें मुंबई हमले का न्यूज़ दिखाना है.

सुबह आठ बजे का न्यूज़-

नमस्कार। मुंबई में आतंकवादी हमला हुआ है। हमले में कितने लोग मारे गए हैं शाम पांच बजे बतायेंगे। ताज होटल में कितने लोग बचे हुए हैं शाम पांच बजे बतायेंगे। अभी अभी खबर मिली है कि दक्षिण मुंबई के डीसीपी ने शादी ब्याह की शूटिंग कर रहे वीडियोग्राफरों को बुला लिया है। इसमें चुनाव आयोग के लिए फोटो आईकार्ड बनाने वाले वीडियोग्राफर भी शामिल हैं। यहीं लोग हमले की रिकार्डिंग कर रहे हैं। पांच बजे इनकी तस्वीर को हम दिखायेंगे। देश में सकंट काल है। प्लीज़ समझिये। हम अभी कुछ नहीं बता सकते लेकिन न्यूज़ देखिये। राष्ट्रहित में सरकार आतंकवादियो से मुकाबला कर रही है। इस पूरे प्रकरण में कोई भी अधिकारी या मंत्री दोषी नहीं है। हमें इनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। क्योंकि यह संकट काल है। संकट काल में भी तो हम देशभक्त हो सकते हैं। फिर बता दें कि मुंबई में हमला हुआ है। सब पांच बजे बतायेंगे जब डीसीपी बता देंगे। अगर आपको लगता है कि हमारे पास रिपोर्टर नहीं है तो गलत है। हम आपको थ्री वे बाक्स में दिखा रहे हैं कि हमारी तीनों रिपोर्टर आज आफिस आए हैं और चाय पी रहे हैं। शाम पांच बजे यही जाकर डीसीपी से खबर लेकर आयेंगे। धन्यवाद।

सुबह नौ बजे

नमस्कार। मुंबई में हमला हुआ है। मगर आगे कुछ नहीं बतायेंगे क्योंकि रिपीट हो जाएगा। बार बार एक ही न्यूज़ बताना ठीक नहीं होता। अगर बतायेंगे कि कोई अखबार में हमारी आलोचना कर आर्टिकिल लिख देगा और पांच सौ से हज़ार रुपये तक कमा लेगा। धन्यवाद। 


भाई लोग। चौबीस घंटे के न्यूज़ चैनल का मतलब ही यही है कि खबर कभी भी। वो एक स्क्रीन पर पड़ा हुआ अखबार है। जैसे एक अखबार छपने के बाद से लेकर रद्दी में बेचे जाने और ठोंगा बनने तक अपने ऊपर छपी खबरों को ढोता रहता है वैसे ही हम है। अब रही बात रावण के ससुराल बीट के रिपोर्टर की तो वो आप उनके संपादक से पूछ लीजिए। तुलसीदास के रिश्तेदार लगते होंगे। डीसीपी ईस्ट तो खुद शाम पांच बजे से पहले किसी तांत्रिक को फोन करता रहता है। किसी उंगली में पुखराज तो किसी में मूंगा पहनता है। फटीचर सोसायटी के फटीचर लोगों। भाग त ईहां से रे। के कहिस है रे कि मीडिया समाजसेवा करता है। और कोई काम न है रे मीडिया को। सेंसर लगावेगा तो एक दिन कैबिनेट सेक्रेटरी बोलेगा कि बोलो कि यूपीए या एनडीए ने देश के विकास के लिए महान काम किये हैं। बोलेगा कि नहीं...जेल भेजे का तोरा। जी मालिक...बोल रहे हैं। शाम पांच बजे से पहीलहीं बोल दे कां....सोर्सेज़ लगा के...।

हद हो गई है। मीडिया की आलोचना से यही समाधान निकलना था तो अब आलोचकों की जांच करवायें। ये दिन भर भूत प्रेत देखते हैं। उन्हीं के बारे में लिखते हैं और पैसा कमाते हैं। जो अच्छा काम करता है उसके बारे में कब बोलते हैं। कब लिखते हैं। 



 प्रस्तुति पंकज सोनी, 

Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>