प्रस्तुति- निम्मी, मनीषा, प्रतिमा,सोनाली, हिमानी
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी वि.वि.
वर्धा
मीडिया की आधी आबादी का सच
“अंग्रेजी पत्रकार की जिन बातों को हिंदी पत्रकार उसके गुण बताते, उन्हीं बातों को वे अपनी सहकर्मी के चरित्र हनन का औजार बना लेते। मसलन, अंग्रेजी पत्रकार बोले तो तेज-तर्रार और अपनी सहकर्मी बोले तो बदतमीज। अंग्रेजी पत्रकार अपने हकों के लिए लड़े तो जुझारू और हिंदी पत्रकार का आवाज़ उठाना शोशेबाजी। इस तरह की अनेक त्रासदियां महिला पत्रकार को जाने-अनजाने झेलनी पड़ती। महिला पत्रकार के साथ एक कप चाय पीकर धन्य हो जाने वाले साथी उसके प्रमोशन की बात उठते ही बैरी बन जाते हैं।” – वरिष्ठ पत्रकार इरा झा ने अपनी ज़िंदगी के कुछ अनछुए पन्नों को सामने रख कर कई बड़े सवाल उठाए हैं। ये सिर्फ़ उनका सच नहीं बल्कि हिंदी पत्रकारिता से जुड़ी तमाम महिलाओं का है जिन्हें हर रोज मर्दों की बनाई इस दुनिया में अपने हक़ की लड़ाई लड़नी पड़ती है। ये वो सच है जिससे हम और आप नज़रें तो चुरा सकते हैं, लेकिन उसे झुठला नहीं सकते। इरा झाकी ये दास्तान सामयिक वार्ता के मीडिया विशेषांक से साभार आपके सामने है… आप पढ़िए और बताइए कि क्या ये सच नहीं है?
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खेल से कोई लेना-देना न था. पर एशियाड से पहले के दिन थे। पूरी दिल्ली की तस्वीर बदल रही थी। जगह-जगह फ्लाइओवर बन रहे थे। इंदिरा गांधी, नेहरू और तालकटोरा स्डेटियम वगैरह बन रहे थे। अख़बार का कोना-कोना चाट जाने की आदत थी, सो वहां खांटी खेल पत्रकारों के बीच छत्तीसगढ़ के एक कस्बे से आई लड़की ने पत्रकारिता, खेल से संबंधित क्विज में अव्वल स्थान पा लिया। बस तभी लगा कि शायद यही वह मंजिल है जिसका सपना मैं चार साल की नन्हीं उम्र से देखा करती थी। तब मैं खुद को कागज पर अपनी लिखी इबारतें थामे आसमान में उड़ता देखती थी। पर यह पता नहीं था कि ये सपना मुझे पत्रकारिता के रास्ते पर ले जाएगा।
इस बीच मैं संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा के जरिये केंद्रीय सूचना सेवा के लिए चुन ली गई। मेरे पिता को लगा कि क्षमताएं इससे कहीं अधिक हैं। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम किताब को हाथ लगाए बिना ऐसा कमाल कर सकती हो, थोड़ा-बहुत पढ़ लो आईएएस हो जाओगी। बस मुझे तो मनचाही मुराद मिल गई। मैंने उसी दम पिता का सपना ताक पर रखकर अपने सपने को अंजाम देने की कोशिश शुरू कर दी। अभी दो-चार लेख लिखे ही थे कि दिल्ली प्रेस पत्र प्रकाशन में मुझे बतौर ट्रेनी नौकरी मिल गई। तब मुझे एक तरह से स्टाफ राइटर का काम दे दिया गया। मेरी जिम्मेदारी थी दिल्ली प्रेस की पत्रिकाओं – सरिता, मुक्ता, भू भारती, गृह शोभा, इत्यादि के लिए किस्म-किस्म के लेख लिखना।
अमूमन लड़कियों के पास वहां चिट्ठियों की छंटाई और चुटकुले लिखने जैसी जिम्मेदारियां हुआ करती थी। उनके बीच एक कम उम्र की लड़की का लेखन और रिपोर्टिंग कौतूहल का विषय था। उस जमाने में वहां आर.एल. शर्मा, दिनेश तिवारी, विश्राम वाचस्पति, शिरीष मिश्रा, विवेक सक्सेना जैसे लोग थे, जो मेरे हर लेखन पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दिया करते थे। मेरे लिखने के स्टाइल के कायल थे। पर इस खुशनुमा माहौल के बीच दिल्ली प्रेस का अपना अलग घुटन भरा माहौल था। वहां लोग बात तो कर सकते थे पर सिर्फ टायलेट के इर्द-गिर्द। लड़कियों को जींस पहनने की मनाही थी और लड़कों से बातचीत को सीता और राम की आलोचना करने वाले इस संगठन के मालिक तक शक की नज़र से देखते थे। तब कस्बे से आई इस लड़की को महानगर की इस तहजीब का पता न था। लिहाजा दिल्ली प्रेस में विद्रोह कर बैठी। उसने जींस पहनने से लेकर लड़कों से दोस्ती तक वह सबकुछ किया, जिसकी वहां मनाही थी और तब तो हद हो गई जब आदिवासियों पर उसकी एक स्टोरी को मालिक ने उनके सांस्कृतिक शोषण की दास्तान की बजाए नृशास्त्रीय तेवर देना चाहा। और तब उसने दिल्ली प्रेस से नमस्ते कर ली।
अगला मुकाम था निखिल चक्रवतीकी इंडिया प्रेस एजेंसी। इंडिया प्रेस एजेंसी में अगले दिन ही काम मिल गया। पैसों की बात करने की कभी कोई आदत थी नहीं तो वेतन के बारे में नहीं पूछा। दो महीने काम करने के बाद जो पैसे मिले उसे देखकर माथा ठनका पर इसी बीच पटना में पाटलिपुत्र टाइम्स की नौकरी इंतज़ार कर रही थी। संपादक मंडल मुझे कम उम्र की लड़की होने के नाते लेने को तैयार नहीं था. पर मेरी जिद के आगे उन्हें हथियार डालने पड़े। मुझे लगता था कि पत्रकारिता में कोई बड़ा काम कर गुजरूंगी, पर ऐसा नहीं हुआ।
पटना पहुंचते ही मुझे पता लगा कि वहां और कोई महिला पत्रकार है ही नहीं। हर शख़्स मुझे अजूबे की तरह देखता और कई बार लोगों को मैंने कनपतियां करते हुए सुना। घर में खाने को नहीं और इनके तेवर देखो। दरअसल उन दिनों यह लोगों की कल्पना से परे था कि सिर्फ़ करियर की खातिर किसी संपन्न परिवार की लड़की पटना आकर रिपोर्टिंग कर सकती है। लोग यही समझते कि मैं किसी आर्थिक तौर पर अति मजबूर परिवार की लड़की हूं, जिसे माता-पिता ने लावारिस छोड़ दिया। लोग मुझसे खोद-खोद कर पूछते दिल्ली में कहां रहती हो। पिताजी क्या करते हैं और जवाब सुनकर अविश्वास से ऐसे देखते जैसे किसी परले दर्जे की झूठी से पाला पड़ा है।
जहां तक काम कासवाल है, पटना का माहौल बड़ा संकुचित था। रिपोर्टिंग पर निकलने से पहले मुझे पहनावे से लेकर पेशे तक की सारी हिदायतें दी जातीं। मैं बार-बार उन्हें समझाना चाहती कि मैं एक पेशेवर पत्रकार हूं और अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी समझती हूं। पर वहां तो जैसे हर दूसरा व्यक्ति मेरा खैरख्वाह बनने पर तुला हुआ था। आज बिहार की पत्रकारिता में लड़कियों का खासा बोलबाला है। तब की तस्वीर आज से एकदम अलग थी। मेरे सामने स्टोरी की बजाए शादी के प्रस्तावों का ढेर था। मानो मेरी ज़िंदगी का यही मकसद हो। पटना में रिहाइश से रिपोर्टिंग तक जैसी जद्दोजेहद करनी पड़ी उसे सोचकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मैं जो सोचकर गई थी वैसा कुछ भी न कर पाई। सिवाय इतिहास में यह दर्ज कराने के कि पटना में मैं पहली महिला पत्रकार थी।
पटना के घुटन भरेमाहौल से निजात का पैगाम नवभारत टाइम्स जयपुर में नियुक्ति के तौर पर आया। मैं जयपुर चल पड़ी। 26 लोगों के बीच मैं और मणिमाला, दो लड़कियां। दोनों धुर महात्वाकांक्षी और औरत होने के नाते अपने लिए किसी भी तरह के महत्व की विरोधी। पहुंचने ही पहला जो ड्यूटी चार्ट बना उसमें रात की ड्यूटी करने वालों में अपना नाम न देखकर पांव तले जमीन खिसक गई। ऐसा लगा जैसे किसी ने तमाचा मारा हो। तब नई-नई नौकरी थी और नाइट ड्यूटी को लेकर जबरदस्त उत्साह था। मैंने तुरंत इस्तीफा लिखा और चल पड़ी। पूरे दफ़्तर में हलचल मच गई। हमारे चंद वरिष्ठ साथी मनाने चले आए और बोले – ये क्या बचपना है? नाइट ड्यूटी लगेगी सबकी बारी-बारी से। और उसके बाद तो जैसे नाइट ड्यूटी ही ज़िंदगी हो गई।
जयपुर से दिल्ली पहुंची तो एसपी सिंह मिल गए। जब मैंने उनसे दिल्ली आने के बारे में पूछा तो बोले, नाइट ड्यूटी करनी पड़ेगी। मैंने फट से जवाब दिया नहीं कराएंगे तो नौकरी छोड़ दूंगी और उसके बाद बगैर ऑफ लिए महीनों नाइट ड्यूटी करती रही। तब तक नवभारत टाइम्स में महिलाओं की नाइट ड्यूटी की परंपरा न थी। पर मुझे तो सिर्फ इसी में आनंद आता था। इसकी वजह थी दिन भर अपने मन मुताबिक लिखना-पढ़ना और घूमना और रात में पत्रकारिता का रोमांच।
दिल्ली का प्रोफेशनलमाहौल एकदम अलग था। राजेंद्र माथुर जैसे यशस्वी संपादक और सुरेंद्र प्रताप सिंह जैसे रिपोर्टिंग की पैनी नज़र रखने वाले कार्यकारी संपादक। पत्रकारिता का स्वर्णिम युग था वह। माथुर साहब में लेश मात्र भी दंभ न था। वे कभी भी बड़ी सरतलता से आकर डेस्क पर बैठ जाते और ख़बरें मांग कर बनाना शुरू कर देते अक्सर वह बजट और राजनीतिक परिस्थितियों, समसामयिक विषयों पर हम जैसे जूनियर उप संपादकों की राय लेते। कभी-कभी ऐसा लगता था कि इस तरह वह हममें भावी संपादक तलाश रहे हैं। वह हमें विषयों पर झकझोरते, शब्दों से खिलवाड़ करने को कहते। इसके साथ ही हम सबका भरपूर खय्ला भी रखते। अक्सर उन्हें यह कहते सुना गया कि फलां व्यक्ति मायूस क्यों है? फलां के कड़कपन को क्या हुआ या फलां की तबियत कुछ अलील है क्या? कई बार वह हम लड़रकियों से ताजा फैशन की जानकारी लेते, हेयर स्टाइल इत्यादि पर चर्चा करते और खाली वक़्त में अपने कमरे में बुलाकर निजी जीवन पर बातचीत किया करते थे। उनका जाना सचमुच पत्रकारिता के लिए ऐसा नुकसान था, जिसकी भरपाई शायद ही हो पाए।
सुरेंद्र प्रताप सिंहका अंदाज़ जरा अक्खड़ था, पर वह जो स्टैंड ले लें उससे कभी न मुकरते। पत्रकारिता में उनकी उपलब्धियां कौन नहीं जानता पर सामान्य जीवन में वे बेहद सरल और दोस्ती पसंद इंसान थे। उनका घर और दफ़्तर नौजवानों के लिए खुला रहता। वे नए और योग्य लोगों की हर तरह से मदद करते। कई बार मैंने उन्हें सबसे पहले दफ़्तर आकर पूरे स्टाफ की मेज-कुर्सियां तरतीब से लगाते देखा। उन्हें लोगों से समोसा शेयर करने में कोई हिचक नहीं थी। इन दोनों की खासियत यह थी कि दोनों ही निचली पायदान से संपादक बनने वाले लोग थे और उनमें आज के कारपोरेट संपादकों जैसा दंभ नहीं था।
अब और तब के संपादकों में फर्क यह है कि उनमें टीम के बीच आते ही अपनी लीडरशिप का अहम जाग जाता है। नवभारत टाइम्स में कई संपादक देखे। इनमें सिवाय विष्णु खरे के किसी के व्यक्तित्व में माथुर साहब और एसपी जैसी आभा न दिखाई दी। विष्णु खरे महालिक्खाड़ और विद्वान व्यक्ति थे पर वे डील-डौल, अपने बोलचाल के अंदाज और सरलता के कारण नवभारत टाइम्स में लंबे समय तक न टिक पाए। वरना माथुर साहब की परंपरा के वे ऐसे पोषक साबित होते जिनमें पत्रकारिता की खूबियां भी कूट-कूटकर भरी हुईं हैं।
नवभारत टाइम्स ने मुझे बहुत कुछ दिया। मसलन राष्ट्रीय अख़बारों में स्वतंत्र रूप से राष्ट्रीय संस्करण निकालने का गौरव। नवभारत टाइम्स में तब चीफ सब एडीटर पद तक पहुंचने वाले मैं पहली महिला थी। उससे पहले महिलाएं तो बहुत रहीं पर उनका नाइट ड्यूटी और न्यूज़ से भागना उन्हें इस पद तक न पहुंचा पाया। किरण अरोड़ा ज़रूर न्यूज़ में रहीं, पर उनका रुझान रिपोर्टर बनने की तरफ था, लिहाजा के सांध्य टाइम्स चली गईं। नवभारत टाइम्स में मेरे व्यवहार और काबिलियत से बेहिसाब समर्थक बन गए। जो लोग दूसरों से सीधे मुंह बात न करते वे भी मुझसे बहुत आत्मीयता से पेश आते। इससे मेरे वरिष्ठजनों में एक तरह की आशंका पलने लगी। वे मुझे अपने लिए चुनौती मानकर चलने लगे और मैं एक ऐसी साजिश का शिकार हो गई, जिसकी लड़ाई मुझे सुप्रीम कोर्ट तक लड़नी पड़ी।
मेरे अपने अनुभव का यही निचोड़ था कि हिंदी पत्रकारिता को प्रोफेशनल लड़कियां नहीं बहू, बेटियों और बहनों की दरकार है। यहां सहम कर रहना, मुस्कुराना और हर उल्टे-सीधे निर्देश सिर झुकाकर सुनना ही नियति है। महिला की काबिलियत कभी सामने न आए, इसके लिए हर दम घेराबंदी। अंग्रेजी महिला पत्रकार की दीदें फाड़कर बड़ाई करने वाले हिंदी पत्रकार के लिए बेबाक, काबिल, फैशनपरस्त सहकर्मी महिला हमेशा फिकरेबाजी और ईर्ष्या का विषय रही।अंग्रेजी पत्रकार की जिन बातों को हिंदी पत्रकार उसके गुण बताते, उन्हीं बातों को वे अपनी सहकर्मी के चरित्र हनन का औजार बना लेते। मसलन, अंग्रेजी पत्रकार बोले तो तेज-तर्रार और अपनी सहकर्मी बोले तो बदतमीज। अंग्रेजी पत्रकार अपने हकों के लिए लड़े तो जुझारू और हिंदी पत्रकार का आवाज़ उठाना शोशेबाजी। इस तरह की अनेक त्रासदियां महिला पत्रकार को जाने-अनजाने झेलनी पड़ती। महिला पत्रकार के साथ एक कप चाय पीकर धन्य हो जाने वाले साथी उसके प्रमोशन की बात उठते ही बैरी बन जाते।
पत्रकारिता की इन कड़वीसच्चाइयों से मुझे भी रू-ब-रू होना पड़ा। नभाटा में मेरे संस्करण निकालने की बात उठते ही मेरे सानिध्य से निहाल जाने वाले साथियों ने मुहिम छेड़ दी। कैसे जाएगी वहां? लड़कियों के बस का काम नहीं है वगैरह वगैरह। ऐन वक़्त पर मेरा नाम ड्यूटी चार्ट से हटा दिया गया। सीधे एसपी के पास जाकर कहा कि मौका दें, न जंचे तो छीन लीजियेगा। लोगों ने इतना भर रखा था कि एसपी एक लड़की को पीटीएस के लोगों के बीच भेजने का जोखिम नहीं लेना चाहते थे। वो समझाने लगे- वहां कितनी गाली-गलौज होती है। तुम्हें देर रात तक रुकना होगा। पर मेरा यह तर्क उन्हें जंच गया कि किसी लड़की ने वहां काम किया ही नहीं है। ये सभी परिवार वाले लोग हैं और मेरे जाने से सूरत बदलेगी।
17 मई को मुझेनभाटा से निलंबन की चिट्ठी थमा दी गई। मैं करीब साल भर तक निलंबित रही। इस दरम्यान तपती गर्मी में मुझे लेबर गेट पर हाजिरी लगानी पड़ती और बाद में मेरी सेवाएं समाप्त कर दी गईं। भेदभाव और शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के एवज में मुझे नाफरमानी और दंगा करने का जुर्म साबित कर नौकरी से निकाल दिया गया। यह लड़ाई मैंने सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी और हारी, पर इस बात का संतोष है कि मैंने कभी खुद को लाचार नहीं पाया। संतोष यह है कि मेरा संघर्ष रंग लाया और नभाटा में लड़कियों को तवज्जो मिलने लगी और पुरुषों का कहर कम हुआ।
नभाटा से निकाले जानेके बाद मैं पत्रकारिता के लिए अस्पृष्य हो गई। मेरी बेबाकी और अन्याय न सहने के गुण पर लोगों ने झगड़ालू का मुलम्मा चढ़ाकर ऐसी मार्केटिंग की कि मैं जहां पहुंचती लोग नमस्ते कर देते। मैंने नौकरी का विचार त्याग दिया। सभी अख़बारों के लिए लिखना शुरू किया। ऐसे वक़्त में हिंदुस्तान की नौकरी एक खुशनुमां हवा का झोंका बनकर आई। शंभूनाथ सिंह जीका फोन था- मृणाल जीतुरंत मिलना चाहती हैं। मैंने कहा टांग टूटी हुई है, प्लास्टर बंधा है तो बोले कैसे भी आओ। मृणाल जी ने कहा कि छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं पर किसी जानकार और विश्वास के व्यक्ति को भेजना चाहते हैं। फिर मेरी तरफ सवालिया नज़रों से देखा। मैंने कहा न बोलने का सवाल नहीं है। बस आपका फरमान है तो मानूंगी। कुछ निजी सवाल भी थे कि परिवार का क्या होगा। मैं बेटे को साथ लेकर तीसरे दिन चल पड़ी और टूटी टांग घसीट-घसीट कर ही भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन की रिपोर्ट कर डाली।
और उसके साथ ही शुरू हुआ धुआंधार रिपोर्टिंग का सिलसिला। बस्तर के जंगलों और सरगुजा के आदिवासी अंचलों से मेरी ख़बरें तब खूब पढ़ी और सराही गईं। जिस हिंदुस्तान में मुझसे जबरन इस्तीफा मांगा गया उसी की संपादक ने मुझसे कहा – इरा यू मेड मी प्राउड। उन्होंने ही लिखा युअर नेबर्स एन्वी इज युअर एडीटर्स प्राइड। नक्सल कैंप से मेरी रिपोर्ट तो तब पूरे हिंदुस्तान के उन मर्दों के लिए चुनौती थी, जो आज अंदर बैठे हैं। तब तक हिंदी या अंग्रेजी की कम से कम कोई महिला पत्रकार वहां तक जाने की हिम्मत न जुटा पाई थी। हिंदुस्तान के रांची दफ़्तर ने तो अपनी लाचारी जता दी थी। बाद में कई अख़बारों के की पत्रकारों को किसी नामलूम से नक्सल से मिलने के लिए पुरस्कृत किया गया और मेरा इनाम तो पूरी दुनिया के सामने है।