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सागरनामा: क्या सोच है गांवों और कस्बों में..

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.प्रस्तुति- सुजीत पटेल, रतन सेन भारती

क्या करें जब सड़क ही सड़कछाप हो. एक भी कल सीधी न हो. झटके लगते हों. कार का अलाइनमेंट बिगड़ जाता हो. घर से दूध लेकर निकलें तो बाज़ार पहुँचने तक दही बन जाए. पढ़ें वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय का विश्लेषण.
भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने अपनी छवि तैयार करने में किसी क़िस्म की कोई कसर नहीं छोड़ी है. और इसपर तबतक एतराज़ नहीं करते जबतक इसका कड़ा विरोध न हो.
18 वर्ष की उम्र के ठीक बाहर खड़े युवाओं की राय बेहद अहम है.
तटीय इलाकों में कहीं मोदी की लहर दिखती है तो कहीं बिल्कुल नहीं.
  • सागरनामा के सफ़र पर निकले वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय को दस दिन में आठ राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों की यात्रा करने के बाद तटीय राज्य केरल में नज़र आए चुनावी रंग.
  • आंध्र प्रदेश के विभाजन के बाद से कांग्रेस शायद अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रही है. दूसरी तरफ़ जगनमोहन रेड्डी की भारी जीत की अटकलें लगाई जा रही हैं, जो सच हो सकती हैं.
कार्टूनिस्टों की अपनी नज़र होती है लेकिन सोशल मीडिया में मैं, हम और आप के चक्कर में व्यंग्य कहीं पीछे छूट गया है.
1930 में महात्मा गांधी ने दांडी में नमक क़ानून तोड़ा था. तब से लेकर अब तक दांडी में कितना कुछ बहुत बदल चुका है.
  • केरल के कोझीकोड ज़िले के काप्पड़ गांव से वास्को डी गामा ने पहली बार भारत की धरती पर क़दम रखा था. तब से भारत ने तो काफ़ी तरक़्क़ी की है, काफ़ी कुछ बदल गया है, लेकिन काप्पड़ मानो ठहर सा गया है. आख़िर इस गांव में क्यों नहीं बही बदलाव की बयार और क्या सोचते हैं काप्पड़ के गांव वाले?

कहां, किसकी कितनी लहर?

  • सड़कें सिर्फ़ मंज़िल तक नहीं पहुंचाती, उस राज्य के बारे में भी बताती हैं. दक्षिण भारत में सड़कों की क्वालिटी और वाहनों की रफ़्तार गुजरात से कम नहीं दिखती लेकिन इसका वैसा प्रचार नहीं है.
  • देश को आज़ाद हुए 65 साल से अधिक हो चुके हैं. काग़ज़ों से छुआछूत ग़ायब हो चुका है, लेकिन कर्नाटक में दलित आज भी हर घाट का पानी नहीं पी सकते हैं.
  • दमन-दीव में आमतौर पर राजनीति के प्रति उदासीनता दिखाई देती है. न केवल यहां के स्थानीय लोग बल्कि यहां के स्थानीय अख़बारों में भी राजनीतिक घटनाएँ मुख्य ख़बर नहीं बनती. लेकिन लोग वोट जरूर डालने पहुंचते हैं.
सागरनामा का सफ़र महाराष्ट्र के रायगढ़ ज़िले तक पहुंच चुका है. कभी मछुआरों का गांव रहे नागांव की कहानी, जो फिलहाल शहरों के विस्तार में फंसकर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है.

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