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पत्रकारिता: जिम्मेदारी या बाजारू उत्पाद

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लेखक- कुलदीप कुमार 
प्रस्तुति- निम्मी नर्गिस, शीरिन शेख

मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है. वह सिर्फ बाजार में बिकने वाला माल नहीं, लोगों की राय को प्रभावित करने वाला माध्यम है. अखबारों और चैनलों के मालिक इसे भूलते जा रहे हैं और उनकी नजर अब सिर्फ मुनाफे पर है.
Indien Demonstration BJP Bharatiya Janata Party in New Delhi
पिछले दो दशकों के दौरान भारतीय मीडिया के स्वरूप और चरित्र में भारी बदलाव आया है और इस सच्चाई को काफी हद तक भुलाया गया है कि अखबार और टीवी चैनल एक उत्पाद या बाजार में बिकने वाला माल तो है, लेकिन उसमें और साबुन में बुनियादी फर्क है. मीडिया का सरोकार समाचारों और विचारों से है. इसलिए उसकी तुलना यदि किसी से की जा सकती है तो वह बाजार में बिकने वाली औषधि है क्योंकि औषधि की गुणवत्ता पर रोगी का ठीक होना या न होना निर्भर करता है.
इसीलिए अब मीडिया जनता की रुचि और विचारों का परिष्कार करने के बजाय उसकी दिलचस्पी का सामान जुटाने और उसके सामने पुरातनपंथी, दकियानूसी और अंधविश्वासी किस्म की सामग्री परोसने में व्यस्त रहता है. जब भी कोई नेता मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री पद की शपथ लेता है, हिन्दी अखबार और टीवी समाचार चैनल उसे अक्सर "राजतिलक", "राज्याभिषेक", "ताजपोशी"और "सिंहासन पर बैठना"आदि कहते हैं, बिना एक क्षण भी सोचे कि भारत एक लोकतांत्रिक देश हैं और राजशाही और सामंती शासन के दिन बहुत पहले ही लद चुके हैं. जब 26 मई को नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, तो दैनिक जागरण और राष्ट्रीय सहारा समेत अनेक छोटे-बड़े हिन्दी अखबारों ने अपने संस्करणों में अगले दिन राजतिलक, ताजपोशी और राष्ट्रतिलक जैसे शब्दों का प्रयोग किया. इससे ऐसा लगता है जैसे किसी लोकतांत्रिक देश में प्रधानमंत्री ने पद नहीं संभाला, बल्कि किसी राजतंत्र में सम्राट ने अपनी गद्दी संभाली है. क्या ऐसी रिपोर्टिंग पाठकों के मन में लोकतांत्रिक संस्कार भर सकती है? क्या वह उनके मन में सदियों से जड़ जमाये बैठे सामंती संस्कारों को ही पुष्ट नहीं करती?
सेलिब्रिटी की ओर विशेष ध्यान देना और देश के सामने खड़ी बड़ी बड़ी समस्याओं की अनदेखी करना भी इन दिनों मीडिया के चरित्र का अंग बनता जा रहा है. बड़े बड़े नेता और उनके पुत्र पुत्रियां, मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी, फिल्म अभिनेता और अभिनेत्रियां, बड़े उद्योगपति, फैशन डिजाइनर, और गायक-गायिकाएं, ये सभी इन दिनों सेलिब्रिटी माने जाते हैं और मीडिया का इन पर खास फोकस रहता है. हिन्दी अखबार इस मामले में किसी से पीछे नहीं हैं. पहले हिन्दी अखबारों के रविवारीय संस्करण में साहित्य और अन्य कलाओं पर पठनीय सामग्री हुआ करती थी. संगीत, नृत्य, नाटक की प्रस्तुतियों और कला प्रदर्शनियों की समीक्षाएं छपा करती थीं, लेकिन अब इक्का दुक्का अखबारों को छोडकर शेष अखबार साहित्य एवं कला से पूरी तरह विमुख हो गए हैं.
टीवी चैनलों का हाल इससे भी बुरा है. अब समाचार चैनलों एवं मनोरंजन चैनलों के बीच अंतर करना मुश्किल होता जा रहा है. समाचार चैनलों पर ज्योतिष के लंबे कार्यक्रम, पौराणिक कथाओं पर आधारित तथाकथित वैज्ञानिक खोजों के कार्यक्रम और हास्य के बेहद फूहड़ कार्यक्रम प्रतिदिन कई कई घंटे देखे जा सकते हैं. कुछ साल पहले एक चैनल ने श्रीलंका में "रावण की ममी"खोज निकाली थी तो दूसरे ने "सशरीर स्वर्गलोक जाने की वैज्ञानिक खोज"के बारे में विस्तृत कार्यक्रम प्रस्तुत किया था. एक अन्य चैनल के कार्यक्रम का शीर्षक था: "यमलोक का रास्ता इधर से जाता है". अक्सर जब अंतरिक्ष में कोई ज्योतिर्विज्ञान संबंधी घटना होती है, मसलन चंद्रग्रहण या सूर्यग्रहण या इसी तरह की कोई और घटना, तो हिन्दी टीवी चैनल एक ज्योतिषी को भी उस घटना और उसके कारण पड़ने वाले ग्रहों के प्रभाव पर दर्शकों को ज्ञान देने के लिए आमंत्रित करते हैं.
यही कारण है कि 1990 के दशक में कई हिन्दी अखबारों ने राम जन्मभूमि आंदोलन की रिपोर्टिंग खुद कारसेवक बनकर की और इसके लिए उन्हें भारतीय प्रेस परिषद की कड़ी आलोचना भी झेलनी पड़ी. इसी तरह सांप्रदायिक दंगों की स्थिति में भी उनकी तटस्थता संदिग्ध रही. संक्षेप में कहें तो हिन्दी मीडिया आधुनिक जीवनदृष्टि को नहीं अपना पाया. आधुनिकता के नाम पर उसने फैशन और फिल्मों पर ही सामग्री छाप कर संतोष कर लिया.
हिन्दी अखबारों में विज्ञान, पर्यावरण और अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम से संबंधित खबरें बहुत कम देखने में आती हैं. जो अंतरराष्ट्रीय खबरें छपती भी हैं, वे अधिकांशतः ब्रिटेन, अमेरिका और अन्य अंग्रेजीभाषी देशों के बारे में होती हैं, या फिर पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बारे में. सीरिया हो या मिस्र, तुर्की हो या फलिस्तीन, हिन्दी मीडिया इन पर कभी विस्तार से कुछ ऐसा नहीं छापता या दिखाता जिससे पाठकों या दर्शकों की जानकारी और समझ में इजाफा हो. हॉलीवुड पर लगभग उतना ही ध्यान दिया जाता है जितना हिन्दी फिल्म जगत पर. लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं के फिल्म जगत की खबरों से हिन्दी पाठक महरूम ही रहता है. उसे हॉलीवुड में बन रही फिल्मों के बारे में अधिक जानकारी होती है बनिस्बत मलयालम या तेलुगू में बन रही फिल्मों के.
चुनाव के दौरान भी हिन्दी मीडिया ने जिस प्रकार के अतिशय उत्साहातिरेक का प्रदर्शन करते हुए नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार की रिपोर्टिंग की, वह स्वयं में इस बात का प्रमाण थी कि हिन्दी मीडिया ने लोकतंत्र की मूल भावना से परे जाकर कितना लंबा रास्ता तय कर लिया है.
ब्लॉग: कुलदीप कुमार

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