बच्चों को कठपुतली का खेल देखने का बड़ा शौक होता है। इस खेल में एक सूत्रधार कलाकार होता है, जो परदे के पीछे से, मंच पर सक्रिय दिख रही तमाम कठपुतलियों को अपनी अंगुलियों के इशारे पर नचाता है। कठपुतली खेल के इस बुनियादी नियम से अनजान बाल-मन कठपुतलियों के आपस में रूठने-मनाने, वाद-प्रतिवाद, मुहब्बत और झगड़े को वास्तविक मान उनके हर कदम पर साथ चलता है और तालियों के साथ उनकी हौसला-आफजाई भी करता है। बालकों का अबोध मन यह नहीं समझ पाता कि अलग-अलग रूप-रंग की ये कठपुतलियां एक ही सूत्रधार के इशारों की बांदी होती हैं। आधुनिक भारतीय मीडिया परिदृश्य की हकीकत इस कठपुतली के खेल से इतर नहीं है। कहने वाले कह सकते हैं कि हमारे देश में लगभग साढ़े आठ सौ टेलीविजन चैनलों का सरकारी कागजों में पंजीकरण है। इनमें से तकरीबन तीन सौ खबरिया चैनल हैं। दूसरी ओर बयासी हजार से भी ज्यादा पंजीकृत प्रकाशक हैं और चौदह हजार से ऊपर समाचार पत्र रोजाना प्रकाशित होते हैं। मीडिया के मैदान में इतने ज्यादा खिलाड़ियों की उपस्थिति स्वयं में अभिव्यक्ति की आजादी और स्वस्थ लोकतंत्र की सूचक भी बताई जाती है। पर हकीकत यह है कि इन टेलीविजन और रेडियो चैनलों, एफएम रेडियो, समाचार पत्र-पत्रिकाओं आदि को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से तीन-चार कॉरपोरेट घराने अपनी-अपनी मुट्ठी में कैद किए हुए हैं। ये व्यावसायिक घराने अपने निहित क्षुद्र स्वार्थों के कारण विरोधी खबरों का प्रसारण नहीं होने देते या व्यापक जनहित के मुद््दों को खबर ही नहीं बनने देते। यहां तक कि लॉबिंग करके सरकारी नीतियों तक को अपने दूषित मंतव्यों से संक्रमित करते रहे हैं। इन्हीं कारणों से समय-समय पर नागरिक जमात और सरकारी हलकों से मीडिया-प्रभुओं की इस धींगा-मस्ती के खिलाफ आवाज उठती रही है। हालात की मांग देखिए कि जिस भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राइ) की स्थापना सरकारी मीडिया के एकाधिकार को तोड़ने और मीडियाई बहुलतावाद को स्थापित करने के लिए की गई थी, उसी से केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने पिछले साल मीडिया माध्यमों में तेजी से पनपते केंद्रीकरण और समुच्ययीकरण को नियंत्रित करने के लिए सुझाव और परामर्श मांगे थे। मंत्रालय ने क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर स्तरों पर हो रहे समाकलित या एकीकृत विकास पर अपना नजरिया रखने के लिए कहा था ताकि मीडियाई विविधता को सुनिश्चित करने के लिए सरकार समुचित कानूनी प्रावधान कर सके। इससे पूर्व भी सरकार की मांग पर फरवरी 2009 में ट्राइ ने इस संदर्भ में भेजी अपनी सिफारिशों में मीडिया में पनप रहे एकाधिकार को रोकने के लिए सुरक्षा उपायों को अविलंब अपनाने की वकालत की थी। इसके साथ ही मीडिया मंडी का व्यापक अध्ययन भी अपेक्षित बताया गया। ट्राइ ने प्रसारण और वितरण क्षेत्रों में उभयनिष्ठ मालिकाना हक का विरोध भी दर्ज किया था। लेकिन जैसा कि सरकारी हलकों में होता आया है, लगभग सवा तीन साल तक यह रिपोर्ट ठंडे बस्ते में पड़ी रही। भला हो संसदीय समिति का, जिसने इस रिपोर्ट की हो रही दुर्गति पर अपना सात्विक क्रोध व्यक्त करते हुए सरकार को कुंभकर्णी नींद से जगाया कि वह क्यों नहीं इस रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई कर रही? सरकार को चेताया गया कि मीडिया माध्यमों का एकाधिकारी स्वामित्व देश के लोकतांत्रिक ढांचे को अंदर ही अंदर दीमक सदृश चट किए जा रहा है। चूंकि इस बीच मीडिया की गंगा में प्रदूषण और बढ़ गया था इसलिए सूचना प्रसारण मंत्रालय ने ट्राइ से पुन: अपना नवीनतम परामर्श सामने रखने को कहा। समितियों-परामर्शों-अनुशंसाओं का यह चक्र भी सुस्त भारतीय लोकतंत्र की एक लाक्षणिक पहचान बन चुका है। बहरहाल, ट्राइ ने सरकार का हुक्म बजाते हुए अपना परामर्शी दस्तावेज मंत्रालय को सौंप दिया है। आगे बढ़ने से पूर्व क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर स्तरों पर बढ़ रहे एकीकृत मीडियाई स्वामित्व के निहितार्थों का खुलासा जरूरी है। मीडिया मंडी की भाषा में क्षैतिज स्तर पर एकल स्वामित्व का मतलब होता है कि विभिन्न मीडिया माध्यमों जैसे प्रिंट, टेलीविजन और रेडियो आदि पर एक ही वाणिज्यिक घराने का स्वामित्व होना। ट्राइ ने अपने परामर्शी कागजात में इस प्रकार के स्वामित्व की स्थिति भारतीय मीडिया में सीधे-सीधे रेखांकित करने में कोई संकोच नहीं किया है। इनाडु, इंडिया टुडे, एबीपी समूह, भास्कर समूह, मलयालम मनोरमा समूह, जागरण प्रकाशन आदि की हिस्सेदारी प्रिंट, टीवी और एफएम रेडियो, तीनों माध्यमों में किसी से छिपी नहीं है। ऊर्ध्वाधर स्तर पर बड़े खिलाड़ियों के वर्चस्व की स्थिति तब दिखाई देती है जब मीडिया उद्योग में प्रसारण के साथ-साथ वितरण तंत्र पर भी एक ही घराने का आधिपत्य हो। यह देखा गया है कि टीवी चैनल प्रसारण के केबल नेटवर्क पर अपना नियंत्रण कायम करने की कोशिश कर रहे हैं। ट्राइ के मुताबिक सन टीवी और एस्सल समूह न केवल प्रिंट, टीवी और एफएम के धंधे में अपना दखल रखते हैं बल्कि डीटीएच और एमएसओ जैसे वितरण माध्यमों में भी इनके हाथ सक्रिय हैं। अनिल धीरूभाई अंबानी समूह मीडिया माध्यमों और डीटीएच, दोनों दिशाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है। स्टार इंडिया भी इस प्रकार के कॉरपोरेट मीडिया का एक बड़ा भागीदार है। भारत में मीडिया के प्रसारण और वितरण माध्यमों को साध कर मालिक-वर्ग अपने आर्थिक और राजनीतिक मंसूबों को अमली जामा पहनाने में लगा हुआ है। ट्राइ अपनी परामर्श-रिपोर्ट में मीडिया खिलाड़ियों के बेलगाम स्वामित्वों का संबंध मीडिया तंत्र के भ्रष्ट होते चरित्र से जोड़ कर देखता है। इसका परिणाम होता है- प्रायोजित और बिकाऊ संपादकऔर संवाददाता, पेड न्यूज का अखाड़ा बनते समाचार पत्र और टीवी चैनल, वाणिज्यिक और राजनीतिक स्वार्थों से संचालित खबरिया विश्लेषण और पूंजीवाद का क्रीतदास बनता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ। वास्तव में मीडिया की पूरी दुनिया इतनी उलझी हुई है कि इसकी अंधेरी चोर गलियों की पड़ताल इतनी आसान नहीं है। कॉरपोरेट मीडिया अलग-अलग नामों और चेहरों के साथ न जाने कितने ही तरीकों से अपने रंग दिखाता है। फर्जी कंपनियों और प्रगति रिपोर्टों के माध्यम से वह अपने उपभोक्ताओं को गुमराह करने से भी नहीं चूकता। मगर ट्राइ ने मीडिया के प्रसारण और वितरण माध्यमों पर स्वामित्व निर्धारण के कुछ मूलभूत नीतिगत सूत्र सुझाए हैं जिनसे प्रसारण और वितरण के मालिकाना अधिकारों में तार्किक और स्वस्थ माहौल का सृजन हो सके और नागरिकों में स्वायत्त चिंतन का विकास संभव हो पाए। ट्राइ द्वारा प्रदत्त पहला महत्त्वपूर्ण सुझाव प्रसारण और वितरण के परमिट जारी करने के नीतिगत मसले से जुड़ा हुआ है। ट्राइ ने मीडिया क्षेत्र में प्रवेश के अधिकार से अवांछित खिलाड़ियों का बहिष्कार करने पर बल दिया है। पूर्व में भी इस संस्था ने इस ओर ध्यान आकर्षित किया था कि भारत एक ऐसा अपवाद है जहां हर एक को मीडिया में पैर रखने की खुली छूट मिली हुई है। वैश्विक स्तर पर नजर डालें तो यही दिखेगा कि ऐसी छूट प्राय: कोई और देश नहीं देता। अत: धार्मिक संगठनों, राजनीतिक इकाइयों, केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के मंत्रालयों के साथ ही सार्वजनिक धन से संचालित इकाइयों को अखबार, टेलीविजन और रेडियो आदि के प्रसारण-वितरण से पूर्णत: दूर रखने की आवश्यकता है। इस प्रकार की संस्थाएं और इकाइयां अपने हित में जनता के मानस को प्रभावित करती हैं। उसे स्वतंत्र रूप से सोच-विचार करने से रोकती हैं। लोग सामयिक मसलों पर अपनी राय बनाने के लिए मीडिया के जरिए मिलने वाली खबरों, सूचनाओं और जानकारियों पर निर्भर होते हैं। अगर खबरों का चुनाव निहित स्वार्थ से प्रेरित हो और बहसें और जानकारियां भी इसी तरह से पेश की जाएं तो आम लोगों के स्वतंत्र रूप से सोच पाने की संभावना बहुत सिकुड़ जाती है। दूसरा मुद््दा मीडिया के विभिन्न माध्यमों में कॉरपोरेट क्षेत्र की हिस्सेदारी का है। मीडिया के आज तीन मुख्य प्रकार हमारे यहां हैं- टेलीविजन, पिंट और रेडियो। ट्राइ का सुझाव है कि मीडिया के वैश्विक प्रबंधन की तर्ज पर इन तीन में से एक या दो में ही एक प्रतिभागी को हिस्सेदारी रखने की इजाजत मिलनी चाहिए। मीडिया के बड़े कर्ता-धर्ता उत्तर आधुनिक युग में माध्यमों की टूटती सीमाओं का हवाला देकर इस प्रकार के प्रतिबंध या उसके सुझाव की मुखालफत करते हैं। लेकिन भारत जैसा देश जो अभी ठीक से आधुनिक भी नहीं हुआ है, वहां इंटरनेट जैसे मल्टीमीडिया माध्यम का तर्क देकर ट्राई के इस परामर्श को खारिज नहीं किया जा सकता। ट्राइ की तीसरी सिफारिश प्रसारण और वितरण के स्वामित्व में स्पष्ट भेद करने की है। किसी भी स्थिति में प्रसारक को बीस फीसद से ज्यादा वितरण क्षेत्र में हिस्सेदारी की अनुमति नहीं होनी चाहिए। दूसरी ओर यह प्रावधान वितरण तंत्र में कार्यरत मीडिया मालिकों पर भी लागू होना आवश्यक है क्योंकि कई वितरक भी अपने टीवी चैनल शुरू कर लेते हैं। मीडिया मंडी के संचालक, ट्राइ द्वारा किसी भी प्रकार के नियंत्रण और अनुशासन की मांग या सुझाव रखने पर, संविधान के अनुच्छेद उन्नीस द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति और व्यापार की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हवाला देकर मीडिया में खुली लूट के अपने निर्बाध अधिकार पर बल देने लगते हैं। मगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार आम आदमी को भी संविधान समान रूप से प्रदान करता है जो मीडिया माध्यमों के एकल स्वामित्व से बाधित होने लगा है। मीडिया द्वारा गढ़ी जाती खबरों, पक्षपातपूर्ण विश्लेषण और पूर्वग्रही निष्कर्षों से दर्शकों को बचाना बहुत जरूरी है। पर दूसरी ओर यह भी निर्धारित करना होगा कि मीडिया माध्यमों के स्वामित्व और प्रबंधन को लेकर किए जाने वाले नियंत्रण उपायों का कहीं राज्यसत्ता मीडिया पर नकेल कसने के लिए दुरुपयोग न करने लगे। मीडिया के क्षेत्र में अनुशासन और स्वायत्तता के बीच बारीक-से संतुलन की आवश्यकता है ताकि अभिव्यक्ति की वास्तविक आजादी मीडिया और जनता दोनों के लिए सुनिश्चित की जा सके। अंत में अगर ट्राई इस संदर्भ में दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक समुदायों के हितों और नजरियों को भी ध्यान में रख कर कोई प्रावधान सुझाता, तो हमारे लोकतांत्रिक आधारों की रक्षा में वह और कारगर हो सकता था। सौ. जनसत्ता