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बिहार में मीडिया का यथार्थ


 

राजनीति VS मीडिया :

अटल तिवारी 

प्रस्तुति-- रोहित बघेल, सजीली सहाय
आगरा
 
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बिहार में मीडिया पर सरकारी सेंसरशिप की बात काफी दिनों से चल रही थी। पटना विश्वविद्यालय में एक सेमिनार में बोलते हुए भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने इसका जिक्र किया तो हंगामा खड़ा हो गया। राज्य सरकार ने उनके बयान को आधारहीन बताया तो विपक्ष ने मीडिया पर पाबंदी लगाने की सरकारी कोशिश को लेकर विधानसभा में आवाज बुलंद की। आरोप-प्रत्यारोप के बीच मामले की जांच के लिए जस्टिस काटजू ने पत्रकार राजीव रंजन नाग की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति का गठन कर दिया। समिति सदस्यों ने जांच के दौरान राज्य के 16 जिलों का दौरा किया। उसे बताया गया कि पत्रकारों पर प्रबंधन का दबाव रहता है कि सरकार के खिलाफ खबरें न लिखी जाएं। इससे अखबार को मिलने वाला विज्ञापन रुक सकता है। आंदोलनों एवं जनता से जुड़ी खबरों को तवज्जो नहीं दी जा रही है। जांच रिपोर्ट के अनुसार बिहार सरकार मीडिया पर अंकुश लगाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाती है। विज्ञापन रोक देने से लेकर विरोधी खबर लिखने वाले पत्रकार का तबादला करने से लेकर नौकरी से निकलवा दिया जाना आम बात है। कवरेज में विपक्ष की अनदेखी कर सत्तापक्ष की मनमाफिक खबरों को तरजीह दी जा रही है। सरकार अक्सर अपनी खबर छपवाने के लिए पत्रकारों अथवा संपादकीय विभाग को न भेजकर सीधे अखबार के प्रबंधन को भेजती है। प्रबंधन, संपादकीय विभाग पर दबाव बनाकर ये खबरें प्रकाशित कराता है। इसका मूल कारण यह है कि राज्य में मीडिया उद्योग पूरी तरह सरकारी विज्ञापनों पर आश्रित है। जांच टीम ने कहा है—’सरकार के दबाव के चलते ही अखबार भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को कम तरजीह दे रहे हैं। वे केवल राज्य सरकार के विकास और योजनाओं की खबरें ही छाप रहे हैं।’ इस बीमारी से बचने के लिए टीम ने दस से अधिक बिंदु सुझाए हैं। इनमें एक अहम सुझाव राज्य में एक स्वतंत्र एजेंसी का गठन करने का है, जो नियमों का सख्ती से पालन करते हुए मीडिया को विज्ञापन जारी करे।

प्रेस परिषद के सदस्यों की मुहर लगने से पहले जांच रिपोर्ट ही यह मीडिया के हाथ लग गई। इसमें हुई सरकार की आलोचना पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि परिषद की रिपोर्ट पक्षपातपूर्ण है। नीतीश के सहयोगी दल भाजपा ने भी काटजू पर हमला बोलते हुए कहा कि वह एक कांग्रेसी की तरह गैरकांग्रेसी सरकारों को निशाना बना रहे हैं। इधर गुजरात और वहां के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर लिखे गए काटजू के एक लेख ने रही—सही कसर पूरी कर दी। राज्यसभा में भाजपा नेता अरुण जेटली ने बाकायदा काटजू के इस्तीफे की मांग कर डाली। हालांकि गैरकांग्रेसी सरकारों को निशाना बनाने वाली तोहमत जड़ते हुए भाजपा नेता यह भूल गए कि फेसबुक पर टिप्पणी करने पर गिरफ्तार की जाने वाली दो लड़कियों के मामले में सबसे पहले काटजू ने ही महाराष्ट्र सरकार को निशाना बनाया था।
खैर! यहां बात बिहार की हो रही है, जहां मुख्य धारा का मीडिया विज्ञापनों की लूट में लगा है। अखबार एक ही पंजीकरण संख्या के आधार पर अनेक जिलों से अपने स्थानीय संस्करण निकाल रहे हैं। मीडिया के इस रवैये को पटना उच्च न्यायालय ने भी गैरकानूनी माना है क्योंकि आरएनआइ से प्राप्त एक पंजीकरण संख्या के आधार पर केवल एक ही स्थान से संस्करण निकाला जा सकता है। प्रेस परिषद की जांच समिति के अध्यक्ष राजीव रंजन नाग कहते हैं—’बिहार में अघोषित आपातकाल जैसे हालात हैं। अखबार एकतरफा तस्वीर पेश कर रहे हैं। घपले, घोटालों, भ्रष्टाचार और अपराध की खबरों को दबा दिया जाता है या दिखाने के लिए काट-छांट के बाद भीतर के पन्नों पर एक कॉलम में छापकर दबा दिया जाता है। दरअसल सरकारी विज्ञापनों पर सरकार का एकाधिकार होने की वजह से मीडिया संस्थानों ने अपने अखबारों को नीतीश सरकार का मुखपत्र बना दिया है, वहां सार्वजनिक हित की खबरों से परहेज किया जा रहा है। ‘
अखबारों में चल रहे विज्ञापनों के इस खेल को परिषद ने पहली बार नहीं रेखांकित किया है। इसके पहले 2010 में परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष जस्टिस जीएन रे ने भी अखबारों में बढ़ते विज्ञापनों व खबरों पर पड़ते उनके असर के संबंध में चिंता जाहिर की थी। उन्होंने कहा था कि ‘प्रेस के लिए विज्ञापन आमदनी का मुख्य स्रोत बन गए हैं। महानगरों में तो अखबारों की कुल आमदनी का लगभग 80 फीसदी विज्ञापनों से आ रहा है। इस वजह से अखबारों में विज्ञापन ही ज्यादा जगह घेरने लगे हैं। समाचार और विज्ञापन का अनुपात लगातार विज्ञापनों के पक्ष में झुक रहा है। अखबारों की नीति और विचारों पर विज्ञापनों का दखल जितना लगता है उससे ज्यादा हो चुका है।’
कारपोरेट युग में मीडिया इतना ताकतवर हो गया है कि वह अपने हित के लिए सभी नियम-कायदे ध्वस्त कर रहा है। दोनों तरफ ‘राजनीति व मीडिया’ से हित साधन की मुहिम चल रही है। इसी के तहत लंबे समय से मीडिया का इस्तेमाल राजनीति को मनमाफिक ढालने में हो रहा है तो मीडिया भी नेताओं का इस्तेमाल कर पूंजी बनाने में लगा है।
बिहार में पिछले सात साल से मीडिया का एकसुरा नीतीश राग चल रहा है। सबसे पहले 2008 में आने वाली कोसी नदी की तबाही की बात। प्रलयंकारी बाढ़ आने पर नीतीश सरकार की लापरवाही पर बिहार की पत्रकारिता मौन रही। वह बाढ़ की विभीषिका को कमतर दिखाने का प्रयास करती रही। सरकारी राहत कार्यों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती रही। इसी तरह जून 2011 में फारबिसगंज में पुलिस फायरिंग और हिंसा में चार लोगों की मौत का विभिन्न संगठनों व बौद्धिक जगत के लोगों ने विरोध किया, लेकिन अखबारों ने इस कांड को दबाना ही उचित समझा। हां, सोशल मीडिया की वजह से घटना की खबर एवं विरोध की आवाज लोगों तक जरूर पहुंची। नालंदा में शांति कायम करने के बहाने पुलिस ने आम लोगों पर कहर बरपाया। अनुबंध आधारित नौकरी को नियमित करने और वेतन बढ़ाने की मांग को लेकर सड़क पर उतरे शिक्षकों को पुलिस ने दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। महिलाओं तक को नहीं बख्शा गया। आशा महिलाओं के विरोध प्रदर्शन से लेकर हर आंदोलन का दमन किया जाता रहा है। यह घटनाएं किसी भी लोकतंात्रिक राज्य के लिए कलंक हैं। लेकिन लोकतंत्र का राग अलापने वाली सरकार में ऐसी घटनाएं नहीं दिखनी व छपनी चाहिए सो इसके लिए नीतीश राग में लगा मीडिया अपना काम कर रहा है। शिक्षकों को पीटने (सर्वोच्च न्यायालय ने जिसका संज्ञान लिया) की बात पर सरकार ने उनके अराजक होने की बात कही। यह आरोप जड़ते हुए वह भूल गई कि जून 2012 में रणवीर सेना के मुखिया ब्रह्मेश्वर सिंह की शव यात्रा में शामिल भीड़ को गुंडागर्दी मचाने को खुला छोड़ देने के लिए उसने क्या दलील दी थी? उस समय पुलिस महानिदेशक ने कहा था कि अगर भीड़ पर शिकंजा कसा जाता तो बिहार अराजकता के दौर में जा सकता था। यानी भीड़ को गुंडागर्दी करने की खुली छूट प्रशासन ने दी वहीं अपनी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे शिक्षकों को पुलिस द्वारा पीटने को उसने उचित ठहरा दिया। सरकार की इस संवेदनहीनता पर स्थानीय मीडिया उंगली नहीं उठाता है। सरकार पर उंगली उठाने वाली खबरें प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया दोनों में कमोबेश नहीं दिखती। ऐसे में विकल्प के रूप में समाचार के वैकल्पिक माध्यम ‘इसमें सोशल मीडिया एवं कुछ पत्र-पत्रिकाएं’ बचते हैं, जिसमें उसके कारनामों की पोल अवश्य खुल रही है। मीडिया किस तरह पक्षपात करता है इसके लिए पटना उच्च न्यायालय की 2011 की एक टिप्पणी पर नजर डालना जरूरी है। न्यायालय ने टिप्पणी की कि ‘पटना में जंगलराज है, यहां नियम नहीं चलते, ऑफीसर और बाबुओं की मिलीभगत से हर काम संभव है।’ न्यायालय की इस टिप्पणी पर मीडिया ने गौर तक नहीं किया…सवाल उठाने की तो बात छोडि़ए। लेकिन न्यायालय की एक ऐसी ही टिप्पणी को आधार बनाकर मीडिया ने लालू के शासनकाल को जंगलराज घोषित कर दिया था। लेखक प्रमोद रंजन कहते हैं-”आज बिहारी पत्रकारिता का परिदृश्य खुला हमाम है। सरकार में शामिल सामंती ताकतें इस अश्लीलता का चटखारा ले रही हैं जबकि जनांदोलनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और विपक्षी पार्टियों के हिस्से में उसकी नंगई आई है। जितनी धूर्तता से सरकारी उपलब्धियों का ढोल पीटा जा रहा है, उससे कहीं अधिक चालाकी से विरोध की आवाजें सेंसर की जा रही हैं। हर खबर में यह ध्यान रखा जा रहा है कि कहीं मौजूदा सरकार को राजनीतिक नुकसान न हो जाए। …लोकतंत्र के मूलाधार विरोध प्रदर्शनों को मुख्यमंत्री गुंडागर्दी कहते हैं तो अखबार सुशासन और विकास के अवरोधक।”
अखबार ऐसा क्यों कर रहे हैं इसके लिए मीडिया के पूरे तंत्र को समझना होगा। देश में मीडिया कंपनियों का कारोबार फैलता जा रहा है। इसके साथ ही साल-दर-साल उसकी बहुलता कम होती जा रही है। अब वह चंद घरानों में सिमट गया है। ऐसे में राजनीति और कारपोरेट के हाथों वह आसानी से सध रहा है। वह सत्ता एवं कारपोरेट के पक्ष में राय बनाने का काम कर रहा है। मीडिया की इस ताकत को देखते हुए जरूरी है कि वह कैसे काम करता है? किसके कहने पर करता है? किसके हित में करता है, इसकी निगरानी की जाए। बिहार में मुख्यधारा का मीडिया चंद घरानों तक कैसे सिमट गया इसकी गवाही आंकड़े देते हैं। राज्य में हिंदुस्तान टाइम्स समूह व दैनिक जागरण समूह का प्रिंट मीडिया पर एकाधिकार है। इंडियन रीडरशिप सर्वे 2010 की चौथी तिमाही रिपोर्ट के अनुसार राज्य में सबसे अधिक बिकने वाले दस अखबारों की कुल औसत पाठक संख्या 81.01 लाख है। इसमें से 46.25 लाख (57 प्रतिशत) पाठक केवल हिंदुस्तान के पास हैं। हिंदुस्तान टाइम्स की पाठक संख्या जोड़ लें तो इस मीडिया समूह के पास बिहार के टॉप दस अखबारों की 58.37 प्रतिशत पाठक संख्या है। अगर हिंदुस्तान टाइम्स समूह व दैनिक जागरण समूह के अखबारों (हिंदुस्तान, हिंदुस्तान टाइम्स व दैनिक जागरण, आई-नेक्स्ट) की पाठक संख्या मिला लें तो यह संख्या 72.73 लाख हो जाती है। यानी दो मीडिया समूह बिहार के टॉप दस अखबारों के पाठकों का 89.67 प्रतिशत कंट्रोल करते हैं। इस तरह दो मीडिया कंपनियों को साधन (मैनेज) कर बिहार के टॉप दस अखबारों के लगभग 90 फीसदी को मैनेज किया जा सकता है। नीतीश सरकार यही काम कर रही है। पत्रकार दिलीप मंडल लिखते हैं-’नीतीश सरकार (पहली सरकार) के चार साल पूरे होने पर 24 नवंबर 2009 को एक ही दिन 1.15 करोड़ रुपए के विज्ञापन 24 अखबारों को दिए गए। …इन विज्ञापनों का बड़ा हिस्सा लगभग 72.5 लाख रुपए हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात खबर और आज अखबार को दिए गए। सबसे ज्यादा 37 लाख के विज्ञापन हिंदुस्तान को मिले। इस विज्ञापन के फौरन बाद 31 दिसंबर 2009 को हिंदुस्तान ने एक एसएमएस पोल के नतीजे छापे, जिसके मुताबिक राष्ट्रीय हीरो के तौर पर नीतीश कुमार देश में सबसे आगे रहे।’ नीतीश को हीरो बनाने की यह कहानी एक मीडिया संस्थान की नहीं है। मीडिया द्वारा गढ़ी जाने वाली ऐसी कहानियां अक्सर सामने आती रही हैं। साल 2010 में विधानसभा चुनाव से पहले एनडीटीवी इंडिया समाचार चैनल ने नीतीश को बेहतरीन मुख्यमंत्री का खिताब दिया। दरअसल पैसों से बिकने वाला मीडिया नीतीश के इशारे पर उठ-बैठ रहा है। विकास का कागजी किला बनाकर नीतीश उसी के कारण विकास पुरुष बन गए। मीडिया के बनाए इस विकास पुरुष को दूसरे चुनाव में भी मतदाताओं ने वोटों की गठरी से लाद दिया। इस कागजी किले का एक उदाहरण देखिए। बिहार में कम प्रसार संख्या वाला प्रभात खबर चेतना संपन्न लोगों का अखबार माना जाता रहा है। इसे विज्ञापन कम मिलते थे। मुख्यमंत्री ने इसके विज्ञापन में लगभग तीन गुना तक बढ़ोतरी कर दी। इसका असर भी देखने को मिला। अखबार ने 11 जुलाई 2009 को अपने स्थापना दिवस पर मुख पृष्ठ पर टिप्पणी लिखी: ”नीतीश सरकार के नेतृत्व में बिहार बड़े बदलाव के दौर से गुजर रहा है। विश्व बैंक ने पटना को बिजनेस के लिए देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से बेहतर माना है। पिछले तीन सालों में बिहार की आर्थिक विकास दर 10.5 फीसदी हो गई है। हम बिहार को विकसित बनाना चाहते हैं, तो हमें उद्यमी बनना होगा। सूबे में उद्यमिता का माहौल बनाने की दिशा में एक मामूली कोशिश है प्रभात खबर के स्थापना दिवस पर प्रकाशित यह विशेषांक।” उद्यमिता पर केंद्रित इस विशेषांक में पूरी सामग्री ही सरकार का गुणगान करने वाली है, जिसमें उद्यमियों का बिहार की ओर आकर्षित होना। उद्योग घरानों से औद्योगिक निवेश के लिए 92 हजार करोड़ रुपए का प्रस्ताव आना। निवेशकों का तांता लगा रहना आदि-आदि। इस तरह निवेश की बात को लेकर सरकार अखबारों के जरिए फर्जी किले बनाती रही… जबकि धरातल पर स्थानीय व्यापारियों द्वारा महज दस हजार करोड़ के अंदर निवेश किया गया था। मुख्यमंत्री ने यह स्वीकार भी किया कि बाहरी पूंजीपति बिहार में रुचि नहीं ले रहे हैं। इसके बावजूद अखबार जबरन हजारों करोड़ का निवेश करा रहे थे। ये घटनाएं महज कुछ अखबारों की बानगी हैं वरना इस तरह की खबरों से बिहार के अखबार भरे रहे हैं। चापलूस पत्रकारों की एक पूरी जमात मुख्यमंत्री व उनकी सरकार की जी-हुजूरी करने को बेताब रहती है।
इसी तरह नीतीश कुमार बिहार को विशेष राज्य का दरजा दिए जाने की मांग को लेकर बयानबाजी कर रहे थे। इसको लेकर पिछले साल 19 सितंबर को ‘अधिकार यात्रा’ की शुरुआत की। यात्रा से पहले बड़ी रकम उसके प्रचार पर खर्ची। अखबारों को खूब विज्ञापन दिए। राज्य में बड़े-बड़े होर्डिंग लगे। पर, नीतीश की घोषणाओं और जमीनी धरातल पर असमानता को लेकर नाराज लोग यात्रा का जगह-जगह विरोध करने लगे। विरोध इतना बढ़ा कि यात्रा बीच में ही स्थगित करनी पड़ी। इसकी खबरें पटना में कम दिल्ली के अखबारों में अधिक छपीं। इसी तरह प्रदेश में अनुसूचित जाति-जनजाति के छात्रावासों पर अनेक हमले हुए। काफी छात्र घायल हुए। अनेक जगह छात्रावासों पर दबंगों ने कब्जा कर रखा है। यह सब अखबारों को नहीं दिखता। दरअसल सरकार व अखबारों के बीच समरसता की बयार बह रही है। सरकार जो कहती है वही बयार अखबारों में बहती है। आज हालात देखकर लगता है कि लालू प्रसाद-राबड़ी देवी के शासन तक मीडिया कमोबेश आजाद था। लेकिन पिछले कुछ सालों से इस सुशासनी सरकार ने अघोषित सेंसरशिप की लगाम मीडिया पर लगा रखी है। अब बाजार के नियमों से चल रहा मीडिया अमूमन सरकार के खिलाफ जाने की हिमाकत नहीं करता है। वैसे यह एक राज्य की कहानी नहीं है। अखबारों और समाचार चैनलों को जिन चीजों की जरूरत (विज्ञापन, जमीन, कागज में छूट, टैक्स में रियायत) होती है वह राज्य से मिलती रहती है। बदले में वे सरकारों की जी-हुजूरी में करते हैं। ऐसे में अगर बिहार की बात की जाए तो वहां रीढ़विहीन पत्रकारिता (जिस समय अधिकतर राज्यों में पत्रकारिता का सुर बदलने लगा था) की गलत परंपरा काफी बाद में देखने को मिली। लालू-राबड़ी के शासन तक भी सरकार की आलोचना छप जाती थी। कुछ अखबारों ने तो बाकायदा उनके खिलाफ सीरीज चला रखी थी। लालू ने पहले इन विरोधी खबरों को तरजीह नहीं दी। फिर ऐसी खबरें रुकवाने का उन्होंने कुछ प्रयास किया था। कुछ हद तक कामयाब भी रहे। ऐसे में नीतीश काल में मीडिया की भूमिका को देखने से पहले के समय पर भी नजर डालनी होगी। नीतीश जिस तरह मीडिया को साध रहे हैं उसके कुछ बीज लालू ने ही बो दिए थे। दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्री तो उसी समय से बाकायदा फसल काटने लगे थे। यह बात अलग है कि नीतीश जरूरत से ज्यादा ही फसल काटने लगे हैं। मीडिया ने अपनी इस बदली भूमिका में गलत चीजों को देखना, सुनना और इन पर बोलना तक बंद कर दिया है। उसे नीतीश के गांव कल्याण बीघा के लोगों की नाराजगी नहीं दिखती है, जहां के लोग कहते हैं कि केवल सड़क बनने से गांव का विकास नहीं हो जाता। सरकार ने किसानों के लिए क्या किया? गांव की सड़क नहर पर बनी है। खेतों को पानी नहीं मिल रहा है। काम की खोज में मजदूरों का पलायन जारी है। मुख्यमंत्री कल्याण बीघा के लोगों से मिलते हैं पर गांव के किनारे बसे दलितों की सुध नहीं लेते। वहां पानी नहीं है। बिजली नहीं है। स्कूल भी नहीं है। असल में मीडिया ने बदहाल बिहार बनाम बदलते बिहार की ऐसी तस्वीर खींचीं कि लोग चकित रह गए। दोबारा चुनाव जीतने वाले नीतीश का गान होता रहा। वहीं लालू प्रसाद व रामविलास पासवान के प्रति घृणा देखने को मिली। ऐसा करने वाले पत्रकारों को सुशासनी सरकार का मीडिया मैनेजमेंट नहीं दिखा। लालू-राबड़ी के शासन को जंगलराज बताने वाले मीडिया को अपराध के आंकड़े (जिसमें दोनों सरकारों का एक जैसा हाल) भी नहीं दिखते। लालू-राबड़ी के समय 2005 में संज्ञेय अपराध के एक लाख चार हजार सात सौ अठहत्तर मामले थे तो 2010 में एक लाख छब्बीस हजार तीन सौ छियालीस। 2005 में सांप्रदायिक दंगे व फसाद के मामले जहां 7,704 थे वहीं 2010 में 8,189 तक पहुंच गए। सुशासनी सरकार के समय में ही दहेज हत्या के मामले में राज्य दूसरे पायदान तक पहुंच गया। ऐसे सवाल नहीं उठाने के लिए मौजूदा सरकार ने विज्ञापन रूपी प्यार मीडिया पर उड़ेला। इस अतिशय प्यार के लिए उसने बजट बढ़ाने में जरा-सा भी संकोच नहीं किया। बिहार में निजी उद्यम की हालत ठीक नहीं होने के कारण कुल विज्ञापनों में सरकारी विज्ञापनों का हिस्सा काफी बड़ा होता है। लालू-राबड़ी देवी के समय 2005-06 में जहां 4.49 करोड़ रुपए विज्ञापन पर खर्च हुए थे, वहीं नवंबर 2005 में मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश साल दर साल विज्ञापनों का बजट बढ़ाती रही। 2009-10 में यह बजट 34.59 करोड़ पर पहुंच गया था।
इसी तरह बिहार के जब राजनीतिक अपराधीकरण की बात होती है तो लालू और उनकी पार्टी को खलनायक बना दिया जाता है, लेकिन यह सवाल नहीं उठाया जाता कि नीतीश कुमार के 30 कैबिनेट मंत्रियों में से 14 पर आपराधिक मुकदमे कायम हैं। जदयू के 114 विधायकों में से 58 पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। इसमें 43 पर गंभीर आरोप हैं। इसी तरह भाजपा के 90 विधायकों में 29 दागी हैं। पूरी विधानसभा के 141 विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। 2005 में 50 फीसदी विधायकों पर आपराधिक मुकदमे थे तो मौजूदा सरकार में यह आंकड़ा 59 फीसदी है। मीडिया को नियंत्रित करने के लिए विज्ञापन के साथ सरकार एक और रणनीति (इसका इस्तेमाल केंद्र की राजग सरकार ने भी अपने समय में खूब किया था) अपनाती रही है। वह ठसक के साथ प्रबंधन से सरकार विरोधी पत्रकारों को हटाने को कहती है, जिनकी लालू प्रसाद यादव व रामविलास पासवान से नजदीकी है। यानी जो नीतीश के विरोधी हैं। ऐसे पत्रकारों को संस्थान से बाहर करने या तबादला करने के लिए मजबूर किया गया। उनकी जगह अपने भक्त पत्रकारों को आसीन कराया गया। पत्रकारिता में यह एक गंदा और नया चलन है। ऐसे चलन से जाहिर होता है कि मीडिया पहरेदार वाली भूमिका को तिलांजलि दे चुका है। बिहार के लिए दुखद पहलू यह है कि वहां नैतिक जिम्मेदारी न सरकार निभाना चाहती है न मीडिया। मीडिया विश्लेषक आनंद प्रधन कहते हैं—’न्यूज मीडिया का मुंह बंद रखने के लिए राज्य सरकारें हर हथकंडा अपना रही हैं उनमें से कई राज्य सफल भी हैं। लेकिन बिहार का मामला इसलिए खास है क्योंकि यहां न्यूज मीडिया राज्य सरकारों और नेताओं-अधिकारियों के भ्रष्टाचार, घोटालों, अनियमितताओं के खुलासों से लेकर गरीबों और कमजोर वर्गों के पक्ष में मुखर और सक्रिय रहा है। इस कारण बिहार की पत्रकारिता में खासकर 1977 के बाद से एक धार रही है और उसे नियंत्रित करने की कोशिशें उतनी सफल नहीं हो पाईं जितनी अन्य राज्यों में हुईं। यहां तक कि जब 1983 में तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने बिहार के अखबारों और पत्रकारों को नियंत्रित करने के लिए बिहार प्रेस विधेयक लाने की कोशिश की तो राज्य और उसके बाहर पत्रकार संगठनों और जनसंगठनों के आंदोलन के कारण उन्हें अपने पैर खींचने पड़े।” समूह मीडिया की गढ़ी नीतीश की विकास पुरुष और लोकप्रियता वाली छवि धीरे-धीरे धूमिल हो रही है। नीतीश की पार्टी जनता दल यूनाईटेड (जदयू) की ही बात की जाए तो एक पूरा धड़ा (इन लोगों ने बिहार नवनिर्माण मंच नाम से संगठन बनाया) उनसे खफा है। वह नीतीश के सुशासन की हवा निकाल रहा है। पिछले साल सुशासन का सच नाम की पुस्तिका राज्य में बंटी। इसी तरह उनके खास रहे कुछ लोगों ने उनसे अलग होकर राष्ट्रीय समता पार्टी का गठन किया है। इसमें नीतीश से खफा लोगों को गोलबंद किया जा रहा है। एक तरह से पार्टी के अंदर एक धड़ा उनका विरोध कर रहा है तो बाहर जनता विरोध कर रही है। यह विरोध उन्हें पिछले दिनों अधिकार यात्रा के दौरान देखने को भी मिला। उनसे जुड़े किसी भी विरोध पर नीतीश की आने वाली प्रतिक्रियाएं भी असहज करने वाली होती हैं। विपक्ष की छोडि़ए अपने ही कहते हैं कि वह छोटे मन के नेता हैं। अपनी आलोचना स्वीकार नहीं कर पाते हैं। विरोध होने पर आपा खो बैठते हैं। लेकिन मीडिया ने ऐसी गलत परंपरा डाल दी है कि सुशासनी मुख्यमंत्री को एक भी शब्द अपने और अपनी सरकार के खिलाफ सुनना मंजूर नहीं है। इस कड़ी में बिहार विधान परिषद के कर्मचारी अरुण नारायण और मुसाफिर बैठा का नाम लिया जा सकता है, जिन्हें फेसबुक पर सरकार की नीतियों की आलोचना करने के कारण निलंबित कर दिया गया। कुछ समय पहले सैयद जावेद हसन का सेवा विस्तार रोककर उन्हें परिषद से बाहर कर दिया गया। ये तीनों साहित्य जगत से नाता रखते हैं। इसी तरह जदयू के संस्थापक सदस्यों में रहे लेखक प्रेमकुमार मणि को पार्टी से छह साल के लिए निलंबित कर दिया गया है। कुछ समय बाद उन पर अज्ञात लोगों द्वारा जानलेवा हमला तक हुआ। प्रेमकुमार को पार्टी ने साहित्य के कोटे से विधान परिषद का सदस्य बनाया था। उन्होंने समान स्कूल शिक्षा प्रणाली आयोग, भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों को माने जाने की मांग की थी। साथ ही राज्य सरकार की ओर से गठित सवर्ण आयोग समेत कुछ नीतियों का विरोध किया था। उनकी इस ‘खता’ को सुशासनी मुख्यमंत्री बर्दाश्त नहीं कर सके। इन सभी घटनाओं को अखबारों ने दबाने में ही अपना ‘हुनर’ समझा। विधान परिषद से तीन कर्मचारियों का निलंबन तो एक बानगी है। कहा यह जाता है कि नीतीश सरकार के आने के बाद विधान परिषद से उन सभी लोगों के सफाए का अभियान चला, जिन्हें सभापति रहे प्रो. जाबिर हुसैन ने नौकरी दी थी। इनमें से बड़ी संख्या दलित-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों की थी। यह भी संयोग ही रहा कि निलंबित किए गए मुसाबिर बैठा, अरुण नारायण एवं जावेद मुस्तफा भी क्रमश: इन्हीं समुदायों से हैं। फेसबुक पर लिखने के कारण नौकरी से निलंबन की घटना सूचना क्रांति के दौर में चकित करती है। साथ ही अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन भी करती है। लेकिन असलियत यह है कि ऐसे हालात बनाने के लिए मीडिया पूरी तरह जिम्मेदार है। इस छवि गढ़ाऊ मीडिया ने फेसबुक पर टिप्पणी करने मात्रा से नौकरी से निकाले गए लोगों की खबर भी गायब कर दी। हालंाकि इस मसले को लेकर सोशल मीडिया में तीखी बहस देखने को मिली। राज्य में हो रही इस नए तरह की पत्रकारिता की कहानी 2009 में प्रकाशित मीडिया में हिस्सेदारी और 2011 में प्रकाशित बिहार में मीडिया कंट्रोल: बहुजन ब्रेन बैंक पर हमला में विस्तार से छपी। इस लेख में इस्तेमाल किए गए कई आंकड़े इन्हीं किताबों से लिए गए हैं। वैसे अभिव्यक्ति की आवाज दबाने वाले नीतीश कुमार भूल गए कि आपातकाल के समय लिखने-बोलने वालों को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जेल भेजा था। इसका विरोध करने वाले मुखर नेताओं में उनका भी नाम लिया जाता है। वह जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले उस आंदोलन की ही देन हैं। आज वही नीतीश कुमार वैचारिक विरोध करने वालें के खिलाफ क्या नहीं कर रहे हैं। ऐसे में समय-समय पर जो लोग लिखने-बोलने वालों पर कट्टरता के साथ पाबंदी लगाने की वकालत करते हैं, हमले तक करते हैं, उनसे वह अलग कैसे माने जा सकते हैं? नीतीश से खफा पार्टी के आध दर्जन से अधिक नेता यदा-कदा उनके खिलाफ मोरचा खोल रहे हैं। यही वजह है कि राज्य में उनका असर कम होता जा रहा है। इसका असर विश्वविद्यालयों के चुनाव में भी देखने को मिला। पटना विश्वविद्यालय के छात्रासंघ चुनाव में वामपंथी दल के छात्र संगठन एआइएसएफ ने सेंट्रल पैनल के पांच पदों में से दो पर कब्जा जमाया। वहीं भाजपा-जदयू व आरजेडी के छात्र संगठनों को एक-एक सीट मिली। पटना विश्वविद्यालय के इतिहास में पहली बार वामपंथी संगठन का असर दूसरे दलों से अधिक दिखा। मगध विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के सेंट्रल पैनल के सभी पांच पद भाजपा के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) के खाते में गए। मीडिया पर सरकारी सेंसरशिप समेत इस सरकार के खाते में ढेर सारी खामियां हैं। लेकिन उसके खाते में कुछ अच्छे काम भी हैं। नीतीश ने पहली सरकार में ही भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का ऐलान किया था। इस दिशा में कदम भी उठाए। सबसे पहले विधायक निधि खत्म की, जिसमें भ्रष्टाचार का खेल चल रहा था। दूसरा कदम मंत्रियों व अफसरों द्वारा संपत्ति का सार्वजनिक ऐलान करने का रहा। तीसरा कदम भ्रष्टाचारी अफसरों की संपत्ति जब्त करने का कानून बनाया गया। अन्य अपराध न सही पर संगठित अपहरण उद्योग पर शिकंजा कसा गया। एक और अहम बात कि अभी तक वह राजनीति में परिवारवाद-रिश्तेदारीवाद से दूर रहे। मीडिया ने इन बातों को भी खूब प्रचारित किया। सवाल यह उठता है कि क्या लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका यही रह गई है? बिहार की बात करें तो आने वाले समय में जनता वोट के जरिए नीतीश को उनकी नीतियों के लिए फिर भी सबक सिखा सकती है लेकिन मीडिया की इस भूमिका के लिए उस पर सवाल कौन उठाएगा? काश! समय रहते बिहार में बनी मीडिया की इस गलत छवि को सुधारा जा सके जिससे आने वाले समय में राज्य की वास्तविक तस्वीर सामने आए और भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की जड़ें मजबूत बनी रहें।


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