Quantcast
Channel: पत्रकारिता / जनसंचार
Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

चुनाव में मीडिया से कौन डरता है

$
0
0





प्रस्तुति-- किशोर प्रियदर्शी, धीरज पांडेय



मीडिया से कौन डरता है

10 Feb 2009, 1000 hrs IST,स्वतंत्र जैन,नवभारत टाइम्स  
0.jpg
भारत में मीडिया और इसके मैसिंजर पिछले कुछ दिनों से सबके निशाने पर हैं। कहना कठिन है कि इसका कारण मीडिया से बढ़ती अपेक्षाएं हैं या फिर मीडिया की अपनी भूमिका निष्पादन में असफलता। सरकार मीडिया को केबल एक्ट में संशोधन कर रेगुलेट करना चाहती है, तो पाठकों या जनता का आरोप है कि मीडिया बाजार का दास बन गया है।

दूसरी तरफ, इंटरनैशनल प्रेस इंस्टीट्यट का आकलन है कि भारत दुनिया में पत्रकारों अर्थात मैसिंजरों के लिए दुनिया में तीसरी सबसे खतरनाक जगह है। यहां से ज्यादा ख़तरा सिर्फ इराक और पाकिस्तान में है। मीडिया को एक तरफ लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, उससे बहुत सारे कर्तव्यों के निर्वाह की अपेक्षा की जाती है, पर मीडिया के अधिकार क्या हों, इस पर चर्चा कभी नहीं होती है। मीडिया का एक मात्र अधिकार- अभिव्यक्ति का अधिकार भी सत्ता प्रतिष्ठानों की नजर में खटक रहा है।

इस राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य के सदंर्भ में मंदी के मार झेलते मीडिया उद्योग के एक कर्मी के नाते पिछले दिनों मुझे इस वाक्य का एक नया अर्थ समझ में आया। 'मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है'। चौथा, पहला नहीं, आखिरी। कतार में खड़े बापू के आम आदमी की तरह!

इस सबके बावजूद सरकार केबल एक्ट बिल लाकर मीडिया की नकेल कसने की अपनी कोशिश में पीछे नहीं रही, हालांकि पीएम के हस्तक्षेप के बाद वह फिलहाल ठंडे बस्ते में चला गया है। मीडिया को कसने की ये कोशिशें किसी सरकार विशेष से ज्यादा हमारे पूरे शासक वर्ग के चरित्र पर प्रकाश डालती हैं। यह अभिजात्य शासक वर्ग जैसे-तैसे इसके लिए तो तैयार हो गया है कि जनता हर पांच साल में एक बार मतदान के जरिए परिवर्तन की अपनी इच्छा को आधे-अधूरे तरीके से व्यक्त कर ले। पर उससे अभी यह बर्दाश्त नहीं होता कि वह मीडिया के माध्यम से रोज बोले। चौबीस घंटे बोले। हजारों -लाखों मुख से बोले और अपनी समझ से बोले।

आश्चर्य नहीं कि भारत के लोकतंत्र के साठ सालों के इतिहास में ही मीडिया रेग्युलेशन की अनेक बहानों से कई-कई कोशिशें हुई हैं। सफल और असफल दोनों। हकीकत यह है कि मीडिया ने जनता और शासक वर्ग के बीच संवाद का सेतु ही नहीं, वरन कई राजपथ, गलियां और पगडंडियं बना दी हैं। पर हम जानते हैं कि उपरोक्त तीनों 'स्तंभ'अलोकतांत्रिक शासन प्रणालियों में भी रहे हैं और हैं। मीडिया की उपस्थिति भी अलोकतांत्रिक प्रणालियों में देखी जा सकती है। जाहिर है एक समाज-शासन कितना लोकतंत्रिक है, वह इससे तय नहीं होता कि उसमें मीडिया है या नहीं, वरन इससे तय होता है कि शासित वर्ग और जनता के बीच संवाद के जो सेतु और मार्ग हैं उनका स्वरूप क्या है। उन मार्ग पर कौन-कौन किस अधिकार से चल सकता है।

क्या वह बराबरी के अधिकार से चल सकता है और संवाद के लिए अपनी मर्जी से साधनों का चुनाव कर सकता है? इस मार्ग पर चलते हुए उसे गलती करने और उसे अपने आप सुधारने का कितना अधिकार है? क्या गलती करने का अधिकार सिर्फ शासक और सत्ता वर्ग को है, जिसे कि वह खुद ही जांच कमेटियां बनाकर ठीक करने और दंडित करने का नाटक भी करता है?

सूचना और ज्ञान के दूरगामी प्रभाव को देखते हुए यह भी मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि लोकतंत्र के अन्य स्तंभों की तरह मीडिया भी सत्ता का एक केंद्र बन गया है। लोकतंत्र में जनता की आवाज के पहरेदार सत्ता के स्रोत भी बन जाएं तो यह कोई अनहोनी घटना भी नहीं है। पर सत्ता के मूल्यांकन का एक आधार यह भी होता है कि वह अपने शासितों में खुशी का प्रसार करता है। इस पैमाने पर अगर तौलें तो मीडिया से असंतुष्टि की बजाए संतुष्टि के अनेक कारण नजर आते हैं- मनोरंजन से लेकर जागरूकता और सांस्कृतिक एकीकरण से लेकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संचार व बहस -विमर्श का केंद्र बनना।

गौरतलब है कि मीडिया का आशय सिर्फ न्यूज मीडिया ही नहीं है। एंटरटेनमंट मीडिया, इंटरनेट, फिल्में मीडिया के ही एक प्रकार हैं (सभी का बिजनेस मॉडल भी प्राय: एक जैसा ही है) और अभिव्यक्ति के अधिकार से ही अनुशासित होते हैं। तमाम सेंसर बोर्ड की मौजूदगी के बावजूद भारत अगर दुनिया में सबसे अधिक फिल्में बनाता है तो यह सिर्फ फिल्म इंडस्ट्री की प्रॉडक्शन क्षमता का प्रश्न नहीं है, वरन इसमें लोकतंत्र की भी अहम भूमिका है। दुनिया के किन्हीं भी पांच लोकतांत्रिक और पांच अलोकतांत्रिक देशों के आंकड़े उठाकर देख लीजिए- कल्चरल प्रॉडक्शन की मात्रा, गुणवत्ता और विविधता में लोकतांत्रिक देश अलोकतांत्रिक देशों को बहुत पीछे छोड़ देंगे। कहने की आवश्यकता नहीं कल्चरल प्रॉडक्शन का उत्पादन और उपभोग दोनों एक रचनात्मक प्रक्रिया हैं। दोनों ही प्रक्रियाएं आनंद का कारण भी हैं।

इसके बावजूद बारंबार मीडिया के रेग्युलेशन की यह कोशिश क्या बताती है? कौन है जो मीडिया से इतना डरा हुआ है? पुलिस (कार्यपालिका से) से अपराधी डरते हैं। आम जनता तो डरती ही है। नेता से तो सब डरते हैं। क्या आम, क्या खास। क्या पुलिस और क्या अपराधी। कोर्ट-कचहरी अर्थात न्यायपालिका के चक्कर लगाने से आम आदमी घबराता ही है। पर मीडिया से कौन डरता है - शायद भ्रष्ट और लापरवाह नेता व अधिकारी अर्थात सत्ता-संस्थान के अलावा कोई नहीं डरता। आम जनता तो बिल्कुल नहीं डरती। इस मायने में मीडिया आम जनता के सबसे करीब ठहरता है। फिर भी मीडिया को बांधने और चुप कराने की एक लोकतांत्रिक सरकार की मंशा किस ओर इशारा करती है?
सत्ता-संस्थान के इस 'डर'की जड़ में संभवत: मीडिया की संवाद की भूमिका ही है। एक ईमानदार संवाद पारदर्शिता को जन्म देता है।

मीडिया ने सिर्फ राजनीतिक प्रक्रिया को ही पारदर्शी नहीं बनाया है। सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक सभी क्षेत्रों को जनता के करीब लाने के साथ-साथ बेपरदा भी किया है। इस प्रक्रिया में जिनके दामन दागदार हैं, वे सामने आ रहे हैं। आश्चर्य नहीं कि ये लोग आज मीडिया को रेग्युलेट करना चाहते हैं।

यह कहना भी सही नहीं है कि मीडिया और मैसिंजरों से गलतियां नहीं हुई हैं। पर इसमें सिर्फ मीडिया का दोष नहीं है। पारदर्शिता के धरातल पर भारतीय समाज एक बंद समाज है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की 2008 इंडेक्स के अनुसार भारत करप्शन परसेप्शन इंडेक्स में मात्र 3.4 अंकों के साथ 85वें स्थान पर था। वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम सर्वे ने भी 2003 में भारत को सरकारी अधिकारियों की ईमानदारी इंडेक्स में 49 देशों की सूची में 45वें स्थान पर रखा था। सूचना का अधिकार भी समाज और सत्ता के बंद दरवाजों में कोई ज्यादा सेंध नहीं लगा पाया है। बंद समाज का बनावटीपन मीडिया को भी प्रभावित करता है। एकतरफ प्रभावशाली वर्ग सचाई और सूचना का स्वागत नहीं करता है तो दूसरी तरफ टीआरपी की होड़, सत्ता-संस्थानों द्वारा दिए जाने वाले लोभ-लालच ने भी मीडिया को भी अपनी चपेट में लिया है।

जाहिर इसका जवाब रेगुलेशन नहीं स्वायत्तता ही है। ऐसे हालात में जबकि पब्लिक स्पेस का दायरा बढ़ा है वहीं पब्लिक मनी का दुरुपयोग सिर्फ सरकारी महकमे तक सीमित नहीं रहा वरन् कॉरपोरेट वर्ल्ड भी इसमें शामिल हो गया है (संदर्भ - सत्यम प्रकरण), जरूरत इस बात की है मीडिया से बढ़ती अपेक्षाओं को और भी गंभीरता से लेते उसे और स्वायत्त्ता दी जाए न कि मीडिया की ऑंख और कान पर पट्टी बांधी जाए। मीडिया को दी गई यह स्वायत्तता मीडिया को अनुशासित तो करेगी ही, समाज और शासन प्रणाली को भी जिम्मेदार और पारदर्शी बनाएगी।

Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

Trending Articles