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बीबीसी : कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म





 प्रस्तुति-- राकेश, समिधा, राहुल

रिपोर्ट के लिए आइडिया देना
किसी रिपोर्ट पर काम शुरू करनेसे पहले उस बारे में अपने संपादकीय प्रभारी के सामने आइडिया रखना होता हैऔर इस बारे में सहमति के बाद ही रिपोर्टिंग का काम शुरू होता है. अपनीरिपोर्ट के आइडिया के बारे में संपादकीय प्रभारी के साथ मीटिंग करना औरउसमें आइडिया को पेश करना एक हुनर है.
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अँगरेज़ी में इसेपिचिंगकहते हैं जिसका मतलब है स्टोरी आइडियाको सामने रखना. हर अच्छी स्टोरी की शुरूआत इसी तरह होती है, आप फ्रीलांसरहों या फिर स्टाफ रिपोर्टर आपको स्टोरी आइडिया को मंज़ूर कराना होता है.
कईबार अच्छे स्टोरी आइडिया नामंज़ूर कर दिए जाते हैं, दो बातें बहुत अहमहोती हैं, एक तो आपकी मीटिंग और दूसरे स्टोरी आइडिया को पेश करने की आपकीतैयारी.
मीटिंग पर आपका बहुत नियंत्रण नहीं होता मगर आप अपनी तैयारीअच्छी तरह ज़रूर कर सकते हैं. मीटिंग से पहले एडिटर से समय तय कर लेनाचाहिए, और बताना चाहिए कि आपको अपनी बात कहने में कितना समय लगेगा.
आपकेदिमाग़ में तीन बातें साफ़ होनी चाहिएस्टोरी क्या है, उसे लोगों तकपहुँचाने का सबसे अच्छा तरीक़ा क्या होगा, और आप इसे कैसे पूरा करेंगे.
ख़ुद से सवाल पूछें कि आपका आइडिया अच्छा क्यों है, क्या आप स्टोरी आइडिया को जिस तरह पेश कर रहे हैं उसमें यह खूबी सामने आ रही है?
बीबीसीके एक वरिष्ठ संपादक पीटर रिपन कहते हैं, “जब आप स्टोरी आइडिया लेकर जाएँतो इतना बताने से काम नहीं चलेगा कि स्टोरी क्या है, यह भी बताएँ कि उसमेंआप क्या करने वाले हैं.
रेडियो फ़ोर की प्रोड्यूसर सीरिन बैंस कहतीहैं, “आप जिन्हें सच समझते हैं उनका उलझा हुआ प्रजेंटेशन आपके आइडिया कीहवा निकाल सकता है और आपकी विश्वसनीयता भी ख़तरे में पड़ सकती है, अगर आपकेपास पक्के डिटेल्स नहीं हैं लेकिन आपको लगता है कि आइडिया अच्छा है तो यहबात साफ़ कहिए, न उलझिए और न उलझाइए.
मीटिंग
स्टोरी आइडिया पर आगे काम होगा या नहीं, यह मीटिंग से ही तय होता है इसलिए स्टोरी आइडिया मीटिंग को गंभीरता से लेना चाहिए.
बीबीसीवर्ल्ड सर्विस के एक वरिष्ठ एडिटर एलेस्टर एल्फ़िक कहते हैं, “दूसरों केसाथ मिलकर काम करने, लोगों को सोचने का मौक़ा देने, उन्हें अपने विचारों कोही चुनौती देने के लिए उकसाने से, स्टोरी के ट्रीटमेंट पर घुमावदार तरीक़ेसे सोचने से बात बनती है.
वे कहते हैं, “इसके बाद स्टोरी केएडिटोरियल और प्रोडक्शन से जुड़े सवालों पर गौर करना चाहिए, लोगों कोप्रेरित करना चाहिए वे मुश्किल सवाल पूछें और उनके हल तलाश किए जाएँ. अपनेसाथ काम करने वाले लोग जब सवाल पूछें तो झल्लाए बग़ैर उन सवालों के बारेमें सोचें जिससे आपकी स्टोरी और निखरेगी ही, और कुछ नहीं तो आपकी समझ साफ़होगी.
कुछ याद रखने लायक बातें
  • शुरूआती स्टेज पर कोईआइडिया बहुत अच्छा या बहुत बुरा नहीं होता, जितना खुलकर सोच सकते हैं, सोचिए. एक बार आइडिया ठीक लगे तो बाकी सब ठीक किया जा सकता है.
  • दूसरों की बातों को ध्यान से सुनिए, बहस को बंद नहीं करिए बल्कि खुला रखिए, नहीं कहने के बदले हाँ कहिए फिर अपनी परेशानियाँ बताइए
  • आइडियाको आसानी से मत जाने दीजिए, मिलकर काम करिए सहयोग की भावना के साथ, खुदको दूसरे से अक्लमंद साबित करने की कोशिश में चर्चा आगे नहीं बढ़ पाएगी
  • एक छोटे ग्रुप मे अधिक रचनात्मकता चर्चा हो सकती है, एक विचार से दूसरे विचार पैदा होते हैं
  • आइडिया को रद्द करने से पहले उसे आज़माने के लिए होने वाली चर्चा अक्सर बहुत दिलचस्प होती है, वह चर्चा ज़रूर करें
यह सब अपने आप नहीं होगा इसके लिए समय और इरादा चाहिए, कोशिश करिए कि ऐसा हो.
सिर्फ़अपने स्टोरी आइडिया तक सीमित न रहिए, दूसरों के स्टोरी आइडिया पर भी जितनीहो सके चर्चा करिए जिससे आपको कुछ न कुछ नया सीखने को ही मिलेगा.
अगरआप अपना स्टोरी आइडिया सीधे संपादक के पास ले जाने को लेकर नर्वस हैं तोटीम के किसी ऐसे सीनियर व्यक्ति से बात करिए जिसके अनुभव की आप कद्र करतेहों, उनस कहिए कि आपसे आपके आइडिया पर आलोचनात्मक दृष्टि से बात करें, इससेबहुत मदद मिल सकती है.
संक्षेप में
दो-चारस्टोरी आइडिया रद्द होने के बाद अपना आत्मविश्वास मत खोइए, यह आपकारोज़मर्रा का काम है, आपके दिमाग़ में कोई आइडिया आए तो उस समय और ध्यानलगाइए, उसे अच्छी तरह अपने दिमाग़ में तैयार करिए, किसी सीनियर की मददलीजिए, फिर पेशेवेर तरीक़े से पूरे आत्मविश्वास के साथ पेश करिए.
बीबीसी
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मौलिक पत्रकारिता से जुड़े सवाल
पत्रकारिता का उद्देश्य हीलोगों को कुछ नया, कुछ दिलचस्प और उपयोगी बताना है जो वे नहीं जानते.ज़्यादातर पत्रकार, ख़ास तौर पर वे पत्रकार जिनकी हम सभी प्रशंसा करते हैं, अक्सर चिंतित रहते हैं कि उनकी रिपोर्ट मौलिक हो, उसमें कोई नई बात हो.मौलिक पत्रकारिता एक कौशल है जिसे आप सीख सकते हैं लेकिन वह दिन-ब-दिनमुश्किल होती जा रही है.
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पत्रकारों को अब पहले के मुक़ाबले कहीं अधिक काम करना पड़ता है, अब एक ही रिपोर्टर को रेडियो, टीवी, वेबसाइट सबके लिए रिपोर्टिंग करनीपड़ती है. ऐसी स्थिति में अक्सर यही होता है कि पत्रकार ख़बरों को प्रोसेसकरते रह जाते हैंनया कुछ पैदा करने के लिए जिस तरह के रिसर्च की ज़रूरतहोती है उसका समय ही उन्हें नहीं मिल पाता.
इसके अलावा इंटरनेट परदुनिया पर बेहतरीन और बदतरीन जानकारियों का अंबार लगा है लेकिन उसे करीनेसे लोगों के सामने पेश करने का हुनर बहुत कम लोगों के पास है.
सोच और आदतें
मौलिकताकी माँग है मेहनत, समय और समझदारी. आधे-अधूरे, अनमने तरीक़े से ऑरिजनल कामनहीं हो सकता, यह कुछ दिनों का काम नहीं है बल्कि लगातार उसमें जुटे रहनापड़ता है तब जाकर बात बनती है.
इसका मतलब कि पत्रकारों को अपनी सोच बदलनी पड़ती है और अपने काम करने का तरीक़ा तो अवश्य ही बदलना पड़ता है.
जिस ढर्रे पर आप चल रहे होते हैं उसे बदले बिना ऑरिजनल या मौलिक पत्रकारिता तो नहीं हो सकती.
जिज्ञासा
मैंनेऑरिजनल जर्नलिज़्म के बारे में लिखने से पहले कई संपादकों, रिपोर्टरों औरअनुभवी प्रसारकों से बात की, सबका कहना था कि सबसे ज़रूरी चीज़ हैजिज्ञासा, जहाँ से किसी ऑरिजनल रिपोर्ट की शुरूआत होती है, अगर आपमें गहराईसे जानने समझने की ललक नहीं है तो आप समय बर्बाद कर रहे हैं, मौलिकपत्रकारिता आपके लिए नहीं है.
आपको अपनी ऑरिजनल रिपोर्ट ढूँढने काअभ्यास करना होता है, कई सीनियर एडिटर हमेशा अपने साथियों से कहते थे किआधा किलोमीटर लंबी सड़क पर ग़ौर से देखने का अभ्यास करना चाहिए कि वहाँकितनी चीज़ें हैं जिन्हें रिपोर्ट किया जा सकता है, “सड़क की हालत, पार्किंग की हालत, वहाँ भटकने वाले शराबी और भिखारी, सबके बारे में सोचनाचाहिए. स्टोरी वहीं से आती है.
कितनी बार आप एक नई बन रही इमारत कीबगल से गुज़रे हैं और आपने सवाल किया है कि यहाँ क्या बन रहा है, क्यों बनरहा है, कौन बनवा रहा है, कब तक बन जाएगा वग़ैरह?
अगर आप ऑरिजनलजर्नलिज़्म करना चाहते हैं तो आपमें इतनी जिज्ञासा होनी चाहिए कि अगर आपकोकोई ख़ाली दीवार दिखाई दे तो आप इसके बारे में सोचना शुरू कर दें यह दीवारक्यों है, क्या वहाँ पहले कुछ था?
क्यों और क्यों नहीं?
तो जिज्ञासा की कसरत कैसे की जाए?
प्रैक्टिस करें लेकिन चुपचाप, अगर आप खुलकर ऐसा करेंगे तो आप लोगों को ख़ासा परेशान करेंगे और वे आप से कतराने लगेंगे.
आपकोऐसी आदत बनानी है कि आपके लिए सवाल पूछे बिना टीवी देखना, अख़बार पढ़ना यासड़क पर चलना मुश्किल होने लगे, अपने आप पर दबाव बनाएँ कि आपको ऐसे सवालढूँढने हैं जिनके जवाब आपको पता नहीं हैं.
संक्षिप्त समाचार इस कसरतमें मददगार हो सकते हैं जिनमें पूरी जानकारी नहीं होती, इन समाचारों कोपढ़ने के बाद उन सवालों की एक फेहरिस्त बनाएँ जिनके जवाब आपको नहीं मिले.
अपनी प्रतिक्रिया को ग़ौर से सुनें
जब आपको कोई जानकारी मिलती है तो आपकी प्रतिक्रिया क्या होती है?
कुछदेर के लिए निष्पक्षता, संतुलन को किनारे रखकर सोचना शुरू करिए. आपकी पहलीप्रतिक्रिया क्या थी, क्या दूसरों की भी वही प्रतिक्रिया होगी, क्या होताहै जब आप उस प्रतिक्रिया को चुनौती देते हैं, क्या है जो किसी और कीप्रतिक्रिया हो सकती है जो आपकी नहीं है?
अपने रोज़मर्रा के कामकाजके दौरान इसका अभ्यास करिए, आप पाएँगे कि आप ऐसी कई बातें सोच पा रहे हैंजो दूसरों से अलग है, आप ऐसे पहलू देख पा रहे हैं जो दूसरे नहीं देख रहे, यहीं से मौलिक पत्रकारिता की शुरूआत होती है.
बीबीसी न्यूज़नाइटकार्यक्रम के राजनैतिक मामलों के पूर्व संपादक माइकल क्रिक कहते हैं, “रोज़मर्रा की बिल्कुल आम रिपोर्ट जिसे बीसियों दूसरे लोग भी कर रहे हैं, उन्हें करते समय हमेशा ये सोचना चाहिए कि मै ऐसा नया क्या दे सकता हूँ?”
इसकामज़ा ये है कि आपको पहले से कुछ भी जानने की ज़रूरत नहीं है, आपको सिर्फ़जिज्ञासु और उत्साही होना है लेकिन अनुशासित तरीक़े से.










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प्लानिंग और कमीशनिंग
रिपोर्टरों से रिपोर्टेंमँगवाना और उनकी रिपोर्ट की ख़ूबियों-कमियों के बारे में बताना एकमहत्वपूर्ण काम होता है. क्या सामग्री चाहिए, क्या हो सकता है, क्या नहींहो सकता ऐसी बातों को लेकर स्पष्टता ज़रूरी है. इसके लिए परस्पर संवादबहुत ज़रूरी है. कमीशनिंग और प्लानिंग की प्रक्रिया के बारे में बता रहीहैं बीबीसी हिन्दी की प्लानिंग संपादक रूपा झा.
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रिपोर्टरों से रिपोर्टें मँगवाना और उनकी रिपोर्ट कीख़ूबियों-कमियों के बारे में बताना एक महत्वपूर्ण काम होता है. क्यासामग्री चाहिए, क्या हो सकता है, क्या नहीं हो सकता ऐसी बातों को लेकरस्पष्टता ज़रूरी है. इसके लिए परस्पर संवाद बहुत ज़रूरी है. कमीशनिंग औरप्लानिंग की प्रक्रिया के बारे में बता रही हैं बीबीसी हिन्दी की प्लानिंगसंपादक रूपा झा.

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रिपोर्ट कमीशन करनाः सहमति
किसी घटना या विषय के बारे मेंरिपोर्ट भेजने वाले रिपोर्टर के साथ क्या सामग्री चाहिए, क्या हो सकता हैया क्या नहीं हो सकता जैसी बातों को लेकर सहमति और स्पष्टता होनी चाहिए.इसके लिए परस्पर संवाद बहुत ज़रूरी है.
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जोसेफ़ वारूँगुबीबीसी फ़ोकस ऑन अफ़्रीका केपूर्व संपादक हैं. यहाँ वो बता रहे हैं कि फ़ील्ड से किसी रिपोर्टर सेरिपोर्ट मँगवाने की प्रक्रिया क्या है.
सबसे पहले ये स्पष्ट करना ज़रूरी है कि रिपोर्ट किस बारे में है. उसमें क्या कोई नई बात है?
फिर, क्या संपादक और रिपोर्टर रिपोर्ट के फोकस को लेकर सहमत हैं? यदि रिपोर्टरऔर उसके संपादक के बीच रिपोर्ट के बुनियादी बिंदुओं को लेकर असहमति है, तोप्रक्रिया को आगे ले जाने से पहले इसे सुलझाना ज़रूरी है.
ये ध्यानरखना ज़रूरी है कि दफ़्तर में मौजूद संपादक या प्रोड्यूसर को ना केवल एकरिपोर्ट की बात पता है बल्कि उसे एक कार्यक्रम में शामिल होने वाली अन्यरिपोर्टों की भी जानकारी है.
इससे रिपोर्ट के बारे में उसकी सोचफ़ील्ड में काम कर रहे उस रिपोर्टर से अलग होगी जो केवल अपनी रिपोर्ट कोलेकर व्यस्त है और उसे अन्य रिपोर्टों की अधिक जानकारी नहीं.
तरीक़ा
रिपोर्टर के साथ सहमति बनाएँ, जो कई बार हज़ारों किलोमीटर दूर बैठा होता है, कि आप उस रिपोर्ट को कैसे करना चाहते हैं.
संपादक या प्रोड्यूसर को इस बात की एक समझ होगी कि वो कैसी रिपोर्ट चाहते हैं जो कि उनके कार्यक्रम में कैसे इस्तेमाल होगी.
होसकता है कि वो फोन पर बात करना चाहते हों जिसे फोनो या टूवे कहा जाता है, या एक इलेस्ट्रेटेड रिपोर्ट चाहते हों यानी ऐसी रिपोर्ट जिसमें घटनास्थल सेअधिक आवाज़ें सुनाई दे रही हों.
रिपोर्ट जैसे भी की जाए, रिपोर्टरको ये पता होना ज़रूरी है कि संपादक क्यों उसी ख़ास तरीक़े से रिपोर्टकरवाने पर ज़ोर दे रहा है. रिपोर्टर इस बारे में अपने तरीक़े और सुझाव भीदे सकते हैं.
चाहे जैसे भी हो, कामयाबी बातचीत और सहमति पर निर्भर करती है.
अवधि
रिपोर्ट कितनी लंबी होनी चाहिए? ये ध्यान रखते हुए कि रिपोर्ट एक कार्यक्रम का हिस्सा है, इसकी अवधि निश्चित होनी चाहिए.
जैसे यदि रिपोर्ट दो मिनट लंबी होनी है तो रिपोर्टर का दस मिनट की रिपोर्ट भेजने का कोई मतलब नहीं.
रिपोर्ट जानी कब है? अगले हफ़्ते अगले सप्ताहांत? और कार्यक्रम में कहाँ जानी है?
क्याये लीड है? क्या ये कोई हल्की-फ़ुल्की रिपोर्ट है? रिपोर्टर के लिए येजानना ज़रूरी है क्योंकि इससे तय होगा कि वो उस रिपोर्ट को कैसे करना चाहताहै.
क्या ये एक अकेली रिपोर्ट है या एक लंबी श्रृंखला का हिस्सा है जैसे, किसी खेल आयोजन में हिस्सा ले रहे किसी ख़ास देश की रिपोर्ट.
ये सारी बातें पहले से तय होनी और इस पर रिपोर्टर तथा संपादक के बीच सहमति होनी ज़रूरी है. 
रिपोर्टरः स्पष्ट रहें
यदि संपादक या प्रोड्यूसर को पता है कि वो क्या चाहते हैं, तो रिपोर्टर को भी पता होना चाहिए कि रिपोर्ट किस बारे में है.
येरिपोर्टर का काम है कि वो अपनी रिपोर्ट की हर बात को जाने. इससे वो इनबातों को संदर्भ में रख सकेगा और किसी ख़ास घटनाक्रम के महत्व को समझासकेगा.
आप ये अपेक्षा नहीं कर सकते कि आपके संपादक या प्रोड्यूसर कोआपकी रिपोर्ट के बारे में आपसे अधिक जानकारी होगी. हो सकता है कि यदि वेकिसी स्थिति की गंभीरता को ना समझ पा रहे हों तो आपको उनके साथ तर्क करनापड़ेगा.
कमीशनिंग की प्रक्रिया एक साझेदारी की तरह होनी चाहिए.रिपोर्टरों की राय को नज़रअंदाज़ करनेवाले हठी प्रोड्यूसर या संपादक अक्सरअसली कहानियाँ को नहीं कवर कर पाते.
तरीकाः रिपोर्टर की राय
प्रोड्यूसरया संपादक की किसी रिपोर्ट के बारे में एक सोच हो सकती है कि वो कैसीरिपोर्ट चाहते हैं, मगर रिपोर्ट तैयार करने की प्रक्रिया में रिपोर्टर कीभूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण है.
फ़ील्ड में मौजूद पत्रकार के अपने विचार हो सकते हैं कि किन बातों से रिपोर्ट मे जान आ सकती है.
बाधाएँ
आपरिपोर्ट कैसे कवर करने वाले हैं इसे लेकर आपको स्पष्ट और व्यावहारिक होनापड़ेगा. इसमें कितना समय लगेगा, और इसमें क्या किसी तरह की कोई सुरक्षा कीभी चिंताएँ हैं जिन पर ध्यान देना चाहिए.
और ऐसा अक्सर होता है, कितकनीकी कारणों से रिपोर्टर को रिपोर्ट भेजने में देर हो जाती है और इससेरिपोर्ट की प्रतीक्षा कर रहे प्रोड्यूसर परेशान होते हैं.
  • प्रोड्यूसर और संपादक धैर्य रखें
  • रिपोर्टर वैकल्पिक योजना रखें
यदिसैटेलाइट डिश काम न करे, तो हमें तय करना होगा कि हम क्या करेंगे. हो सकताहै कि क्वालिटी ख़राब हो. इसलिए प्रोड्यूसर के लिए ये समझना ज़रूरी हैताकि वो अंत में आकर ये ना चीखें – ‘आप कहाँ हैं? आपका कोई पता नहीं?’”
प्लान बी’: विकल्प
अच्छे से अच्छी बनाई गई योजना बिखर सकती है. तब आपको ज़रूरत पड़ेगी विकल्प कीः प्लान बी’.
जैसे, यदि रिपोर्टर घटनास्थल पर नहीं पहुँच सका, तो ऐसे में क्या वो अपने मोबाइलफ़ोन पर टू-वे कर सकेगा? कुछ न होने से कुछ भी हो जाना बेहतर है. जैसेबाढ़ की ख़बर देते समय कम-से-कम यही बता दें कि पुल टूट गया है, लोग फँसेहुए हैं.
ख़बर दे देने के बाद आपके पास बेशक समय होगा कि आप उसरिपोर्ट के बारे में और सामग्री जुटा सकें, जैसे विस्थापित लोगों से याबचावकर्मियों से बात कर एक विस्तृत रिपोर्ट बना सकें.
ब्यूरो
बीबीसीके दुनिया भर में ब्यूरो हैं. ये क्षेत्रीय कार्यालय रिपोर्टें कमीशनकरवाने की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण होते हैं जहाँ स्थित कोर कमिश्नर याप्रोड्यूसर लंदन के संपादकों की ओर से रिपोर्टें कमीशन करते हैं.
क्षेत्रीयब्यूरो को ये सुनिश्चित करना होता है कि रिपोर्टर इस बात को समझता है किलंदन क्या चाहता है. वो साथ ही संपादक को रिपोर्टर की सीमाओं के बारे मेंअवगत कराता है.
संपादक और रिपोर्टर के बीच बिचौलिएके शामिल होने के कारण संवाद में स्पष्टता और ज़रूरी हो जाती है.
कोर कमिश्नर
कोर कमिश्नरों के लिए ज़रूरी है कि वो लंदन की प्रोडक्शन टीम की ही तरह व्यवस्थित रहे.
जैसे, यदि आप दिल्ली, नैरोबी या मयामी में बैठे हैं तो आपके लिए ज़रूरी है कि जबआप शिफ़्ट ख़त्म करने से पहले ढंग से काम को अगले व्यक्ति को सौंपें.
कमीशनकरने की प्रक्रिया की सफलता या नाकामी इस बात पर निर्भर कर सकती है किकिसी कोर कमिश्नर ने संपादक, रिपोर्टर या क्षेत्रीय ब्यूरो में अगलादायित्व निभाने वाले व्यक्ति के साथ कितनी अच्छी तरह से बातचीत की है.
आप बातचीत की श्रृंखला में एक कमज़ोर कड़ी को स्वीकार नहीं कर सकते इसलिए ठीक से नोट्स लेना और वैकल्पिक योजना तैयार रखना आवश्यक है.
बदलाव की गुंजाइश रखें
याद रखें, आप उस जगह से दूर हैं जहाँ से रिपोर्ट आ रही है.
उस जगह रिपोर्टर है और मैं वहाँ नहीं हूँ. मैं अपनी ओर से सुझाव दे रहा हूँ और सामग्री रिपोर्टर दे रहा है.
अंततः, इस कार्यक्रम के लिए ज़िम्मेदार मैं हूँ, इसलिए स्वाभाविक है कि मुझे कुछफ़ैसले करने होंगे, मगर इसमें मुझे ये ध्यान रखना होगा कि रिपोर्टर क्या कहरहा है.
कभी-कभी काम को लेकर मतभेद और तनाव हो सकते हैं, मगररिपोर्टर और संपादक, दोनों का लक्ष्य समान है अपने पाठकों और श्रोताओं केलिए यथासंभव अच्छी रिपोर्टें देना.
इसे ठीक से करने की कुंजी है संवाद.

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भाषा से दिख जाती है निष्पक्षता

पत्रकारिता में निष्पक्षता एक आवश्यक शर्त मानी जातीहै. और कोई कितना निष्पक्ष है और कितना नहीं, इसका पता सबसे पहले भाषा सेचलता है. शब्दों के चुनाव, और भाषा के तेवर में छिपे पक्षपात को आसानी सेभांपा जा सकता है.

वक़्त के साथ बदलती है भाषा
भाषा हमेशा स्थायी नहीं रहती, वो वक़्त की ज़रूरतों के हिसाब से बदलती रहती है, इस बदलाव के साथ संघर्षकरने की जगह उसे समझने का प्रयास ज़रूरी है.
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राजेश प्रियदर्शी, डिजिटल एडिटर, बीबीसी हिन्दी
भाषा जैसी दस साल पहले थीअब नहीं हैन ही आने वाले दिनों में वैसी रहेगी जैसी अब है.
मनोरंजनखेलखानपानहर क्षेत्र से नए नए शब्द आते हैंलाखों लोग जिन शब्दों को पसंद करते हैंवे टिकते हैंबाक़ी ख़त्म हो जाते हैं.
पहले हर नई पीढ़ी, पिछली पीढ़ी से अलग तरह की भाषा लिखती-बोलती थीअब यह बदलाव कहीं तेज़ी से हो रहा है.
सोशलमीडियामोबाइल फ़ोन और इंटरनेट की वजह से भाषा बदली है. इस बदलाव कोसमझना चाहिए और उसके साथ चलना चाहिएइस बदलाव से संघर्ष करने की जगह उसेसमझना चाहिए.
मसलन, कंप्यूटर और इंटरनेट से जुड़े सारे शब्द अँगरेज़ीके ही हैंउनका अनुवाद करने की ज़रूरत नहीं समझी गईकंप्यूटर के लिएसंगणक और इंटरनेट के लिए अंतर्जाल जैसे शब्द कुछ लोगों ने चलाने की कोशिशकी लेकिन बात नहीं बनी.
अब बारीक़ बात, संतुलन और सावधानी की. परदेपर विद्यमान कुंजीपटल का प्रयोग करके इच्छित भाषा में टंकण करेंजैसेवाक्य लिखने से बेहतर होगा—‘ऑनस्क्रीन कीबोर्ड से मनचाही भाषा में टाइपकरें.
मगर साथ ही ध्यान रखें कि ज़्यादा कूलहोने की कोशिश मेंऐसी भाषा लिखने से बचें जो इन दिनों कई लोग एसएमएस में लिख रहे हैं, मसलन, ‘ठीक हैकी जगह tk या ग्रेटकी जगह ग्रे8.
संक्षेप में, पत्रकारको भाषा के बारे में खूब सोचना चाहिएहमेशा अपना दिमाग़ खुला रखना चाहिएऔर याद रखना चाहिए भाषा ज़रिया है, मक़सद नहीं, मक़सद तो है अधिक से अधिकलोगों तक अपनी बात पहुँचाना



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