प्रस्तुति- समिधा, राहुल मानव राकेश
डीईआई, दिल्ली
जो लोग टीवी चैनलों के जरिये सूचनाएं लेने के आदी होंगे उन्हें यह स्वाभाविक भ्रम हो सकता है कि मीडिया में महिलाएं ज्यादा हैं। टीवी चैनलों पर दिन-रात महिला एंकर सजधज कर खबरें पढ़ती दिखती हैं। मीडिया के इसी ग्लैमर के चक्कर में ढेर सारी लड़कियां मीडिया की पढ़ाई की तरफ खींची चली आती हैं। लेकिन क्या वास्तव में टीवी के जरिये दिखने वाली मीडिया की यह हकीकत सही है इसका अंदाजा लगा पाना मुश्किल है। एक सर्वे के जरिये हमने यही देखने की कोशिश की कि क्या वास्तव में मीडिया में महिलाओं का प्रतिनिधित्व उनके अनुपात में सही है? इस सर्वे के जो नतीजे आए वो बेहद शर्मनाक हैं।
सुविधाओं व लाभों से वंचित
संसद में महिलाओं की भागीदारी व बराबरी के अधिकार को लेकर सबसे ज्यादा चिन्ता जाहिर करने वाले मीडिया संस्थानों से महिलाएं लगभग गायब हैं। जो हैं उन्हें उन सभी सुविधाओं और लाभों से वंचित रखा जा रहा है जो एक पुरुष पत्रकार को मिलती हैं। मसलन विभिन्न स्तरों पर पत्रकारों को मान्यता दी जाती है उस सूची में महिलाएं लगभग नगण्य हैं। सबसे अहम बात यह कि देश के सभी बड़े मीडिया संस्थानों में स्थिति और भी खराब है। मीडिया स्टडीज ग्रुप की तरफ से किए गए इस सर्वे के मुताबिक मीडिया में महिलाओं का देशव्यापी औसत प्रतिनिधित्व सिर्फ 2.7 प्रतिशत है। हमने इस सर्वे में 28 प्रदेशों और केन्द्र शासित राज्यों के 255 जिलों से मिली 14.278 मान्यता प्राप्त पत्रकारों की सूचनाओं को शामिल किया है। आंकड़े बताते हैं कि 6 राज्य और 2 केन्द्र शासित प्रदेश ऐसे हैं, जहां जिला स्तर पर मान्यता प्राप्त महिला पत्रकारों का औसत शून्य है। इन राज्यों में असम, झारखंड, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, उड़ीसा और मणिपुर शामिल है। केन्द्र शासित प्रदेशों में पुडुचेरी और दमन एवं दीव शामिल हैं। इन प्रदेशों से प्राप्त सूचना के अनुसार जिला स्तर पर यहां कोई मान्यता प्राप्त महिला पत्रकार नहीं है।
सर्वे के अनुसार आंध्र प्रदेश ऐसा राज्य है जहां जिला स्तर पर मान्यता प्राप्त महिला पत्रकारों और संपादकों की संख्या 107 है जो कि सबसे अधिक है। हालांकि जब इसे पुरुष पत्रकारों के मुकाबले देखते हैं तो यहां भी केवल 1.38 प्रतिशत महिला पत्रकार ही हैं। जिला स्तर पर सर्वाधिक महिला मान्यता प्राप्त संवाददाताओं व संपादकों वाले राज्य में उत्तर पूर्व सिक्किम और मेघालय में 16.66 प्रतिशत है। वहीं बिहार में मान्यता प्राप्त महिला संवाददाताओं व संपादकों का प्रतिशत 9.58 है और छतीसगढ़ में 9.38 प्रतिशत हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि देशभर में सिर्फ दो महिला पत्रकारों को स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर मान्यता है। इसमें से एक स्वतंत्र फोटोग्राफर है।
कारगार कदम उठाना जरूरी
मीडिया स्टडीज ग्रुप ने वर्ष 2006 में पत्रकारों की सामाजिक पृष्ठभूमि का भी अध्ययन किया था जो यह उजागर करता है कि निर्णय लेने वाले शीर्ष पदों पर महिलाओं का प्रतिशत सिर्फ 17 है। जिसमें अंग्रेजी का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया बेहतर नजर आता है। यहां 32 प्रतिशत महिलाएं शीर्ष पदों पर कायम हैं। मीडिया स्टडीज ग्रुप का यह सर्वे दिल्ली स्थित 37 राष्ट्रीय मीडिया संस्थानों में निर्णय लेने वाले 315 महत्वपूर्ण पदों को दायरे में रखते हुए किया गया था। यहां पर यह गौर करने वाली बात है कि अंग्रेजी पत्रकारिता करने वाली अधिकतर महिलाएं संभ्रांत परिवारों की होती है। उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि थोड़ी मजबूत होती है जिससे वे अपने लिए जगह बनाने में भी सक्षम हो पाती हैं। लेकिन क्षेत्रीय या भाषाई मीडिया संस्थानों में काम करने वाली महिलाओं को अपने लिए जगह बनाने के लिए उनकी तुलना में कहीं ज्यादा परेशानियों का सामना करना होता है।
सर्वे से ये भी पता चलता है कि जो अखबार अपने आप को देश का शीर्ष अखबार कहते हैं उनमें महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगभग गायब है। वहां जो कुछ महिला पत्रकार काम करती भी हैं तो उन्हें मान्यता जैसी सुविधाओं से वंचित ही रखा जाता है। सर्वे में पता चला कि शीर्ष दस राष्ट्रीय दैनिक अखबार दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हिन्दुस्तान, मलयालम मनोरमा, द टाइम्स आफ इंडिया, राजस्थान पत्रिका और मातृभूमि में केवल एक-एक महिला पत्रकार को ही मान्यता मिली है। अमर उजाला और तमिल डेली थांती में एक भी महिला पत्रकार को मान्यता नहीं मिली है। मराठी के लोकमत अखबार में तीन महिला पत्रकारों को मान्यता मिली है। सबसे बेहतर स्थिति आकाशवाणी और दूरदर्शन के महिला पत्रकारों की है, जिन्हें 6 जिलों में मान्यता मिली हुई है।
दूसरे प्रेस आयोग (1980) की रिपोर्ट में यह चिन्ता जाहिर की गयी थी कि पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में कई महिलाएं आ रही हैं लेकिन जिस तादाद में आ रही हैं उसी तादाद से ये महिलाएं मीडिया संस्थानों में कम होती जा रही है। महिलाएं पत्रकारिता के क्षेत्र में आने के बजाए विज्ञापन और जन सम्पर्क के क्षेत्रों में जाना ज्यादा पसन्द करती हैं। इन महिलाओं को पत्रकारिता के क्षेत्र में आकर्षित करने के लिए विशेष सुविधाएं मुहैया करानी होंगी। जैसे काम करने का आरामदायक व सुरक्षित माहौल और देर रात तक काम करने के लिए वाहनों की सुविधा उपलब्ध कराना होगा। प्रेस आयोग की रिपोर्ट में यह चिन्ता 80 के दशक में जाहिर की गयी थी, लेकिन आज भी स्थिति कमोबेश वही है। मीडिया संस्थानों को महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए कारगर कदम उठाने होंगे अन्यथा मीडिया का जो चरित्र देश के सामने है उसे बिखरते देर नहीं लगेगी।
केवल डेस्क पर काम
हमारा मीडिया जो महिलाओं के प्रतिनिधित्व की वकालत करता फिरता है उसके अन्दर ही इतनी बड़ी लैंगिक असमानता है। मीडिया में महिलाओं को लेकर आज भी यही पूर्वाग्रह बना हुआ है कि वो फीचर की तरह छोटे-मोटे लेख ही लिख सकती हैं और छोटी-मोटी खबरें तैयार कर सकती हैं। महिलाओं के लिए एक दायरा तय कर दिया गया है कि वे समाचार कार्यालय के डेस्क पर ही काम कर सकती हैं। रिपोर्टिंग के लिए उन्हें बाहर भेजना या अपराध से संबंधित खबरों की रिपोर्टिंग करना या किसी खबरों के राजनीतिक विश्लेषण करने जैसे कार्य सौंपने से परहेज किया जाता है। छोटे कस्बों और शहरों के अखबारों में महिलाओं का काम करना तो और भी मुश्किल होता है। उन्हें अक्सर संकीर्ण और यौन पूर्वाग्रह का सामना करना होता है। देर रात तक काम करने और उन्हें सुरक्षित घर पहुंचाने जैसी जिम्मेदारियां उठाना कोई भी अखबार या मीडिया संस्थान नहीं चाहता है। मीडिया स्टडीज ग्रुप के सर्वे में भी पाया गया अधिकतर लोकप्रिय मीडिया संस्थाओं जिसे मुख्यधारा का दर्जा प्राप्त है वहां भी जिले स्तर पर महिला पत्रकारों की संख्या नहीं के बराबर है। छोटे शहरों के मीडिया संस्थानों में काम करने वाले पुरुष कर्मचारियों का मानना है कि महिलाएं तो विवाह के बाद अपने काम को जारी नहीं रख पायेंगी इसलिये उन्हें संस्थान काम पर रखने में हिचकता है। लेकिन एक पुरुष की क्या गारंटी होती है कि वह लम्बे समय तक उस संस्थान में टिक पायेगा? महिलाओं को मीडिया संस्थानों में बढ़ावा न दिये जाने का यह एक बहाना मात्र नजर आता है। राष्ट्रीय स्तर के चैनलों में अक्सर महिलाएं ही न्यूज रीडर या एंकर के रूप में दिखती हैं। लेकिन इन आंकड़ों से साफ जाहिर है कि जो दिख रहा है वो है नहीं। जो भी महिलाएं न्यूज रीडर के रूप में स्थापित की गयी हैं वो सिर्फ चैनलों की टीआरपी बढ़ाने के लिए। एक महिला को चैनल के पर्दे पर तभी पेश किया जाता है जब वो खूबसूरती के उनके पैमाने पर खरी उतरती हैं। एक ऐसी महिला जो पत्रकार के पैमाने पर खरी उतरती हैं लेकिन यदि उस महिला का रंग थोड़ा भी दबा हुआ है तो उसे पर्दे पर उतरने के काबिल नहीं समझा जाता। दूसरी बात चैनलों में महिलाएं सिर्फ पर्दे पर ही दिखाई देती हैं। पर्दों के अलावा चैनल के अन्य विभागों में महिलाओं की भागीदारी न के बराबर होती है।
सुविधाओं व लाभों से वंचित
संसद में महिलाओं की भागीदारी व बराबरी के अधिकार को लेकर सबसे ज्यादा चिन्ता जाहिर करने वाले मीडिया संस्थानों से महिलाएं लगभग गायब हैं। जो हैं उन्हें उन सभी सुविधाओं और लाभों से वंचित रखा जा रहा है जो एक पुरुष पत्रकार को मिलती हैं। मसलन विभिन्न स्तरों पर पत्रकारों को मान्यता दी जाती है उस सूची में महिलाएं लगभग नगण्य हैं। सबसे अहम बात यह कि देश के सभी बड़े मीडिया संस्थानों में स्थिति और भी खराब है। मीडिया स्टडीज ग्रुप की तरफ से किए गए इस सर्वे के मुताबिक मीडिया में महिलाओं का देशव्यापी औसत प्रतिनिधित्व सिर्फ 2.7 प्रतिशत है। हमने इस सर्वे में 28 प्रदेशों और केन्द्र शासित राज्यों के 255 जिलों से मिली 14.278 मान्यता प्राप्त पत्रकारों की सूचनाओं को शामिल किया है। आंकड़े बताते हैं कि 6 राज्य और 2 केन्द्र शासित प्रदेश ऐसे हैं, जहां जिला स्तर पर मान्यता प्राप्त महिला पत्रकारों का औसत शून्य है। इन राज्यों में असम, झारखंड, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, उड़ीसा और मणिपुर शामिल है। केन्द्र शासित प्रदेशों में पुडुचेरी और दमन एवं दीव शामिल हैं। इन प्रदेशों से प्राप्त सूचना के अनुसार जिला स्तर पर यहां कोई मान्यता प्राप्त महिला पत्रकार नहीं है।
सर्वे के अनुसार आंध्र प्रदेश ऐसा राज्य है जहां जिला स्तर पर मान्यता प्राप्त महिला पत्रकारों और संपादकों की संख्या 107 है जो कि सबसे अधिक है। हालांकि जब इसे पुरुष पत्रकारों के मुकाबले देखते हैं तो यहां भी केवल 1.38 प्रतिशत महिला पत्रकार ही हैं। जिला स्तर पर सर्वाधिक महिला मान्यता प्राप्त संवाददाताओं व संपादकों वाले राज्य में उत्तर पूर्व सिक्किम और मेघालय में 16.66 प्रतिशत है। वहीं बिहार में मान्यता प्राप्त महिला संवाददाताओं व संपादकों का प्रतिशत 9.58 है और छतीसगढ़ में 9.38 प्रतिशत हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि देशभर में सिर्फ दो महिला पत्रकारों को स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर मान्यता है। इसमें से एक स्वतंत्र फोटोग्राफर है।
कारगार कदम उठाना जरूरी
मीडिया स्टडीज ग्रुप ने वर्ष 2006 में पत्रकारों की सामाजिक पृष्ठभूमि का भी अध्ययन किया था जो यह उजागर करता है कि निर्णय लेने वाले शीर्ष पदों पर महिलाओं का प्रतिशत सिर्फ 17 है। जिसमें अंग्रेजी का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया बेहतर नजर आता है। यहां 32 प्रतिशत महिलाएं शीर्ष पदों पर कायम हैं। मीडिया स्टडीज ग्रुप का यह सर्वे दिल्ली स्थित 37 राष्ट्रीय मीडिया संस्थानों में निर्णय लेने वाले 315 महत्वपूर्ण पदों को दायरे में रखते हुए किया गया था। यहां पर यह गौर करने वाली बात है कि अंग्रेजी पत्रकारिता करने वाली अधिकतर महिलाएं संभ्रांत परिवारों की होती है। उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि थोड़ी मजबूत होती है जिससे वे अपने लिए जगह बनाने में भी सक्षम हो पाती हैं। लेकिन क्षेत्रीय या भाषाई मीडिया संस्थानों में काम करने वाली महिलाओं को अपने लिए जगह बनाने के लिए उनकी तुलना में कहीं ज्यादा परेशानियों का सामना करना होता है।
सर्वे से ये भी पता चलता है कि जो अखबार अपने आप को देश का शीर्ष अखबार कहते हैं उनमें महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगभग गायब है। वहां जो कुछ महिला पत्रकार काम करती भी हैं तो उन्हें मान्यता जैसी सुविधाओं से वंचित ही रखा जाता है। सर्वे में पता चला कि शीर्ष दस राष्ट्रीय दैनिक अखबार दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हिन्दुस्तान, मलयालम मनोरमा, द टाइम्स आफ इंडिया, राजस्थान पत्रिका और मातृभूमि में केवल एक-एक महिला पत्रकार को ही मान्यता मिली है। अमर उजाला और तमिल डेली थांती में एक भी महिला पत्रकार को मान्यता नहीं मिली है। मराठी के लोकमत अखबार में तीन महिला पत्रकारों को मान्यता मिली है। सबसे बेहतर स्थिति आकाशवाणी और दूरदर्शन के महिला पत्रकारों की है, जिन्हें 6 जिलों में मान्यता मिली हुई है।
दूसरे प्रेस आयोग (1980) की रिपोर्ट में यह चिन्ता जाहिर की गयी थी कि पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में कई महिलाएं आ रही हैं लेकिन जिस तादाद में आ रही हैं उसी तादाद से ये महिलाएं मीडिया संस्थानों में कम होती जा रही है। महिलाएं पत्रकारिता के क्षेत्र में आने के बजाए विज्ञापन और जन सम्पर्क के क्षेत्रों में जाना ज्यादा पसन्द करती हैं। इन महिलाओं को पत्रकारिता के क्षेत्र में आकर्षित करने के लिए विशेष सुविधाएं मुहैया करानी होंगी। जैसे काम करने का आरामदायक व सुरक्षित माहौल और देर रात तक काम करने के लिए वाहनों की सुविधा उपलब्ध कराना होगा। प्रेस आयोग की रिपोर्ट में यह चिन्ता 80 के दशक में जाहिर की गयी थी, लेकिन आज भी स्थिति कमोबेश वही है। मीडिया संस्थानों को महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए कारगर कदम उठाने होंगे अन्यथा मीडिया का जो चरित्र देश के सामने है उसे बिखरते देर नहीं लगेगी।
केवल डेस्क पर काम
हमारा मीडिया जो महिलाओं के प्रतिनिधित्व की वकालत करता फिरता है उसके अन्दर ही इतनी बड़ी लैंगिक असमानता है। मीडिया में महिलाओं को लेकर आज भी यही पूर्वाग्रह बना हुआ है कि वो फीचर की तरह छोटे-मोटे लेख ही लिख सकती हैं और छोटी-मोटी खबरें तैयार कर सकती हैं। महिलाओं के लिए एक दायरा तय कर दिया गया है कि वे समाचार कार्यालय के डेस्क पर ही काम कर सकती हैं। रिपोर्टिंग के लिए उन्हें बाहर भेजना या अपराध से संबंधित खबरों की रिपोर्टिंग करना या किसी खबरों के राजनीतिक विश्लेषण करने जैसे कार्य सौंपने से परहेज किया जाता है। छोटे कस्बों और शहरों के अखबारों में महिलाओं का काम करना तो और भी मुश्किल होता है। उन्हें अक्सर संकीर्ण और यौन पूर्वाग्रह का सामना करना होता है। देर रात तक काम करने और उन्हें सुरक्षित घर पहुंचाने जैसी जिम्मेदारियां उठाना कोई भी अखबार या मीडिया संस्थान नहीं चाहता है। मीडिया स्टडीज ग्रुप के सर्वे में भी पाया गया अधिकतर लोकप्रिय मीडिया संस्थाओं जिसे मुख्यधारा का दर्जा प्राप्त है वहां भी जिले स्तर पर महिला पत्रकारों की संख्या नहीं के बराबर है। छोटे शहरों के मीडिया संस्थानों में काम करने वाले पुरुष कर्मचारियों का मानना है कि महिलाएं तो विवाह के बाद अपने काम को जारी नहीं रख पायेंगी इसलिये उन्हें संस्थान काम पर रखने में हिचकता है। लेकिन एक पुरुष की क्या गारंटी होती है कि वह लम्बे समय तक उस संस्थान में टिक पायेगा? महिलाओं को मीडिया संस्थानों में बढ़ावा न दिये जाने का यह एक बहाना मात्र नजर आता है। राष्ट्रीय स्तर के चैनलों में अक्सर महिलाएं ही न्यूज रीडर या एंकर के रूप में दिखती हैं। लेकिन इन आंकड़ों से साफ जाहिर है कि जो दिख रहा है वो है नहीं। जो भी महिलाएं न्यूज रीडर के रूप में स्थापित की गयी हैं वो सिर्फ चैनलों की टीआरपी बढ़ाने के लिए। एक महिला को चैनल के पर्दे पर तभी पेश किया जाता है जब वो खूबसूरती के उनके पैमाने पर खरी उतरती हैं। एक ऐसी महिला जो पत्रकार के पैमाने पर खरी उतरती हैं लेकिन यदि उस महिला का रंग थोड़ा भी दबा हुआ है तो उसे पर्दे पर उतरने के काबिल नहीं समझा जाता। दूसरी बात चैनलों में महिलाएं सिर्फ पर्दे पर ही दिखाई देती हैं। पर्दों के अलावा चैनल के अन्य विभागों में महिलाओं की भागीदारी न के बराबर होती है।