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कांतिकुमार जैन उन संस्मरणकारों में से जिन्होंने संस्मरण कोसाहित्य की केंद्रीय विधा के रुप में स्थापित किया। उनके संस्मरण खासेचर्चित और कुचर्चित भी हुए। उनसे प्रसिद्ध समीक्षक साधना अग्रवाल कीबातचीत-
कान्ति जी, जहाँ तक मुझे मालूम है, छत्तीसगढ़ीबोली का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन आपने किया है- नई कविता और भारतेन्दु पूर्वहिन्दी गद्य पर भी आपका कार्य है। आलोचना की पुरानी फाइल पलटने से मुझेउसमें आपका एक लेख- ‘मुक्तिबोध मंडल के कवि’ देखने को मिला। मुक्तिबोध मंडल के कवियों ने ही आरंभ में ‘नर्मदा की सुबह’ की योजना बनाई थी जिसे अज्ञेय ने न केवल झटक लिया बल्कि बहुत से पुराने कवियों को हटा दिया। ऐसा क्यों कर हुआ? कृपया इसे स्पष्ट करें।
1972 में जब मैं मप्र हिन्दी ग्रंथ अकादमी के लिए ‘नई कविता’ नामकपुस्तक लिख रहा था, तब मैंने देखा कि विवेचकों के आग्रहों, पूर्वाग्रहों औरदुराग्रहों के कारण नई कविता का सच्चा इतिहास नहीं लिखा जा सका है। हिन्दीमें समीक्षा को ही इतिहास मान लिया जाता है। नई शोध के फलस्वरूप उपलब्ध नईजानकारी को इतिहास में समाहित करने की परंपरा हमारे विश्वविद्यालयों मेंनहीं है। मैंने उक्त पुस्तक में मुक्तिबोध के विवेचन के साथ जब ‘मुक्तिबोधमंडल के कवि’ का विचार सामने रखा तो डॉ. जगदीश गुप्त जैसे नई कविता केविचारकों ने प्रारंभ में अपनी असहमति प्रकट की, किन्तु बाद में वे भी मेरेतर्कों और तथ्यों से आश्वस्त हुए।
मुक्तिबोध ने ‘नर्मदा की सुबह’ की योजना बनाई थी। मुक्तिबोध के मित्र औरशुजालपुर में उनके विद्यालय-सहयोगी रह चुके वीरेन्द्र कुमार जैन मानते हैंकि मालवा में ही हिन्दी की प्रयोगवादी और नई कविता का जन्म हुआ था। बादमें इस काव्यधारा में नेमिचंद जैन और भारतभूषण अग्रवाल जुड़े। वीरेन्द्रकुमार जैन ने मुक्तिबोध पर लिखे और 13 मई, 1973 के ‘धर्मयुग’ में प्रकाशितअपने लंबे संस्मरण में स्पष्ट किया है कि कैसे अज्ञेय जी की संगठन क्षमताके कारण उन्हें ‘तारसप्तक’ के संपादन के लिए आमंत्रित किया गया। ठीक यहीबात शमशेर जी ने भी कही है। अज्ञेय जी ने ‘तार सप्तक’ की मूल सूची से कुछनाम निकाल दिए और कुछ नए जोड़ दिए। अज्ञेय तारसप्तक के झंडा बरदार नेतानहीं थे। मुक्तिबोध के ‘अनन्य मित्र और मुक्तिबोध मंडल के कवि’ प्रमोदवर्मा ने मुझे अपने पत्र में लिखा: ‘दूसरा तारसप्तक’ छप चुका था। मुक्तिबोधको यह देखकर हैरानी हुई कि नई कविता के नाम से प्रस्तुत छठे दशक की कविता‘तारसप्तक’ के मूलतः वामपंथी रुझान को काट तराश कर कोरम कोर, सौंदर्यपरककलावादी बना दी गई है। ऐसा तो छायावाद के जमाने में भी नहीं हुआ था। तोक्या यह सब उनके नव स्वाधीन देश को अंतरराष्ट्रीय पूँजीवाद की गिरफ्त मेंरहे चले आने के लिए ही किया जा रहा था?’
मैंने मुक्तिबोध मंडल की अपनी स्थापना का लंबा विवेचन किया जो डॉ. नामवरसिंह संपादित ‘आलोचना’ में छपा भी। इस विवेचन में जिन कवियों और विचारकोंके नाम आए थे वे सब मेरे परिचित मित्र थे, श्रीकांत वर्मा, शिवकुमारश्रीवास्तव, रामकृष्ण श्रीवास्तव, जीवनलाल ‘विद्रोही’, प्रमोद वर्मा, अनिलकुमार, सतीश चौबे- सभी मुक्तिबोध के प्राचीन मित्र। परसाई और भाऊ समर्थ भीगो वे कवि नहीं थे। मुक्तिबोध ने बहुत सोच-विचार कर कवियों की सूची कीअंतिम रूप दिया और उनकी कविताएँ भी एकत्र की थीं। यदि ‘नर्मदा की सुबह’ छपगई होती तो हिन्दी की स्वतंत्रता परवर्ती कविता का इतिहास कुछ दूसरा हीहोता। अज्ञेय जी ने सप्तक श्रृंखला के माध्यम से मुक्तिबोध द्वाराप्रस्तावित ‘नर्मदा की सुबह’ वाली वामपंथी रुझान की कविता को हाईजैक करलिया। सप्तकों की खानापूरी करने के लिए बाद में वे बहुत ही साधारण कवियोंको ही हाईलाइट करते रहे। ‘आलोचना’ में प्रकाशित अपने लेख में मैंने विवेचितकवियों का समीक्षात्मक आकलन तो किया ही था, उनका संस्मरणात्मक आख्यान भीप्रस्तुत किया था, दोनों को ताने-बाने की तरह बुनते हुए। मेरे बाद केसंस्मरणों में इसी शैली का उपयोग किया गया है। मुझे संतोष है कि यह शैलीसामान्य पाठकों के साथ ही सुधी आलोचकों को भी पसंद आई। यह शैली विद्वत्ताका आतंक पैदा करने के स्थान पर हार्दिकता जगाती है।
कायदे से सागर विवि के हिन्दी विभाग के आचार्य एवं अध्यक्ष होने के नाते ही नहीं, बल्कि आप में जो आलोचनात्मक प्रतिभा है, उसे देखते हुए आपको आलोचक होना चाहिए था, क्योंकि आपके संस्मरणों में आपके आलोचक की चमक की चिंगारी जहाँ-तहाँ प्रचुरता से दिखती है, मेरे मन में जब-तब यह सवाल उठता है। कृपया अपनी स्थिति से हमें परिचित कराएँ।
एक समय था जब हिन्दी का विश्वविद्यालयीन अध्यापक कवि होता ही था। फिरकवि के रूप में प्रतिष्ठा न मिलने पर वह कविता का पाला छोड़कर आलोचना केक्षेत्र में सक्रिय होता था। आचार्य नगेन्द्र, डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ.नामवर सिंह जैसे अनेकानेक कवि-आलोचकों से हम परिचित हैं। हमारे यहाँ आलोचनाके साथ विद्वता का फलतः गंभीरता का अनिवार्य रिश्ता माना जाता है। विद्वताआतंकित तो करती है, आकर्षित नहीं करती। हमारे विश्वविद्यालय विद्वत्ता काविकास तो करते हैं, संवेदना का नहीं। ज्यादा विद्वत्ता से मुझे भय लगताहै। ऐसा नहीं है कि आलोचना के क्षेत्र में मैंने कुलांचे न भरी हों, परवहाँ बहुत भीड़ थी। वहाँ कोई किसी को तब तक घास नहीं डालता जब तक उसके साथअपना गुट या शिष्यमंडली न हो। आलोचना के क्षेत्र में मेरी स्थिति शरणार्थीकी थी। हिन्दी समाज कुम्हार के उस चाक के समान है जो माँगे दिया न देय। ऐसेमें मैंने संस्मरणों की राह पकड़ी, शरणार्थी से पुरुषार्थी बनने के लिए।वह भी लगभग दिवसावसान के समय। समीक्षा को मैंने संस्मरणों की मुस्कान सेमिला दिया, 33, 67 के अनुपात में। यह मेरी अपनी ‘रेसेपी’ थी। मेरी यह‘रेसेपी’ आलोचकों को पसंद आई। मेरे अच्छे संस्मरण वे माने गए, जिनमें मैंनेरचनाकार या चिंतक या अध्यापक के छोटे-छोटे आत्मीय प्रसंगों के आधार परउसके व्यापक एवं बृहत्तर रचना कर्म और जीवन मूल्यों का विश्लेषण किया।जैसे बच्चन के, डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी के, रजनीश के या ‘सुमन’ के। आपचाहें तो इन्हें संस्मरणात्मक समीक्षा कह लें या समीक्षात्मक संस्मरण।‘तुम्हारा परसाई’ शीर्षक पुस्तक मैंने इसी शैली में लिखी है।
पाठकों को गंभीरता और आलोचना की यह फिजां पसंद आई। याद कीजिए, शायर का वह मंसूबा जिसमें वह कहता है:
क्यों न फिरदौस में दोजख को मिला दें या रब
सैर के वास्ते थोड़ी सी फिजां और सही।
मेरे संस्मरण साहित्य की सैर के शौकीनों को यही थोड़ी सी फिजां मुहैया करते हैं।
सागर विवि से अवकाश प्राप्त करने के बाद संस्मरण लिखने की बात सहसा आपके मन में कैसे उठी? यूँ जहाँ-तहाँ आपने इसका संकेत दिया है लेकिन मुझे लगता है आपके पाठक के नाते मेरे मन में इस प्रश्न को लेकर जो जिज्ञासा है, उसका निदान आप ही कर सकते हैं।
संस्मरण लिखने की न तो मेरी कोई तैयारी थी, न ही आकांक्षा, कोई योजना भीन थी। डॉ. कमला प्रसाद के कहने से मैं श्रीमती सुधा अमृतराय पर एक संस्मरणलिख चुका था। उसे मित्रों ने पसंद किया, भाषा विज्ञान जैसा नीरस विषयपढ़ाने वाले से ऐसी तरल भाषा और रोचक शैली की अपेक्षा किसी को नहीं थी। ऐसेमें एक दिन स्थानीय महाविद्यालय के अध्यापक मित्र घर आए। वे लेखक भी हैं, समीक्षा जैसी गुरु गंभीर विधा में लिखते हैं। कमला से उन्हें एलर्जी है, पुराने सहयोगी रह चुकने कारण। उनके गुरुओं ने उन्हें बताया था कि संस्मरणहल्की-फुल्की विधा है। उनके गुरु के गुरु आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयीप्रेमचंद द्वारा संपादित ‘हंस’ के आत्मकथांक/संस्मरणांक का काफी मखौल उड़ाचुके थे। उन्हें लगा कि भाषा विज्ञान और समीक्षा के पुण्य तीर्थ से संस्मरणके गटर में पतन मेरे सारे पुण्यों को नष्ट कर देगा। मेरे उद्धार की चिंताके कारण उन्होंने फरमाया-संस्मरण तो वो लिखता है जो चुक जाता है। संस्मरणतो मरे हुओं पर लिखे जाते हैं। कुछ भी लिख दो, मरा हुआ व्यक्ति न प्रतिवादकर सकता है, न ही आपकी खबर ले सकता है। फिर संस्मरण तो आत्मश्लाघा की विधाहै। जिसे कोई भाव नहीं देता, वह अपनी पीठ ठोकने लगता है। संस्मरण उनके लिएशेड्यूल्ड कास्ट विधा थी और संस्मरण लेखक को वे कुल की हीनी, जात कमीनी, ओछी जात बनाफर राय का सगोत्री मानते थे। उनकी चेतना पर संस्मरण का मरणकाबिज था, संस्मृत के पक्ष में भी, मनोवैज्ञानिक और व्यक्तिपरक सोनोग्राफीकी। सुमन जी, त्रिलोचनजी या प्रेमशंकर जी ने तो कम आपत्ति की, उनकेअनुगतों ने ज्यादा हो-हल्ला मचाया।
जो जितना पुराना और बड़ा कांवड़िया था, उसने उतना ही ज्यादा हल्लामचाया। यह सब तो सच है पर लिखना नहीं चाहिए। कुछ ने मेरी औकात बताई। क्यापिद्दी, क्या पिद्दी का शोरबा। कुछ ने मुझ पर ‘क्रुयेलिटी’ का आरोप लगाया।मुझे संतोष है कि सुमन जी ने अपने होशो हवास में ‘हंस’ में प्रकाशित मेरासंस्मरण पढ़ लिया था, प्रेमशंकर जी ने भी। मैं संस्मरण श्रद्धालुओं के लिएनहीं लिखता। आस्था सुदृढ़ करने के लिए जो संस्मरण पढ़ते हैं, उन्हें मेरीसलाह है कि वे ‘कल्याण’ या ‘कल्पवृक्ष’ पढ़ें। इसी बीच दो दुर्घटनाएँ और होगईं। मेरी कूल्हे की हड्डी टूट गई, काफी अर्से तक चलना-फिरना दूभर हो गया।न पुस्तकालय जा सकते, न ही अपने अध्ययन कक्ष की अलमारियों की ऊपरी शेल्फोंसे किताब निकाल सकते। ईश्वर प्रदत्त इस चुनौती का सामना मैंने संस्मरणलिखकर किया। ईश्वर से तो मैं निबट लिया पर कमलेश्वर का क्या करूँ? कमलेश्वर को अध्यापकों की सारी प्रजाति ‘पतित’ और ‘नालायक’ लगती है। उनकेलेखे ‘रचनशीलता’ही सर्वोपरि है। सो भैये, लो ‘एक पतित और नालायक प्राध्यपक’ के संस्मरण पढ़ो। जान कर संतोष हुआ कि उनको मेरे संस्मरण पठनीय ओर प्रिज्मकी तरह लगे। वाहे गुरु की फतह।
सवाल यह भी है कि पहला संस्मरण लिखने-छपने के बाद पत्रिका के संपादक और पाठकों की प्रतिक्रिया का आप पर कैसा असर हुआ?
पहला संस्मरण छपा अप्रैल-अक्टूबर ‘96 की ‘वसुधा’ में। वह किंचित् लंबाथा, डॉ. कमला प्रसाद ने कहा कि आपके संस्मरण ‘वसुधा’ के बहुत पन्ने घेरतेहैं पर रोचकता के कारण पाठक उन्हें पूरा पढ़ते हैं। मैं छोटे संस्मरण लिखही नहीं पाता। छोटे संस्मरण मुझे या तो शोक प्रस्ताव जैसे लगते हैं याचरित्र प्रमाणपत्र जैसे। ‘हंस’ में मेरे लंबे-लंबे संस्मरण छपे और पाठकोंको पसंद आए। भारत भारद्वाज ने लिखा कि संस्मरणों का जो दिग्विजयी अश्वकाफी अर्से से प्रयाग और काशी के बीच घूम रहा था, वह अब सागर में स्थायीरूप से बाँध लिया गया है। मेरे संस्मरणों पर कमला प्रसाद को और राजेन्द्रयादव को बहुत सुनना पड़ा, अश्लीलता को लेकर। अश्लीलता मेरे संस्मरणों मेंमेरे कारण नहीं थी, संस्मृत के अपने व्यक्तित्व के कारण थी। पर कई सुधियोंको दुःशासन द्वारा भरी सभा में द्रौपदी के चीरहरण में अश्लीलता याअनैतिकता नहीं दिखाई पड़ी, दिखाई पड़ी वेदव्यास द्वारा महाभारत में चीरहरणका उल्लेख किए जाने पर। इन दिनों एक विज्ञापन आ रहा है दूरदर्शन पर। लड़कीपूछती है- क्या खा रहे हो? लड़का कहता है- लो तुम भी खाओ। लड़की फिर कहतीहै- पर यह तो तंबाखू है। लड़का कहता है- जीरो परसेंट टोबेको, हंड्रेडपरसेंट टेस्ट। मेरे संस्मरणों में भी अश्लीलता जीरो प्रतिशत ही है, स्वादकुछ लोगों को शत-प्रतिशत मिलता है। यह उनकी अपनी स्वादेन्द्रिय का कमाल है।
संस्मरण हिन्दी में एक अरसे से लिखे जाते रहे हैं बल्कि पिछले वर्षों में काशीनाथ सिंह, दूधनाथसिंह एवं रवीन्द्र कालिया की संस्मरण पुस्तकें भी छपीं जो वस्तुतः उनकेसमकालीन रचनाकारों पर केन्द्रित हैं। आपने किस तरह संस्मरण की पूरी परंपरासे अलग हटकर कबीर के कपूत बनने का साहस संजोया?
अभी कुछ दिन हुए, संस्मरणों के एक प्रेमी पाठक मुझसे मिलने आए थे।उन्होंने बातचीत के दौरान बचपन में पूछी जाने वाली एक बुझौवल सुनाई:
तीतर के इक आगे तीतर
तीतर के इक पीछे तीतर
आगे तीतर पीछे तीतर
बताओ कुल कितने तीतर
फिर इस बुझौवल का संस्मरण-पाठ भी पेश किया:
का के है आगे इक का
का के पीछे है इक का
आगे इक का, पीछे इक का
बताओ कुल कितने हैं का
यहाँ एक का काशीनाथ का है, दूसरा कालिया का, तीसरा इस नाचीज कान्तिकुमारका है। यह सब कबीर के कपूत हैं, कपूतों की वह परंपरा ‘उग्र’ और ‘अश्क’ सेहोती हुई कृष्णा सोबती, हरिपाल त्यागी तक पहुँचती है। मैं भी इसी परंपरा काएक पड़ाव हूँ। मैं कुछ ज्यादा ही कपूत साबित हुआ।
कुछ विद्वानों का मत है कि आपने संस्मरण विधा को हाल के दिनोंमें प्रकाशित अपने संस्मरणों से केन्द्रीय विधा बना दिया है। इस बारे मेंआपको क्या कहना है?
इस संबंध में मैं क्या कहूँ? संस्मरण विधा आज समकालीन लेखन की केन्द्रीयविधा बन गई हैं, इसमें संदेह नहीं। पर इसका सारा श्रेय मेरा ही नहीं है।काशीनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया, दूधनाथ सिंह के संस्मरणों से इस विधा मेंजो खुलापन आया था, उससे पाठकों की एक मानसिकता बन गई थी। मुझे उस मानसिकताका लाभ मिला।किसी भी संस्मरणीय के केवलकृष्णपक्ष का उद्घाटन करना लक्ष्य नहीं है, बल्कि उसके व्यक्तित्व कीसंरचना के तानों-बानों और उसके परिवेश की सन्निधि में उसकी रचनात्मकता केछोटे-बड़े प्रसंगों के माध्यम से ‘स्कैनिंग’ मेरा अभीप्सित है। अपनेसंस्मरणों को रोचक और पठनीय बनाने के लिए रचनात्मक कल्पना का उपयोग तोमैंने किया है पर ‘फेकता’(fake) का नहीं। मेरे संस्मरणों में अनेक प्रसंगसेंधे भरने के लिए गाल्पनिक तो हो सकते हैं पर वे पूरी तरह काल्पनिक नहींहैं।अपने संस्मरणों में मैं स्वयं को बचाकर नहीं चलता।
मैंने कभी डायरी नहीं लिखी। स्मृति के और पुराने पत्रों के सहारे हीलिखता हूँ। एकाध संस्मरण में जहाँ भ्रमवश दूसरों से सुने तथ्यों के सहारेमुझसे घटनाओं की पूर्वापरता में गड़बड़ी हुई है, पाठकों ने मुझे पकड़ लियाहै, इसका अर्थ मैंने यही लगाया कि हिन्दी में सुधी और सावधान पाठकों की कमीनहीं है। असावधानीवश हुई इन चूकों को स्वीकार करने में मुझे कोई संकोचनहीं हुआ। जैसे ‘विद्रोही’ के संदर्भ में कमलेश्वर ने या मुक्तिबोध केसंदर्भ में ललित सुरजन ने या ‘वसुधा’ के अंतिम अंक के संबंध में भारतभारद्वाज ने मेरी त्रुटि की ओर ध्यान आकर्षित किया। मैं इनका कृतज्ञ हूँ।ये त्रुटियाँ किसी बदनीयती के कारण नहीं हुईं। संस्मृतों के संपूर्णव्यक्तित्व या रचनाशीलता के नियामक तत्त्वों के मेरे निष्कर्षों पर इनकाकोई प्रभाव नहीं पड़ता। पर भूल तो भूल है।
अपने संस्मरणों पर मेरे पास हजारेक पत्र तो आए ही होंगे। टेलीफोन भी कमनहीं आए। लोग पाठकों के न होने का रोना बेवजह ही रोते हैं। अकेले रजनीशवाले संस्मरण पर ही मुझे सैकड़ों पत्र मिले और अभी तक मिल रहे हैं। देश सेभी, विदेशों से भी। इन पत्रों के आधार पर मैंने एक श्रृंखला लिखने का मनबनाया है- संस्मरणों के पीछे क्या है? रजनीश के संस्मरण पर प्राप्तप्रतिक्रियाओं वाला संस्मरण तो लिखा भी जा चुका है- ‘रजनीश का दर्शन:आध्यात्मिक दाद खुजाने का मजा।’असल में संस्मरणों को संस्मृत का ही आईनानहीं होना चाहिए, उसे उसके परिवेश का भी अता-पता देना चाहिए। उसे प्रचलितजीवन मूल्यों की प्रासंगिकता की भी जाँच पड़ताल करनी चाहिए।मेरे लिए संस्मरण विशिष्ट कालखंड का सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक इतिहास है।
पिछले दिनों हिन्दी की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में रसालजी, अंचलजी और सुमनजी पर जिस तरह आपके संस्मरण छपे उससे आपके दुश्मनों की संख्या में जरूर इजाफा हुआ, लेकिनसच बात यह भी है कि आज हिन्दी की कोई भी पत्रिका आपके संस्मरण के बिनाअधूरी लगती है। क्या अब आप पूर्णतः संस्मरण समर्पित हैं या और भी आपकी कोईयोजना है?
आपके इस प्रश्न के उत्तर में मैं नसीम रामपुरी का एक शेर उद्धृत करना चाहता हूँ:
हार फूलों का मेरी कब्र पर खुद टूट पड़ा
देखते रह गए मुँह फेर के जाने वाले
ऐसा तो नहीं है कि मैं अब संस्मरण छोड़कर कुछ और नहीं लिखता, पर अब जोकुछ लिखता हूँ, वह संस्मरणमय हो उठता है। ‘तुम्हारा परसाई’ मेरी नव्यतमपुस्तक है जिसे मैंने परसाई जी के जीवन, व्यक्तित्व, परिवेश औरव्यंग्यशीलता का संस्मरणात्मक आख्यान कहा है। ‘तुम्हारा परसाई’ पढ़कर एकनामी-गिरामी प्रकाशक ने मुझे लिखा कि मुक्तिबोध पर भी ऐसी पुस्तक मैं क्योंनहीं लिखता? मेरा उत्तर था, ऐसी पुस्तक लिखने के जितने धैर्य और समय कीआवश्यकता है, वह अब मेरे पास नहीं है। हाँ, मुक्तिबोध जी के नागपुर केदिनों पर लिखने का मन जरूर बना रहा हूँ, ‘महागुरु मुक्तिबोध: जुम्मा टैंककी सीढ़ियों पर’ नाम से। यह जीवनलाल वर्मा ‘विद्रोही’, रामकृष्णश्रीवास्तव, श्रीकांत वर्मा, शिवकुमार श्रीवास्तव, प्रमोद वर्मा, अनिलकुमार, सतीश चौबे, भाऊ समर्थ, हरिशंकर परसाई जैसे रचनाकारों के साहित्य, संस्मरणों और पत्रों के माध्यम से नागपुर के दिनों के मुक्तिबोध के जीवन, मानसिकता और रचनाशीलता को ‘डिस्कवर’ करने की संस्मरणमय कोशिश होगी। इसकोशिश के कुछ अंश आपने ‘हंस’, ‘वसुधा’, ‘साक्षात्कार’, ‘आशय’, ‘अन्यथा’, ‘परस्पर’ जैसी पत्रिकाओं में देखे भी होंगे। मालगुड़ी डेज़ की तरह अपनेबचपन के दिनों का वृत्तांत भी मैं लिख रहा हूँ ‘बैकुंठपुर में बचपन’ के नामसे। छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचल के अभावों, संघर्षों, शोषण, प्रकृति सेतादात्म्य और लोक की अदम्य जिजीविषा का आख्यान। यह भी संस्मरणात्मक हीहोगा। फिर संस्मरणों की मेरी नई पुस्तक भी है-‘जो कहूँगा, सच कहूँगा’ नामसे। एक तरह से ‘लौटकर आना नहीं होगा’ का दूसरा खंड। इन संस्मरणों में मेरीशिकायत मानवीय दुर्बलता से उतनी नहीं, जितनी टुच्चे स्वार्थों और संकीर्णसोच के कारण किए जाने वाले छल, छद्म और फरेब से है। कथनी और करनी में जितनीदूरी आज दिखाई पड़ रही है, उतनी शायद कभी नहीं रही। मानवीय गरिमा का क्षरणकरने वाली किसी भी चतुराई या संकीर्णता से मुझे एलर्जी है। इस एलर्जी कोप्रकट करना दुश्मनों की संख्या में इजाफा करना है। मेरे दुश्मन बढ़ रहे हैंअर्थात् मेरे संस्मरण ठीक जगह पर चोट कर रहे हैं। ‘मे देअर ट्राइवइनक्रीज़’।
अभी‘शब्द शिखर’ पत्रिका मेंआपके नाम लिखे कुछ महत्वपूर्ण लेखकों के पत्र छपे हैं। राजेन्द्र यादव केलिखे पत्रों से ऐसा आभास होता है कि आप पर लगातार दबाव डालकर‘हंस’ के लिए उन्होंने आपसे संस्मरण लिखवाए ही नहीं बल्कि आपको जेल भिजवाने का भी पूरा प्रबंध कर दिया है। वस्तुस्थिति क्या है, यह आप ही बताएँगे।
नहीं, राजेन्द्र यादव का मुझ पर संस्मरण के लिए कोई दबाव नहीं था।संस्मरण के पात्र का चुनाव सदैव मेरा ही रहा है, उसका ढंग भी। अब 70 साल कीउम्र में कोई मुझ पर दबाव डालकर कुछ लिखा लेगा, यह प्रतीति ही मुझेहास्यास्पद लगती है। राजेन्द्र यादव अच्छे संपादक हैं, वे रचनाकार कीसीमाओं को और क्षमताओं को पहचानते हैं। वे साहसी भी हैं, मुझे लगता है वेजितने बद नहीं, बदनाम उससे बहुत ज्यादा हैं। शायद बदनामी मनोवैज्ञानिक रूपसे उनके लिए क्षतिपूर्ति उपकरण है। बदनामी और विवाद उन्हें अपनी महत्तासिद्ध करने के लिए अनिवार्य लगते हैं। कुछ लोग होते हैं जिन्हें चर्चा मेंबने रहना अच्छा लगता है। चर्चा और बदनामी उनके लिए लगभग पर्याय होते हैं।मैं आपको बताऊँ, ‘अंचल’ वाला संस्मरण तो कोई छापने को तैयार ही नहीं था।अंचल प्रगतिशील रह चुके थे, ‘लाल चूनर’वाले। अतः प्रगतिशील खेमे कीपत्रिकाएँ अपने नायक का सिंदूर खुरचित रूप दिखाने को तैयार नहीं थीं। अंचलजी हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी रह चुके थे। अतः सम्मेलन सेसंबद्ध पत्रिकाओं के अपने संकोच थे। अक्षय कुमार जैन ने तो मुझे साफ लिखाकि हिन्दी के पाठक अभी ऐसी मानसिकता के नहीं हो पाए हैं कि वे आपके ऐसेसंस्मरण पचा सकें। ‘वागर्थ’ (उस जमाने की), ‘वाणी’, ‘अक्षरा’ जैसी निरामिषपत्रिकाओं से मैं क्या उम्मीद करता? अन्ततः मैंने वह राजेन्द्र यादव को भेजदिया। राजेन्द्र यादव से मेरी कोई आत्मीयता नहीं थी। जीवाजीविश्वविद्यालय में मैंने उनका उपन्यास नहीं लगाया था। वे मुझसे रुष्ट थे।सोचा, उनको भी खंगाल लिया जाए। हफ्ते भर में उनका पत्र आया, शीघ्र छपेगा।‘अंचल’ छपने पर बड़ा बावेला मचा। अश्लील, क्रुयेल, अनैतिक, चरित्रहनन, खुदबड़े पाक बने फिरते हैं टाइप। जेल पहुँचाने का इंतजाम राजेन्द्र यादव नेनहीं, मेरे मित्रों ने किया। भोपाल के मेरे एक बहुत पुराने मित्र ने जोस्वयं को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से बड़ा तो नहीं, पर उनके समकक्ष मानतेहैं, अंचल जी की बेटी को कानूनी कार्यवाही के लिए उकसाया। वह स्वयं अनुभवीहै, उसके पति न्यायाधीश हैं। वे कानून के जानकार हैं, समझदार। अतः उन मित्रमहोदय के बहकावे में नहीं आए। हाँ, एक अखिल मुहल्ला कीर्ति के धनी कवि नेजरूर मुझ पर मानहानि जैसा कुछ करने की धमकी दी। पर वे भी टांय-टांय फिस्ससे ज्यादा नहीं बढ़ पाए। सुधीर पचौरी और विष्णु खरे जैसी सुधी और नीरक्षीरविवेकी विचारकों ने अश्लीलता की चलनी में मेरी छानबीन की, यह भूलकर कि सूपकहे तो कहे, चलनी क्या कहे जिसमें बहत्तर छेद। हिन्दी समाज में अश्लीलताकी कबड्डी खेलना समीक्षकों का सबसे पसंदीदा खेल है। यार लोग चाहते हैं किमैं मित्रों के कांधे पर चढ़कर नहीं, भूतपूर्व मित्रों के कांधों पर चढ़करअंतिम यात्रा पर निकलूँ। यहाँ हर पड़ोसी, दूसरे की खिड़की में ताक-झाँक कीफिराक़ में रहता है, अपनी खिड़की में मोटे-मोटे ‘ब्लाइंड’ डालकर। अपनेसंस्मरणों के हर शब्द के लिए मैं स्वयं जिम्मेदार हूँ। किसी राजेन्द्र यादवके पाले में गेंद फेंकना बेईमानी भी है, अनैतिकता भी। वह कायरता तो है ही।
कहने की जरूरत नहीं कि आज हिन्दी में आपने संस्मरण विधा में नईजान फूंकी है और हर नया लेखक कान्तिकुमार जैन बनने की कोशिश में लगा है। आपइस स्थिति को किस रूप में देखते हैं।
आपके इस तरह के प्रश्न के उत्तर में मैं आपको एक लतीफा सुनाना चाहताहूँ- स्कूल में पढ़ने वाले और नए-नए तरुण हुए एक छात्र को उसके एक सहपाठीने एक प्रेम प्रसंग के निपटारे के लिए द्वंद युद्ध में ललकारा। यह युद्धतलवारों से लड़ा जाना था। ललकारित छात्र ने अपने पिताजी से कहा कि पिताजी, आप मेरे लिए एक लंबी तलवार बनवा दें जो सहपाठी की तलवार से छह इंच लंबी हो।पिताजी समझ गए। बोले- बेटे! यदि तुम्हें सामनेवाले को परास्त करना है तोछह इंच आगे बढ़कर मारो। इस तरह के युद्ध तलवार की लंबाई से नहीं, भीतर केहाँसले से लड़े जाते हैं। यदि किसी का मेरुदंड कमजोर हो तो न तलवार कीलंबाई काम आती है, न पिताजी का संरक्षण। ऐसे लोगों को संस्मरण नहीं लिखनेचाहिए।
मुझे लगता है कि आपके संस्मरणों के पीछे परसाई खड़े हैं आशीर्वाद की मुद्रा में, क्योंकियह बात तो बिल्कुल साफ है कि आपके भीतर के आलोचक और परसाई के व्यंग्य कीधार से आपके संस्मरण परवान चढ़े हैं। वैसे तो अपनी नई पुस्तक‘तुम्हारा परसाई’ में विनम्रतापूर्वक यह कहकर कि तुम्हारा परसाई में मेरा क्या है, आपने अपना संकोच स्पष्ट कर दिया है फिर भी कुछ बचा रहता है परसाई से उऋण होने के लिए। इस प्रसंग में आप कुछ और जोड़ना चाहेंगे।
परसाई जी मेरे मित्र थे- आत्मीय और अंतरंग। उनका और मेरा लगभग चालीसवर्षों का साथ था। उनसे प्रेरित और प्रभावित न होना कठिन था। वे मुझसे बड़ेथे, प्रतिष्ठित। फिर विचारधारा के स्तर पर भी मैं उनके बहुत निकट रहा हूँ।मुझे उनकी जो बात सबसे पसंद थी वह यह कि अपनी विचारधारा की वे अपनेव्यंग्यों में घोषणा नहीं करते थे, उसे संवेदित होने देते थे। जैसे बिजलीइंसुलेटेड वायर के भीतर ही भीतर दौड़ती रहती है, यहाँ से वहाँ तक। पर अंतमें वह तार झटका भी देता है और प्रकाश भी। इस अर्थ में वे हिन्दी के अनेकवामपंथी लेखकों से विशिष्ट हैं।दुर्भाग्यहै कि हिन्दी में संघवाद, विचारधारा और उसके संगठनों का प्राधान्य है। हरसंगठन अपने आदमी की तमाम-तमाम चूकों, खामियों, विचलनों को ढाँकने-मूँदनेमें लगा है। ठीक राजनीतिक दलों की तरह। संप्रदायवाद, भ्रष्टाचार, छल, घोटालों, बेईमानियों का हम गुट निरपेक्ष या संगठन तटस्थ होकर विरोध नहींकरते। परसाई ऐसा करते थे। इसीलिए परसाई की मार चतुर्मुखी होती थी ओर उनकाप्रभाव भी इसीलिए सब तरह के पाठकों पर था। ऐसे समय परसाई जी जैसे लेखकों कोहोना चाहिए।गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता है, जिसमेंअपने अवसान के समय सूर्य पूछता है कि मेरे बाद पृथ्वी का अंधकार कौन दूरकरेगा। मिट्टी का एक दिया सामने आया। बोला- अपनी शक्ति भर मैं करूँगा। मैंमिट्टी का वही दिया हूँ।
‘तुम्हारा परसाई’ एक विलक्षण पुस्तक है जो काशीनाथ सिंह जी की पुस्तक‘काशी का अस्सी’ कीतरह धमाके से विधाओं की वर्जनाओं को तोड़ती है। संस्मरणात्मक भी यह हैलेकिन उससे ज्यादा परसाई के जीवन और लेखन का मोनोग्राफ। क्या आपको ऐसा नहींलगता?
विधाओं का वर्गीकरण तो साहित्य शास्त्रियों ने सुविधा के लिए कर रखा है।विधाओं की चौहद्दी में बँधने से रचनाकारों की क्रियेटिविटी बाधित होती है।जैसे बहुत घिसने से बासन का मुलम्मा छूट जाता है, वैसे ही पीढ़ी दर पीढ़ीकाम में आते रहने से विधाओं की दीप्ति भी फीकी पड़ जाती है। समर्थ रचनाकारप्रत्येक युग में साहित्य के परिधान में कुछ न कुछ परिवर्तन करता है।वास्तव में विधाओं की कोई एलओसी नहीं होती। विधाओं का अतिक्रमण करने सेसाहित्य की थकान मिटती है, साहित्यकार की भी। ‘तुम्हारा परसाई’ को मैंनेजानबूझकर परसाई के जीवन, व्यक्तित्व, परिवेश और व्यंग्यशीलता कासंस्मरणात्मक आख्यान कहा है। इससे परसाई जी के जीवन के और लेखन केतानों-बानों को समझने में सुविधा होती है। मुझे संतोष है कि इधर हिन्दी केबहुत से लेखक संस्मरण लिखने में रुचि ले रहे हैं। हर पत्रिका के लिएसंस्मरण लगभग अनिवार्य हो गए हैं। इन संस्मरणों से हिन्दी साहित्य केवास्तविक इतिहास का कच्चा माल सामने आ रहा है। हिन्दी साहित्य के समकालीनइतिहास की दूसरी परंपरा का सामने आना कई दृष्टियों से वांछनीय है।
अंतिम सवाल, मुझे ठीक से नहीं मालूम लेकिन मैंयह जानना चाहती हूँ कि आपकी धर्मपत्नी साधना जैन का आपके लेखन में कितनासहयोग है- आपकी स्मृति को रिफ्रेश करने में या संदर्भों को दुरुस्त करनेमें?
साधना मेरी पत्नी हैं पढ़ी-लिखीं, साहित्यिक समझ से भरपूर। घटनाओं केपूर्वापर क्रम की और व्यक्ति द्वारा उच्चरित कथन को ज्यों का त्यों दुहरासकने की उनमें विलक्षण प्रतिभा है। उर्दू के शेर तो उन्हें ढेरों याद हैं।अपने संस्मरण लेखन में जहाँ कहीं मैं अटकता हूँ, स्मृति का मैगनेट साफ करनेमें वे मेरी सहायता करती हैं। वे मेरी जीवन-संगिनी हैं फलतःसंस्मरण-संगिनी भी। 1962 में मुझसे विवाह के उपरांत वे मेरे सारे मित्रोंको जानती हैं और उन्हें समझती भी हैं। मैं डायरी नहीं लिखता पर यदि लिखतातो पत्नी से छिपाकर नहीं रखता। मैं हिन्दी के उन लेखकों में नहीं हूँ जोअपनी पत्नी को दर्जा तीन पर स्थान देते हैं- पहले मेरा लेखन, फिर मेरेदोस्त, फिर तू। मैं उन लेखकों में भी नहीं हूँ जो यह कहकर गौरवान्वित होतेहैं, लेखन तो मेरा अपना है, मेरी पत्नी का इसमें कोई योग नहीं है। ऐसे लोगया तो मुझे सामंती पुरुषाना अहंकार से ग्रस्त लगते हैं या अपनी पत्नी कोनिर्बुद्धि समझते हैं। संयोग से न तो मुझमें वैसा अहंकार है, न ही साधनावैसी निर्बुद्धि हैं।
अपने संस्मरणों में अपनी पत्नी का उल्लेख करने का परिणाम यह हुआ है किबहुत से संस्मरण लेखक अपनी पत्नी को भी क़ाबिले उल्लेख समझने लगे हैं। एकने तो अपनी पत्नी को करवाचौथी परिधि से निकालकर साहित्य का कोई पुरस्कार भीदिलवा दिया है। गुजरात की एक धर्मपत्नी ने जिनके पति अच्छे खासेसाहित्यकार हैं और जिन्होंने प्रेम विवाह किया था, बड़े दुःख से मुझे लिखा-काश! मेरे पति भी अपने संस्मरणों में उसी सम्मान और स्नेह से मेरा उल्लेखकरते जैसे आप अपनी पत्नी का करते हैं। उस उमर में जब साहित्यकार पति और कुछनहीं कर सकता, उसे इतना तो करना ही चाहिए।
(भारतीय लेखक, अक्टूबर-दिसंबर, 05 से साभार)
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