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बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कब्जे में देश की नदियां


 

डॉ. महेश परिमल
प्रसतुति-स्वामी शरपण 


जल योजना के तहत अभी इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों पर अपना कब्जा जमा लिया है। हमारी सरकार निजीकरण के लालच में बदहवाश हो गई है। अब जल वितरण व्यवस्था के तहत ये कंपनियाँ अधिक कमाई के चक्कर में पानी की कीमत इतना अधिक बढ़ा देंगी कि गरीबों की जीना ही मुश्किल हो जाएगा। वह फिर गंदा पानी पीने लगेगा और बीमारी से मरेगा। क्योंकि ये कंपनियाँ नागरिकों को शुद्ध पानी देने की कोई गारंटी नहीं देती।
अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में हुए आतंकवादी हमले में जितने लोग मारे गए, उतने इंसान तो रोज गंदा पानी पीने से मर जाते हैं। हमारे देश में 20 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो अशुद्ध पानी पीते हैं। पानी के लिए झगड़े, फसाद होते रहे हैं, पर अब जल्द ही युद्ध भी होने लगेंगे। इस क्षेत्र में दबे पाँव बहुराष्ट्रीय कंपनियां आ रही हैं, जिससे हालात और भी खराब होने वाले हैं। सरकार इस दिशा में इन्हीं विदेशी कंपनियों के अधीन होती जा रही है। इस कार्य में विश्व बैंक की अहम भूमिका है। कुछ समय पहले ही जर्मनी की राजधानी बोन में पानी की समस्या को लेकर गंभीर विचार-विमर्श हुआ। इस अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में 130 देशों के करीब 3 हजार प्रतिनीधि उपस्थित थे। इस सम्मेलन में चौंकाने वाली जानकारी यह दी गई कि 21वीं सदी में जिस तरह से टैंकर और पाइप लाइनों से क्रूड आयल का वितरण किया जा रहा है, ठीक उसी तरह पानी का भी वितरण किया जाएगा। बहुत ही जल्द पानी के लिए युद्ध होंगे। विश्व में 1.30 अरब लोग ऐसे हैं, जिन्हें पीने का साफ पानी नहीं मिल रहा है। अशुद्ध पानी से विश्व में रोज 6 हजार मौतें हो रहीं हैं। हालात ऐसे ही रहे, तो पूरे विश्व में पानी सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा बन जाएगा।

हमारी पृथ्वी में जितना पानी है, उसका 97 प्रतिशत समुद्र के खारे पानी के रूप में है। केवल 3 प्रतिशत पानी ही मीठा और पीने लायक है। इसमें से 25 प्रतिशत हिमनदियों में बर्फ के रूप में जमा हुआ है। इस तरह से कुल 5 प्रतिशत पानी ही हमारे लिए उपलब्ध है। इसमें से भी अधिकांश भाग अमेरिका और केनेडा की सीमाओं पर स्थित बड़े-बड़े तालाबों में है। शेष विश्व में बढ़ती जनसंख्या, शहरीकरण, औद्योगीकरण और प्रदूषण के कारण पानी के ज्ञात स्रोतों में लगातार कमी आ रही है। देश के कई राज्यों में पानी के लिए दंगे होना शुरू हो गए हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार एशिया में प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष 3 हजार घनफीट जितना पानी ही लोगों को मिल पाएगा। इसमें भी भारत की आवश्यकता औसतन 2,500 घनमीटर ही है। उत्तर प्रदेश में यह परंपरा है कि कन्या द्वारा जब कुएँ की पूजा की जाती है, तभी लग्न विधि पूर्ण मानी जाती है। अब तो कुओं की संख्या लगातार घट रही है, इसलिए गाँवों में कुएँ के बदले टैंकर की ही पूजा करवाकर लग्नविधि पूर्ण कर ली जाती है।

लोगों ने समय की जरूरत को समझा और ऐसा करना शुरू किया। पर पानी की बचत करनी चाहिए, इस तरह का संदेश देने के लिए कोई परंपरा अभी तक शुरू नहीं हो पाई है, यदि शुरू हो भी गई हो, तो उसे अमल में नहीं लाया गया है। जब तक हमें पानी सहजता से मिल रहा है, तब तक हम इसकी अहमियत नहीं समझ पाएँगे। हमारे देश में पानी की समस्या दिनों-दिन गंभीर रूप लेती जा रही है। देश में कुल 20 करोड़ ऐसे लोग हैं, जिन्हें पीने के लिए शुद्ध पानी नहीं मिल रहा है। पेयजल के जितने भी स्रोत हैं, उसमें से 80 प्रतिशत स्रोत उद्योगों द्वारा छोड़ा गया रसायनयुक्त गंदा पानी मिल जाने के कारण प्रदूषित हो गए हैं। इसके बावजूद किसानों को यह सलाह दी जाती है कि वे ऐसी फसलों का उत्पादन करें, जिसका दाम अधिक मिलता हो। किसानों को राजनैतिक दलों द्वारा वोट की खातिर मुफ्त में बिजली दी जाती है, जिससे वे अपने बोरवेल में पंप लगाकर दिन-रात पानी निकालते रहते हैं। इससे भूगर्भ का जलस्तर लगातार नीचे जा रहा है। इससे हजारों कुएँ नाकारा हो जाते हैं। पानी की कमी के कारण भारत का कृषि उत्पादन भी लगातार घट रहा है। यही कारण है कि हम अब अनाज का आयात करने लगे हैं।

देश को जब आजादी मिली, तब एक-एक गाँवों में पीने के पानी का कम से कम एक स्रोत तो ऐसा था ही, जिससे पूरे गाँव की पेयजल समस्या दूर हो जाती थी। जहाँ पेयजल समस्या होती थी, सरकारी भाषा में इन गाँवों को ‘नो सोर्स विलेज’ कहा जाता है। सन् 1964 में ‘नो सोर्स विलेज’ की संख्या 750 थी, जो 1995 में बढ़कर 64 हजार से ऊपर पहुँच गई। इसका आशय यही हुआ कि आजादी के पहले जिन 64 हजार गाँवों के पास अपने पेयजल के स्रोत थे, वे सूख गए। या फिर औद्योगिकरण की भेंट चढ़ गए। बड़ी नदियों पर जब बाँध बनाए जाते हैं, तब नदी के किनारे रहने वालों के लिए मुश्किल हो जाती है, उन्हें पीने के लिए पानी नहीं मिल पाता। शहरों की नगर पालिकाएँ नदी के किनारे बहने वाले नालों में गटर का पानी डालने लगती है, इससे सैकड़ों गाँवों में पीने के पानी की समस्या उत्पन्न हो जाती है। उद्योग भी नदी के किनारे ही लगाए जाते हैं। इससे निकलने वाला प्रदूषणयुक्त पानी नदी के पानी को और भी प्रदूषित बनाता है। इस पानी को पीने वाले अनेक बीमारियों का शिकार होते हैं। पानी को इस तरह से प्रदूषित करने वाले उद्योगपतियों को आज तक किसी प्रकार की सजा नहीं हुई। नगर पालिकाएँ भी गटर के पानी को बिना शुद्ध किए नदियों में बहा देने के लिए आखिर क्यों छूट मिली हुई है। इस दिशा में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड खामोश है।

देश को जब आजादी मिली, तब देश की जल वितरण व्यवस्था पूरी तरह से प्रजा के हाथ में थी। हरेक गाँव की ग्राम पंचायत तालाबों एवं कुओं की देखभाल करती थी, ग्रामीण नदियों को प्रकृति का वरदान समझते थे, इसलिए उसे गंदा करने की सोचते भी नहीं थे। आजादी क्या मिली, सभी नदियों पर बाँध बनाने का काम शुरू हो गया। लोगों ने इसे विकास की दिशा में कदम माना, पर यह कदम अनियमितताओं के चलते तानाशाहीपूर्ण रवैए में बदल गया। नदियाँ प्रदूषित होती गई। अब इन नदियों को प्रदूषण मुक्त करने की योजना बनाई जा रही है। इसकी जवाबदारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दी जा रही है। देश की प्रजा का अरबों रुपए अब इन कंपनियों के पास चला जाएगा। कुछ संपन्न देशों में नदियों की देखभाल निजी कंपनियाँ कर रही हैं। विश्व की दस बड़ी कंपनियों में से चार कंपनियाँ तो पानी का ही व्यापार कर रही हैं। इन कंपनियों में जर्मनी की आरडब्ल्यूई, फ्रांस की विवाल्डो और स्वेज लियोन और अमेरिक की एनरॉन कार्पोरेशन का समावेश होता है। एनरॉन तो अब दीवालिया हो चुकी है, पर इसके पहले उसने विभिन्न देशों में पानी का ही धंधा कर करीब 80 अरब डॉलर की कमाई कर चुकी है। माइक्रोसॉफ्ट कंपनी द्वारा जो वार्षिक बिक्री की जाती है, उससे चार गुना व्यापार एनरॉन कंपनी ही करती थी।

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हमारी नदियों पर अब बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा
हमारी नदियों पर अब बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा
हमारे देश में पानी की तंगी होती है, लोग पानी के लिए तरसते हैं, उसमें भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का स्वार्थ है। देश के दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में जल वितरण व्यवस्था की जिम्मेदारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देने की पूरी तैयारी हो चुकी है। इन कंपनियों के एजेंट की भूमिका विश्व बैंक निभा रहा है। किसी भी शहर की म्युनिसिपलिटी अपनी जल योजना के लिए विश्व बैंक के पास कर्ज माँगने जाती है, तो विश्व बैंक की यही शर्त होती है कि इस योजना में जल वितरण व्यवस्था की जवाबदारी निजी कंपनियों को सौंपनी होगी। विश्व बैंक के अनुसार निजी कंपनी का आशय बहुराष्ट्रीय कंपनी ही होता है। इन्हीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इशारे पर ही हमारे देश की जल नीति तैयार की जाती है। इस नीति के तहत धीरे-धीरे सिंचाई के लिए तमाम बाँधों और नदियों को भी इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंप दिया जाएगा। यह भी एक तरह की गुलामी ही होगी, क्योंकि एक बार यदि सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनी को पेयजल वितरण व्यवस्था की जिम्मेदारी दे दी गई, तो फिर पानी की गुणवत्ता और आपूर्ति की नियमितता पर सरकार को कोई अंकुश नहीं रहता।

पानी का व्यापार करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों को अरबों रुपए की रिश्वत देकर यह ठेका प्राप्त करती हैं। पानी का व्यापार करने वाली इन कंपनियों पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लग चुके हैं। महानगरों की जल वितरण व्यवस्था को भी इन कंपनियों ने भ्रष्टाचार के सहारे ही अपने हाथ में लिया है। महाराष्ट्र सरकार ने 2003 में एक आदेश के तहत अपनी नई जल नीति की घोषणा की थी। इस नीति के अनुसार सभी जल परियोजनाएँ निजी कंपनियों को देने का निर्णय लिया गया है। विधानसभा में इस विधेयक को पारित भी कर दिया गया। इस विधेयक के अनुसार महाराष्ट्र स्टेट वॉटर रेग्युलेटरी अथॉरिटी की रचना की गई, इसका कार्य नदियों के बेचे जाने वाले पानी का भाव तय करना है। इस तरह से पिछले 5 वर्षों से सरकार राज्य की नदियाँ बेचने के मामले में कानूनी रूप से कार्यवाही कर रही है। देर से ही सही, प्रजा को सरकार की इस चालाकी की जानकारी हो गई है। फिर भी वह लाचार है।

यह तो तय है कि महाराष्ट्र की नदियों का निजीकरण करने की योजनाओं के पीछे विश्व बैंक और पानी का अरबों डॉलर का व्यापार करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ही हाथ है। विश्व बैंक ने 5 साल पहले महाराष्ट्र सरकार को पानी के क्षेत्र में सुधार के लिए 32.5 करोड़ डॉलर का कर्ज दिया था। कर्ज के साथ यह शर्त भी जुड़ी थी कि महाराष्ट्र सरकार अपनी-अपनी नदियों और जल परियोजनाओं का निजीकरण और व्यापारीकरण करेगी। इस शर्त के बंधन में बँधकर सरकार ने नई जल नीति तैयार की। इस नीति के तहत पुणे और मुम्बई में जल वितरण योजनाएँ विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपने की तैयारी है। दूसरी ओर नदियों को बेचने की योजनाएँ शुरू हो गई हैं। जल योजना के तहत अभी इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों पर अपना कब्जा जमा लिया है। हमारी सरकार निजीकरण के लालच में बदहवाश हो गई है। अब जल वितरण व्यवस्था के तहत ये कंपनियाँ अधिक कमाई के चक्कर में पानी की कीमत इतना अधिक बढ़ा देंगी कि गरीबों की जीना ही मुश्किल हो जाएगा। वह फिर गंदा पानी पीने लगेगा और बीमारी से मरेगा। क्योंकि ये कंपनियाँ नागरिकों को शुद्ध पानी देने की कोई गारंटी नहीं देती।

इस खबर के स्रोत का लिंक: 
http://dr-mahesh-parimal.blogspot.in

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