आंकड़े होंगे आगे की पत्रकारिता का आधार | ||||
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मुकूल श्रीवास्तव
वाशिंगटन पोस्ट अखबार के बिकने की खबर की घोषणा के बाद से ही अमेरिकी मीडिया में अखबारों के भविष्य को लेकर बहस जारी है.
भारत के लिए भी यह बड़ा सबक है क्योंकि अखबारों का जो हाल आज अमेरिका में है, वैसा आने वाले सालों में भारत में भी होगा. इंडियन रीडरशिप सर्वे के चौथी तिमाही की रिपोर्ट के अनुसार भारत के शीर्ष दस हिंदी दैनिकों की औसत पाठक संख्या में 6.12 प्रतिशत की गिरावट आई है, वहीं अंग्रेजी दैनिकों में गिरावट की दर 4.75 प्रतिशत रही. पत्रिकाओं में यह गिरावट सबसे ज्यादा 30.15 प्रतिशत रही. बढ़ते डिजिटलीकरण और सूचना क्रांति ने अखबारों की दुनिया बदल दी है.
पत्रकारिता के जिस रूप से हम परिचित हैं वह दिन-प्रतिदिन बदलता जा रहा है. जब विभिन्न वेबसाइट और वेब न्यूज पोर्टल पल-पल खबरें अपडेट कर रहे हैं तो समाचार पत्रों की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है. कल के अखबार की खबरें यदि पाठक आज ही इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त कर सकता है तो फिर कल के अखबार की जरूरत ही क्या है! पर भारत के संदर्भ में, जहां निरक्षरों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है और अखबारों से नए पाठक जुड़ रहे हैं, स्थिति अमेरिका जितनी गंभीर नही है. पर चुनौती कोई भी क्यों न हो, अपने साथ अवसर भी लाती है.
भारत के अखबारों का कंटेंट और उसके प्रस्तुतीकरण का तरीका भी तेजी से बदल रहा है. प्रिंट और डिजिटल दोनों का तालमेल हो रहा है. इस बदलाव में बड़ी भूमिका आंकड़े निभा रहे हैं. वह चाहे पाठकों की पृष्ठभूमि को जानकर उसके अनुसार सामग्री को प्रस्तुत करना हो या समाचार या लेखों में आंकड़ों को शीर्ष भूमिका में रखकर कथ्य को इंफोग्राफिक्स की सहायता से दशर्नीय और पठनीय बना देना. अखबारों के डिजिटल संस्करण इन आंकड़ों के बड़े स्रेत बन रहे हैं. वर्ल्ड वाइड वेब के जनक सर टिम बरनर्स ली का मशहूर कथन है कि ‘डाटा (आंकड़ों) का विश्लेषण ही पत्रकारिता का भविष्य है’.
आंकड़ा पत्रकारिता, पत्रकारिता का वह स्वरूप है जिसमें विभिन्न प्रकार के आंकड़ों का विश्लेषण करके उन्हें समाचार का रूप दिया जाता है. विकिलीक्स और सूचना के अधिकार के इस दौर में जहां लाखों आंकड़े हर उस व्यक्ति के लिए उपलब्ध हैं जो वास्तव में उनके बारे में जानने का इच्छुक है, वहीं उन आंकड़ों को समाचार रूप में प्रस्तुत करना एक चुनौती है. एक बात जो पत्रकारों और पत्रकारिता के पक्ष में जाती है वह यह है कि भले ही आंकड़े सबके अवलोकन के लिए उपलब्ध हैं, पर उनका विश्लेषण कर उनसे अर्थपूर्ण तथ्य के लिए अखबार अभी भी एक विश्वसनीय जरिया हैं.
वेबसाइट और पोर्टल पर समाचार का संक्षिप्त या सार रूप ही दिया जाता है क्योंकि डिजिटल पाठक सरसरी तौर पर सूचनाओं की जानकारी चाहते हैं जिससे वे अपडेट रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कम्प्यूटर स्क्रीन और स्मार्ट फोन की स्क्रीन भी तथ्यों के प्रस्तुतीकरण में एक बड़ी बाधा बनती है और शायद इसीलिए आंकड़ों का बेहतरीन विश्लेषण अखबार के पन्नों में होता है. जहां पढ़ने के लिए माउस के कर्सर या टच स्क्रीन को संभालने जैसी कोई तकनीकी समस्या नहीं होती है.
समाचार पत्र इस तरह की किसी तकनीकी सीमा से मुक्त हैं और चौबीस घंटे में एक बार पाठकों तक पहुंचने के कारण उनके पास पर्याप्त समय भी रहता है, जिससे आंकड़ों का बहुआयामी विश्लेषण संभव हो पाता है. त्वरित सूचना के इस युग में आंकड़ा आधारित पत्रकारिता का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि महज सूचना या आंकड़े उतने प्रभावशाली नहीं होते हैं जितना कि उनका विश्लेषण और उस विश्लेषण द्वारा निकाले गए वे परिणाम जो आम जनता की जिंदगी पर प्रभाव डालते हैं. बात चाहे खाद्य सुरक्षा बिल की हो या मनरेगा जैसी योजनाओं की, सभी में आंकड़ों का महत्वपूर्ण रोल रहा है.
सरकार अगर आंकड़ों की बाजीगरी कर रही है तो जनता को व्यवस्थित तरीके से आंकड़ा पत्रकारिता के जरिए ही बताया जा सकता है कि इन योजनाओं से असल में देश की तस्वीर कैसी बन रही है. इसमें कोई संशय नहीं है कि भविष्य में हमारे पास जितने ज्यादा आंकड़े होंगे हम उतना ही सशक्त होंगे, पर पाठकों को बोझिल आंकड़ों के बोझ से बचाना भी है और उन्हें सूचित भी करना है और इस कार्य में भारत में अभी भी समाचार पत्र अग्रणी हैं.
आंकड़ा पत्रकारिता पाठकों अथवा दर्शकों को उनके महत्व की जानकारी प्राप्त करने में मदद करती है. यह एक ऐसी कहानी सामने लाती है जो ध्यान देने योग्य है और पहले से जनता की जानकारी में नहीं है और पाठकों को एक गूढ़ विषय को आसानी से समझने में मदद करती है. दुनिया के बड़े मीडिया समूहों जैसे द गार्डियन, ऑस्ट्रेलियन ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन ने इस पर विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया है.
माना जा रहा है कि वाशिंगटन पोस्ट ने वर्षो से पंजीकरण द्वारा अपने पाठकों के बारे में जो आंकड़े जुटाए है उनका इस्तेमाल कर अखबार अपनी लोकप्रियता और प्रसार दोनों बढ़ाएगा. यानी डिजिटल प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करके अखबारों की सामग्री को बेहतर करने के लिए पाठकों की रु चियों और आवश्यकताओं को जानना जरूरी है और इसमें आंकड़ों का प्रमुख योगदान है. द गार्डियन ने तो अपने विशेष डेटा ब्लॉग के जरिये आडियंस के बीच अच्छी-खासी पकड़ बना ली है.
हालांकि की कुछ लोग यह भी मानते हैं कि डेटा पत्रकारिता वास्तव में पत्रकारिता ही नहीं है, पर यदि इसे थोड़ा करीब से देखा जाए तो किसी को भी इसे पत्रकारिता मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए. डेटा पत्रकारिता सामान्य पत्रकारिता से केवल इस मायने में भिन्न है कि इसमें जानकारी जुटाने के लिए अधिक भाग-दौड़ नहीं करनी पड़ती है. पर आंकड़ों के अथाह सागर में से काम के आंकड़े निकालना भी कोई आसान काम नहीं है. डेटा पत्रकारिता के लिए समाचार का विशिष्ट होना आवश्यक है. इसके लिए आवश्यक है एक मजबूत संपादकीय विवरण, जिसके पास आकर्षक ग्राफिक्स और चित्रों का समर्थन हो.
भारत इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण इसलिए है कि यहां स्थितियां अमेरिका जैसी नहीं है, जहां इंटरनेट का साम्राज्य फैल चुका है. भारत में डिजिटल और प्रिंट माध्यम, दोनों साथ-साथ बढ़ रहे हैं. वह भी एक दूसरे की कीमत पर नहीं बल्कि दोनों के अपने दायरे हैं. अगर प्रिंट के पाठक कम हो रहे हैं तो नए पाठकों जुड़ भी रहे हैं. नए प्रिंट के पाठक जल्दी ही डिजिटल मीडिया के पाठक हो रहे हैं जिसमें ग्रामीण भारत बड़ी भूमिका निभा रहा है.
तथ्य यह भी है कि सूचना क्रांति के बढ़ते प्रभाव और सूचना के अधिकार जैसे कानून के कारण आंकड़े तेजी से संकलित और संगठित किए जा रहे हैं. वहां खबरों के असली नायक आंकड़े हैं, जो पल-पल बदलते भारत की वैसी ही तस्वीर आंकड़ों के रूप में हमारे सामने पेश कर रहे हैं, तो अब समाचार तस्वीर के दोनों रुख के साथ-साथ यह भी बता रहे हैं कि अच्छा कितना अच्छा है और बुरा कितना बुरा है.