प्रस्तुति- अशोक सुमन
अभी दो दिन पहले कानपुर गया था, आईआईटी प्रवेश परीक्षा में सफल एक ग़रीब मोची के बेटे से साक्षात्कार करने. लेकिन वहाँ मुझे एक और सच्चाई से साक्षात्कार करना पड़ा.
अपना काम खत्म करके चलने लगा तो एक सज्जन सकुचाते हुए आए अपनी समस्या बताने.
वो कोई डिप्लोमा होल्डर डॉक्टर हैं और उसी ग़रीब बस्ती में प्रैक्टिस करते हैं. मोहल्ले के लोग उनकी बड़ा आदर करते हैं.
उनकी समस्या ये है कि किसी लोकल चैनल के एक पत्रकार आए. उनकी क्लीनिक की तस्वीरें उतारीं, फिर डराया कि वो झोलाछाप डाक्टर हैं और अगर उनसे लेन देन करके मामले में कुछ समझौता नहीं कर लेते तो वह अफसरों से कहकर उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करा देंगे.
पत्रकारों के इस तरह के ब्लैकमेलिंग के किस्से काफ़ी दिनों से सुनाई दे रहे हैं. लेकिन दूसरों के मुंह से. पहली बार किसी भुक्तभोगी के मुंह से यह बात सीधे सुनने को मिली.
रविवार को हिंदी पत्रकारिता दिवस है और इस मौक़े पर यही किस्सा मेरे दिमाग में गूंज रहा है. लोग पत्रकार क्यों बनते हैं. जन सेवा के लिए या फिर जैसे- तैसे पैसा कमाने के लिए.
यह बात केवल लोकल चैनल के पत्रकारों पर लागू नहीं होती. कई बड़े बड़े चैनलों और अख़बारों के पत्रकारों, संपादकों और मालिकों के बारे में भी यही बातें सुनने को मिलती हैं.
कई अखबार और चैनल रिपोर्टर बनाने के लिए अग्रिम पैसा लेते हैं.
अनेक अपने संवाददाताओं से नियमित रूप से विज्ञापन एजेंट का काम करवाते हैं, जो बिजनेस बढ़ाने के लिए ख़बरों के माध्यम से दबाव बनाते हैं. फिर कई चैनल और अख़बार बाकायदा पेड न्यूज़ छापते या दिखाते हैं.
प्रेस काउन्सिल है मगर वह भी कुछ कर नही सकती.
हिंदी पत्रकारिता दिवस पर जब हम लोग गोष्ठियों में गणेश शंकर विद्यार्थी और पराडकर जी का गुणगान करेंगे, शायद हमें सामूहिक रूप से इस समस्या पर भी आत्मचिंतन करना चाहिए.
माना कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं, यह एक प्रोफेशन और बिजनेस है. मगर क्या हर प्रोफेशन और बिजनेस का कोई एथिक्स नही होता?
अपना काम खत्म करके चलने लगा तो एक सज्जन सकुचाते हुए आए अपनी समस्या बताने.
वो कोई डिप्लोमा होल्डर डॉक्टर हैं और उसी ग़रीब बस्ती में प्रैक्टिस करते हैं. मोहल्ले के लोग उनकी बड़ा आदर करते हैं.
उनकी समस्या ये है कि किसी लोकल चैनल के एक पत्रकार आए. उनकी क्लीनिक की तस्वीरें उतारीं, फिर डराया कि वो झोलाछाप डाक्टर हैं और अगर उनसे लेन देन करके मामले में कुछ समझौता नहीं कर लेते तो वह अफसरों से कहकर उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करा देंगे.
पत्रकारों के इस तरह के ब्लैकमेलिंग के किस्से काफ़ी दिनों से सुनाई दे रहे हैं. लेकिन दूसरों के मुंह से. पहली बार किसी भुक्तभोगी के मुंह से यह बात सीधे सुनने को मिली.
रविवार को हिंदी पत्रकारिता दिवस है और इस मौक़े पर यही किस्सा मेरे दिमाग में गूंज रहा है. लोग पत्रकार क्यों बनते हैं. जन सेवा के लिए या फिर जैसे- तैसे पैसा कमाने के लिए.
यह बात केवल लोकल चैनल के पत्रकारों पर लागू नहीं होती. कई बड़े बड़े चैनलों और अख़बारों के पत्रकारों, संपादकों और मालिकों के बारे में भी यही बातें सुनने को मिलती हैं.
कई अखबार और चैनल रिपोर्टर बनाने के लिए अग्रिम पैसा लेते हैं.
अनेक अपने संवाददाताओं से नियमित रूप से विज्ञापन एजेंट का काम करवाते हैं, जो बिजनेस बढ़ाने के लिए ख़बरों के माध्यम से दबाव बनाते हैं. फिर कई चैनल और अख़बार बाकायदा पेड न्यूज़ छापते या दिखाते हैं.
प्रेस काउन्सिल है मगर वह भी कुछ कर नही सकती.
हिंदी पत्रकारिता दिवस पर जब हम लोग गोष्ठियों में गणेश शंकर विद्यार्थी और पराडकर जी का गुणगान करेंगे, शायद हमें सामूहिक रूप से इस समस्या पर भी आत्मचिंतन करना चाहिए.
माना कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं, यह एक प्रोफेशन और बिजनेस है. मगर क्या हर प्रोफेशन और बिजनेस का कोई एथिक्स नही होता?
टिप्पणियाँटिप्पणी लिखें
दूसरी घटना अपने गृहनगर टुंडला की बता रहा हूँ , ये दिल्ली हावड़ा रूट पर है, मेरे यहाँ एक निजी केबल आपरेटर ने अपना सिटी न्यूज़ चैनल डाला है उन्होंने जो सिटी रिपोर्टर बनाए हैं, उनकी हालत जब मैंने सुनी तो मैं सुनकर दंग रह गया. ये लोग थाने में जाकर पुलिस वालों से 100 - 100 रुपए वसूल करते हैं, और यदि कोई ना करे तो उन्हें ब्लैक मेल करते हैं ........सर अब तक पुलिस के बारे में तो सुनता था, लेकिन पुलिस वालों को ब्लैक मेल किया जाने लगा है. इस पेशे में ये सोच कर आया था कि इमानदारी का इकलौता पेशा यही बचा है जिसके माध्यम से देश और समाज की सेवा कर सकता हूँ लेकिन क़रीब आने पर पता चला कि यहाँ भी सफ़ाई की ज़रूरत है. स्वतंत्रता जैसे शब्द के मायने भी इस पेशे से ख़त्म हो गए हैं. बड़ी मछली छोटी मछली को निगलने के लिए तैयार बठी है, शायद इसी कारण पत्रकारिता सिर्फ़ शब्द बनकर रह गया है.
ये बात क़रीब 15 साल पूरी नहीं है, हमारे गांव में छिदु नामक एक आदमी था वह अक्सर घर आता जाता था. हमारी माँ को दीदी कह कर पुकारता हम भी मामा कहने से नहीं चूकते थे एक दिन गांव में पुलिस आई तो जानकारी मिली ,छिदु मामा को पुलिस ने चोरी इल्ज़ाम में पकड़ लिया है. एक दिन छिदु मामा से हमारी मुलाक़ात हो गई. मामा बोले कि आजकल क्या कर रहे हो भांजे , मैंने भी कह दिया मामा मैं डेल्ही में पत्रकार हूँ. मामा बोले अरे फिर तो हम दोनों की ख़ूब जमेगी. मैंने पूछा वो कैसे... अरे हम भी पत्रकार हैं - मुझे याद है कि छिदु मामा तो काला अक्षर भैंस बराबर हैं. फिर फटाक से जेब से डेल्ही के समाचार पत्र का आईकार्ड दिखाया. फिर बोले भांजे मैं crime रिपोर्टर हूँ. मैंने पूछा ये कैसे बनवाया. अरे यार मैंने 500 /- रूपये में डेल्ही से मंगवाया है ख़ूब नोट छाप रहा हूँ. मैं उनकी बातें सुन कर हैरान कम परेशान ज़्यादा था....
लेकिन केवल विषय उठाने से क्या होगा, आज करने की ज्यादा जरूरत है, कहने की कम.
यदि प्रेस परिषद कुछ नहीं कर पाती तो इसके जिम्मेदार हम खुद ही हैं.
ना हो,
गांठ में
पैसा जरुरी है,
आज के
जीवन की
ये सबसे बड़ी
मज़बूरी है.