
टी. के. अरुण
प्रस्तुति-- रिद्धि सिन्हा नुपूर
किसी नई सरकार के कामकाज का जायजा लेने के लिए एक साल का वक्त काफी कम होता है। वोटर्स आमतौर पर वर्तमान में जीते हैं और उन्हें चुनाव से ऐन पहले के कुछ महीनों में किए गए सरकार के काम ही मोटे तौर पर याद रहते हैं। तो मामला फैसला सुनाने का नहीं, समीक्षा करने का बनता है। अच्छी बात यह है कि किसी का नियंत्रण ही न होने की स्थिति नहीं रही।
अरुण शौरी ने कहा है कि पीएमओ का कंट्रोल बहुत ज्यादा बढ़ गया है, तो इसका यह भी मतलब है कि पीएम की हर चीज पर नजर है। इसका यह अर्थ भी है कि जो कुछ हो रहा है, उसकी जवाबदेही से पीएम बच नहीं सकते। नई सरकार के बारे में विदेशी निवेशकों का जोश ठंडा पड़ चुका है, हालांकि उन्होंने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है। यह कोई बहुत बुरी बात नहीं है, लेकिन अगर बिजनस करने की सहूलियत से जुड़े वर्ल्ड बैंक के इंडेक्स में इंडिया फिसलता रहा तो विदेशी निवेशकों का सेंटिमेंट नेगेटिव हो सकता है।
इस सरकार ने पड़ोसी देशों के साथ संपर्क बढ़ाया है। पाकिस्तान से जुड़ी पॉलिसी में भय का माहौल रहा है, लेकिन अब सीमा पर आतंकवादी हमलों पर सतर्कता बरतते हुए जो कुछ बेहतर हो सकता है, वैसा करने की वाजपेयी नीति पर कदम बढ़ रहे हैं। वेस्ट बंगाल की सीएम के सहयोग से बांग्लादेश के साथ भी यही नीति अपनाई जा रही है।
हालांकि उदार लोकतंत्र के रूप में इंडिया की साख को चोट लग रही है। ग्रीनपीस और फोर्ड फाउंडेशन पर हालिया कार्रवाई से कुछ फायदा नहीं होने वाला है। एनजीओ पर राष्ट्र विरोधी हरकतों का आरोप लगाना दुनियाभर में निरंकुश सरकारों की हरकतों में शामिल रहा है।
वहीं, धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाने पर लेने की घटनाओं के बारे में ताकतवर पीएम की चुप्पी से देश-विदेश में अच्छा संकेत नहीं गया है। यही वह पहलू है, जहां मोदी शासन से सबसे बड़ा फर्क पड़ा है। दुनिया में कोई पूर्ण लोकतांत्रिक देश नहीं है, लेकिन कुछ और लोकतांत्रिक होने की कोशिश करना अच्छा माना जाता है। मोदी की लीडरशिप में भारत के पीछे लौटने का खतरा दिख रहा है।
मोदी का विरोध करने वालों को पाकिस्तान भेजने की बात कहने वाले शख्स को केंद्र सरकार में जगह मिली है। अल्पसंख्यकों की मौजूदगी को भारत की संस्कृति पर दाग बताने की कोशिश हो रही है, जिसे घर वापसी से धुलने की कोशिश हो रही है।
आर्थिक मोर्चे पर देखें तो 2012-13 में 5.1% के बाद 2013-14 में 6.9% की ग्रोथ रेट हासिल करने का मोमेंटम अब भी बना हुआ है। इस सरकार को कई अहम मोर्चों पर निरंतरता बनाए रखने का श्रेय दिया जाना चाहिए। रघुराम राजन आरबीआई गवर्नर बने हुए हैं और वह रुपये में स्थिरता बनाए रखने और महंगाई पर काबू पाने की जंग छेड़े हुए हैं।
आधार को यूपीए से जुड़ा होने के कारण रद्द नहीं किया गया है। देश के सभी लोगों को बैंकिंग सर्विस से जोड़ने की यूपीए सरकार की पॉलिसी पर तेजी से काम किया गया है। स्किल मिशन बना हुआ है और ढाई लाख पंचायतों को ब्रॉडबैंड से जोड़ने पर भी काम चल रहा है।
नई सरकार ने बीमा सेक्टर में एफडीआई बढ़ाने की बाधाएं खत्म की हैं और जीएसटी पर कदम बढ़ाए हैं। इसमें कोई मुश्किल थी भी नहीं क्योंकि यूपीए शासन में बाधाएं तो बीजेपी ने ही खड़ी की थीं। हालांकि जिस जादू की बातें की जा रही थीं, वह एक साल पूरा होते-होते खत्म हो चुका है। सरकार को अब हकीकत की खुरदरी जमीन पर काम करके दिखाना होगा।
अरुण शौरी ने कहा है कि पीएमओ का कंट्रोल बहुत ज्यादा बढ़ गया है, तो इसका यह भी मतलब है कि पीएम की हर चीज पर नजर है। इसका यह अर्थ भी है कि जो कुछ हो रहा है, उसकी जवाबदेही से पीएम बच नहीं सकते। नई सरकार के बारे में विदेशी निवेशकों का जोश ठंडा पड़ चुका है, हालांकि उन्होंने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है। यह कोई बहुत बुरी बात नहीं है, लेकिन अगर बिजनस करने की सहूलियत से जुड़े वर्ल्ड बैंक के इंडेक्स में इंडिया फिसलता रहा तो विदेशी निवेशकों का सेंटिमेंट नेगेटिव हो सकता है।
इस सरकार ने पड़ोसी देशों के साथ संपर्क बढ़ाया है। पाकिस्तान से जुड़ी पॉलिसी में भय का माहौल रहा है, लेकिन अब सीमा पर आतंकवादी हमलों पर सतर्कता बरतते हुए जो कुछ बेहतर हो सकता है, वैसा करने की वाजपेयी नीति पर कदम बढ़ रहे हैं। वेस्ट बंगाल की सीएम के सहयोग से बांग्लादेश के साथ भी यही नीति अपनाई जा रही है।
हालांकि उदार लोकतंत्र के रूप में इंडिया की साख को चोट लग रही है। ग्रीनपीस और फोर्ड फाउंडेशन पर हालिया कार्रवाई से कुछ फायदा नहीं होने वाला है। एनजीओ पर राष्ट्र विरोधी हरकतों का आरोप लगाना दुनियाभर में निरंकुश सरकारों की हरकतों में शामिल रहा है।
वहीं, धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाने पर लेने की घटनाओं के बारे में ताकतवर पीएम की चुप्पी से देश-विदेश में अच्छा संकेत नहीं गया है। यही वह पहलू है, जहां मोदी शासन से सबसे बड़ा फर्क पड़ा है। दुनिया में कोई पूर्ण लोकतांत्रिक देश नहीं है, लेकिन कुछ और लोकतांत्रिक होने की कोशिश करना अच्छा माना जाता है। मोदी की लीडरशिप में भारत के पीछे लौटने का खतरा दिख रहा है।
मोदी का विरोध करने वालों को पाकिस्तान भेजने की बात कहने वाले शख्स को केंद्र सरकार में जगह मिली है। अल्पसंख्यकों की मौजूदगी को भारत की संस्कृति पर दाग बताने की कोशिश हो रही है, जिसे घर वापसी से धुलने की कोशिश हो रही है।
आर्थिक मोर्चे पर देखें तो 2012-13 में 5.1% के बाद 2013-14 में 6.9% की ग्रोथ रेट हासिल करने का मोमेंटम अब भी बना हुआ है। इस सरकार को कई अहम मोर्चों पर निरंतरता बनाए रखने का श्रेय दिया जाना चाहिए। रघुराम राजन आरबीआई गवर्नर बने हुए हैं और वह रुपये में स्थिरता बनाए रखने और महंगाई पर काबू पाने की जंग छेड़े हुए हैं।
आधार को यूपीए से जुड़ा होने के कारण रद्द नहीं किया गया है। देश के सभी लोगों को बैंकिंग सर्विस से जोड़ने की यूपीए सरकार की पॉलिसी पर तेजी से काम किया गया है। स्किल मिशन बना हुआ है और ढाई लाख पंचायतों को ब्रॉडबैंड से जोड़ने पर भी काम चल रहा है।
नई सरकार ने बीमा सेक्टर में एफडीआई बढ़ाने की बाधाएं खत्म की हैं और जीएसटी पर कदम बढ़ाए हैं। इसमें कोई मुश्किल थी भी नहीं क्योंकि यूपीए शासन में बाधाएं तो बीजेपी ने ही खड़ी की थीं। हालांकि जिस जादू की बातें की जा रही थीं, वह एक साल पूरा होते-होते खत्म हो चुका है। सरकार को अब हकीकत की खुरदरी जमीन पर काम करके दिखाना होगा।