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सौ दिन, एक साल,- पहले मोदी फिर केजरीवाल








सौ दिन, एक साल, नेता खुशहाल, और  जनता बेहाल 


प्रस्तुति-- रिद्धि सिन्हा नुपूर, राहुल मानव  

केजरीवाल सरकार 24 मई को अपने सौ दिन पूरे कर रही है, तो मोदी सरकार 26 मई को एक साल! इन दोनों सरकारों से वाक़ई लोगों को बहुत बड़ी-बड़ी उम्मीदें थीं? क्या वे उम्मीदें पूरी हुईं? हुईं, तो कहाँ तक?

मोदी और केजरीवाल में एक और अजीब समानता है! ‘मन की ख़बर’ न हो तो एक मीडिया को ‘न्यूज़ ट्रेडर्स’ कहता है, दूसरा उसे ‘सुपारी मीडिया’ कहता है! पता नहीं कि इन दोनों को ही मीडिया से ऐसी शिकायतें क्यों हैं?

— क़मर वहीद नक़वीBy: Qamar Waheed Naqvi
दिल्ली दिलचस्प संयोग देख रही है. एक सरकार के सौ दिन, दूसरी के एक साल! दिलचस्प यह कि दोनों ही सरकारें अलग-अलग राजनीतिक सुनामियाँ लेकर आयीं. बदलाव की सुनामी! जनता ने दो बिलकुल अनोखे प्रयोग किये, दो बिलकुल अलग-अलग दाँव खेले. केन्द्र में मोदी, दिल्ली में केजरीवाल! मोदी परम्परागत राजनीति के नये माडल की बात करनेवाले, तो केजरीवाल उस परम्परागत राजनीति को ध्वस्त कर नयी वैकल्पिक राजनीति के माडल की बात करने वाले. दोनों नयी उम्मीदों के प्रतीक, दोनों नये सपनों के सौदागर. जनता ने एक साथ दोनों को मौक़ा दिया. कर के दिखाओ! जनता देखना चाहती है कि राजनीति का कौन-सा माडल बेहतर है, सफल है, मोदी माडल या केजरीवाल माडल? या फिर दोनों ही फ़्लाप हैं? या दोनों ही नये रंग-रोग़न में वही पुरानी खटारा हैं, जिसे जनता अब तक मजबूरी में खींच रही थी!

मोदी और केजरीवाल : कितनी उम्मीदें पूरी हुईं?

केजरीवाल सरकार 24 मई को अपने सौ दिन पूरे कर रही है, तो मोदी सरकार 26 मई को एक साल! इन दोनों सरकारों से वाक़ई लोगों को बहुत बड़ी-बड़ी उम्मीदें थीं? क्या वे उम्मीदें Image may be NSFW.
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पूरी हुईं? हुईं, तो कहाँ तक? केजरीवाल तो दावे करते हैं कि जनता तो उनसे बहुत ख़ुश है और वह हर पन्द्रह दिन में जनता के बीच सर्वे किया करते हैं. और उनके मुताबिक़ अगर आज दिल्ली में वोट पड़ें तो उनकी आम आदमी पार्टी को 72 प्रतिशत वोट मिल जायेंगे, जबकि पिछले चुनाव में तो 54 प्रतिशत वोट ही मिले थे! लेकिन क्या वाक़ई जनता केजरीवाल से इतनी ही ख़ुश है? उधर, दूसरी तरफ़, एक बड़े मीडिया समूह के सर्वे के मुताबिक़ मोदी सरकार के कामकाज से देश में 60 प्रतिशत लोग आमतौर पर ख़ुश हैं!

मोदी: छवि का संकट!

मोदी सरकार के काम की तुलना स्वाभाविक रूप से पिछली मनमोहन सरकार से ही होगी. वैसे लोग कभी-कभी उनकी तुलना अटलबिहारी वाजपेयी सरकार से भी कर लेते हैं. लेकिन केजरीवाल की तुलना किसी से नहीं हो सकती क्योंकि वह ‘आम आदमी’ की ‘वीआइपी संस्कृति विहीन’ और एक ईमानदार राजनीति का बिलकुल नया माडल ले कर सामने आये. इसलिए वह कैसा काम कर रहे हैं, इसकी परख केवल उन्हीं के अपने माडल पर ही की जा सकती है.
तो पहले मोदी. इसमें शक नहीं कि नरेन्द्र मोदी के काम करने और फ़ैसले लेने की एक तेज़-तर्रार शैली है, इसलिए यह सच है कि सरकार के काम में चौतरफ़ा तेज़ी आयी है. भ्रष्टाचार का कोई धब्बा सरकार पर नहीं लगा है. विदेश नीति को भी मोदी ने नयी धार दी है और एक साल में 19 विदेश यात्राएँ कर अन्तरराष्ट्रीय मंच पर भारत की गम्भीर उपस्थिति दर्ज करायी है और साथ ही पूरी दुनिया पर अपनी छाप भी छोड़ी ही है. लेकिन यह भी सच है कि इस सबके बावजूद सरकार आर्थिक मोर्चे पर कुछ ख़ास आगे नहीं बढ़ सकी. सरकार के नये आर्थिक विकास माडल, कई प्रस्तावित विवादास्पद क़ानूनी संशोधनों और कुछ कारपोरेट दिग्गजों से प्रधानमंत्री की ‘नज़दीकी’ की चर्चाओं के कारण एक तरफ़ उसकी छवि ‘कारपोरेट तुष्टिकरण’ करनेवाली सरकार की बनी, दूसरी तरफ़ किसानों को किये समर्थन मूल्य के वादे से मुकर जाने, मनरेगा और दूसरी तमाम कल्याणकारी योजनाओं के बजट में कटौती कर देने और भूमि अधिग्रहण क़ानून पर अपने ही सहयोगी दलों के विरोध को अनदेखा कर अड़ जाने के कारण सरकार की ‘ग़रीब-विरोधी’ और ‘किसान-विरोधी’ छवि भी बनी. आशाओं के सुपर हाइवे पर चल कर आयी हुई किसी सरकार के लिए एक साल में ऐसी नकारात्मक छवि बन जाना चौंकानेवाली बात है, ख़ासकर उस नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के लिए जिसने आज की राजनीति में मार्केटिंग और ब्रांडिंग का आविष्कार किया हो!

केजरीवाल: विवादों से पीछा नहीं छूटता!

और अब केजरीवाल. यह सही है कि केजरीवाल सरकार ने बिजली-पानी जैसे कुछ वादे फटाफट पूरे कर दिये, सरकार में कहीं वीआइपी संस्कृति नहीं दिखती, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ हेल्पलाइन फिर शुरू हो गयी, और ‘स्वराज’ के तहत दिल्ली का बजट बनाने की क़वायद मुहल्लों में जा कर जनता के बीच की जा रही है, लेकिन इन सौ दिनों में ही केजरीवाल सरकार भी सैंकड़ों विवादों में घिर चुकी है. केन्द्र की बीजेपी सरकार, दिल्ली के उपराज्यपाल और दिल्ली पुलिस से केजरीवाल सरकार का रोज़-रोज़ का टकराव तो आम बात है ही, हालाँकि इसमें केन्द्र सरकार और उसके इशारे पर उप-राज्यपाल नजीब जंग द्वारा की जा रही राजनीति की भी कम भूमिका नहीं है. इन सौ दिनों में ही पार्टी बड़ी टूट का शिकार भी हो गयी. एक मंत्री की कथित फ़र्ज़ी डिग्री का विवाद काफ़ी दिनों से अदालत में है और हैरानी है कि इस मामले पर स्थिति अब तक साफ़ क्यों नहीं हो पायी है? सारी डिग्रियाँ असली हैं, तो एक विज्ञापन निकाल कर जनता को बता दीजिए, बात ख़त्म. लेकिन वह मामला जाने क्यों अब तक गोल-गोल घूम रहा है? आम आदमी पार्टी ने जैसी स्वच्छ राजनीति का सपना दिखाया था, उस पर पिछले चुनाव के दौरान ही कई सवाल उठे थे और बाद में पार्टी में हुई टूट के दौरान कई नये विवाद सामने आये थे? केजरीवाल-विरोधी गुट का उन पर यही आरोप था कि पार्टी जिन सिद्धाँतों को लेकर बनी थी, उनकी पूरी तरह अनदेखी की जा रही है. पार्टी में टूट का चाहे भले जो कारण रहा हो, लेकिन इस आरोप में सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि ‘स्वच्छ राजनीति’ के बजाय ‘आप’ को मौक़ा पड़ने पर ‘सुविधा की राजनीति’ के तौर-तरीक़े अपनाने में कोई संकोच नहीं होता.

तब की बात, अब की बात!

‘आप’ अगर परम्परागत राजनीतिक दल के तौर पर ही मैदान में उतरी होती, तो इन बातों को लेकर कोई उससे निराश नहीं होता. लेकिन अगर आप वैकल्पिक राजनीति की बात करते हैं, तो ये सवाल शिद्दत से उठेंगे ही क्योंकि शुरू में ‘आप’ ने इन्हीं बुराइयों के विरुद्ध विकल्प के तौर पर अपने को पेश किया था. ‘आप’ ने सिद्धाँतों और ईमानदारी के झंडे लहरा कर अपनी बुनियाद रखी थी. और अगर दो साल में ही वह लगातार अपनी ज़मीन से फिसलते हुए दिखे, तो यह उन लोगों के लिए भारी निराशा की बात होगी, जिन्होंने ‘आप’ के भीतर किसी नये वैकल्पिक राजनीतिक माडल का सपना देखा था! आप आज अपनी बात पर नहीं टिके रह सकते तो कल किसी बात पर टिके रहेंगे, इसका क्या भरोसा?
दिलचस्प बात यह है कि यही बात नरेन्द्र मोदी पर और बीजेपी पर भी लागू होती है. आधार कार्ड, बांग्लादेश से सीमा समझौता, रिटेल में एफ़डीआइ, पाकिस्तान नीति समेत ऐसे मु्द्दों की लम्बी सूची है, जिनका मोदी और बीजेपी ने यूपीए सरकार के दौरान मुखर विरोध किया था और सरकार की नींद हराम कर दी, संसद नहीं चलने दी, आज उन्हीं को वह पूरे दमख़म से लागू कर रहे हैं. अगर तब वह ग़लत था, तो आज क्यों सही है? और अगर तब वह सही था, तो आप उसका विरोध क्यों कर रहे थे? क्या यह विरोध सिर्फ़ राजनीति के लिए था, सिर्फ़ तत्कालीन सरकार के ख़िलाफ़ माहौल बनाने के लिए था? अगर इसका उत्तर ‘हाँ’ है, तो यक़ीनन आज हमें ऐसी राजनीति नहीं चाहिए. ऐसी राजनीति देशहित में नहीं है. जनता को अब मुद्दों पर निरन्तरता चाहिए, राजनीतिक बाज़ीगरी नहीं.

‘न्यूज़ ट्रेडर्स’ बनाम ‘सुपारी मीडिया!’

मोदी और केजरीवाल में एक और अजीब समानता है! ‘मन की ख़बर’ न हो तो एक मीडिया को ‘न्यूज़ ट्रेडर्स’ कहता है, दूसरा उसे ‘सुपारी मीडिया’ कहता है! पता नहीं कि इन दोनों को ही मीडिया से ऐसी शिकायतें क्यों हैं? और यही मीडिया जब लगातार मनमोहन सिंह सरकार की खाल उधेड़ रहा था तो सही काम कर रहा था!
बहरहाल, एक सरकार के सौ दिन और एक सरकार के एक साल पर आज उनके कामकाज से हट कर उनकी चालढाल को लेकर उठे सवाल ज़्यादा ज़रूरी हैं. ख़ास कर इसलिए भी कि ये दोनों सरकारें उम्मीदों के उड़नखटोले लेकर आयी हैं. इनसे लोगों ने केवल काम करने की ही उम्मीदें नहीं लगायी हैं, बल्कि यह आस भी लगायी है कि ये देश और राजनीति की दशा-दिशा भी बदलें. और वह तभी होगा, जब इनकी चालढाल भी बदले!
(लोकमत समाचार, 16 मई 2004) http://raagdesh.com

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