Quantcast
Channel: पत्रकारिता / जनसंचार
Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

टेलीविज़न पत्रकारिता-मीडिया के बदलते आयाम

$
0
0




आलोक वर्मा

प्रस्तुति- हूमरा असद

03 जुलाई 2015

 शायद एक थी ऐसी जगह ढूंढ पाना मुश्किल होगा जहां मीडिया और संचार के तमाम माध्यम अपनी पैठ न चुके हों। हम कहीं भी जाएं, किसी से भी मिल-मीडिया और संचार के माध्यम हमे अपने आस-पास नजर आ ही जाते हैं। मीडिया के कई रूप और संचार के तमाम माध्यम हैं पर ये कर्ई रूप और तमाम माध्यम दरसल एक ही रूप और एक ही माध्यम हैं।

आप में से बहुतों को लगता होगा कि संचार के क्षेत्र में जो हालिया क्रांति आई है उसमें पुरानी चीजे पीछे छूट गई हैं और इस्तेमाल की नई-नई चीजे ईजाद होकर हमारे सामने आ गई हैं। ऐसा लगता जरूर है पर दरअसल ऐसा है। वहीं संचार के क्षेत्र में जो क्रांति आई है उसे अगर हम ध्यान से देखें तो यही पाएंगे कि पुरानी चीजों में ही महत्वपूर्ण रद्दोबदल हुआ है और वो नई चीजें बन गई है-संचार की ये क्रांति नए और पुराने का अनोखा सा संगम है।

मीडिया की दुनिया की कई तकनीकी चीजें तो सौ साल पहले की र्ईजाद हो चुकी थीं पर उन चीजों ने बड़ी सुदंरता से खुद को नई तकनीक में ढाल लिया है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है रेडियो। पिछले सौ सालों से अब तक लगातार पूरी दुनिया ये रेडियो पर खबरे सुनी जाती रही हैं, याद कीजिए वो तमाम पुरानी घटनाएं जब आप खबर सुनने के लिए बीबीसी या आकाशवाणी को बडी़ बेचैनी से ट्यून किया करते थे! ये रेडिया आज भी मौजूद है पर अपने एक नए स्वरूप ये नई डिजिटल तकनीक ने रेडियो को डिजिटल रेडियो बना दिया है जिससे इसका प्रसारण और स्पष्ट हो गया है। इससे स्पष्टï है कि नया कुछ नहीं हुआ बल्कि हुआ ये है कि एक नई तकनीक ने पुरानी तकनीक की जगह लेकर मीडिया के उसी माध्यम को और उपयोगी बना दिया है। इसी तरह का दूसरा उदाहरण अखबारों और किताबों का है। टीवी और फिल्मों का चलन बढऩे पर सबको ये डर था कि अखबार छपना बंद हो जाएंगे और किताबों की जरूरत ही नहीं रहेगी। पर क्या ऐसा हुआ? नहीं।

इलेक्ट्रानिक माध्यमों पर कईं अखबार और किताबें आई थी और गई थी पर प्रिंट माध्यम के अखबार और किताबें अपनी जगह पर जमीं रही- हां उन्होंने ये जरूर किया कि कंप्यूटर तकनीक का लाथ उठाकर इंटरनेट पर भी स्वयं को उपलब्ध करा दिया। इसका मतलब यही हुआ कि पुराने माध्यमों ने नई तकनीक से खुद को थोड़ा और फैला लिया…आप सोच कर देखिए, टीवी पर न्यूज देखने के बाद थी आप सुबह का अखबार पड़ते ही है ना!!

पर बदली हुई इस दुनिया में आपके लिए कई चीजें और उपलब्ध होती जा रही हैं। मीडिया के पुराने माध्यम (जैसे कि रेडियो, अखबार आदि) मोबाइल, वायरलेस और इंटरनेट जैसी नई तकनीकों के कारण नए-नए रूपों में सामने आ रहे हैं। ये नई तकनीके हमें मनोरंजन और समाचारों के लिए ढेर सारे माध्यम दे रही है जिनमें से हम अपनी सुविधा के अनुसार अपना माध्यम चुन सकते है। हम समाचार पाने के लिए अखबार पढ़े, रेडियो सुने, टीवी देखें या इंटरनेट पर जाकर किसी साइट को खंगाले- ये अब हम पर है।

तमाम नए लोगों को फिल्म टीवी अखबारों और इंटरनेट की नवीनतम तकनीकी चीजों की इतनी आदत सी हो गई है कि उनके लिए ये समझ पाना थोड़ा मुश्किल हो गया है कि महज पद्रंह साल पहले तक ये सब कुछ इस रूप में नहीं था। मीडिया में एक नए तरह की ये क्रांति हाथ फिलहाल ही आई है और ये अपने दूरगामी नतीजों के साथ आई है।

मीडिया के नए अवतार ने हमारी आंखों को दूरबीन, कानों को ट्रांसमीटर और मुंह को लाउडस्पीकर सा बना दिया है। दूरियों और समय के बंधनों को मीडिया के इस नए अवतार ने बदल कर रख दिया है। हमने जो कभी नहीं देखा-अब देख सकते हैं, हमने जो कभी नहीं सुना-अब सुन सकते हैं। मीडिया ने हमारी जानकारियों को हजारों गुना बढ़ा डाला है। हिमालय की ऊजॉइयों को जिन्हें नापने में तेनसिंग को वर्षों लगे थे, अब हम किसी भी टेलीविजन डाक्यूमेंट्री में बड़े आराम से देख लेते हैं। नेपाल में भूकंप के झटके लगते हैं तो हम उसे भय रिचर स्केल पैमाने के टीवी-न्यूज पर लाइव देख रहे होते हैं। रातों को जाग-जागकर अमरीकी बमवर्षकों को अफगानिस्तान पर बम बरसाते हम किसी भी न्यूज चैनल पर लाइव देख सकते हैं। इस सबके लिए हमे अब इंतजार भी नहीं करना पड़ता। ऐसा लगता है जैसे कि पूरी दुनिया सिमट सी गई है। एक बटन दबाइए और दुनिया की हर खबर, हर मनोरंजन आपके ड्राइंग रूप में पहुंच जाएगा। जरा कल्पना कीजिए कि डेढ़ सौ साल पहले ये सब कुछ कैसे हो रहा होगा- आप यकीनन समाचार लेकर घोड़े पर दौड़ते किसी व्यक्ति को ही देखेंगे-समाचारों का वही घोड़ा आज हवा पर संवार हो चुका है।

    इसमें कोई दो राय नहीं है कि हर टीवी न्यूज चैनल आज एक ऐसी दौड़ में शामिल है जिसमें वो सबसे ज्यादा लोकप्रियता हासिल कर नंबर वन बनना चाहता है। नंबर वन की इस दौड़ को जीतने के लिए ये जरूरी है कि आप वही दिखाएं जो लोग देखना चाहते हैं, इस वजह से कई बार आप न्यूज चैनल पर उस तरह की खबरें ज्यादा देखेंगे जो आपे ध्यान को टीवी पर खींच सके। दूसरी तरफ दूरगामी नतीजों वाली कई खबरें कई बार उपेक्षित भी हो जाती है।

मीडिया के नए दौर में सूचनाओं को छिपा पाना संभव नहीं रह गया है। सूचनाओं का प्रवाह इतना ज्यादा है कि लोगों की सक्रियता और समझदारी भी बढ़ी है और इसका सीधा असर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर पड़ा है। कैसे? देखिए, ये सभी समझते हैं कि जानकार होना ही आपको सही अर्थ में ताकतवर बनाता है और मीडिया के द्वारा आज लोगों में जानकारियों का ढेर लगा दिया गया है। ऐसा लगने लगा है कि हर कोई हर कुछ जानता है। ऐसे ये कोई सरकार थी ये गलतफहमी पालने का जोखिम नहीं उठा सकती कि लोगों को जानकारी नहीं है इसलिए जो चल रहा है उसे चलने दिया जाए। सरकारें आज लोगों के सीधे नियंत्रण में है और लोकतंत्र के इस बेहतर होते स्वरूप के लिए मीडिया की क्रांति को ही श्रेय है।

पिछले कई सालों में हमारी सामाजिक व्यवस्था में भी बदलाव नजर आने लगे हैं और ये भी इलैक्ट्रानिक क्रांति का ही नतीजा हैं। पूरा देश धीरे-धीरे उस अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का हिस्सा बनता जा रहा है जिसमें राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और व्यवसायिक रिश्तों की लेन-देन में मीडिया का इस्तेमाल होता है। मीडिया ने ऐसी व्यवस्थाएं पैदा कर दी हैं जिसमे हर देश किसी से सूचनाएं ले रहा है और किसी को सूचनाएं दे रहा है। पूरी दुनिया के शेयर बाजारों का हाल टीवी चैनलों और इंटरनेट पर मौजूद है। सूचनाओं का प्रवाह इतना तेत है कि अमरीकन शेयर मार्केट की आंख फडक़ती है तो मुंबई के शेयर दलालों के दिल पर असर होने में पांच सेकण्ड से ज्याद वक्त नहीं लगता। बाजार में कोई नई चीज आए या विज्ञान की दुनिया में कोई तहलका मचे-सारी दुनिया को खबर एक साथ ही होती है। खबरे मानों हवाओं में उड़कर आ जाती है और ये सच ही तो है, खबरे दरअसल हवाओं में उड़कर ही तो आती है। उपग्रहों का इस्तेमाल करके आई इस मीडिया क्रांति के बाद अलग-अलग देशों और संस्कृतियों के लोग दूसरे देशों और संस्कृतियेां के लोगों के साथ किसी भी रूप में खुद को जोड़ सकने में सक्षम हैं। ये सक्षमता मीडिया का असर है।

पढऩे लिखने या सीखने के लिए भी अब हमेशा स्कूल कालेज या किसी इंस्टीट्यूट में ही जाना जरूरी नहीं रह गया है। कई ऐसे संस्थान है जिन्होंने इंटरनेट पर ही अपने स्कूल खोज लिए है। आप इंटरनेट पर उनकी साइट पर जाकर किसी भी चीज को सीखने के दांव पेंच हासिल कर सकते हैं। ऐसी संस्थाएं आपको कई तरह की सेवाएं घर बैठे उपलब्ध करा रही हैं और उससे भी जी न भरे तो देश भर में इन्होंने अपने केन्द्र भी खोल रखे हैं जहां जाकर इंटरनेट शिक्षा की न समझ में आने वाली बारीकियां भी आप समझ सकते हैं। हालत यहां तक है कि अब तो डॉक्टर भी दूर बैठे-बैठे ही मरीज का हाल सुनकर और समझकर उसका इलाज करने लगे हैं। इस तरह का इलाज खांसी, बुखार का हो तो डॉक्टर साहब फोन पर उपलब्ध हैं और मामला किसी जटिल ऑपरेशन का है तो वीडियों क्रांफेसिंग के जरिए न्यूयार्क में बैठा विशेषज्ञ डॉक्टर मुंबई के ब्रीच कै्रंडी अस्पताल में आपरेशन कर रहे डॉक्टरों को मशवरा दे सकता है। मुश्किल चीजे अब आसान हो गई है और आसान चीजें अब और भी ज्यादा आसान हो गई हैं। बात सिर्फ बड़ी बड़ी चीजों तक ही नहीं है, एम्बुलेंस को बुलाना हो या किसी रेस्टारेंट से खाना मंगाना हो, सिर्फ एक टेलीफोन करने की जरूरत है, चीज तुरंत हाजिर हो जाएगी। मुंबई शहर में लोग खाने-पीने की चीजो से लेकर फर्नीचर, कंप्यूटर, रेल के टिकट और कपड़े तक फोन करके घर मंगवा डालते हैं। थैला लेकर खरीदारी करने तक की जरूरत नहीं रही है। ये सब कुछ मीडिया में आई तरक्की के कारण ही संभव हुआ है।

आप किसी भी आम घर में चले जाए वहां टेलीफोन, टीवी, केवल कनेक्‍शन, कंप्यूटर और इंटरनेट आपको जरूर मिल जाएगा। इन चीजों को भारतीय समाज अब उसी तरह की बुनियादी जरूरते मान रहा है जैसे घर में समय दिखाने के लिए घड़ी का होना या फिर और आसानी से समझे तो यूं कहे जैसे कि लेटने के लिए बिस्तर का होना या खाने के लिए बर्तनों का होना। मनोरंजन और सूचना के इन माध्यमों पर आज हर घर में सब्जी तरकारी के मासिक खर्च से भी ज्यादा खर्चा किया जाता है। मीडिया और संचार उद्योग इन्ही कारणों से आज भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे तेजी से उभरता उद्योग बन गया है।

संचार की इस क्रांति के कारण तकनीकी औद्योगिकता बढ़ी है और भारत जैसे देश भी अब ये महसूस करने लगे हैं कि संचार क्रांति में एक भरा-पूरा उद्योग भी फुला हुआ है। नेटवर्क इंफ्रास्ट्रक्यर, ऑप्टो इलेक्ट्रानिक्स, सॉफ्टवेयर, मोबाइल तकनीक और मीडिया कार्यक्रमों का प्रोडक्ïशन अपने आप में किसी भरे पूरे उद्योग से कम नहीं रह गया है। ये हजारों करोड़ रुपयों का उद्योग है और लाखों करोड़ों लोगो की रोजी रोटी है।

कहा जाता है कि हर अच्छी चीज में भी कहीं न कहीं कोई कमी भी रह ही जाती है। मीडिया इसका अपवाद नहीं है। तमाम तरह की सुविधाएं दे पाने में आज मीडिया इसलिए सक्षम है क्योंकि इसके विस्तार की गति बहुत तेज है। चीजे रातों रात बदल रही हैं, बढ़ रही है और इसी कारण पूरी व्यवस्था में कई जगह भ्रम और अनिश्चितता की स्थिति भी बन गई है। ये कुछ-कुछ बेहद तेज रफ्तार से चल रही उस कार की स्थिति के समान स्थिति है जिसमें कार के ड्राइवर को उसी रफ्तार पर तालियां तो खूब मिल रही है पर उस ड्राइवर के लिए कार की रफ्तार और संतुलन दोनों को एक साथ संभाल पाना बेहद मुश्किल होता जा रहा है।

दिक्कते विकास की इस अप्रत्याशित तेज दर के कारण ही पैदा हुई हैं। कुछ साल पहले तक गिने-चुने चंद टीवी चैनल हुआ करते थे। पर आज जब लोग मीडिया क्रांति के प्रोडक्ट्स का घरेलू प्रोडक्ट्स की तरह इस्तेमाल करने लगे है तो खेल और खेल के नियम दोनों ही बदल गए हैं। ऐसे मे ये निर्धारित कर पाना कठिन हो गया है कि इस उद्योग में कौन क्या भूमिका निभाएगा। संचार कंपनियां अब इंटरनेट में कूदने को तैयार है, ऐसे में आवश्यभावी है कि इंटरनेट सेवाएं देने वाली कंपनियां भी अब टीवी चैनलों की दुनिया में आएंगी। स्पष्टï है कि मीडिया की क्रांति ने मीडिया के व्यवसाय को भी जन्म दिया है और हर व्यवसाय की तरह इस व्यवसाय को भी बाजार के नियमों से ही चलाया जाना है, यही वो बिंदु है जहां आकर थोड़ी समझदारी बरते जाने की जरूरत है। मीडिया एक ऐसा व्यवसायिक माध्यम है जो आम लोगों की मनोरंजन, शैक्षिक और तमाम और सोचों को सीधा प्रभावित करता है। लोग सूचना और संचार के इन माध्यमों पर निर्भर होकर अपनी रोजाना की जिंदगी चला रहे है और इसीलिए ये व्यवसाय, व्यवसाय होकर भी इतना अलग तो है ही कि नागरिकों और उपभोक्ताओं के अधिकारों का ख्याल रखा जाए। मीडिया एक माध्यम है पर ये माध्यम आम लोगों का माध्यम है और इसलिए आम लोगों को सही संतुलित और सटीक सूचनाएं पाने का पूरा अधिकार है। सरकार की ये जिम्मेदारी बनती है कि वो मीडिया की इस क्रांति को कुछ इस तरह से व्यवस्थित करे कि सही सूचनाओं और सूचना पाने के जनता के अधिकार के बीच एक सुंदर संतुलन बना रहे। सरकार को शायद उस तरह के इंस्ट्रक्टर की भूमिका निभानी होगी जो किसी जिम में कसरत कर रहे व्यक्ति को सही दिशा निर्देश देकर हष्ट-पुष्ट स्वरूप पाने में मदद करता है। भारत के मीडिया जगत को भी अपने सुंदर, सजग और संतुलित स्वरूप को पाने के लिए ऐसे ही सहयोग की दरकार रहेगी।

मैं टीवी न्यूज का महत्व समझना चाहता हूं
किसी भी लोकतांत्रिक समाज में न्यूज और डॉक्यूमेंट्री हमेशा से ही एक प्रहरी की भूमिका निभाते आए हैं। चाहे राजनेताओं और अफसरों पर नजर रखनी हो या किसी गैरकानूनी काम का भंडाफोड़ करना हो, न्यूज और डॉक्यूमेंट्रीज के लोग हर जगह मौजूद मिलेंगे। आम लोग ये तमाम बातें जानना चाहते है और न्यूज और डॉक्यूमेंट्रीज के लोग आम लोगों तक ये बाते पहुंचा देते हैं। आम लोग सुनने या पढऩे के बजाए देखकर चीजों को ज्यादा आसानी से समझ पाते हैं और चीजों को दिखा पाने की तकनीकी सक्षमता सिर्फ टेलीविजन के पास है। टेलीविजन अपनी इसी खूबी के कारण खबरों और सूचनाओं के लिए सबसे लोकप्रिय माध्यम है।

अगर पिछले कुछ सालों पर नजर डाली जाए तो हम देखेंगे कि दुनिया की हर बड़ी घटना के घटते समय टीवी न्यूज के कैमरे वहां हमेशा मौजूद रहे हैं। कारगिल का युद्ध हो या संसद पर हमला, गुजरात में दंगे भडक़ रहे हो या गयारह सितंबर को अमरीकी टावर ढह रहे हो, पूर्वी अमेरिका पर आतंकवादी हमला हो या ताजातरीन ईराक युद्ध-टीवी न्यूज ने हमे न सिर्फ सब कुछ सिखाया है बल्कि हमे कहीं अंदर तक प्रभावित भी किया है। दूर बैठकर भी हम गुस्से या आसुंओं में अपनी संवेदनाओं को अभिव्यक्त कर सके हैं और ये टीवी न्यूज की बदौलत ही हुआ है। टीवी न्यूज ने हर युद्ध, हर हादसे और हर गड़बड़ी को इस अंदाज में दिखाया है कि सच्चाईयों को छुपा पाना मुमकिन नहीं रहा, ऐसा इसलिए क्योंकि हर घटना के घटते समय टीवी सेटों के सामने बैठे करोड़ों लोग उस घटना के मूकदर्शक बन चुके होते है। लोगों की ताकत को अपनी ताकत बना लेना टीवी न्यूज की बड़ी खासियतों में से एक है।

लोगों की इसी ताकत को पहचान कर इस संभव देने के लिए भारतीय संविधान ने लोगों को अभिव्यक्त का मौलिक अधिकार दिया है पर इसके बावजूद भी समय-समय पर अभिव्यक्ति की इस स्वतंत्रता को छीनने के असफल प्रयास होते रहे हैं। आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो खबरों और सूचनाओं के असर को कम करने के लिए टीवी-रेडियों के बाद अब इंटरनेट को सेसंर करने की वकालत करते हैं।

वैसे तो मीडिया की हर चीज पर सवाल जवाब होते रहे है पर टीवी न्यूज की मजबूरियों और बंधनों पर तो लगभग हर घर में वाद-विवाद होता है। ये वाद-विवाद टीवी न्यूज की तंत्र प्रणाली को समझे बिना ही होता है और कई बार बेइरादा और बेवजह भ्रम का कारण बन जाता है।

चलिए, इस पूरी स्थिति को थोड़ा आसानी से समझते हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि हर टीवी न्यूज चैनल आज एक ऐसी दौड़ में शामिल है जिसमें वो सबसे ज्यादा लोकप्रियता हासिल कर नंबर वन बनना चाहता है। नंबर वन की इस दौड़ को जीतने के लिए ये जरूरी है कि आप वही दिखाएं जो लोग देखना चाहते हैं, इस वजह से कई बार आप न्यूज चैनल पर उस तरह की खबरें ज्यादा देखेंगे जो आपे ध्यान को टीवी पर खींच सके। दूसरी तरफ दूरगामी नतीजों वाली कई खबरें कई बार उपेक्षित भी हो जाती है। इसी तरह से एक कारण और भी है जो खबरों के इस सिलसिले को प्रभावित करता है। खबर अगर रूखी है और इतनी जटिल है कि आम दर्शक उसे न समझ पाए तो उसके बजाय टीवी न्यूज चैनल उस खबर को दिखाना ज्यादा पसंद करेगा जिसमे दिखाने के लिए तस्वीरें हो और जो ज्यादा आसानी से लोगों को बताई जा सके।

इसका सीधा सा उदाहरण ये है कि एक ही शहर में एक तरफ ब्यूटी कांटेस्ट या फैशन शो हो और दूसरी तरफ शहर में बुद्धिजीवियों या आर्थिक विशेषज्ञों की कोई मीटिंग या कांफ्रेस हो रही हो तो इस बात की पूरी संभावना है कि आप टीवी न्यूज में ब्यूटी कांटेस्ट और फैशन शो को बार-बार देखे और कांफ्रेस को भूले-भटके एक बार (या एक बार भी नहीं) टीवी चैनलों को चलाने वालों के पास हर सप्ताह एक ऐसी रेटिंग लिस्ट आती है जो ये बताती है कि कौन सा चैनल और कौन सा कार्यक्रम कितना देखा जा रहा है। ये रेटिंग प्राप्त करने के लिए कई संस्थाएं हैं जो एक खास तरह का मीटर कुछ चुने हुए शहरों के हजारों घरों में लगाती है जो ये बताता है कि कितने घरों में क्या देखा जा रहा है। लोकप्रियता के इन्ही आंकड़ों के आधार पर चैनल को चलाने वाले विज्ञापन आते है और किसी न्यूज डायरेक्टर (न्यूज चैनल का संपादकीय प्रमुख) के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि वो अपने चैनल की लोकप्रियता दूसरों चैनलों की लोकप्रियता से ज्यादा बनाए रखे। अब शायद आपके लिए ये समझना आसान होगा कि ऐसी खबरे और ऐसे कार्यक्रम ज्यादा क्यों दिखए जाएंगे जो लोकप्रियता नापने वाले बड़े शहरों के दर्शकों को ला सके। लोकप्रिय होना किसी चैनल की सबसे बड़ी जरूरत और मजबूरी दोनों है।

न्यूज बुलेटिंस में डेढ़ दो मिनट की समयावधि को जो अलग-अलग खबरें आप देखते हैं उन्हे न्यूज की दुनिया में ‘न्यूज स्टोरी’ (या सिर्फ स्टोरी भी) कहां जाता है। चूंकि आज दर्शकों की रुचि को ध्यान में रखकर न्यूज चैनलों का चलाया जाता है तो हर न्यूज स्टोरी आम दर्शक के लिए कुछ न कुछ लेकर आती है, या कम से कम ऐसा प्रयास तो जरूर करती है। टीवी न्यूज में शब्द, ध्वनि और दृश्यों को आप एक साथ देखते हैं पर इसमें शब्द उतने माएने नहीं रखते है। ये माध्यम देखने का माध्यम है । (अग्रेंजी में वनिुअल मीडियम) और देखने के लएि दृश्य का होना सबसे बड़ी जरूरत है। अगर अमेरिका के वर्ल्‍ड ट्रेड सेटंर को आप टी वी पर लाइव ढहता हुआ देख रहें हैं तो उसका ढहना और ढहते वक्त आ रहीं आवाजे आपको सब कुछ समझाने के लिए काफी हैं, उस वक्त इन शब्दों की जरूरत नही रहती कि वर्ल्‍ड ट्रेड सेटंर की इतनी मंजिले ढह रहीं हैं (हॉं अगर यह खबर अखबार में होती तो यही शब्द महत्वपूर्ण हो जाते) टीवी न्यूज की दृश्यता इस माध्यम का सबसे बड़ा हथियार है और इसी कारण टीवी की खबरे लोगों के दिमाग में अंदर तक पैर जमा लेती हैं ।

खबरों का असर
ऐसा अक्सर होता है जब सरकारें या प्रभावशाली लोग टीवी न्यूज को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिशें करते हैं और न्यूज चैनल को अपनी मनमर्जी मुताबिक ढालने के लिए वो जो कुछ संभव हो वो कर डालते हैं। ऐसी कोशिशे कितनी सफल होती हैं, इस बात में जाए बिना भी इस आधार पर हम टीवी न्यूज की ताकत और असर का अदांजा तो लगा ही सकते हैं।

आपने कई बार देखा होगा कि जब भी कोई तानाशाह अपने देश के लोगों पर बेधडक़ कब्जा बनाए रखना चाहता है तो वो सबसे पहले न्यूज मीडिया को ही अपना निशाना बनाता है। बेखौफ तानाशाह अक्सर अपने देश के लोगों के सूचना पाने के अधिकार को कुचलकर न्यूज पर सेसंर लगा देते हैं और इसके पीछे उनका घिसा पिटा तर्क यही होता है कि देश की संस्कृति और व्यवस्था को बचाने के लिए इस तरह का नियंत्रण अनिवार्य है। ये अलग बात है कि इस तरह की सेसंरशिप का अंतिम नतीजा यही होता है कि एक ऐसी शासन व्यवस्था हो जिसमे कब कहां क्या हो रहा है, इसकी सूचना सत्ताधीशो की मर्जी से दी जाए। सेसंरशिप तानाशाही का ही एक हथियार है।

ये मामला सिर्फ तानाशाहों तक ही सीमित नही है। कई ऐसे लोकतांत्रिक देश भी हैं जो अपने यहॉं न्यूज और इंटरनेट को सेसंर करने का कारण ये बताते हैं कि वे अश्लील प्रसारणों को रोककर अपने देश की सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित करना चाहते हैं । अगर आप इन देशों द्वारा सेसंर की गई चीजों की सूची मॉंगे तो उनमें आपको कई न्यूज वेबसाइट्स के अलावा अन्य तरह की उपयोगी, ज्ञानवर्धक और नैतिक वेबसाइट्स के नाम भी मिलेंगे। इस तरह की वेबसाइट्स को सेंसर करने के क्या कारण हो सकते हैं – ये आप आसनी से समझ सकते हैं।

हालांकि भारत में अभिव्यक्ति का अधिकार संविधान द्वारा किया गया मौलिक अधिकार है पर हमारे यहां भी कई बार सेसंरशिप लागू करने की कोशिशें की जाती रही हैं। ये हमारे देश के संवैधानिक ढांचे की खूबी है कि इस तरह की कोशिशें कभी कामयाब नहीं हो सकी (आपात काल के चंद महीनों को छोडक़र) खुली अर्थव्यवस्था के इस दौर में भारतीय मीडिया भी अपनी क्रांति को एक स्थिर क्रांति में तब्दील करने में जुटा हुआ है।

ये सब कुछ पढऩे के बाद आपके लिए इतना समझपाना बहुत मुश्किल नहीं होगा कि कुछ कमियों के बावजूद टीवी न्यूज और डॉक्युमेंट्रीज उस भूमिका में तो है ही जब वे समाज पर गहरा असर डाल सकती हैं। आज हालत ये है कि देश, दुनिया और लोगों के साथ-साथ हर तरह की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जानकारी भी हम तक सिर्फ टेलिविजन ही लेकर आता है। ऐसे में टेलीविजन आज शक्ति का प्रतीक बन गया है और टेलीविजन में काम करने वाले वो लोग, जो न्यूज और डॉक्युमेंट्रीज बनाते है, इस देश के सबसे शक्तिशाली असरदायी लोगों के साथ नजर आते हैं।

विवादास्पद मुद्दों से कैसे निपटे!
न्यूज की ताकत और असर को असर को अब तक आप समझ चुके होंगे। चालिए अब जरा ये समझने की कोशिश करते हैं कि इस ताकत और असर के साइडइफेक्ट्स क्या हो सकते हैं!

मैं आपका अपनी जिंदगी की एक बात बताता हूं। ये बात आज हम सबको पता है कि अगर किसी टीवी पत्रकार को अपनी नौकरी बचाए रखनी है तो उसे अपने ऊपर कभी भी पक्षपाती होने का आरोप नहीं लगने देना चाहिए। न्यूज बनाते वक्त इस बात की कोई जरूरत नहीं है कि अपने निजी विचार उसमें घुसेडें जाएं। जितनी आसानी से ये बात आज मैं आपसे कह रहा हूं, उतनी आसानी से यही बात उस वक्त् मैं नहीं कह पाता था जब मैने पत्रकारिता में अपना करियर शुरू किया था। न्यूज की ताकत और असर ने मेरे अंदर भी एक अतिरिक्त जोश भर रखा था। मुझे याद है कि शुरूआती दिनों मे जब भी किसी गलत या गैरकानूनी घटना को मैं रिपोर्ट करता था तो उस घटना से इतना जुड़ जाता था कि गलत चीजों पर बेहद गुस्सा आता था। ये सब होता देखकर मैं बेहद परेशान भी हो जाया करता था। न्यूजरूम से थोड़ी सी फुर्सत मिलते ही मैं बिल्कुल सामाजिक कार्यकर्ता की भाषा बोलने लगता था- ”यार, ये सब नहीं होना चाहिए…”, हम लोग कुछ क्यों नहीं करते.. ”, ”इन गलत चीजों को रोकने का हमारा भी कुछ फर्ज बनता है”, बगैरह-बगैरह।

अच्छी बात ये हुई कि जल्दी ही थोड़ी समझदारी आ गई। मेरे एक सीनियर सहयोगी पत्रकार ने मेरे जोश और मेरे हालात को देखकर ये समझ लिया था (जो मैं तब नहीं समझा था) कि अगर मेरा रवैया ऐसा ही रहा तो मैं अपने आप को निष्पक्ष रखकर रिर्पोटिंग नहीं कर पाऊंगा। एक दिन बड़े प्यार से उन्होंने मुझे बुलाया और ऐसी बातें समझाई जो आत तक मेरे काम आ रही हैं।

उनका कहना ये था कि- ”तुम सिर्फ अपना काम करो और दूसरों को क्या करना चाहिए ये चिंता छोड़ दो। तुम्हारा काम बस इतना है कि जो मुद्दा हो उसके सारे पक्षों को समझकर पूरी बात साफ-साफ लोगों के सामने रख दो अगर उस मुद्दे में तुम खुद जाती तौर पर घुसने लगोगे तो उस मुद्दे को ईमानदारी से पेश नहीं कर पाओगे। तुम मुद्दो को उठाओ और मुद्दों को हल करने की जिम्मेदारी राजनेताओं, धार्मिक गुरुओं, सरकारी अफसरों या बाकी लोगों पर छोड़ दो क्योंकि ये करना उनकी जिम्मेदारियों में आता है।”

तो ये बात में उस दिन से समझ गया कि पत्रकारिता के लिए दिमाग के साथ-साथ दिल पर नियंत्रण रखना बेहद जरूरी है।

कुछ और बातें भी हैं, जैसे कि एक पत्रकार के लिए ये बड़ा जरूरी है कि वो जिस मुद्दे को भी रिपोर्ट करें, उस मुद्दे से जुड़े सभी पक्षों को साथ लेकर रिपोर्ट करें। इसका मतलब ये है कि आप अपनी न्यूज स्टोरी में सभी पक्षों को अपनी बात रखने का मौका दे। ऐसा करना एक तो ईमानदारी की जरूरत है, दूसरे ऐसा करने से आपकी न्यूज स्टोरी भी कहीं ज्यादा दिलचस्प और विवादास्पद बन जाती है। हां, आप अपनी पसंद और नापसंद को कृपया इस न्यूज स्टोरी में शामिल न करें। अगर आप पहले से तय नजरिए से एक न्यूज बनाना शुरू करेंगे तो आप सब कुछ उसी नजरिए से देखेंगे, उसमें ईमानदारी नहीं रहेगी। हां, अगर खुली सोच के साथ उसी न्यूज स्टोरी पर काम शुरू करेंगे तो हो सकता है कि आप उसी मुद्दे के अंदर कुछ और नई बातें ढूंढ लें। ये बाते शुरूआती दिनों के जोश के कारण लोग अक्सर उपेक्षित कर देते हैं पर यही बाते उस व्यक्ति की पत्रकारिता सोच की बुनियाद तय कर देती हैं। मै फिर अपने निजी अनुभवों के आधार पर आपको ये बताना चाहता हूं कि संतुलित खयालात और अपनी भूमिका से जुड़ी बातों को जब मैने नए ढंग से समझा था तो शुरूआती जोशीली पत्रकारिता पर मेरे विचार एकदम बदल गए थे। पत्रकारिता के सच समझ लेने के बाद ही आप तमाम और सच सामने लाने की लड़ाई लड़ सकते हैं।

एक टेलीविजन पत्रकार के रूप में आप जब अपनी न्यूज स्टोरी को अपने सीनियर को समझाएं तो एक तो उसे ये बताएं कि ये स्टोरी है क्या और दूसरे इस बात को खास जोर देकर सामने रखे कि आपने किस एंगल से स्टोरी की है और उसमें क्या बात निकलकर सामने आती है। ये बात भी खास कर सामने रखें कि आपने अपनी स्टोरी के सभी पक्षों से या तो बात की है या बात करने की कोशिश की है (वो सफल हुई हो या असफल) ये बातें आप अपनी स्टोरी में भी शामिल रखें, इससे न सिर्फ आपकी प्रोफेशनल ईमानदारी सामने आएगी बल्कि आप किसी कानूनी पचडें में फंसने से भी बचे रहेंगे।

न्यूज बनाना एक टीमवर्क है
दुनिया के तमाम और क्रिएटिव कामों की तरह न्यूज बनाना भी एक टीमवर्क है। दूर से देखने पर ये लग सकता है कि ये अकेले व्यक्ति का काम भी हो सकता है पर जमींनी सच्चाई यही है कि ये अकेले व्यक्ति को काम न तो है और न हो सकता है। न्यूज बनाने से लेकर न्यूज पेश करने तक के चक्र में तमाम तीलिया हैं और हर तीली की अपनी खास अहमियत है। कोई ये चाह तो सकता है कि वो अकेले ही सबकुछ कर ले पर वो इस चक्र के दूसरे लोगों की जरूरत चाहकर भी खत्म नहीं कर सकता है।

अब ये बात पढ़कर आप लोग एक नए सवाल से दो-चार हो रहे होंगे। जब हर व्यक्ति बराबर की अहमियत रखता है तो क्या न्यूज चैनल में सब लोग एक ही स्तर पर काम करते हैं? या तमाम और जगहों की तरह न्यूज चैनल में भी जूनियर्स और सीनियर्स का स्थिति क्रम होता है (अंग्रेजी में हाइऑर्की) इस सवाल का जवाब किसी एक हां या एक ना में देना जरा मुश्किल है, दरअसल बातें दोनों ही हैं। आइए समझते हैं-

ये बात बिलकुल ठीक है कि एक न्यूज बुलेटिन या न्यूज कार्यक्रम को पेश करने की प्रक्रिया में तमाम लोग अपने-अपने हिस्से का काम करते हैं और हर व्यक्ति का अपना महत्व होता है। किसी एक का महत्व किसी दूसरे के महत्व से कम या ज्यादा नहीं होता। इस नजरिए से देखें तो किसी न्यूज चैनल में सब लोग एक ही स्तर पर कहे जाएंगे। अब जरा दूसरे नजरिए से देखते हैं- भले ही किसी न्यूज बुलेटिन या न्यूज कार्यक्रम को बनाने की प्रक्रिया में काम सारे लोग कर रहे हो और अपने-अपने महत्व को बरकरार रखते हुए काम कर रहें हो पर ये काम करने की प्रक्रिया कुछ लोगों के दिशा निर्देशों पर ही बनती है और समय-समय पर बदलती भी है। इस प्रक्रिया के अंदर पेश आने वाले नीतिगत फैसलों के वक्त हमे नजर आता है कि फैसले लेने के लिए एक व्यवस्था बनी हुई है, इस स्तर पर आप इसे जूनियर सीनियर व्यवस्था या अंग्रेजी में हाईआर्की कह सकते हैं। कहने का अर्थ ये निकला कि काम करने के स्तर पर सब बराबर है और जूनियर सीनियर व्यवस्था नहीं है लेकिन जब फैसलो की घड़ी आती है, तो जूनियर सीनियर व्यवस्था न्यूज चैनलों में भी है। न्यूज हेड इस पूरी व्यवस्था का कप्तान होता है न्यूज प्रसारण की पूरी जिम्मेदारी उसी के सर होती है।

ये जिम्मेदारी कौन कितनी कुशलता से निभाता है, इसी आधार पर ये तय होता है कि कौन किस श्रेणी का टीवी पत्रकार न्यूज चैनल का काम इतने दबाव का काम है कि ठीक वक्त पर काम होना और योजना के मुताबिक ही काम होना अनिवार्य है। प्रक्रिया में गड़बड़ी होने के लिए आपके पास कोई बहाना नहीं होना चाहिए, सीधा नियम ये है कि जो होता है वो होना है। ऐसे में सिर्फ न्यूज की समझ रखना ही टीवी पत्रकार नहीं बना देता, बल्कि ये भी उतना ही जरूरी है कि आप सटीक और सही काम भी इतनी तेजी से कर सके जितनी तेजी आपने सामान्य अवस्था में कभी सोची भी नहीं होती है। टेलीविजन एक दृश्य माध्यम है और रफ्तार और चुस्ती ही आपकी सफलता का ग्रेड तय करती है।… ये बात आप महसूस तभी कर पाएंगे जब टेलीविजन का तमाम काम आप अपने हाथों से खुद करेंगे।

साभार : आलोक वर्मा की प्रकाशनाधीन पुस्तक “टेलीविजन पत्रकार कैसे बने!”


- See more at: http://www.newswriters.in/2015/07/03/television-journalism-2/#sthash.r2ezWF2J.dpuf

Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>