संस्मरण : पत्रकारिता में नए शब्द-विन्यास और भाषा का योगदान
सुरेश नौटियाल।
किसी भी भाषा को जीवंत बनाए रखने के लिये उसमें नए-नए प्रयोग होते रहने चाहिए। उसमें नये-नये शब्द जुड़ते रहने चाहिये। यदि आप हिंदी साहित्य को देखें तो पाएंगे कि इसे उर्दू, भोजपुरी, मैथिली, राजस्थानी, गढवाली, कुआउंनी, जैसी सुदूरांचल भाषाओं और मराठी, बंगला, पंजाबी जैसी अनेक भगिनी भाषाओं ने इसे अधिक संपन्न बनाया हैदिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य का छात्र रहते हुये अंग्रेजी का भूत सवार था। सिर से पांव और मन तक। ऐसा इसलिए क्योंकि किसी ने कहा था कि अंग्रेजी सीख लोगे तो भूखों नहीं मरोगे! यही कारण था कि अंग्रेजी में ही सोचने की कोशिश होती थी और कविता भी अंग्रेजी में ही लिखते थे। बीए पास अर्थात साधारण डिग्री कोर्सों के छात्रों को हेय-दृष्टि से देखने से भी न चूकते थे। मन में इच्छा थी अंग्रेजी का प्रवक्ता बनने की या दूरदर्शन समाचार का अंग्रेजी न्यूजरीडर बनने की!
उन्हीं दिनों साउथ एवेन्यू में एक दिन एक चाय के कियोस्क पर अपनी भारी-भरकम किताबों को लिये बैठा चाय की प्रतीक्षा कर रहा था कि पान चबा रहे एक व्यक्ति ने मेरा परिचय पूछा। परिचय बताया तो और भी बातें पूछीं और यह भी कि अंग्रेजी साहित्य क्यों और किसलिये पढ रहे हो। प्रश्न कठिन था और मेरे पास कोई उत्तर भी नहीं था। मुझसे बेहतर अंग्रेजी में इन महाशय ने बताया कि वह भौतिकशास्त्र में पीएचडी कर रहे हैं लेकिन अपनी भाषा की कीमत पर नहीं। बहुत कुछ समझ नहीं आया लेकिन अंदर कुछ ठहर अवश्य गया था।
1984 की बात है। विवाह हो गया था और कुछ कमाने का दबाव था। जॉर्ज फर्नांडिस के संपादन वाले हिंदी साप्ताहिक “प्रतिपक्ष” में वरिष्ठ पत्रकार गुरुकृपाल सिन्हा की मदद से 500 रुपये की सब-एडीटरी मिल गयी, जहां मुख्य काम डॉ। रामनोहर लोहिया जैसे समाजवादी चिंतक और राजनेता के अंग्रेज़ी लेखों का हिंदी अनुवाद करना था। विनोद प्रसाद सिंह अच्छे संपादक थे और अनुवाद की बारीकियां ठेठ अपने अंदाज में समझाते थे। डॉ। सुनील मिश्रा (अब डॉ। सुनीलम), जलीस एहसन और हबीब अख्तर जैसे पत्रकार साथियों से भी सिखने को मिला। पैसा कम था, इसलिए वहां मन नहीं लगा लेकिन अनुवाद की समझ साथ हो ली थी!
‘प्रतिपक्ष’ छोडने के कुछ समय बाद ही दूरदर्शन समाचार में बडे भाई वीडी पुरोहित की मदद से वहां अतिथि संपादक के तौर पर कार्य शुरू कर दिया। वहां अनुवाद कला को निखारने का खूब मौका मिला क्योंकि 20-30 सेकंड से लेकर एक-डेढ मिनट के भीतर समाचार को पूर्णता के साथ लिखना होता था। मूल समाचार आकाशवाणी इंग्लिश न्यूज से आते थे या पीटीआइ/यूएनआइ समाचार एजेंसियों से लेने पडते थे। ‘प्रतिपक्ष’ में हासिल अनुवाद का ज्ञान दूरदर्शन समाचार में समाचार बनाते समय खूब काम आया।
कुछ माह बाद यूएनआइ की हिंदी सेवा यूनिवार्ता में नियुक्ति के लिए परीक्षा दी और सबसे ज्यादा अंक लिये। मुख्यधारा का पत्रकार बनने के इस अवसर के साथ ही एक अंग्रेजी पत्रिका से पत्रकारिता आरम्भ करने का अवसर भी मिला पर जीत हिंदी की हुई और हिंदी समाचार एजेंसी यूनिवार्ता में नौकरी शुरू कर दी!
सही नाम कैसे लिखें
अंग्रेज़ी भाषा का ठीक-ठाक ज्ञान होने के फलस्वरूप प्रशिक्षण के दौरान ही यूनिवार्ता में शिफ्ट इंचार्ज के रूप में जिम्मेदारी मिलने लगी। इसी बीच पता चला कि हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं के उच्चारण भेद के कारण अनेक अंग्रेजी और अन्य भाषाओं के शब्द सही रूप में नहीं लिखे जाते थे।
भारतीय सूचना सेवा के वरिष्ठ पद से सेवानिवृति के बाद यूनिवार्ता के संपादक के रूप में काशीनाथ जोगलेकर उन दिनों थे। उनकी सहमति से मैंने अपने स्तर पर उन नामों को सही रूप में लिखने की कोशिश शुरू कर दी जो भिन्न अक्षर-विन्यास और ध्वनियों की वजह से गलत लिखे जाते थे। इतना याद करना अब संभव नहीं कि किस शब्द या नाम को कब सही किया पर बहुत से नाम आज भी याद हैं जिन्हें ठीक करने के लिये मुझे मेहनत करनी पडती थी या साथियों को आश्वस्त करना पडता था। यदा-कदा संबंधित देश के दूतावास से फोन पर भी सही उच्चारण पूछ लिया जाता था।
जिन भाषाओं के शब्दों के नाम सही नहीं लिखे जाते थे, उनमें चीनी, जापानी, रूसी, स्पानी, जैसी भाषायें ही नहीं, दक्षिण भारतीय भाषाएं यथा तमिल, तेलुगु इत्यादि भी होती थीं। मैंने इन भाषाओं की ध्वनियों को पकड़कर सही उच्चारण के साथ नाम लिखने की कोशिश की और इसमें एक सीमा तक सफलता भी मिली। धीरे-धीरे एक स्टाइल-शीट भी विकसित की गयी और मेरे अलावा अन्य साथी भी विभिन्न भाषाओं के नाम और शब्दों को मूल उच्चारण के अनुसार लिखने की कोशिश करने लगे। हिंदी में बहुत से स्वर और व्यंजन होने से विभिन्न भाषाओं की ध्वनियों और सूक्ष्मताओं को पकड़ सकने की क्षमता है। इस क्षमता का हमने अच्छा उपयोग किया।
जिन दिनों यूनिवार्ता से जुडा उन दिनों श्रीलंका में उग्रवादी संघर्ष काफी तेज था और उसके विभिन्न तमिल नेता अक्सर चर्चा में रहते थे पर उनके नाम हिंदी में गलत लिखे जाते थे। लिट्टे के शीर्ष नेता प्रभाकरन को ‘पीराभाकरन’ लिखा जाता था क्योंकि तब अंग्रेज़ी में इस नाम की स्पेलिंग ‘पी।आइ।आर।ए।बी।एच।ए।के।ए।आर।ए।एन’ लिखी जाती थी! मैंने तर्क दिया कि ‘पीराभाकरन’ कोई नाम नहीं होता है और यह ‘प्रभाकरन’ है!
बाद में हरिवल्लभ पांडे हमारे संपादक बने। यूनिवार्ता के संपादक बनने से पहले वह यूएनआइ समाचार एजेंसी में वरिष्ठ पत्रकार थे। उन्होंने मेरी रुचि और रुझान को देखा तो मुझे भाषा मानकीकरण समिति का अध्यक्ष बना दिया। इस कार्य के बदले शायद 300 रुपये प्रतिमाह की मामूली अतिरिक्त राशि भी तय हुयी थी पर यह कभी मिली हो याद नहीं ! खैर, मेरे लिये यह बडा प्रोत्साहन था और विभिन्न भाषाओं के नामों और शब्दों को मूल भाषा के निकटतम स्थान पर ले जाने की कोशिश मैंने तेज कर दी।
इस क्रम में मैंने “सियोल” को ‘सोल’, ‘त्रिवेंद्रम’ को ‘तिरुवनंतपुरम’, ‘टोकियो’ को ‘तोक्यो’, ‘क्योटो’ को ‘क्योतो’, ‘ताइपेइ’ को ‘ताइपे’ इत्यादि लिखना और लिखवाना आरंभ किया। चीनी सहित अनेक भाषाओं के शब्द तो आज याद नहीं, जिन्हें ठीक करवाया था। बहरहाल, इनमें चीनी राजनेताओं, खिलाड़ियों और अन्य हस्तियों के नाम प्रमुख थे। मोटे तौर पर यह अपने साथियों को समझाया कि अंग्रेजी में लिखे चीनी शब्दों को अंग्रेजी के हिसाब से नहीं पढा जाना चाहिये। उदाहरण के लिये ‘बीजिंग’ को ‘पेइचिंग’ पढा जाना चाहिये और हिंदी में इसे ऐसे ही लिखा जाना चाहिए। अर्थात ‘ब’ को ‘प’ और ‘प’ को ‘फ’ पढा लिखा-पढा जाना चाहिए। इसी प्रकार, “एक्स” व्यंजन को “श” के रूप में पढा और लिखा जाना चाहिये।
अन्य भाषाओं जैसे फ्रेंच के कुछ नाम ऐसे थे, जिन्हें अंग्रेज़ी की तरह ही लिखा जाता रहा, यथा ‘पेरिस’; हालांकि इसे सही रूप में ‘पारि’ लिखा जाना चाहिए था। हां, ‘रोडिन’ को ‘रोदां’ अवश्य कर दिया गया। यह भी मैंने बताया कि म्यांमा में लोकतांत्रिक अधिकारों के लिये संघर्षरत नेता का नाम ‘सू ची’ है, ‘सू की’ नहीं!
खैर, वर्ष 1993 में मैंने यूनिवार्ता से त्यागपत्र दे दिया और अंग्रेज़ी दैनिक ‘द ऑब्ज़र्वर ऑफ बिज़नेस एंड पॉलिटिक्स’ में संवाददाता की नौकरी कर ली। यह इसलिए कहना पड रहा है क्योंकि यूनिवार्ता में जो काम मैंने शुरू किया था, उसे कोई लम्बे समय तक जारी नहीं रख पाया और धीरे-धीरे अनेक नाम फिर से गलत रूप में लिखे जाने लगे। हां, कुछ नाम अभी भी अवश्य हैं जिन्हें आज भी उसी रूप में लिखा जाता है, जिस रूप में शुरू किये गए थे।
कुल मिलाकर, यह काम कठिन था। इसी प्रकार की कोशिश उन दिनों आकाशवाणी समाचार में समाचार वाचक कृष्णकुमार भार्गव भी कर रहे थे। उन्होंने कालांतर में इसी आधार पर एक शब्दकोश भी तैयार किया पर वह भी लोकप्रिय नहीं हो पाया।
शब्द निर्माण
ठीक से याद नहीं पर शायद एक दिन नवभारत टाइम्स में ‘एलटीटीई’ के लिए ‘लिट्टे’ लिखा देखा तो यूनिवार्ता में भी मैंने इसे अपना लिया। धीरे-धीरे यह शब्द इतना लोकप्रिय हो गया कि सभी हिंदी समाचारपत्र ‘लिट्टे’ लिखने लगे। मेरे वरिष्ठ दीपक बिष्ट तो इसका श्रेय मुझे ही देते थे। ‘सीपीआइ-एमएल’ के लिए कहीं ‘भाकपा-माले’ लिखा देखा और फिर इसे भी यूनिवार्ता में अपना लिया गया। इसी प्रकार गोरखा नैशनल लिबरेशन फ्रन्ट के लिये मैंने ‘गोनैलिफ’ लिखना शुरू किया पर यह नाम प्रचलित नहीं हो पाया और फिर मैंने भी इसे लिखना बंद कर दिया। कुछ और नामों के भी संक्षिप्ताक्षर बनाए, जो कालांतर में काफी प्रचलित हुये।
कहने का तात्पर्य यह कि किसी भी भाषा को जीवंत बनाए रखने के लिये उसमें नए-नए प्रयोग होते रहने चाहिए। उसमें नये-नये शब्द जुड़ते रहने चाहिये। यदि आप हिंदी साहित्य को देखें तो पाएंगे कि इसे उर्दू, भोजपुरी, मैथिली, राजस्थानी, गढवाली, कुआउंनी, जैसी सुदूरांचल भाषाओं और मराठी, बंगला, पंजाबी जैसी अनेक भगिनी भाषाओं ने अधिक संपन्न बनाया है। अनुवाद में ये भाषाएं बहुत सहायक होती हैं। कई बार जब किसी अंग्रेजी भाषा के शब्द का सटीक पर्याय हिंदी में न मिल रहा हो तब वह उपरोक्त भाषाओं में कहीं न कहीं मिल ही जायेगा। यूनिवार्ता में अनुवाद के समय एक दिन किसी अंग्रेजी शब्द का अर्थ हिंदी में मालूम न था लेकिन मैं अपनी मातृभाषा गढ़वाली में यह जानता था सो मैंने गढ़वाली का शब्द ही चला दिया। अगले दिन वह अखबारों में छपा भी। इसी प्रकार, अन्य भाषाओं के अनेक शब्दों को हमने यूनिवार्ता की हिंदी शब्दावली में जोड़ा और उनका सटीक उपयोग किया।
भाषा की संवेदनशीलता
यदि हम किसी दूसरी भाषा के किसी भाव को समझ रहे हों और अपनी भाषा में उसके लिये कोई उपयुक्त शब्द न हो तो मूल शब्द के उपयोग से अथवा नया शब्द बनाने से परहेज नहीं करना चाहिये। और हां एक बात और, जब हम किसी दूसरी भाषा का शब्द अपनी भाषा में अपनाते हैं तो उसे मूल रूप में लेने की आवश्यकता भी नहीं होनी चाहिये। पर, मेरी दृष्टि में यह बात स्थानों और व्यक्तियों के नामों पर लागू नहीं होनी चाहिए। किसी का नाम अपनी भाषा के हिसाब से सही पर मूल भाषा के हिसाब से गलत लिख देंगे तो मामला संवेदनशील भी बन सकता है।
बीबीसी हिंदी सेवा की परीक्षा के बाद साक्षात्कार में बीबीसी के लोगों ने कहा कि आप उर्दू शब्दों के उच्चारण के बारे में कुछ कहें। मैंने जवाब में कहा कि यदि हिंदी में उर्दू शब्दों का इस्तेमाल हो तो जरूरी नहीं कि उर्दू के नुक्तों का हिंदी में इस्तेमाल हो चूंकि समाचार का काम संवाद प्रेषित करना है, साहित्य या भाषाशास्त्र पढ़ाना नहीं! आम बोलचाल में भी हम ऐसे ही देखते हैं। ‘टाइम’ के लिये उत्तर भारत के अनेक हिस्सों में ‘टैम’ बोला जाता है। इसका मतलब यह नहीं कि ‘टैम’ गलत हो गया! इसी प्रकार अंग्रेजी का ‘पैट्रोल’ गढवाली-कुमाउंनी में आसानी से ‘पतरोल’ हो गया। ‘पतरोल’ का अर्थ है, जंगल की पैट्रोलिंग करने वाला !
‘चक्काजाम’ और ‘लाठीचार्ज’ कुछ ऐसे ही शब्द हैं जो कब और कैसे बन गये, कोई नहीं जानता! इसी प्रकार ‘रोजगारोन्मुख’ शब्द है जो उर्दू और हिंदी के मिश्रण से बना है। हिंदी में उर्दू शब्दों का इस्तेमाल उर्दू के हिसाब से करना कठिन है। वैसे भी, एक बार आपने दूसरी भाषा का शब्द अपनी भाषा में ले लिया तो समझो कि वह आपका ही हो गया। गढ़वाल में अनेक लोगों के नाम मोहब्बत सिंह से लेकर हयात, मुख्तार, मातबर, आफताब सिंह तक होते हैं लेकिन इन शब्दों का अर्थ शायद ही कोई जानता हो!
यहां एक अन्य उदाहरण देना ठीक रहेगा। ‘प्रतिपक्ष’ में काम करते हुये संपादक विनोद प्रसाद सिंह भाषा की संवेदनशीलता और सूक्ष्मता की व्याख्या किए बिना बहुत सी बातें बताते थे। लोहिया के किसी लेख का अनुवाद करते समय मैंने एक बार ‘कैबिनेट’ के लिये ‘कैबिनेट’ ही लिख दिया तो विनोदजी बोले कि लोहिया इस शब्द के लिये हिंदी में ‘काबिना’ कहते थे, लिहाजा ‘काबिना’ ही लिखा जाना चाहिए। यह है भाषा की संवेदनशीलता और सूक्ष्मता ! अर्थात अनुवाद में इतनी बारीकी का ध्यान रखना चाहिए कि अनुवाद लगे ही नहीं ! बस, एक भाषा का मुहावरा दूसरी भाषा के मुहावरे में फिट हो जाए !
यह बात बहुत ही स्पष्ट है कि भाषा संवाद के लिये होती है, उसका कोई आनुष्ठानिक उपयोग नहीं होता। भाषा में उदारता रहेगी और समय के अनुसार बदलती रहेगी तो जीवंत भी रहेगी; अन्यथा, मर जायेगी !
अनुवाद करते समय अपने सामान्य ज्ञान और भाषा की सेंसिबिलिटी का ध्यान रखना आवश्यक होता है। यूनिवार्ता में एक साथी ने एक बार ‘सुभाष घीसिंग’ का नाम ‘सुभाष घीसिंह’ लिख दिया था और ‘नाइहिलिज्म’ के लिये ब्रैकेट में लिखे ‘शून्यवाद’ को ‘शूनयावाडा’ लिख दिया था! सामान्यज्ञान की कमी और सीखने की इच्छा के अभाव में ऐसे होता है। कहने का मतलब कि भाषा को उसके मुहावरे में ही उसकी सूक्ष्मता के साथ ही पकड़ना पड़ता है। ऐसा नहीं होगा तो पीटीआइ भाषा के एक साथी की तरह ‘स्लीपर्स वर वाश्ड अवे’ का अनुवाद ‘सोने वाले बह गये’ ही होगा, जबकि होना चाहिये था ‘लकडी के कुंदे बह गये’। इसी प्रकार यूनिवार्ता के एक वरिष्ठ ने लिखा कि ‘उत्तरी अफ्रीका के फार-फ्लंग इलाके में बम बरसाए गये’ जबकि होना चाहिये था ‘उत्तरी अफ्रीका के दूर-दराज़ इलाके में बम गिराए गये’।
अनुवाद को कतई मेकैनिकल नहीं बनाया जा सकता। हर भाषा का अपना मुहावरा होता है जो दूसरी भाषा में जाकर बदल जाता है। उदाहरण के लिये अंग्रेज़ी मुहावरे ‘द लौंग एंड द शॉर्ट ऑव इट’ का हिंदी अनुवाद ‘इसका लम्बा और छोटा’ न होकर ‘सार-संक्षेप में’ होगा ! इसी प्रकार, ‘ही हैज टू मैनी आइरन्स इन द फायर’ का अर्थ ‘उसने आग में अनेक छडें रखी हैं’ न होकर ‘वह एक ही समय में अनेक कार्यों में लगा है’ होगा। कहने का मतलब कि एक भाषा के मुहावरे का अर्थ दूसरी भाषा में शाब्दिक नहीं हो सकता है! पत्रकारिता में रिपोर्टिंग करते समय भी यह ध्यान रखा जाना आवश्यक है!
पत्रकारिता में किसी न किसी स्तर पर अनुवाद की आवश्यकता पडती ही है। इस प्रकार अनुवाद पत्रकारिता का अभिन्न अंग है। यदि कोई हिंदी भाषी नेता के भाषण की रिपोर्टिंग किसी अंग्रेजी समाचारपत्र के संवाददाता को करनी हो तो उसका गुजारा अनुवाद के बिना नहीं चल सकता है। और जब किसी विदेशी रिपोर्टर को अंग्रेजी के अलावा किसी अन्य भाषा में अपनी रिपोर्ट भेजनी हो तो हो सकता है कि वह हिंदी में दिए गए मूल भाषण के बजाय उसके अंग्रेजी अनुवाद पर निर्भर रहता हो ! संक्षेप में, भाषा की संवेदनशीलता को बनाए रखने का सवाल अहम है!
इसी प्रकार, हर समाचार एजेंसी अपने-अपने ढंग, अपनी-अपनी विचारधारा और प्रतिबद्धता के अनुसार समाचार लिखती और प्रेषित करती है। उदाहरण के लिये एक ही समाचार को एसोसिएटेड प्रेस (एपी), रॉयटर, शिन्हुआ, आइपीएस, यूएनआइ, एएफपी अपने-अपने ढंग से लिखेंगी। जब मैं यूनिवार्ता में था तब हमारी एजेंसी का गठजोड़ एपी और एएफपी समाचार एजेंसियों से था लेकिन उनके समाचार हमारे अखबारों के अनुकूल कम ही होते थे। लिहाजा, हम लोग पूरा समाचार पढ़ने के बाद उसे अपने सरोकारों और परिस्थितियों के हिसाब से लिखते थे। ऐसा इसलिए करना पडता था क्योंकि भाषा की संवेदनशीलता और सेंसिबिलिटी को मेनटेन करने के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा के मुहावरों को भी सही परिप्रेक्ष्य में हिंदी में रखना पडता था।
संक्षेप में, पत्रकारिता में सटीक अनुवाद, सही मुहावरों, उचित भाषा-विन्यास, नये जीवंत शब्दों, और मूल भाषा के शब्दों को अपनी भाषा में ठीक से उतारने का हुनर होना आवश्यक है! (जनमीडिया के अंक-14, 2013 में प्रकाशित लेख)
सुरेश नौटियाल ने 1984 में पत्रकार के रूप में जार्ज फर्नांडिस द्वारा संपादित हिंदी साप्ताहिक “प्रतिपक्ष” से कैरियर आरंभ और अगले साल के आरंभ में इस पत्र से त्यागपत्र दिया। 1985 में दूरदर्शन समाचार में अतिथि संपादक के रूप में कार्य आरंभ और करीब 24 वर्ष यह काम किया। साथ ही, आठ-दस साल आकाशवाणी के हिंदी समाचार विभाग में भे अतिथि संपादक के रूप में कार्य किया। 1985 में ही “यूनीवार्ता” हिंदी समाचार एजेंसी में प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में कार्य आरंभ और 1993 में वरिष्ठ उप–संपादक पद से स्वेच्छा से त्यागपत्र दिया। 1994 में अंग्रेज़ी दैनिक “ऑब्ज़र्वर ऑफ बिजनेस एंड पालिटिक्स” संवाददाता के रूप में ज्वाइन किया और जनवरी 2001 में विशेष संवाददाता के रूप में त्यागपत्र दिया। 2001 अक्तूबर में “अमर उजाला” हिंदी दैनिक पत्र विशेष संवाददाता के रूप में ज्वाइन किया और अगले वर्ष जनवरी में छोड़ दिया। 2002 सितंबर से 2005 जून तक सी।एस।डी।एस। के एक प्रोजेक्ट में समन्वयक के साथ-साथ संपादक रहे। 2002 से 2012 तक स्वयं का हिंदी पाक्षिक पत्र “उत्तराखंड प्रभात” भी प्रकाशित किया। 2005 जुलाई से 2006 जनवरी तक सिटीजंस ग्लोबल प्लेटफ़ार्म का समन्वयक और संपादक रहे। 2006 मई से 2009 मार्च तक अंग्रेज़ी पत्रिका “काम्बैट ला” का सीनियर एसोसिएट एडीटर रहे और साथ ही इस पत्रिका के हिंदी संस्करण का कार्यकारी संपादक भी रहे।
2001 से निरंतर पी।आई।बी। (भारत सरकार) से मान्यताप्राप्त स्वतंत्र पत्रकार। 1985 से लेकर अब तक हिंदी-अंग्रेज़ी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीति, पारिस्थितिकी, मानवाधिकार, सिनेमा सहित विभिन्न विषयों पर लेखन जारी।
सुरेश अनेक इंटरनेशनल संस्थाओं से जुड़े हैं। वे डेमोक्रेसी इंटरनेशनल, जर्मनी के बोर्ड मेम्बर हैं। ब्रुसेल्स स्थित ग्लोबल ग्रीन के सदस्य हैं। वे थिंक डेमोक्रेसी इंडिया के चेयरपर्सन भी हैं। स्वीडन स्थित फोरम फॉर मॉडर्न डायरेक्ट डेमोक्रेसी से भी जुड़े हैं।
सुरेश पत्रकार के अलावा एक आदर्शवादी एक्टिविस्ट भी हैं जो इससे जाहिर है की वे किस तरह से नौकरियां ज्वाइन करते रहे और छोड़ते रहे पर समझौता नहीं किया।