लेखक : डॉ. रवीन्द्र अग्निहोत्री
सम्पर्क : 15, डोरसेटड्राइव, अल्फ्रेडटन, बेलारेट, विक्टोरिया 3350 आस्ट्रेलिया
ईमेल : agnihotriravindra@yahoo.com
अपनी वर्तमान शिक्षा की जिन बातों को लेकर समाज में असंतोष है उनमें से एक है "शिक्षा के माध्यम" के रूप में अंग्रेजी का बढ़ता प्रयोग. एक विषय के रूप में अंग्रेजी की आवश्यकता के प्रति तो राजा राम मोहन राय जैसे नेता ही जागरूक कर चुके थे, जिसने कहीं-कहीं माध्यम का रूप भी ले लिया था, फिर भी अंग्रेजी का शिक्षा के माध्यम के रूप में अधिकृत और व्यवस्थित प्रयोग लार्ड मैकाले के उस विवरण पत्र (1835) का परिणाम था जो उसने ब्रिटेन की संसद के नए आज्ञा-पत्र (चार्टर 1833) को व्यावहारिक रूप देने के लिए तैयार किया था. आज्ञा-पत्र को अंतिम रूप देने से पहले ही ईस्ट इंडिया कंपनी के डायरेक्टरों ने अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए 5 सितम्बर 1827 को गवर्नर जनरल को पत्र में लिखा कि शिक्षा के लिए निर्धारित धन उच्च और मध्य वर्ग के ऐसे भारतीयों की शिक्षा पर ही खर्च किया जाए जो हमारे शासन के लिए "एजेंट" का काम करें. उस समय स्कूल चलाने वाले प्राय: तीन तरह के लोग थे :
1. कंपनी के कर्मचारी/व्यापारी, जो अपने बच्चों के लिए इंग्लैंड के स्कूलों जैसी शिक्षा देना चाहते थे.
2. ईसाई मिशनरी जो मुख्य रूप से ईसाई धर्म की शिक्षा देते थे. मिशनरियां धर्म प्रचार का काम सामान्यतया समाज के निर्धन लोगों के बीच करती थीं. अत: वे अपनी शिक्षा में किसी व्यवसाय की शिक्षा भी शामिल करते थे ताकि धर्मान्तरित लोगों का आर्थिक स्तर सुधर सके, और
3. भारतीय जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों थे जिनमें से क्रमश: पाठशाला/आश्रम, मकतब/मदरसे वाली शिक्षा देना चाहते थे।
यों तो इन सभी की नज़र उक्त राशि पर लगी हुई थी, पर ईसाई मिशनरी इस पर अपना विशेषाधिकार समझते थे.
मैकाले के सम्बन्ध में यह जान लेना उपयोगी होगा कि जब ब्रिटिश पार्लियामेंट ने "गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1833" पास किया तो मैकाले को गवर्नर जनरल काउन्सिल (जिसे सुप्रीम काउन्सिल ऑफ़ इंडिया कहते थे) का विधि सदस्य (law member) नियुक्त किया. अत: मैकाले 1834 में भारत आया. यहाँ उसे "कमेटी ऑफ़ पब्लिक इंस्ट्रक्शन" का अध्यक्ष भी बनाया गया. इस कमेटी में दस सदस्य थे जिनमें से आधे सदस्य तो संस्कृत, फारसी, अरबी की शिक्षा जारी रखने के समर्थक थे, पर शेष आधे अंग्रेजी की और यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने के पक्ष में थे. इस विवाद को समाप्त कंपनी के कर्मचारी और करने और कंपनी के डायरेक्टरों की इच्छा को लागू करने की दृष्टि से मैकाले ने अपने विवरण-पत्र में तीन नीतिगत बातें कहीं :
1. हमें अपना राज्य सुदृढ़ करने के लिए ऐसे लोग चाहिए जो रक्त और रंग में तो भारतीय हों, पर रुचियों में, दृष्टिकोण में, नैतिकता में और बुद्धि में अँगरेज़ हों. ऐसे लोग तभी तैयार किए जा सकते हैं जब उन्हें यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा दी जाए. अत: हमें यह राशि "यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान" (इसी को अब हम लोग "आधुनिक ज्ञान-विज्ञान" कहने लगे हैं) के प्रसार पर खर्च करनी चाहिए.
2. इसके लिए अंग्रेजी को ही शिक्षा का माध्यम बनाना होगा क्योंकि भारतीय भाषाएँ इतनी अविकसित और गंवारू हैं कि उन्हें यूरोपीय भाषाओं से संपन्न किए बिना उनमें यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान का अनुवाद तक संभव नहीं.
3. यह शिक्षा सबको नहीं, समाज के केवल विशिष्ट वर्ग को देनी चाहिए. यह विशिष्ट वर्ग ही इस ज्ञान-विज्ञान का प्रसार देश के अन्य लोगों में देशी भाषाओं के माध्यम से (कृपया इन शब्दों पर ध्यान दें, "देशी भाषाओं के माध्यम से") कर लेगा. इसे ही शिक्षा-शास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली में "अधोमुखी निस्यन्दन सिद्धांत (downward filtration theory)" कहते हैं. मैकाले के निम्नलिखित शब्द ध्यान देने योग्य हैं
शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग अंग्रेजी शासन-काल में ही स्वयं मैकाले की दृष्टि में कोई "स्थायी व्यवस्था" नहीं, केवल "तात्कालिक अस्थायी व्यवस्था" थी क्योंकि मैकाले का अंतिम उद्देश्य सामान्य जनता में यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान का प्रसार "देशी भाषाओं के माध्यम" से करना था, पर हमने "स्वतंत्र भारत" में अंग्रेजी माध्यम को ही "स्थायी व्यवस्था" बना दिया. तो अस्थायी व्यवस्था को स्थायी बनाने का अपराधी कौन है? मैकाले या हम?
गवर्नर जनरल बेंटिंक ने इस विवरण पत्र को स्वीकार कर लिया. साथ ही, अंग्रेजी शिक्षा के प्रति भारतीयों को आकर्षित करने, कंपनी के माल की बिक्री बढ़ाने तथा कंपनी का व्यय कम करने की दृष्टि से उसने कंपनी की सरकारी नौकरी में अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीयों को कम वेतन पर ऊँचे पद देने शुरू कर दिए. पुर्तगाली, फ्रांसीसी, डच और अँगरेज़ इस देश के उद्योग-धंधों को जिस तरह नष्ट कर चुके थे और परिणामस्वरुप अर्थ व्यवस्था की जो दुर्दशा हो चुकी थी (उक्त यूरोपीय जातियों के आने से पहले इस देश की जो आर्थिक स्थिति थी, विश्व व्यापार में उसका जो स्थान था और इन जातियों ने जिस तरह से उस सबको नष्ट किया - उसका विस्तार से अध्ययन सुन्दर लाल की "भारत में अंग्रेजी राज", रमेश चन्द्र दत्त आई.सी.एस. की "भारत का आर्थिक इतिहास", सुरेन्द्र नाथ गुप्त की "सोने की चिड़िया और लुटेरे अंग्रेज़" जैसी पुस्तकों में किया जा सकता है), उसके परिप्रेक्ष्य में नौकरी का आकर्षण अत्यंत स्वाभाविक ही था. अत: भारत के विशाल मध्यम वर्ग में अंग्रेजी शिक्षा की मांग बढ़ने लगी. शायद इसीलिए मैकाले के विवरण-पत्र को कुछ शिक्षा-शास्त्री "मील का पत्थर" कहते हैं, तो कुछ इसे "खतरनाक रपटीला मोड़" बताते हैं.
आर्थिक दृष्टि से जर्जर होते समाज में हमें अंग्रेजी कल्पवृक्ष की सुखद छाया जैसी प्रतीत हुई जहाँ सरकारी नौकरी के सारे ऐशो- आराम तुरंत मिल सकते थे.
इस विवरण से यह तो स्पष्ट ही है कि भारत में शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग अंग्रेजी शासन-काल में ही स्वयं मैकाले की दृष्टि में कोई "स्थायी व्यवस्था" नहीं, केवल "तात्कालिक अस्थायी व्यवस्था" थी क्योंकि मैकाले का अंतिम उद्देश्य सामान्य जनता में यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान का प्रसार "देशी भाषाओं के माध्यम" से करना था, पर हमने "स्वतंत्र भारत" में अंग्रेजी माध्यम को ही "स्थायी व्यवस्था" बना दिया. तो अस्थायी व्यवस्था को स्थायी बनाने का अपराधी कौन है? मैकाले या हम? हमने तो जापान, कोरिया, चीन जैसे देशों तक से कुछ सीखने का प्रयास नहीं किया जिन्होंने यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान पहले यूरोपीय भाषाओं में सीखा अवश्य, पर फिर उसे अपनी भाषाओं के माध्यम से अपने देश में फैलाकर विश्व के प्रमुख देशों में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया. जापान ने जब 19वीं शताब्दी के अंत में अपनी शिक्षा को नई चाल में ढालने का प्रयास किया तो अनेक युवाओं को पढ़ने के लिए यूरोप-अमरीका भेजा, जिन्होंने वापस आकर उस ज्ञान को अपने देश में जापानी भाषा के माध्यम से ही फैलाया. ज्ञान-विज्ञान का माध्यम जब कोई विदेशी भाषा होती है तो उसके तमाम शब्द हमें रटने पड़ते हैं क्योंकि उनके अर्थ हम नहीं समझते. इसके विपरीत अपनी भाषा के शब्दों के अर्थ में एक पारदर्शिता होती है. जैसे, अंग्रेजी का "affidavit" तो हम रटते हैं, पर उसके लिए हिंदी शब्द "शपथ पत्र" का अर्थ अपने आप में स्पष्ट हो जाता है. यही कारण है कि जापानियों ने यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान के लिए अपने शब्द बनाकर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान अपने देशवासियों के लिए बोधगम्य बना दिया. जैसे, "बैरोमीटर" को वे sei-u-kei (धूप-वर्षा मापक), या "एस्बेस्टस" को द्मड्ढत्त्त् -थ्र्ड्ढद (पत्थर की रुई) कहते हैं. जापान जैसे देशों की प्रगति का यह मूल रहस्य है. मैकाले और बेंटिंक की उन नीतियों का ही यह परिणाम है कि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के बाद हम सामान्यतया रक्त और रंग से ही "भारतीय" बचे रह जाते हैं, रुचियों और दृष्टिकोण से नहीं. तभी तो हमारे लिए ज्ञान-विज्ञान का अर्थ और इतिहास "यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान" से ही शुरू होता है और वहीं खत्म. मैकाले विशिष्ट वर्ग को ही शिक्षा देना चाहता था, हम स्वतंत्र होने और देश पर "जनतंत्र" का लेबल लगाने के बाद भी शिक्षा की ऐसी ही योजनाएँ बनाते हैं जिनसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा विशिष्ट वर्ग के लिए ही आरक्षित रहे. जिन "अविकसित और गंवारू" भारतीय भाषाओं को विकसित करने की ज़िम्मेदारी मैकाले ने हम पर डाली थी, हमने केवल उस ज़िम्मेदारी से नहीं, उन भाषाओं से भी अपना नाता तोड़ लिया है. मैकाले-बेंटिंग की नीतियों के हमने नए-नए आयाम ढूंढ लिए हैं. उन्होंने अंग्रेजी को "यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करने का साधन" बताया था, हमने उसे "सरकारी नौकरी का लाइसेंस" मानकर अपनाया. आर्थिक दृष्टि से जर्जर होते समाज में हमें अंग्रेजी कल्पवृक्ष की सुखद छाया जैसी प्रतीत हुई जहाँ सरकारी नौकरी के सारे ऐशो-आराम तुरंत मिल सकते थे. परिणाम यह हुआ कि "अंग्रेजी" तो देश के कोने- कोने में फैल गई, पर "ज्ञान-विज्ञान" लुप्त हो गया. यही कारण है कि आधुनिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति भी आज तक अज्ञान, अविद्या, अंधविश्वास की उन्हीं अंधी गलियों में भटक रहा है जिनमें आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से अनभिज्ञ व्यक्ति भटकता रहता है. अंग्रेजी पढ़ा सामान्य व्यक्ति ही नहीं, विज्ञान का प्रोफ़ेसर, डॉक्टर, इंजीनियर भी किन्हीं अदृश्य शक्तियों से इतना अधिक आतंकित है कि अपने नए मकान की रक्षा के लिए मकान पर काली हांडी लटकाना आवश्यक मानता है. अपनी रक्षा के लिए हाथ की अँगुलियों में रंग-बिरंगे पत्थरों वाली अंगूठियाँ पहनता है. भौगोलिक तथ्यों को जानते हुए भी सूर्य/चन्द्र ग्रहण के अवसर पर देवताओं को संकट से उबारने के लिए स्नान-ध्यान-पूजा-पाठ करता है. "पंडितों" को खाना खिलाकर अपने "स्वर्गस्थ" पितरों का पेट भरता है. ऐसी ही मानसिकता के कारण वह तो कंप्यूटर का उपयोग भी "जन्मपत्री" तैयार करने के लिए करता है. जो अंग्रेजी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की वाहिका बताई गई थी, उसका हमने ज्ञान-विज्ञान से तो सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया, पर रुचियों में अँगरेज़ होने का प्रमाण देते हुए अंग्रेजी को पूरी श्रद्धा से इस तरह अपना लिया कि केवल नौकरी के काम नहीं, बल्कि अपने निजी और सामाजिक जीवन के छोटे-बड़े काम भी उसी भाषा में करने लगे. हम तो उसे मंदिर की देवी मानकर उसकी पूजा करने लगे हैं. तभी तो विवाह जैसे जीवन के अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवसर के निमंत्रण पत्र हों या दीपावली, नव वर्ष, विवाह की वर्षगांठ, जन्मदिवस जैसे अवसरों के शुभकामना सन्देश, घर के दरवाजे पर लगने वाला नामपट हो या दुकान पर लगने वाला बोर्ड, छोटी-मोटी गोष्ठी में बात करनी हो या संसद में चर्चा, हिंदी फिल्मों/नाटकों के पुरस्कार वितरण समारोह हों या संगीत आदि के कार्यक्रम - हम सभी काम अंग्रेजी में करते हैं. अब तो धार्मिक प्रवचन भी हम अंग्रेजी में करने लगे हैं. जहाँ तक नौकरी का संबंध है, पहले वह सरकारी क्षेत्र में ही अंग्रेजी के माध्यम से मिलती थी, पर कालांतर में निजी क्षेत्र को भी सरकार का अनुसरण करना पड़ा. इसके बावजूद लोगों का विश्वास था कि स्वतंत्रता मिलने पर स्थिति अवश्य बदलेगी. इस विश्वास का ही परिणाम था कि जब देश को आज़ादी मिलनी निश्चित हो गई, तो प्रसिद्ध उद्योगपति टाटा ने मुंबई में अपने वरिष्ठ अधिकारियों को हिंदी सिखाने की व्यवस्था की; पर जब संविधान-सभा ने अंग्रेजी जारी रखने का निश्चय कर लिया तो टाटा ने भी हिन्दी सिखाने की व्यवस्था समाप्त कर दी. संविधान-सभा के निर्णय ने सामान्यजन को यह स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया कि देश भले ही स्वतंत्र हो गया हो, अगर सम्मान के साथ जीना है तो अंग्रेजी की ऑक्सीजन पर ही जीना होगा क्योंकि देश अंग्रेजों के शासन से ही आज़ाद हुआ है, अंग्रेजी के शासन से नहीं.
आज नौकरी मिले या न मिले, पर अंग्रेजी के चक्कर में हम "शिक्षा का अर्थ और उसका उद्देश्य" जैसी सब बातें भूल चुके हैं. शिक्षा-शास्त्री पुकार-पुकार कर कहते आ रहे हैं कि बच्चे के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावात्मक आदि सभी प्रकार के विकास के लिए मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से शिक्षा देना अनिवार्य है. चाहे ब्रिटिश काल के हंटर कमीशन (1882), सैडलर कमीशन (1917) आदि हों या स्वतंत्र भारत के राधाकृष्णन कमीशन (1948), मुदालिअर कमीशन (1952), कोठारी कमीशन (1964) आदि हों, शिक्षा सम्बन्धी सभी आयोगों ने एक स्वर से यही सिफारिश की है कि माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा (जो जीविकोपार्जन हेतु स्वत: पूर्ण भी हो) अनिवार्य रूप से मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा के ही माध्यम से देनी चाहिए, पर हमारा अंग्रेजी-प्रेम इन बातों को सुनना ही नहीं चाहता. कहा ही गया है कि प्रेम अंधा-बहरा होता है. परिणाम यह हुआ है कि अंग्रेजी माध्यम की जो परम्परा ज्ञान-विज्ञान की खोज के लिए समर्पित विश्वविद्यालयों से शुरू हुई थी, वह धीरे-धीरे माध्यमिक और प्राथमिक से होते हुए अब नर्सरी - प्रि-नर्सरी स्कूलों से भी आगे बढ़कर घरों में घुस आई है जहाँ दुध-मुँहे बच्चों की भाषा सीखने की शुरुआत hand, finger, eyes, ear, nose, से और गिनती की शुरुआत one, two... से होने लगी है. अभी तक हम यही सोचते थे कि इस प्रकार अंग्रेजी माध्यम का प्रयोग शिक्षा सम्बन्धी सभी आयोगों की सिफारिशों के विपरीत है, पर अब तो अंग्रेजी प्रेमियों के प्रवक्ता बनकर हमारे स्वतंत्र भारत के "Knowledge Commission' (पाठक क्षमा करें, पर डर है कि कहीं इसे देवनागरी लिपि में लिखना या हिंदी में "ज्ञान आयोग" कहना इसका अपमान न हो जाए) के चेयरमैन मि. सैम पित्रोदा ने स्पष्ट सिफारिश की है कि पूरे देश में हर प्रकार की शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही होना चाहिए. सैम पित्रोदा और उन जैसे "विद्वानों" ने मान लिया है कि शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग ही आज अलादीन का वह जादुई चिराग है जो शिक्षा के प्रसार की कमी, शिक्षा की गिरती गुणवत्ता, बेरोज़गारी आदि तरह- तरह की सभी समस्याओं को हल करके हमारी सभी मनोकामनाएं पूर्ण कर सकता है.
लोगों ने मान लिया है कि अंग्रेजी माध्यम से दी गई शिक्षा की गुणवत्ता उच्च स्तर की, और भारतीय भाषा माध्यम की निम्नस्तर की होती है. विभिन्न बोर्डों की परीक्षाओं में या अखिल भारतीय प्रतियोगी परीक्षाओं में जब कभी भारतीय भाषा माध्यम के बच्चे "टाप" करते हैं तो दिलजले लोग उसे "अंधे के हाथ बटेर" कह देते हैं. वे इसे मातृभाषा का प्रभाव मानने को तैयार ही नहीं. उनकी इस मानसिकता के कारण देश के सीमित संसाधन और अमूल्य शक्ति गाँव-गाँव में तथाकथित इंग्लिश मीडियम के स्कूल खोलने में नष्ट हो रही है.
लोग बड़े आग्रहपूर्वक कहते हैं कि आज के युग में अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है. उनके इस कथन से असहमति का तो प्रश्न ही नहीं, क्योंकि कतिपय कामों के लिए अंग्रेजी का ज्ञान वास्तव में आवश्यक हो गया है, पर इस तथ्य की उपेक्षा कैसे कर दी जाए कि "अंग्रेजी की शिक्षा" और "अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा" एक दूसरे के पर्याय नहीं हैं. आज के युग में अंग्रेजी का ज्ञान केवल हमारे लिए नहीं, विश्व के अन्य लोगों के लिए भी आवश्यक है. इसीलिए रूसी, चीनी, जापानी, फ्रांसीसी, जर्मन, स्पेनिश आदि वे लोग भी अंग्रेजी का अध्ययन कर रहे हैं जिनकी मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है, पर वे अपनी सारी शिक्षा की व्यवस्था "अंग्रेजी माध्यम से" नहीं करते. आज विश्व में केवल आर्थिक नहीं, अन्य भी अनेक दृष्टियों से जो स्थान जापान, कोरिया, चीन आदि देशों का है, हमारा देश उनसे हर क्षेत्र में दूर, बहुत दूर, बहुत ही दूर केवल इसलिए है क्योंकि हमने अपने बच्चों के विकास के मार्ग में अंग्रेजी माध्यम की दीवार खड़ी कर रखी है. इस सच्चाई को हम जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही अच्छा है.
अपने अंग्रेजी-प्रेम के कारण हम भावी पीढ़ी के प्रति अनेक "अपराध" करते आ रहे हैं . हम यह भूल गए हैं कि जहाँ तक भाषा सीखने का प्रश्न है वह कक्षा-कक्ष में कम, "विशिष्ट भाषायी परिवेश" में अधिक सीखी जाती है. बच्चा स्कूल में अंग्रेजी "पढ़कर" आता है, पर उस पढ़े हुए को "सीखने" के लिए उसे अंग्रेजी का परिवेश मिलता ही नहीं. जो परिवेश मिलता है वह या तो पूरी तरह मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा का होता है, या फिर मिश्रित. अत: बच्चे का अंग्रेजी पर अपेक्षित अधिकार हो ही नहीं पाता. हमारी आज की फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन की पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में हुई. उनके पिता डॉ. हरिवंश राय "बच्चन" अंग्रेजी के ही एम.ए. थे, पी-एच.डी. थे, और वह भी इंग्लैंड से. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के ही शिक्षक थे. माँ तेजी बच्चन भी अंग्रेजी की ही एम.ए. थीं और अपने समय के अंग्रेजी के अप्रतिम विद्वान् प्रो. अमरनाथ झा की शिष्या थीं. दूसरे शब्दों में, अमिताभ को विद्यालयी और पारिवारिक दोनों ही प्रकार के परिवेश अंग्रेजी सीखने की दृष्टि से अनुकूलतम मिले. इसके बावजूद उनका अंग्रेजी पर अपेक्षित अधिकार नहीं हो पाया. अपने "ब्लॉग" में उन्होंने लिखा है कि मैं अंग्रेजी व्याकरण में कमजोर था. इसलिए सेंट स्टीफन कॉलेज (दिल्ली) के प्रिंसिपल के कहने के बावजूद बी.ए. (आनर्स) अंग्रेजी में नहीं किया (राष्ट्रीय सहारा, दिल्ली, 11 अगस्त, 2009, पृष्ठ 15). हर बच्चे को तो वैसा भी पारिवारिक परिवेश नहीं मिल सकता जैसा अमिताभ को मिला. अत: सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इन बच्चों को अंग्रेजी पर आधा-अधूरा अधिकार पाने के लिए भी कितना संघर्ष करना पड़ता होगा और उसके बाद भी इस पीड़ा को जन्म भर ढोना पड़ता होगा कि मुझे ठीक से अंग्रेजी नहीं आती. सैम पित्रौदा तो अमरीका में बस चुके हैं, उन्होंने वहां अध्ययन भी किया है, पर इस देश का हर बच्चा न विदेश जा सकता है न वहां अध्ययन कर सकता है.
विश्व में केवल आर्थिक नहीं, अन्य भी अनेक दृष्टियों से जो स्थान जापान, कोरिया, चीन आदि देशों का है, हमारा देश उनसे हर क्षेत्र में दूर, बहुत ही दूर केवल इसलिए है क्योंकि हमने अपने बच्चों के विकास के मार्ग में अंग्रेजी माध्यम की दीवार खड़ी कर रखी है.
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स्वतंत्र भारत में शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग देश को दो भागों में बाँट रहा है - "इंडिया" और "भारत". महात्मा गाँधी ने जो बात राजभाषा के सन्दर्भ में कही थी, आज वह शिक्षा के माध्यम के बारे में भी उतनी ही सही है.
हमने मनोवैज्ञानिकों की बताई इस बात को भी भुला दिया है कि बाल्यावस्था में भाषा सीखने का अर्थ केवल कुछ शब्द रट लेना नहीं है. बाल्यावस्था में तो भाषा के माध्यम से बच्चे के मन में "संकल्पनाओं" के निर्माण की, "अमूर्तीकरण" की प्रक्रिया शुरू होती है जो उसके मानसिक विकास का, चिंतन और विचार करने का अर्थात् भावी जीवन का आधार होती है, नींव होती है. अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा के कारण बच्चों में यह प्रक्रिया बाधित होती है. इसी तथ्य को ध्यान में रखकर राष्ट्रपिता ने कहा था, ""अगर हम अंग्रेजी के आदी नहीं हो गए होते तो यह समझने में हमें देर नहीं लगती कि अंग्रेजी के शिक्षा के माध्यम होने से हमारी बौद्धिक चेतना जीवन से कटकर दूर हो गई है, हम अपनी जनता से अलग हो गए हैं."" अंग्रेजी के कारण जनता से अलग होने का ही एक उदाहरण है भोपाल गैस दुर्घटना जैसी त्रासदी से पीड़ित जनता के दर्द को महसूस करने के बजाय हमारे नेताओं का पीड़ा देने वाले लोगों को बचाने का भरसक प्रयास करना या जनता के खून- पसीने की कमाई "चुराकर" विदेशों में अपने नाम से जमा करना.
इस वास्तविकता की भी हमने पूरी तरह उपेक्षा कर दी है कि हर सामान्य बच्चे में मातृभाषा (प्रथम भाषा) सीखने की जैसी क्षमता जन्मजात होती है वैसी दूसरी, तीसरी, चौथी... भाषा सीखने की नहीं होती. हमने तो अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा की व्यवस्था करके हर बच्चे पर यह जिम्मेदारी डाल दी है कि अंग्रेजी पर मातृभाषा जैसा अधिकार अर्जित करो. इसमें असफल रहने पर हम बच्चे को "पिछड़ा हुआ", "फिसड्डी", "नालायक", "अयोग्य", "मंद बुद्धि" घोषित कर देते हैं. लगभग चार दशक पूर्व जब मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक था, तब मैंने एक शोध के माध्यम से कतिपय माध्यमिक शिक्षा बोर्डों के पाठ्यक्रमों/परीक्षा परिणामों का विस्तृत अध्ययन किया था जिसके निष्कर्ष विभिन्न शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए थे. उस समय कई बोर्डों में अंग्रेजी के दो कोर्स थे - अनिवार्य अंग्रेजी (सबके लिए) और वैकल्पिक अंग्रेजी (जो स्वेच्छा से इसे पढ़ना चाहें उनके लिए). अनिवार्य अंग्रेजी का परीक्षा परिणाम जहाँ 45 से 58 प्रतिशत तक रहा, वहीं वैकल्पिक अंग्रेजी का 88 से 97 प्रतिशत तक रहा. परीक्षा परिणाम के इस अंतर के कारणों का विश्लेषण करने पर ध्यान गया कि वैकल्पिक अंग्रेजी का अध्ययन वही करता है जो इसका लाभ अपने भावी जीवन में देख रहा है, इसलिए जिसकी रुचि इस भाषा के सीखने में है और जिसे इसके लिए सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं. इसके विपरीत अनिवार्य अंग्रेजी का अध्ययन रुचिशील-अरुचिशील, सामर्थ्यवान-सामर्थ्यहीन, सुविधा प्राप्त- सुविधाहीन सभी को विवशता में करना पड़ता है. यही कारण है कि अनिवार्य अंग्रेजी का परीक्षा परिणाम अनिवार्य गणित (58-79 प्रतिशत) और अनिवार्य सामान्य विज्ञान (62-75 प्रतिशत) तक से कम रहा, जबकि गणित और विज्ञान कोई सरल विषय नहीं. जरा विचार कीजिए कि जब एक विषय के रूप में अंग्रेजी की अनिवार्यता लगभग आधे बच्चों को असफल रहने के लिए मजबूर कर रही है तो शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी की अनिवार्यता कितने बच्चों का भविष्य चौपट कर रही होगी - यह सहज कल्पना का विषय है या गहन अनुसन्धान का?
अगर हम चाहते हैं कि हमारे बच्चों की प्रकृति-प्रदत्त शक्तियों का अधिकाधिक विकास हो, वे अपनी सामर्थ्य के अनुरूप अधिक से अधिक योग्य बनें, देश के किसी वर्ग विशेष के नहीं, बल्कि सभी बच्चों को आगे बढ़ने का न्यायसंगत अवसर मिले ताकि पूरे देश की प्रतिभा विकसित होकर देश के विकास का साधन बने, देश के बच्चे देश पर भार नहीं, देश की सम्पदा बनें और इस देश को आगे बढ़ाएं, तो उसका सबसे पहला अनिवार्य उपाय है - शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग. स्वतंत्र भारत में शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग देश को दो भागों में बाँट रहा है - "इंडिया" और "भारत". महात्मा गाँधी ने जो बात राजभाषा के सन्दर्भ में कही थी, वह शिक्षा के माध्यम के बारे में भी उतनी ही सही है. उनके शब्द थे, ""अगर स्वराज अंग्रेजी बोलने वाले भारतीयों का और उन्हीं के लिए होने वाला है तो निस्संदेह अंग्रेजी ही राजभाषा होगी, लेकिन अगर स्वराज हमारे देश के करोड़ों भूखों मरने वालों, करोड़ों निरक्षरों, पीड़ितों और दलित जनों का भी है और इन सबके लिए होने वाला है तो हमारे देश में हिंदी ही एकमात्र राजभाषा हो सकती है."" शिक्षा के माध्यम के सन्दर्भ में और पूरे देश के सभी बच्चों के सन्दर्भ में बस इसमें "हिंदी" के स्थान पर "भारतीय भाषाएँ" शब्द रख दीजिए. राष्ट्रपिता के इन मर्मभेदी शब्दों के बाद भी क्या किसी और टिप्पणी की आवश्यकता रह जाती है?
सम्पर्क : 15, डोरसेटड्राइव, अल्फ्रेडटन, बेलारेट, विक्टोरिया 3350 आस्ट्रेलिया
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अपनी वर्तमान शिक्षा की जिन बातों को लेकर समाज में असंतोष है उनमें से एक है "शिक्षा के माध्यम" के रूप में अंग्रेजी का बढ़ता प्रयोग. एक विषय के रूप में अंग्रेजी की आवश्यकता के प्रति तो राजा राम मोहन राय जैसे नेता ही जागरूक कर चुके थे, जिसने कहीं-कहीं माध्यम का रूप भी ले लिया था, फिर भी अंग्रेजी का शिक्षा के माध्यम के रूप में अधिकृत और व्यवस्थित प्रयोग लार्ड मैकाले के उस विवरण पत्र (1835) का परिणाम था जो उसने ब्रिटेन की संसद के नए आज्ञा-पत्र (चार्टर 1833) को व्यावहारिक रूप देने के लिए तैयार किया था. आज्ञा-पत्र को अंतिम रूप देने से पहले ही ईस्ट इंडिया कंपनी के डायरेक्टरों ने अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए 5 सितम्बर 1827 को गवर्नर जनरल को पत्र में लिखा कि शिक्षा के लिए निर्धारित धन उच्च और मध्य वर्ग के ऐसे भारतीयों की शिक्षा पर ही खर्च किया जाए जो हमारे शासन के लिए "एजेंट" का काम करें. उस समय स्कूल चलाने वाले प्राय: तीन तरह के लोग थे :
1. कंपनी के कर्मचारी/व्यापारी, जो अपने बच्चों के लिए इंग्लैंड के स्कूलों जैसी शिक्षा देना चाहते थे.
2. ईसाई मिशनरी जो मुख्य रूप से ईसाई धर्म की शिक्षा देते थे. मिशनरियां धर्म प्रचार का काम सामान्यतया समाज के निर्धन लोगों के बीच करती थीं. अत: वे अपनी शिक्षा में किसी व्यवसाय की शिक्षा भी शामिल करते थे ताकि धर्मान्तरित लोगों का आर्थिक स्तर सुधर सके, और
3. भारतीय जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों थे जिनमें से क्रमश: पाठशाला/आश्रम, मकतब/मदरसे वाली शिक्षा देना चाहते थे।
यों तो इन सभी की नज़र उक्त राशि पर लगी हुई थी, पर ईसाई मिशनरी इस पर अपना विशेषाधिकार समझते थे.
मैकाले के सम्बन्ध में यह जान लेना उपयोगी होगा कि जब ब्रिटिश पार्लियामेंट ने "गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1833" पास किया तो मैकाले को गवर्नर जनरल काउन्सिल (जिसे सुप्रीम काउन्सिल ऑफ़ इंडिया कहते थे) का विधि सदस्य (law member) नियुक्त किया. अत: मैकाले 1834 में भारत आया. यहाँ उसे "कमेटी ऑफ़ पब्लिक इंस्ट्रक्शन" का अध्यक्ष भी बनाया गया. इस कमेटी में दस सदस्य थे जिनमें से आधे सदस्य तो संस्कृत, फारसी, अरबी की शिक्षा जारी रखने के समर्थक थे, पर शेष आधे अंग्रेजी की और यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने के पक्ष में थे. इस विवाद को समाप्त कंपनी के कर्मचारी और करने और कंपनी के डायरेक्टरों की इच्छा को लागू करने की दृष्टि से मैकाले ने अपने विवरण-पत्र में तीन नीतिगत बातें कहीं :
1. हमें अपना राज्य सुदृढ़ करने के लिए ऐसे लोग चाहिए जो रक्त और रंग में तो भारतीय हों, पर रुचियों में, दृष्टिकोण में, नैतिकता में और बुद्धि में अँगरेज़ हों. ऐसे लोग तभी तैयार किए जा सकते हैं जब उन्हें यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा दी जाए. अत: हमें यह राशि "यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान" (इसी को अब हम लोग "आधुनिक ज्ञान-विज्ञान" कहने लगे हैं) के प्रसार पर खर्च करनी चाहिए.
2. इसके लिए अंग्रेजी को ही शिक्षा का माध्यम बनाना होगा क्योंकि भारतीय भाषाएँ इतनी अविकसित और गंवारू हैं कि उन्हें यूरोपीय भाषाओं से संपन्न किए बिना उनमें यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान का अनुवाद तक संभव नहीं.
3. यह शिक्षा सबको नहीं, समाज के केवल विशिष्ट वर्ग को देनी चाहिए. यह विशिष्ट वर्ग ही इस ज्ञान-विज्ञान का प्रसार देश के अन्य लोगों में देशी भाषाओं के माध्यम से (कृपया इन शब्दों पर ध्यान दें, "देशी भाषाओं के माध्यम से") कर लेगा. इसे ही शिक्षा-शास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली में "अधोमुखी निस्यन्दन सिद्धांत (downward filtration theory)" कहते हैं. मैकाले के निम्नलिखित शब्द ध्यान देने योग्य हैं
- "We must at present do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern… a class of persons Indian in blood and colour , but English in tastes, in opinions, in morals and in intellect. To that class we may leave it to refine the vernacular dialects of the country, to enrich those dialects with terms of science borrowed from western nomenclature, and to render them by degrees fit vehicles for conveying knowledge to the great mass of the population.” (Selections from Educational Records, Part-1, Edited by H. Sharp; Reprint Delhi : National Archives of India, 1965, Pages 107 – 117 )
शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग अंग्रेजी शासन-काल में ही स्वयं मैकाले की दृष्टि में कोई "स्थायी व्यवस्था" नहीं, केवल "तात्कालिक अस्थायी व्यवस्था" थी क्योंकि मैकाले का अंतिम उद्देश्य सामान्य जनता में यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान का प्रसार "देशी भाषाओं के माध्यम" से करना था, पर हमने "स्वतंत्र भारत" में अंग्रेजी माध्यम को ही "स्थायी व्यवस्था" बना दिया. तो अस्थायी व्यवस्था को स्थायी बनाने का अपराधी कौन है? मैकाले या हम?
गवर्नर जनरल बेंटिंक ने इस विवरण पत्र को स्वीकार कर लिया. साथ ही, अंग्रेजी शिक्षा के प्रति भारतीयों को आकर्षित करने, कंपनी के माल की बिक्री बढ़ाने तथा कंपनी का व्यय कम करने की दृष्टि से उसने कंपनी की सरकारी नौकरी में अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीयों को कम वेतन पर ऊँचे पद देने शुरू कर दिए. पुर्तगाली, फ्रांसीसी, डच और अँगरेज़ इस देश के उद्योग-धंधों को जिस तरह नष्ट कर चुके थे और परिणामस्वरुप अर्थ व्यवस्था की जो दुर्दशा हो चुकी थी (उक्त यूरोपीय जातियों के आने से पहले इस देश की जो आर्थिक स्थिति थी, विश्व व्यापार में उसका जो स्थान था और इन जातियों ने जिस तरह से उस सबको नष्ट किया - उसका विस्तार से अध्ययन सुन्दर लाल की "भारत में अंग्रेजी राज", रमेश चन्द्र दत्त आई.सी.एस. की "भारत का आर्थिक इतिहास", सुरेन्द्र नाथ गुप्त की "सोने की चिड़िया और लुटेरे अंग्रेज़" जैसी पुस्तकों में किया जा सकता है), उसके परिप्रेक्ष्य में नौकरी का आकर्षण अत्यंत स्वाभाविक ही था. अत: भारत के विशाल मध्यम वर्ग में अंग्रेजी शिक्षा की मांग बढ़ने लगी. शायद इसीलिए मैकाले के विवरण-पत्र को कुछ शिक्षा-शास्त्री "मील का पत्थर" कहते हैं, तो कुछ इसे "खतरनाक रपटीला मोड़" बताते हैं.
आर्थिक दृष्टि से जर्जर होते समाज में हमें अंग्रेजी कल्पवृक्ष की सुखद छाया जैसी प्रतीत हुई जहाँ सरकारी नौकरी के सारे ऐशो- आराम तुरंत मिल सकते थे.
इस विवरण से यह तो स्पष्ट ही है कि भारत में शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग अंग्रेजी शासन-काल में ही स्वयं मैकाले की दृष्टि में कोई "स्थायी व्यवस्था" नहीं, केवल "तात्कालिक अस्थायी व्यवस्था" थी क्योंकि मैकाले का अंतिम उद्देश्य सामान्य जनता में यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान का प्रसार "देशी भाषाओं के माध्यम" से करना था, पर हमने "स्वतंत्र भारत" में अंग्रेजी माध्यम को ही "स्थायी व्यवस्था" बना दिया. तो अस्थायी व्यवस्था को स्थायी बनाने का अपराधी कौन है? मैकाले या हम? हमने तो जापान, कोरिया, चीन जैसे देशों तक से कुछ सीखने का प्रयास नहीं किया जिन्होंने यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान पहले यूरोपीय भाषाओं में सीखा अवश्य, पर फिर उसे अपनी भाषाओं के माध्यम से अपने देश में फैलाकर विश्व के प्रमुख देशों में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया. जापान ने जब 19वीं शताब्दी के अंत में अपनी शिक्षा को नई चाल में ढालने का प्रयास किया तो अनेक युवाओं को पढ़ने के लिए यूरोप-अमरीका भेजा, जिन्होंने वापस आकर उस ज्ञान को अपने देश में जापानी भाषा के माध्यम से ही फैलाया. ज्ञान-विज्ञान का माध्यम जब कोई विदेशी भाषा होती है तो उसके तमाम शब्द हमें रटने पड़ते हैं क्योंकि उनके अर्थ हम नहीं समझते. इसके विपरीत अपनी भाषा के शब्दों के अर्थ में एक पारदर्शिता होती है. जैसे, अंग्रेजी का "affidavit" तो हम रटते हैं, पर उसके लिए हिंदी शब्द "शपथ पत्र" का अर्थ अपने आप में स्पष्ट हो जाता है. यही कारण है कि जापानियों ने यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान के लिए अपने शब्द बनाकर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान अपने देशवासियों के लिए बोधगम्य बना दिया. जैसे, "बैरोमीटर" को वे sei-u-kei (धूप-वर्षा मापक), या "एस्बेस्टस" को द्मड्ढत्त्त् -थ्र्ड्ढद (पत्थर की रुई) कहते हैं. जापान जैसे देशों की प्रगति का यह मूल रहस्य है. मैकाले और बेंटिंक की उन नीतियों का ही यह परिणाम है कि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के बाद हम सामान्यतया रक्त और रंग से ही "भारतीय" बचे रह जाते हैं, रुचियों और दृष्टिकोण से नहीं. तभी तो हमारे लिए ज्ञान-विज्ञान का अर्थ और इतिहास "यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान" से ही शुरू होता है और वहीं खत्म. मैकाले विशिष्ट वर्ग को ही शिक्षा देना चाहता था, हम स्वतंत्र होने और देश पर "जनतंत्र" का लेबल लगाने के बाद भी शिक्षा की ऐसी ही योजनाएँ बनाते हैं जिनसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा विशिष्ट वर्ग के लिए ही आरक्षित रहे. जिन "अविकसित और गंवारू" भारतीय भाषाओं को विकसित करने की ज़िम्मेदारी मैकाले ने हम पर डाली थी, हमने केवल उस ज़िम्मेदारी से नहीं, उन भाषाओं से भी अपना नाता तोड़ लिया है. मैकाले-बेंटिंग की नीतियों के हमने नए-नए आयाम ढूंढ लिए हैं. उन्होंने अंग्रेजी को "यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करने का साधन" बताया था, हमने उसे "सरकारी नौकरी का लाइसेंस" मानकर अपनाया. आर्थिक दृष्टि से जर्जर होते समाज में हमें अंग्रेजी कल्पवृक्ष की सुखद छाया जैसी प्रतीत हुई जहाँ सरकारी नौकरी के सारे ऐशो-आराम तुरंत मिल सकते थे. परिणाम यह हुआ कि "अंग्रेजी" तो देश के कोने- कोने में फैल गई, पर "ज्ञान-विज्ञान" लुप्त हो गया. यही कारण है कि आधुनिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति भी आज तक अज्ञान, अविद्या, अंधविश्वास की उन्हीं अंधी गलियों में भटक रहा है जिनमें आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से अनभिज्ञ व्यक्ति भटकता रहता है. अंग्रेजी पढ़ा सामान्य व्यक्ति ही नहीं, विज्ञान का प्रोफ़ेसर, डॉक्टर, इंजीनियर भी किन्हीं अदृश्य शक्तियों से इतना अधिक आतंकित है कि अपने नए मकान की रक्षा के लिए मकान पर काली हांडी लटकाना आवश्यक मानता है. अपनी रक्षा के लिए हाथ की अँगुलियों में रंग-बिरंगे पत्थरों वाली अंगूठियाँ पहनता है. भौगोलिक तथ्यों को जानते हुए भी सूर्य/चन्द्र ग्रहण के अवसर पर देवताओं को संकट से उबारने के लिए स्नान-ध्यान-पूजा-पाठ करता है. "पंडितों" को खाना खिलाकर अपने "स्वर्गस्थ" पितरों का पेट भरता है. ऐसी ही मानसिकता के कारण वह तो कंप्यूटर का उपयोग भी "जन्मपत्री" तैयार करने के लिए करता है. जो अंग्रेजी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की वाहिका बताई गई थी, उसका हमने ज्ञान-विज्ञान से तो सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया, पर रुचियों में अँगरेज़ होने का प्रमाण देते हुए अंग्रेजी को पूरी श्रद्धा से इस तरह अपना लिया कि केवल नौकरी के काम नहीं, बल्कि अपने निजी और सामाजिक जीवन के छोटे-बड़े काम भी उसी भाषा में करने लगे. हम तो उसे मंदिर की देवी मानकर उसकी पूजा करने लगे हैं. तभी तो विवाह जैसे जीवन के अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवसर के निमंत्रण पत्र हों या दीपावली, नव वर्ष, विवाह की वर्षगांठ, जन्मदिवस जैसे अवसरों के शुभकामना सन्देश, घर के दरवाजे पर लगने वाला नामपट हो या दुकान पर लगने वाला बोर्ड, छोटी-मोटी गोष्ठी में बात करनी हो या संसद में चर्चा, हिंदी फिल्मों/नाटकों के पुरस्कार वितरण समारोह हों या संगीत आदि के कार्यक्रम - हम सभी काम अंग्रेजी में करते हैं. अब तो धार्मिक प्रवचन भी हम अंग्रेजी में करने लगे हैं. जहाँ तक नौकरी का संबंध है, पहले वह सरकारी क्षेत्र में ही अंग्रेजी के माध्यम से मिलती थी, पर कालांतर में निजी क्षेत्र को भी सरकार का अनुसरण करना पड़ा. इसके बावजूद लोगों का विश्वास था कि स्वतंत्रता मिलने पर स्थिति अवश्य बदलेगी. इस विश्वास का ही परिणाम था कि जब देश को आज़ादी मिलनी निश्चित हो गई, तो प्रसिद्ध उद्योगपति टाटा ने मुंबई में अपने वरिष्ठ अधिकारियों को हिंदी सिखाने की व्यवस्था की; पर जब संविधान-सभा ने अंग्रेजी जारी रखने का निश्चय कर लिया तो टाटा ने भी हिन्दी सिखाने की व्यवस्था समाप्त कर दी. संविधान-सभा के निर्णय ने सामान्यजन को यह स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया कि देश भले ही स्वतंत्र हो गया हो, अगर सम्मान के साथ जीना है तो अंग्रेजी की ऑक्सीजन पर ही जीना होगा क्योंकि देश अंग्रेजों के शासन से ही आज़ाद हुआ है, अंग्रेजी के शासन से नहीं.
आज नौकरी मिले या न मिले, पर अंग्रेजी के चक्कर में हम "शिक्षा का अर्थ और उसका उद्देश्य" जैसी सब बातें भूल चुके हैं. शिक्षा-शास्त्री पुकार-पुकार कर कहते आ रहे हैं कि बच्चे के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावात्मक आदि सभी प्रकार के विकास के लिए मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से शिक्षा देना अनिवार्य है. चाहे ब्रिटिश काल के हंटर कमीशन (1882), सैडलर कमीशन (1917) आदि हों या स्वतंत्र भारत के राधाकृष्णन कमीशन (1948), मुदालिअर कमीशन (1952), कोठारी कमीशन (1964) आदि हों, शिक्षा सम्बन्धी सभी आयोगों ने एक स्वर से यही सिफारिश की है कि माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा (जो जीविकोपार्जन हेतु स्वत: पूर्ण भी हो) अनिवार्य रूप से मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा के ही माध्यम से देनी चाहिए, पर हमारा अंग्रेजी-प्रेम इन बातों को सुनना ही नहीं चाहता. कहा ही गया है कि प्रेम अंधा-बहरा होता है. परिणाम यह हुआ है कि अंग्रेजी माध्यम की जो परम्परा ज्ञान-विज्ञान की खोज के लिए समर्पित विश्वविद्यालयों से शुरू हुई थी, वह धीरे-धीरे माध्यमिक और प्राथमिक से होते हुए अब नर्सरी - प्रि-नर्सरी स्कूलों से भी आगे बढ़कर घरों में घुस आई है जहाँ दुध-मुँहे बच्चों की भाषा सीखने की शुरुआत hand, finger, eyes, ear, nose, से और गिनती की शुरुआत one, two... से होने लगी है. अभी तक हम यही सोचते थे कि इस प्रकार अंग्रेजी माध्यम का प्रयोग शिक्षा सम्बन्धी सभी आयोगों की सिफारिशों के विपरीत है, पर अब तो अंग्रेजी प्रेमियों के प्रवक्ता बनकर हमारे स्वतंत्र भारत के "Knowledge Commission' (पाठक क्षमा करें, पर डर है कि कहीं इसे देवनागरी लिपि में लिखना या हिंदी में "ज्ञान आयोग" कहना इसका अपमान न हो जाए) के चेयरमैन मि. सैम पित्रोदा ने स्पष्ट सिफारिश की है कि पूरे देश में हर प्रकार की शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही होना चाहिए. सैम पित्रोदा और उन जैसे "विद्वानों" ने मान लिया है कि शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग ही आज अलादीन का वह जादुई चिराग है जो शिक्षा के प्रसार की कमी, शिक्षा की गिरती गुणवत्ता, बेरोज़गारी आदि तरह- तरह की सभी समस्याओं को हल करके हमारी सभी मनोकामनाएं पूर्ण कर सकता है.
लोगों ने मान लिया है कि अंग्रेजी माध्यम से दी गई शिक्षा की गुणवत्ता उच्च स्तर की, और भारतीय भाषा माध्यम की निम्नस्तर की होती है. विभिन्न बोर्डों की परीक्षाओं में या अखिल भारतीय प्रतियोगी परीक्षाओं में जब कभी भारतीय भाषा माध्यम के बच्चे "टाप" करते हैं तो दिलजले लोग उसे "अंधे के हाथ बटेर" कह देते हैं. वे इसे मातृभाषा का प्रभाव मानने को तैयार ही नहीं. उनकी इस मानसिकता के कारण देश के सीमित संसाधन और अमूल्य शक्ति गाँव-गाँव में तथाकथित इंग्लिश मीडियम के स्कूल खोलने में नष्ट हो रही है.
लोग बड़े आग्रहपूर्वक कहते हैं कि आज के युग में अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है. उनके इस कथन से असहमति का तो प्रश्न ही नहीं, क्योंकि कतिपय कामों के लिए अंग्रेजी का ज्ञान वास्तव में आवश्यक हो गया है, पर इस तथ्य की उपेक्षा कैसे कर दी जाए कि "अंग्रेजी की शिक्षा" और "अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा" एक दूसरे के पर्याय नहीं हैं. आज के युग में अंग्रेजी का ज्ञान केवल हमारे लिए नहीं, विश्व के अन्य लोगों के लिए भी आवश्यक है. इसीलिए रूसी, चीनी, जापानी, फ्रांसीसी, जर्मन, स्पेनिश आदि वे लोग भी अंग्रेजी का अध्ययन कर रहे हैं जिनकी मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है, पर वे अपनी सारी शिक्षा की व्यवस्था "अंग्रेजी माध्यम से" नहीं करते. आज विश्व में केवल आर्थिक नहीं, अन्य भी अनेक दृष्टियों से जो स्थान जापान, कोरिया, चीन आदि देशों का है, हमारा देश उनसे हर क्षेत्र में दूर, बहुत दूर, बहुत ही दूर केवल इसलिए है क्योंकि हमने अपने बच्चों के विकास के मार्ग में अंग्रेजी माध्यम की दीवार खड़ी कर रखी है. इस सच्चाई को हम जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही अच्छा है.
अपने अंग्रेजी-प्रेम के कारण हम भावी पीढ़ी के प्रति अनेक "अपराध" करते आ रहे हैं . हम यह भूल गए हैं कि जहाँ तक भाषा सीखने का प्रश्न है वह कक्षा-कक्ष में कम, "विशिष्ट भाषायी परिवेश" में अधिक सीखी जाती है. बच्चा स्कूल में अंग्रेजी "पढ़कर" आता है, पर उस पढ़े हुए को "सीखने" के लिए उसे अंग्रेजी का परिवेश मिलता ही नहीं. जो परिवेश मिलता है वह या तो पूरी तरह मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा का होता है, या फिर मिश्रित. अत: बच्चे का अंग्रेजी पर अपेक्षित अधिकार हो ही नहीं पाता. हमारी आज की फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन की पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में हुई. उनके पिता डॉ. हरिवंश राय "बच्चन" अंग्रेजी के ही एम.ए. थे, पी-एच.डी. थे, और वह भी इंग्लैंड से. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के ही शिक्षक थे. माँ तेजी बच्चन भी अंग्रेजी की ही एम.ए. थीं और अपने समय के अंग्रेजी के अप्रतिम विद्वान् प्रो. अमरनाथ झा की शिष्या थीं. दूसरे शब्दों में, अमिताभ को विद्यालयी और पारिवारिक दोनों ही प्रकार के परिवेश अंग्रेजी सीखने की दृष्टि से अनुकूलतम मिले. इसके बावजूद उनका अंग्रेजी पर अपेक्षित अधिकार नहीं हो पाया. अपने "ब्लॉग" में उन्होंने लिखा है कि मैं अंग्रेजी व्याकरण में कमजोर था. इसलिए सेंट स्टीफन कॉलेज (दिल्ली) के प्रिंसिपल के कहने के बावजूद बी.ए. (आनर्स) अंग्रेजी में नहीं किया (राष्ट्रीय सहारा, दिल्ली, 11 अगस्त, 2009, पृष्ठ 15). हर बच्चे को तो वैसा भी पारिवारिक परिवेश नहीं मिल सकता जैसा अमिताभ को मिला. अत: सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इन बच्चों को अंग्रेजी पर आधा-अधूरा अधिकार पाने के लिए भी कितना संघर्ष करना पड़ता होगा और उसके बाद भी इस पीड़ा को जन्म भर ढोना पड़ता होगा कि मुझे ठीक से अंग्रेजी नहीं आती. सैम पित्रौदा तो अमरीका में बस चुके हैं, उन्होंने वहां अध्ययन भी किया है, पर इस देश का हर बच्चा न विदेश जा सकता है न वहां अध्ययन कर सकता है.
विश्व में केवल आर्थिक नहीं, अन्य भी अनेक दृष्टियों से जो स्थान जापान, कोरिया, चीन आदि देशों का है, हमारा देश उनसे हर क्षेत्र में दूर, बहुत ही दूर केवल इसलिए है क्योंकि हमने अपने बच्चों के विकास के मार्ग में अंग्रेजी माध्यम की दीवार खड़ी कर रखी है.
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स्वतंत्र भारत में शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग देश को दो भागों में बाँट रहा है - "इंडिया" और "भारत". महात्मा गाँधी ने जो बात राजभाषा के सन्दर्भ में कही थी, आज वह शिक्षा के माध्यम के बारे में भी उतनी ही सही है.
हमने मनोवैज्ञानिकों की बताई इस बात को भी भुला दिया है कि बाल्यावस्था में भाषा सीखने का अर्थ केवल कुछ शब्द रट लेना नहीं है. बाल्यावस्था में तो भाषा के माध्यम से बच्चे के मन में "संकल्पनाओं" के निर्माण की, "अमूर्तीकरण" की प्रक्रिया शुरू होती है जो उसके मानसिक विकास का, चिंतन और विचार करने का अर्थात् भावी जीवन का आधार होती है, नींव होती है. अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा के कारण बच्चों में यह प्रक्रिया बाधित होती है. इसी तथ्य को ध्यान में रखकर राष्ट्रपिता ने कहा था, ""अगर हम अंग्रेजी के आदी नहीं हो गए होते तो यह समझने में हमें देर नहीं लगती कि अंग्रेजी के शिक्षा के माध्यम होने से हमारी बौद्धिक चेतना जीवन से कटकर दूर हो गई है, हम अपनी जनता से अलग हो गए हैं."" अंग्रेजी के कारण जनता से अलग होने का ही एक उदाहरण है भोपाल गैस दुर्घटना जैसी त्रासदी से पीड़ित जनता के दर्द को महसूस करने के बजाय हमारे नेताओं का पीड़ा देने वाले लोगों को बचाने का भरसक प्रयास करना या जनता के खून- पसीने की कमाई "चुराकर" विदेशों में अपने नाम से जमा करना.
इस वास्तविकता की भी हमने पूरी तरह उपेक्षा कर दी है कि हर सामान्य बच्चे में मातृभाषा (प्रथम भाषा) सीखने की जैसी क्षमता जन्मजात होती है वैसी दूसरी, तीसरी, चौथी... भाषा सीखने की नहीं होती. हमने तो अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा की व्यवस्था करके हर बच्चे पर यह जिम्मेदारी डाल दी है कि अंग्रेजी पर मातृभाषा जैसा अधिकार अर्जित करो. इसमें असफल रहने पर हम बच्चे को "पिछड़ा हुआ", "फिसड्डी", "नालायक", "अयोग्य", "मंद बुद्धि" घोषित कर देते हैं. लगभग चार दशक पूर्व जब मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक था, तब मैंने एक शोध के माध्यम से कतिपय माध्यमिक शिक्षा बोर्डों के पाठ्यक्रमों/परीक्षा परिणामों का विस्तृत अध्ययन किया था जिसके निष्कर्ष विभिन्न शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए थे. उस समय कई बोर्डों में अंग्रेजी के दो कोर्स थे - अनिवार्य अंग्रेजी (सबके लिए) और वैकल्पिक अंग्रेजी (जो स्वेच्छा से इसे पढ़ना चाहें उनके लिए). अनिवार्य अंग्रेजी का परीक्षा परिणाम जहाँ 45 से 58 प्रतिशत तक रहा, वहीं वैकल्पिक अंग्रेजी का 88 से 97 प्रतिशत तक रहा. परीक्षा परिणाम के इस अंतर के कारणों का विश्लेषण करने पर ध्यान गया कि वैकल्पिक अंग्रेजी का अध्ययन वही करता है जो इसका लाभ अपने भावी जीवन में देख रहा है, इसलिए जिसकी रुचि इस भाषा के सीखने में है और जिसे इसके लिए सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं. इसके विपरीत अनिवार्य अंग्रेजी का अध्ययन रुचिशील-अरुचिशील, सामर्थ्यवान-सामर्थ्यहीन, सुविधा प्राप्त- सुविधाहीन सभी को विवशता में करना पड़ता है. यही कारण है कि अनिवार्य अंग्रेजी का परीक्षा परिणाम अनिवार्य गणित (58-79 प्रतिशत) और अनिवार्य सामान्य विज्ञान (62-75 प्रतिशत) तक से कम रहा, जबकि गणित और विज्ञान कोई सरल विषय नहीं. जरा विचार कीजिए कि जब एक विषय के रूप में अंग्रेजी की अनिवार्यता लगभग आधे बच्चों को असफल रहने के लिए मजबूर कर रही है तो शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी की अनिवार्यता कितने बच्चों का भविष्य चौपट कर रही होगी - यह सहज कल्पना का विषय है या गहन अनुसन्धान का?
अगर हम चाहते हैं कि हमारे बच्चों की प्रकृति-प्रदत्त शक्तियों का अधिकाधिक विकास हो, वे अपनी सामर्थ्य के अनुरूप अधिक से अधिक योग्य बनें, देश के किसी वर्ग विशेष के नहीं, बल्कि सभी बच्चों को आगे बढ़ने का न्यायसंगत अवसर मिले ताकि पूरे देश की प्रतिभा विकसित होकर देश के विकास का साधन बने, देश के बच्चे देश पर भार नहीं, देश की सम्पदा बनें और इस देश को आगे बढ़ाएं, तो उसका सबसे पहला अनिवार्य उपाय है - शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग. स्वतंत्र भारत में शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग देश को दो भागों में बाँट रहा है - "इंडिया" और "भारत". महात्मा गाँधी ने जो बात राजभाषा के सन्दर्भ में कही थी, वह शिक्षा के माध्यम के बारे में भी उतनी ही सही है. उनके शब्द थे, ""अगर स्वराज अंग्रेजी बोलने वाले भारतीयों का और उन्हीं के लिए होने वाला है तो निस्संदेह अंग्रेजी ही राजभाषा होगी, लेकिन अगर स्वराज हमारे देश के करोड़ों भूखों मरने वालों, करोड़ों निरक्षरों, पीड़ितों और दलित जनों का भी है और इन सबके लिए होने वाला है तो हमारे देश में हिंदी ही एकमात्र राजभाषा हो सकती है."" शिक्षा के माध्यम के सन्दर्भ में और पूरे देश के सभी बच्चों के सन्दर्भ में बस इसमें "हिंदी" के स्थान पर "भारतीय भाषाएँ" शब्द रख दीजिए. राष्ट्रपिता के इन मर्मभेदी शब्दों के बाद भी क्या किसी और टिप्पणी की आवश्यकता रह जाती है?