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एक महीने बाद: बलात्कार पर खुलकर हो रही है बाते

 

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 बुधवार, 16 जनवरी, 2013 को 14:59 IST तक के समाचार
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दिल्ली में बलात्कार की घटना को एक महीना हो गया है.
राजधानी दिल्ली में एक 23 वर्षीय युवती के बर्बर बलात्कार और हत्या की वारदात को 16 जनवरी को पूरा एक महीना हो गया.
इस एक महीने में बहुत कुछ दिखा, युवाओं का गुस्सा, सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल, टीवी पर बहस और नेताओं के कुछ करने के वादे, कुछ करने के इरादे.
फिर ख़बरें बदलीं, कुंभ और नियंत्रण रेखा पर गोलीबारी, साथ ही बदल गए टीवी पर बहस के मुद्दे, नेताओं के आरोप और तल्ख बयान.
पर बलात्कार की घटना को लेकर जो गुस्सा था, क्या वो शांत हुआ या अब भी बुलबुले की तरह कभी भी फटने को तैयार है? और सुरक्षा व्यवस्था, क्या वो पुख़्ता हुई या अब भी लचर है?
या परेशानी कुछ और थी और उसका हल इतना पेचीदा कि एक महीना तो उस रास्ते को ढूंढने के लिए भी नाकाफ़ी है? जानिए बीबीसी संवाददाताओं के अनुभव और आकलन.

'खुलकर हो रही है बात'

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पारुल अग्रवाल
दिल्ली बलात्कार मामले ने एक बड़ा बदलाव जो किया है वो ये है कि सेक्स, महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा और बलात्कार जैसे मुद्दों पर अब समाज का वो तबका भी सड़कों पर, दफ्तरों में, घरों में खुलकर बात करता दिख रहा है जो अभी तक इन शब्दों और घटनाओं का ज़िक्र केवल दबे-छिपे ढंग से करता था.
कुछ दिनों पहले अपने घर के नीचे पान की एक दुकान पर जमा रिक्शेवालों को बलात्कार मामले पर बात करते सुना. सुनकर हैरानी हुई कि ज़्यादातर रिक्शेवाले ‘सोच में बदलाव’ का जुमला इस्तेमाल कर रहे थे.
दफ्तर से घर लौटते जिस टैक्सी में आमतौर पर तेज़ संगीत या मैच की कमेंट्री सुनाई देती थी उस टैक्सी के ड्राइवर ने जब दिल्ली बलात्कार मामले पर बात शुरु की तो मुझे लगा कि वो घटना के बारे में मुझसे अंदर की जानकारी या आगे क्या होगा ये जानना चाहते हैं.
लेकिन पूरा रास्ता इस बातचीत में बीता कि इन बलात्कारियों ने जो किया उस पर पुरुष कितने शर्मिंदा हैं और सड़कों पर महिलाओं को इज़्ज़त मिले इसके लिए किस तरह ड्राइवर, क्लीनर, ऑटो चालकों और टैक्सी ड्राइवरों के लिए बकायदा क्लास लगाई जानी चाहिए.
सोच कितनी बदलेगी ये तो समय बताएगा लेकिन करोलबाग जैसे बाज़ारों से गुज़रते हुए खोमचे-ठेले वालों, आम दुकानदारों और चायवालों का खुलकर ‘बलात्कार’ पर बात करना और एक महिला ग्राहक के पहुंचने पर ठिठकने के बजाए बात जारी रखना वाकई सकारात्मक लगता है.

'घबराहट और डर कुछ बढ़ गया है'

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दिव्या आर्य
मैंने खुद को कभी मर्दों से कमज़ोर नहीं समझा, शारीरिक तौर पर तो कतई नहीं. दिल्ली में पली-बढ़ी हूं तो ज़ाहिर है कई बार छेड़ी गई हूं, लेकिन हर बार जवाब दिया, कभी सहमी नहीं बल्कि कोशिश की कि जवाब इतना बुलंद हो कि वो लड़का अगली बार कुछ ऐसा करने से पहले मुझे याद करे.
जब दिल्ली में ये वारदात हुई तो मैं लंदन में थी, एक बेहद सुरक्षित विदेशी शहर, जहां देर रात अकेले घूमने में डर नहीं लगता, पुलिस पर भरोसा है और मर्दों में आम तौर पर महिलाओं की इज़्ज़त ज़्यादा.
दस दिन पहले दिल्ली लौटी हूं, तब तक इस केस के बारे में इतना पढ़ा और सुना कि अंदर ही अंदर एक घबराहट पसरने लगी है. वही मेट्रो, ऑटो और सड़कों पर चलने में पीछे पलटकर कुछ ज़्यादा ही देखने लगी हूं.
मानो अपने शहर लौटकर जैसे उसकी नब्ज़ पकड़ने में दिक्कत हो रही है.
खुद में इस बदलाव को भांपकर नाराज़ भी हूं और विचलित भी. लेकिन मैं अकेली नहीं. मेरी कई सहेलियों ने भी इस अजीब डर की चर्चा की है, मानो इस वारदात ने बलात्कार के ख़तरे के अहसास को, शायद फ़िलहाल के लिए ही, पर और नज़दीक ला दिया है.

'पुलिस का रवैया बदला है'

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सारा हसन
पिछले एक महीने में महिलाओं के प्रति दिल्ली पुलिस के रुख में मैंने काफी फर्क देखा है. दिसंबर की उस वारदात के बाद दिल्ली पुलिस से तीन बार वास्ता पड़ा.
दो बार ट्रैफिक पुलिसवालों से बलात्कार के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों के चलते बंद सड़कों के बारे में पूछा और एक बार एक सड़क दुर्घटना के बारे में पुलिसकर्मी से पूछताछ की.
तीनों बार हैरान हुई कि ना सिर्फ़ पुलिसवाले बेहद अदब से पेश आए बल्कि विस्तार से समझाकर पूरी जानकारी दी. ना सिर्फ़ ये बताया कि कौन सी सड़कें बंद हैं, बल्कि ये भी कि घर जाने के लिए कौन सा रास्ता लेना सही होगा.
ऐसा तो पहले कभी नहीं देखा, खुश भी हुई और मन में एक उम्मीद जगी कि शायद वो दिन दूर नहीं जब महिलाएं ज़रूरत पड़ने पर पुलिस के पास जाने से हिचकेंगी नहीं.

'विरोध करने का इरादा और पक्का हुआ'

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टिंकू रे
मैं एक ऐसी महिला नहीं जो जल्दी से डर जाऊं. इंग्लैंड में पली-बढ़ी और अमरीका में काम किया. हमेशा से मज़बूत और आत्मनिर्भर होने पर फख़्र रहा है.
कॉलेज के दिनों में कोलकाता में रही, एक बार एक लड़के ने बस में मुझसे बद्तमीज़ी करने की कोशिश की तो मैंने खूब शोर मचाया, और महिला यात्रियों ने साथ दिया औऱ उस आदमी को बस से उतरना पड़ा.
मुझे सबका साथ मिला, ये मेरी खुशकिस्मती थी, लेकिन दिल्ली ऐसा शहर नहीं है. तजुर्बे यहां भी हुए पर उनसे अकेले ही निपटना पड़ा.
लेकिन दिसंबर में एक छात्रा के साथ बलात्कार के भयानक हादसे के बाद तो किसी भी तरह के अत्याचार के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करने का मेरा इरादा और पक्का हो गया है.
अपनी 15 साल की बेटी के साथ सड़क पर चलती हूं और कोई उसे घूरकर देखता है, तो रुक जाती हूं, उसको तब तक घूरती हूं जब तक वो पलटकर चला ना जाए. कभी तो ये उन्हें शर्मिंदा करता है पर मैं जानती हूँ कई बार बहुत नाराज़ भी करता है.
इसलिए अपनी बेटियों को हमेशा बेहद चौकन्ना रहने को कहती हूं. मैं कई जगह रही हूं पर दिल्ली हमेशा सबसे असुरक्षित महसूस हुई और इस एक महीने में भी महिलाओं की ओर पुरुषों के रवैये में कुछ ख़ास नहीं बदला.

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