पत्रकारिता के एक सार्थक अंक का हो जोरदार स्वागत
अनामी शरण बबल
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पत्रकारिता या मीडिया का ग्लैमर ही इसकी सबसे बड़ी ताकत है। ज्यादातर लोग तो दूर से इसके ग्लैमर पर ही मोहित होकर पत्रक्कारित में आते है। पत्रकारिता में कदम रखने से पहले आधे से भी अधिक नवांकुर पत्रकारों को इसकी अहमियत का भान तक नहीं होता। पत्रकारिता कोई सरकारी दफ्तर में बाबूगिरी नहीं है कि जब मन तब आए और शाम होते ही चश्मा, छाता उठाकर घर चले गए। बड़े बड़े महानगरों के आलीशान अखबारी दफ्तर से लेकर दोयम दर्जे के निकलने वाले चार से आठ पेज के चॉकलेटी अखबार के दफ्तरों में भी शान शौकत आ गयी है। दफ्तर का माहौल भी बदल गया है मगर पत्रकारों के हालात में तनिक भी बदलाव नहीं आया। मीडिया या पत्रकारिता के बड़े बड़े अंको में मीडिया के हालात और भविष्य से लेकर भूतकाल तक की पत्रकारिता की दशा दिशा पर गहरी चिंता की जाती है। तमाम छोटे बड़े पत्रकारों के बयानों और आलेखों से पत्रकारिता के विभिन्न पहलूओं पर चिंता भी की जाती है। इससे पूरी पत्रकारिता को संकटग्रस्त दिखाया और बताए जाने का काल भैरवी विलाप पर ही अंक की सार्थकता और जिम्मेदारी खत्म मान ली जाती है।
पिछले एक दशक को यदि मीडिया ग्लैमर काल माना या कहा जाए तो बहुतों को आपति नहीं होनी चाहिए। केवल शक्ल सूरत और बिंदासपन के बूते खबरिया चैनलों ( जिसे अब भोकाल चैनल भी कहा जाने लगा है) में नौकरी पाने की अंधी दौड़ लग गयी। तमाम स्वनाम बड़े बड़े चैनलों ने मीडिया के पाठ्यक्रमों को खोला। लाखों की फीस देकर ज्यादातर लड़के लड़कियों ने पढाई कहे या मीडिया का ज्ञानार्जन करके चैनलों की नौकरी पा ली। और देखते ही देखते साल दो साल के अंदर 90 फीसदी पत्रकारों की नौकरी चली भी गयी। जिसमें ज्यादातर नवांकुर पत्रकार अब कहां है इसको क्या मजाल कि जरा दुनिया का सबसे बड़ा सर्च इंजन गूगल भी बता कर दिखा दे ? मीडिया के इस संकटग्रस्त हाल में पत्रकारों और पत्रकारिता के अवसान काल पर एक दशक में नाना प्रकार की छोटी बड़ी पत्रिकाओं के पत्रकारित या मीडिया पर कोई दो दर्जन भर विशेषांक बाजार में आए । जिसमें पत्रकारिता को विभिन्न प्रकार से विश्लेषित करके भविष्य की मीडिया के स्वरूप पर अपना दृष्टिकोण रखा गया। सभी पत्रिकाएं मीडिया की विशेषता और महत्व के नजरे से कालजयी है, और इन पर अक्सर विचार विमर्श भी होते रहेंगे।
बड़े दिनों के खालीपन और जड़ता को तोड़ते हुए आजमगढ़ उत्तर प्रदेश से निकलने वाली मासिक पत्रिका शार्प रिपोर्टर का ताजा अंक बेहद उल्लेखनीय और मीडिया पर केंद्रित है। तलवार की धार पर मीडिया इस अंक का केंद्रीय नजरिया या स्वर दिया गया है। इसके संपादक अरविंद कुमार सिंह ने बड़े आकार में 180 पेज के इस विशेषंक को मुख्यत पांच खंड़ो में विभाजित किया है। काल खंड का विभाजन भी बड़ा रोचक और काव्यात्मक लय में है। क्रांतिकाल, शांतिकाल, परिवर्तनकाल के तीन विभाजन के बाद दो खंड दिया है अविस्मरणीय और साक्षात्कार खंड के रूप में ।
साक्षात्कार खंड को इस विशेषंक की एक खास उपलब्धि की तरह भी देखा जा सकता है। राजेन्द्र माथुर और प्रभाष जोशी के इंटरव्यू के अलावा इसी खंड में वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर रॉय के संस्मरण से नवभारत टाईम्स में संपादक राजेन्द्र माथुर के आगमन के बाद नभाटा को नया शेप देने की तैयारी का पता चलता है। उदयन शर्मा का इंटरव्यू भी काफी रोचक बन पड़ है। पत्रकारिता के अलावा बहुत सारी पारिवारिक उन बातों को भी उदयन पंडितजी ने बताया है जिसके बारे में ज्यदातर लोग नहीं जानते थे। पत्रकारिता के विकास और हलत पर भी उदयन की टिप्पणी काबिले गौर है। दक्षिण भारत में हिन्दी के सबसे बड़े अलंबरदार लेखक संपादक पत्रकार बालशौरि रेड्डी का साक्षात्कार इस अंक की सबसे बड़ी उपलब्धि है। हम हिन्दी क्षेत्र के लेखक पत्रकार श्री रेड्डी के बारे में केवल सुनते रहे थे मगर जानकरियों से भरा सारगर्भित लंबे इंटरव्यू मे रेड्डी ने दक्षिण भारत मे हिन्दी का पूरा खाका प्रस्तुत किया है। जिसे पढना किसी भी हिन्दी प्रेमी पाठकों को बहुत अच्छा लगेगा। वरिष्ठ पत्रकार हर्शवर्द्धन शाही की बातचीत भी काफी बढ़िया है। और खासकर वरिष्ठ साहित्यकार गुंजेश्वरी प्रसाद का साक्षात्कार भी इस मामले में बेहद उल्लेखनीय है कि इन्होने आंचविक पत्रकारिता पर खूब बाते की और इसे देश की आत्मा की पत्रकारिता के रूप में संबोधित किया।
निसंदेह ग्लैमर और चकाचौंध के इस दौर में महानगरों की पत्रकारिता को मुख्य मान लिया गया है जबकि जनसरोकार की पत्रकरिता ही सचमुच में यथार्थ की पत्रकारिता होती है। जिसे भोकाली चैनलों की फाईव सी यानी सेलेब्रेटी क्राईम कॉमेडी क्रिकेट और सिनेमा के चक्रव्यूह का छठा सी यानी इनकी सर्कस पत्रकारिता खबरिया चैनलों क्रेडीबिलिटी को ही अधर में टांग दी है। मगर इसी खंड़ में उर्दू पत्रकारिता पर बातचीत के लिए यूएनआई ( उर्दू सर्विस ) के पूर्व संपादक शेख मंजूर अहमद का एक पेजी साक्षात्कार इस कमी को शिद्दत के साथ महसूस कराता है कि इसे और लंबा होना चाहिए था। उर्दू पत्रकारिता को ग्लोबल स्तर पर जानने का यह बेहतरीन मौका था मगर मंजूर अहमद के साक्षात्कार का रंग रूप का एकदम लघु होना खलता है। इस लघु इंटरव्यू को देखकर बेसाक्ता एक शेर याद आ रही है कि उर्दू बेकसूर को मुस्लमान बना दिया। इस साक्षात्कार को छोटा रखने की विवशता तो अरविंद ही बता सकते हैं मगर यह इस अंक की सबसे बड़ी कमी प्रतीत हो रही है।
अविस्मरणीय खंड में वरिष्ठ साहित्कार डा.विवेकी राय से हुई बातचीत काफी सारगर्भित और महत्वपूर्ण है। आधुनिक पत्रकारित के सर्वकालीन हीरो एस पी यानी सुरेन्द्र प्रताप सिंह पर उनके साथ रविवर में कई साल कर काम कर चुके राजेश त्रिपाठी का संस्मरण भी एसपी के व्यक्तित्व के अनछूए पहलू को रेखकिंत करता है। विचार मिमांसा के संपादक रहे विजय संकर बाजपेयी पर अरविंद का लिख संस्मरण भी इनकी पत्रकारिता और मोहक इंसान को बड़े रोचक तरीके से उल्लेखित किया है। यह खंड भी पत्रकारिता विशेषांक की मर्यादा और गरिमा को बढ़ाती है।
इस अंक का पहला खंड क्रांतिकल नाम से ही स्पष्ट करता है कि इसमें क्या होगा। आजदी के दौरान पत्रकारिता की किस तरह की घोषित अघोषित भूमिका रही है इस पर केंद्रित खंड में दमन छापा या पेपर पर बंदिश लगाने की हजारों घटनाएं इतिहास में दर्ज है। मगर 1829 में कोलकाता से आरंभ हिन्दी का पहला अखबार उदंत मार्तण्ड के प्रकाशन से लेकर भारतेंदु की पत्रकारिता सहित इसमें कई महत्वपूर्ण संदर्भो को समेटा गया है। जंग ए आजदी और स्वराज, भारत मित्र और देवनागर पर आलेख बहुत ही सारगर्भित और पठनीय है। यह खंड पत्रकारिता के दस्तावेज की तरह है। चांद पत्रिका के फांसी अंक पर भी लंबा लेख इस कालयजी अंक के प्रति लोगों की उत्कंठा को शांत करेगी। हिन्दी के सर्वकालीन श्रेष्ठ पत्रिका सरस्वती के बहाने इसके महान संपादक आचार्य महवीर प्रसाद द्विवेदी के संपादकीय कौशल को प्रस्तुत किया गया है। महत्वपूर्ण पत्रिकओं में एक कवि वचन सुधा के साथ साथ आंचलिक पत्रकारिता को आजादी की लड़ाई का क्रांति बीज की तरह देखने का साहस भी इस अंक के संपादक अरविंद ने की है। काला पानी की सजा यानी दानव जेल की तरह कुख्यात सेलुलर जेल में सैकड़ो सेनानी क्रूरता की बलि चढ गए। मगर डा. एन लक्ष्मी के इस लेख में उन पत्रकारो का जिक्र है जिनकी लेखनी से आतंकित फिरंगियों ने पत्रकारों को भी काला पानी भेजकर विरोध की आवाज को सदा सदा के लिए मौन कर दिया ।
शांतिकाल खंड एक तरह से आजादी की महक और आजादी महसूस करने की कांग्रेसी रोमानी काल की कथा है। जब पूरा देश भीतर से उबलने के बाद भी आजादी के नशे में था। आपातकाल से पूर्व के 28 सालों तक भारत के टूटते सपनो के बीच सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध की आवाज को कई लेखों में कई तरह से उल्लेखित भी किया गया है। खासकर अमन त्यागी द्वारा भोपाल के माधवराव सप्रे संग्रहालय पर लिखा लेख भी उल्लेखनीय है। खासकर पत्रकारिता के इतिहास संदर्भ और पत्रकारिता से जुड़ी तमाम तरह की हजारों घटनाओं का खजाना इस संग्रहालय की शोभा है। 32 साल हो गए इस संग्रहालय के नोटबुक को देखना भी एक इतिहास से गुजरने के बराबर होग। हजारों पत्रकारों साहित्यकारों और आंगुतको ने इस संग्रहालय को किस तरह से देखा और क्या टिप्पणी की है यह एक संग्रहणीय कालजयी कमेंट्स बैंक से कतई कम नहीं होगा। संग्रहालय इतना विशाल और महत्वपूर्ण है कि एक लेख में इसे समेटा नहीं जा सकता है ।
पत्रकारिता पर आयोजित इस विशेषांक में सबसे लंबे खंड की तरह है परिवर्तन काल। 1975 के बाद से लेकर आज तक यानी 40-41 साल की पत्रकरिता में आए बदलाव के कई दौर । हैण्ड कंपोजिंग से लेकर पत्रकारिता के आधुनिक काल में कम्प्यूरटर के प्रभाव और कंपोजिंग तरक्की तो विकस का एक मानक भर है। 40 साल में पत्रकारिता इतनी बदल गयी है कि आज के ज्यादातर लोग पत्रकारिता की उस गंवई हालात पर यकीन भी ना करेंगे। रंगीन साज सज्जा और मोहक पेज तथा सतरंगी पत्रिका भी विकास का केवल एक हिस्सा भर है। पल भर में किसी खबर के हर जगह प्रसारित प्रदर्शित हो जाना भी आधुनिक पत्रकारिता में आधुनिक तकनीक से लैस संचार क्रांति का ही फल है। जिसे न्यूज मैजिक की तरह ही देखा जा सकता है। इस खंड को 50 पेज और करीब दो दर्जन आलेखों से लैस किया गया है।हर लेख में पत्रकारिता की हर हालत दिशा संरचना चिंता के साथ इसके खतरों पर भी पैनी दृष्टि डाली गयी है।
मेरे सामने अजीब दुविधा की हालत बन गयी है कि किस किस लेख पर कुछ या क्या लिखूं। केवल इस खंड पर विहंगवलोकन दृष्टि से भी लिखे तो यह समीक्षा मीडिया पर एक लेख का रूप ले लेगा। फिर हमारे इतने सारे मित्र लेखक है कि किनका उल्लेख करूं या किससे परहेज करूं। मैं सभी मीडिया के ज्ञानी मित्रों से क्षमा के साथ सबसे ही परहेज कर रहा हूं केवल इस टिप्पणी के साथ कि परिवर्तन काल इस पत्रिका का ऑक्सीजन है, जिसके बगैर आज की मीडिया और उसके चरित्र को समझा ही नहीं जा सकता । सभी लेखकों के आलेख बेहतर और उल्लेखनीय हैं क्योंकि इसकी उपेक्षा करके कोई भी मीडिया का स्टूडेंट मीडिया पत्रकारिता के प्रति रूचि रखने वाला आदमी आधुनिक पत्रकारिता को समझ नहीं सकता है।
आजमगढ जैसे छोटे शहर से शार्प रिपोर्टर का लगातार प्रकाशन आंचलिक पत्रकरिता की उर्जा और लोक सरोकारों के प्रति निष्टा को व्यक्त करता है। साथ ही आजमगढ के सुरूचिपूर्ण लोगों की इस सांस्कृतिक चेतना को भी रेखाकिंत करती है वे किस तरह मिल जुल कर इस पत्रिका के बहाने सांस्कृतिक मुहिम को जिंदा रखना चाहते है। इस अंक को जिस मेहनत के साथ इस स्वरूप में लाया है इसको केवल संपादक अरविंद ही बता सकते है। मेरे ख्याल से इस अंक की रचनाओं के लिए किए गए संघर्षपूर्ण याचक अभियान पर भी कभी रौशनी डाले तो पाठको को यह जानना दिलचस्प लगेगा कि कोई बड़ा आयोजन किन किन संघर्षो और विकट चपेटो से गुजरता है।
अंक को देखकर मेरे मन में भी एक हूक सी उठी है कि करीब दो साल पहले इस संपादक अरविंद और सहयोगी अमन त्यागी ने इस अंक के संपादन करने का दायित्म मुझे करने का आग्रह भी किया है। मगर इस, पत्रिका के अतिथि संपादक का भार मैं कई कारणों से नहीं ले सका, और ठीक से इस बाबत अरविंद से संवाद भी न कर पाया। मेरे असहयोग के बाद भी पत्रिका की पूरी टीम का मेरे प्रति सम्मान और संतोष बना रहा।
पत्रकारिता विशेषांक को लगभग पूरी तरह देखकर मैं पूरे विश्वास के साथ कहना चाहूंगा कि अरविंद भाई यदि मैं भी इसका अतिथि संपादन करता तो शायद अंक को इतना गरिमामय और कालजयी महत्व का बना पाता या नहीं यह पूरे यकीन से नहीं कह सकता। निसंदेह अरविंद आपने एक छोटे से शहर में बैठकर जिस शिद्दत के साथ अंक का संयोजन किया । बहुत मुमकिन था कि शायद मैं इतना
सुरूचिपूर्ण अंक को बना पाने मे अक्षम रहता। अंक की गूंज काफी समय तक बनी रहेगी क्योंकि इसकी चर्चा होने का सही समय तो अब आने वाला है जब नए सत्र के साथ पत्रकारिता की पढ़ाई आरंभ होगी। एक सार्थक अंक के लिए फिर से पूरे शार्प रिपोर्टर टीम को बहुत बहुत मुबरक ।
अनामी शरण बबल
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पत्रकारिता या मीडिया का ग्लैमर ही इसकी सबसे बड़ी ताकत है। ज्यादातर लोग तो दूर से इसके ग्लैमर पर ही मोहित होकर पत्रक्कारित में आते है। पत्रकारिता में कदम रखने से पहले आधे से भी अधिक नवांकुर पत्रकारों को इसकी अहमियत का भान तक नहीं होता। पत्रकारिता कोई सरकारी दफ्तर में बाबूगिरी नहीं है कि जब मन तब आए और शाम होते ही चश्मा, छाता उठाकर घर चले गए। बड़े बड़े महानगरों के आलीशान अखबारी दफ्तर से लेकर दोयम दर्जे के निकलने वाले चार से आठ पेज के चॉकलेटी अखबार के दफ्तरों में भी शान शौकत आ गयी है। दफ्तर का माहौल भी बदल गया है मगर पत्रकारों के हालात में तनिक भी बदलाव नहीं आया। मीडिया या पत्रकारिता के बड़े बड़े अंको में मीडिया के हालात और भविष्य से लेकर भूतकाल तक की पत्रकारिता की दशा दिशा पर गहरी चिंता की जाती है। तमाम छोटे बड़े पत्रकारों के बयानों और आलेखों से पत्रकारिता के विभिन्न पहलूओं पर चिंता भी की जाती है। इससे पूरी पत्रकारिता को संकटग्रस्त दिखाया और बताए जाने का काल भैरवी विलाप पर ही अंक की सार्थकता और जिम्मेदारी खत्म मान ली जाती है।
पिछले एक दशक को यदि मीडिया ग्लैमर काल माना या कहा जाए तो बहुतों को आपति नहीं होनी चाहिए। केवल शक्ल सूरत और बिंदासपन के बूते खबरिया चैनलों ( जिसे अब भोकाल चैनल भी कहा जाने लगा है) में नौकरी पाने की अंधी दौड़ लग गयी। तमाम स्वनाम बड़े बड़े चैनलों ने मीडिया के पाठ्यक्रमों को खोला। लाखों की फीस देकर ज्यादातर लड़के लड़कियों ने पढाई कहे या मीडिया का ज्ञानार्जन करके चैनलों की नौकरी पा ली। और देखते ही देखते साल दो साल के अंदर 90 फीसदी पत्रकारों की नौकरी चली भी गयी। जिसमें ज्यादातर नवांकुर पत्रकार अब कहां है इसको क्या मजाल कि जरा दुनिया का सबसे बड़ा सर्च इंजन गूगल भी बता कर दिखा दे ? मीडिया के इस संकटग्रस्त हाल में पत्रकारों और पत्रकारिता के अवसान काल पर एक दशक में नाना प्रकार की छोटी बड़ी पत्रिकाओं के पत्रकारित या मीडिया पर कोई दो दर्जन भर विशेषांक बाजार में आए । जिसमें पत्रकारिता को विभिन्न प्रकार से विश्लेषित करके भविष्य की मीडिया के स्वरूप पर अपना दृष्टिकोण रखा गया। सभी पत्रिकाएं मीडिया की विशेषता और महत्व के नजरे से कालजयी है, और इन पर अक्सर विचार विमर्श भी होते रहेंगे।
बड़े दिनों के खालीपन और जड़ता को तोड़ते हुए आजमगढ़ उत्तर प्रदेश से निकलने वाली मासिक पत्रिका शार्प रिपोर्टर का ताजा अंक बेहद उल्लेखनीय और मीडिया पर केंद्रित है। तलवार की धार पर मीडिया इस अंक का केंद्रीय नजरिया या स्वर दिया गया है। इसके संपादक अरविंद कुमार सिंह ने बड़े आकार में 180 पेज के इस विशेषंक को मुख्यत पांच खंड़ो में विभाजित किया है। काल खंड का विभाजन भी बड़ा रोचक और काव्यात्मक लय में है। क्रांतिकाल, शांतिकाल, परिवर्तनकाल के तीन विभाजन के बाद दो खंड दिया है अविस्मरणीय और साक्षात्कार खंड के रूप में ।
साक्षात्कार खंड को इस विशेषंक की एक खास उपलब्धि की तरह भी देखा जा सकता है। राजेन्द्र माथुर और प्रभाष जोशी के इंटरव्यू के अलावा इसी खंड में वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर रॉय के संस्मरण से नवभारत टाईम्स में संपादक राजेन्द्र माथुर के आगमन के बाद नभाटा को नया शेप देने की तैयारी का पता चलता है। उदयन शर्मा का इंटरव्यू भी काफी रोचक बन पड़ है। पत्रकारिता के अलावा बहुत सारी पारिवारिक उन बातों को भी उदयन पंडितजी ने बताया है जिसके बारे में ज्यदातर लोग नहीं जानते थे। पत्रकारिता के विकास और हलत पर भी उदयन की टिप्पणी काबिले गौर है। दक्षिण भारत में हिन्दी के सबसे बड़े अलंबरदार लेखक संपादक पत्रकार बालशौरि रेड्डी का साक्षात्कार इस अंक की सबसे बड़ी उपलब्धि है। हम हिन्दी क्षेत्र के लेखक पत्रकार श्री रेड्डी के बारे में केवल सुनते रहे थे मगर जानकरियों से भरा सारगर्भित लंबे इंटरव्यू मे रेड्डी ने दक्षिण भारत मे हिन्दी का पूरा खाका प्रस्तुत किया है। जिसे पढना किसी भी हिन्दी प्रेमी पाठकों को बहुत अच्छा लगेगा। वरिष्ठ पत्रकार हर्शवर्द्धन शाही की बातचीत भी काफी बढ़िया है। और खासकर वरिष्ठ साहित्यकार गुंजेश्वरी प्रसाद का साक्षात्कार भी इस मामले में बेहद उल्लेखनीय है कि इन्होने आंचविक पत्रकारिता पर खूब बाते की और इसे देश की आत्मा की पत्रकारिता के रूप में संबोधित किया।
निसंदेह ग्लैमर और चकाचौंध के इस दौर में महानगरों की पत्रकारिता को मुख्य मान लिया गया है जबकि जनसरोकार की पत्रकरिता ही सचमुच में यथार्थ की पत्रकारिता होती है। जिसे भोकाली चैनलों की फाईव सी यानी सेलेब्रेटी क्राईम कॉमेडी क्रिकेट और सिनेमा के चक्रव्यूह का छठा सी यानी इनकी सर्कस पत्रकारिता खबरिया चैनलों क्रेडीबिलिटी को ही अधर में टांग दी है। मगर इसी खंड़ में उर्दू पत्रकारिता पर बातचीत के लिए यूएनआई ( उर्दू सर्विस ) के पूर्व संपादक शेख मंजूर अहमद का एक पेजी साक्षात्कार इस कमी को शिद्दत के साथ महसूस कराता है कि इसे और लंबा होना चाहिए था। उर्दू पत्रकारिता को ग्लोबल स्तर पर जानने का यह बेहतरीन मौका था मगर मंजूर अहमद के साक्षात्कार का रंग रूप का एकदम लघु होना खलता है। इस लघु इंटरव्यू को देखकर बेसाक्ता एक शेर याद आ रही है कि उर्दू बेकसूर को मुस्लमान बना दिया। इस साक्षात्कार को छोटा रखने की विवशता तो अरविंद ही बता सकते हैं मगर यह इस अंक की सबसे बड़ी कमी प्रतीत हो रही है।
अविस्मरणीय खंड में वरिष्ठ साहित्कार डा.विवेकी राय से हुई बातचीत काफी सारगर्भित और महत्वपूर्ण है। आधुनिक पत्रकारित के सर्वकालीन हीरो एस पी यानी सुरेन्द्र प्रताप सिंह पर उनके साथ रविवर में कई साल कर काम कर चुके राजेश त्रिपाठी का संस्मरण भी एसपी के व्यक्तित्व के अनछूए पहलू को रेखकिंत करता है। विचार मिमांसा के संपादक रहे विजय संकर बाजपेयी पर अरविंद का लिख संस्मरण भी इनकी पत्रकारिता और मोहक इंसान को बड़े रोचक तरीके से उल्लेखित किया है। यह खंड भी पत्रकारिता विशेषांक की मर्यादा और गरिमा को बढ़ाती है।
इस अंक का पहला खंड क्रांतिकल नाम से ही स्पष्ट करता है कि इसमें क्या होगा। आजदी के दौरान पत्रकारिता की किस तरह की घोषित अघोषित भूमिका रही है इस पर केंद्रित खंड में दमन छापा या पेपर पर बंदिश लगाने की हजारों घटनाएं इतिहास में दर्ज है। मगर 1829 में कोलकाता से आरंभ हिन्दी का पहला अखबार उदंत मार्तण्ड के प्रकाशन से लेकर भारतेंदु की पत्रकारिता सहित इसमें कई महत्वपूर्ण संदर्भो को समेटा गया है। जंग ए आजदी और स्वराज, भारत मित्र और देवनागर पर आलेख बहुत ही सारगर्भित और पठनीय है। यह खंड पत्रकारिता के दस्तावेज की तरह है। चांद पत्रिका के फांसी अंक पर भी लंबा लेख इस कालयजी अंक के प्रति लोगों की उत्कंठा को शांत करेगी। हिन्दी के सर्वकालीन श्रेष्ठ पत्रिका सरस्वती के बहाने इसके महान संपादक आचार्य महवीर प्रसाद द्विवेदी के संपादकीय कौशल को प्रस्तुत किया गया है। महत्वपूर्ण पत्रिकओं में एक कवि वचन सुधा के साथ साथ आंचलिक पत्रकारिता को आजादी की लड़ाई का क्रांति बीज की तरह देखने का साहस भी इस अंक के संपादक अरविंद ने की है। काला पानी की सजा यानी दानव जेल की तरह कुख्यात सेलुलर जेल में सैकड़ो सेनानी क्रूरता की बलि चढ गए। मगर डा. एन लक्ष्मी के इस लेख में उन पत्रकारो का जिक्र है जिनकी लेखनी से आतंकित फिरंगियों ने पत्रकारों को भी काला पानी भेजकर विरोध की आवाज को सदा सदा के लिए मौन कर दिया ।
शांतिकाल खंड एक तरह से आजादी की महक और आजादी महसूस करने की कांग्रेसी रोमानी काल की कथा है। जब पूरा देश भीतर से उबलने के बाद भी आजादी के नशे में था। आपातकाल से पूर्व के 28 सालों तक भारत के टूटते सपनो के बीच सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध की आवाज को कई लेखों में कई तरह से उल्लेखित भी किया गया है। खासकर अमन त्यागी द्वारा भोपाल के माधवराव सप्रे संग्रहालय पर लिखा लेख भी उल्लेखनीय है। खासकर पत्रकारिता के इतिहास संदर्भ और पत्रकारिता से जुड़ी तमाम तरह की हजारों घटनाओं का खजाना इस संग्रहालय की शोभा है। 32 साल हो गए इस संग्रहालय के नोटबुक को देखना भी एक इतिहास से गुजरने के बराबर होग। हजारों पत्रकारों साहित्यकारों और आंगुतको ने इस संग्रहालय को किस तरह से देखा और क्या टिप्पणी की है यह एक संग्रहणीय कालजयी कमेंट्स बैंक से कतई कम नहीं होगा। संग्रहालय इतना विशाल और महत्वपूर्ण है कि एक लेख में इसे समेटा नहीं जा सकता है ।
पत्रकारिता पर आयोजित इस विशेषांक में सबसे लंबे खंड की तरह है परिवर्तन काल। 1975 के बाद से लेकर आज तक यानी 40-41 साल की पत्रकरिता में आए बदलाव के कई दौर । हैण्ड कंपोजिंग से लेकर पत्रकारिता के आधुनिक काल में कम्प्यूरटर के प्रभाव और कंपोजिंग तरक्की तो विकस का एक मानक भर है। 40 साल में पत्रकारिता इतनी बदल गयी है कि आज के ज्यादातर लोग पत्रकारिता की उस गंवई हालात पर यकीन भी ना करेंगे। रंगीन साज सज्जा और मोहक पेज तथा सतरंगी पत्रिका भी विकास का केवल एक हिस्सा भर है। पल भर में किसी खबर के हर जगह प्रसारित प्रदर्शित हो जाना भी आधुनिक पत्रकारिता में आधुनिक तकनीक से लैस संचार क्रांति का ही फल है। जिसे न्यूज मैजिक की तरह ही देखा जा सकता है। इस खंड को 50 पेज और करीब दो दर्जन आलेखों से लैस किया गया है।हर लेख में पत्रकारिता की हर हालत दिशा संरचना चिंता के साथ इसके खतरों पर भी पैनी दृष्टि डाली गयी है।
मेरे सामने अजीब दुविधा की हालत बन गयी है कि किस किस लेख पर कुछ या क्या लिखूं। केवल इस खंड पर विहंगवलोकन दृष्टि से भी लिखे तो यह समीक्षा मीडिया पर एक लेख का रूप ले लेगा। फिर हमारे इतने सारे मित्र लेखक है कि किनका उल्लेख करूं या किससे परहेज करूं। मैं सभी मीडिया के ज्ञानी मित्रों से क्षमा के साथ सबसे ही परहेज कर रहा हूं केवल इस टिप्पणी के साथ कि परिवर्तन काल इस पत्रिका का ऑक्सीजन है, जिसके बगैर आज की मीडिया और उसके चरित्र को समझा ही नहीं जा सकता । सभी लेखकों के आलेख बेहतर और उल्लेखनीय हैं क्योंकि इसकी उपेक्षा करके कोई भी मीडिया का स्टूडेंट मीडिया पत्रकारिता के प्रति रूचि रखने वाला आदमी आधुनिक पत्रकारिता को समझ नहीं सकता है।
आजमगढ जैसे छोटे शहर से शार्प रिपोर्टर का लगातार प्रकाशन आंचलिक पत्रकरिता की उर्जा और लोक सरोकारों के प्रति निष्टा को व्यक्त करता है। साथ ही आजमगढ के सुरूचिपूर्ण लोगों की इस सांस्कृतिक चेतना को भी रेखाकिंत करती है वे किस तरह मिल जुल कर इस पत्रिका के बहाने सांस्कृतिक मुहिम को जिंदा रखना चाहते है। इस अंक को जिस मेहनत के साथ इस स्वरूप में लाया है इसको केवल संपादक अरविंद ही बता सकते है। मेरे ख्याल से इस अंक की रचनाओं के लिए किए गए संघर्षपूर्ण याचक अभियान पर भी कभी रौशनी डाले तो पाठको को यह जानना दिलचस्प लगेगा कि कोई बड़ा आयोजन किन किन संघर्षो और विकट चपेटो से गुजरता है।
अंक को देखकर मेरे मन में भी एक हूक सी उठी है कि करीब दो साल पहले इस संपादक अरविंद और सहयोगी अमन त्यागी ने इस अंक के संपादन करने का दायित्म मुझे करने का आग्रह भी किया है। मगर इस, पत्रिका के अतिथि संपादक का भार मैं कई कारणों से नहीं ले सका, और ठीक से इस बाबत अरविंद से संवाद भी न कर पाया। मेरे असहयोग के बाद भी पत्रिका की पूरी टीम का मेरे प्रति सम्मान और संतोष बना रहा।
पत्रकारिता विशेषांक को लगभग पूरी तरह देखकर मैं पूरे विश्वास के साथ कहना चाहूंगा कि अरविंद भाई यदि मैं भी इसका अतिथि संपादन करता तो शायद अंक को इतना गरिमामय और कालजयी महत्व का बना पाता या नहीं यह पूरे यकीन से नहीं कह सकता। निसंदेह अरविंद आपने एक छोटे से शहर में बैठकर जिस शिद्दत के साथ अंक का संयोजन किया । बहुत मुमकिन था कि शायद मैं इतना
सुरूचिपूर्ण अंक को बना पाने मे अक्षम रहता। अंक की गूंज काफी समय तक बनी रहेगी क्योंकि इसकी चर्चा होने का सही समय तो अब आने वाला है जब नए सत्र के साथ पत्रकारिता की पढ़ाई आरंभ होगी। एक सार्थक अंक के लिए फिर से पूरे शार्प रिपोर्टर टीम को बहुत बहुत मुबरक ।
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