Quantcast
Channel: पत्रकारिता / जनसंचार
Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

बुलेट ट्रेन के जमाने में भारतीय स्कूलों की दशा दिशा

$
0
0





हम देहात के निकले बच्चे थे।


प्रस्तुति-  संत शरण रीना शरण और अम्मी शरण


पांचवी तक घर से तख्ती लेकर स्कूल गए थे, स्लेट को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी,
कक्षा के तनाव में स्लेटी खाकर हमनें तनाव मिटाया था।
स्कूल में टाट पट्टी की अनुपलब्धता में घर से खाद या बोरी का कट्टा बैठने के लिए बगल में दबा कर भी ले जातें थे।
कक्षा छः में पहली दफा हमनें अंग्रेजी का कायदा पढ़ा और पहली बार एबीसीडी देखी स्मॉल लेटर में बढ़िया एफ बनाना हमें बारहवीं तक भी न आया था।
करसीव राइटिंग तो आजतक न सीख पाए।दुनिया थी,
कपड़े के बस्ते में किताब और कापियां लगाने का विन्यास हमारा अधिकतम रचनात्मक कौशल था। तख्ती पोतने की तन्मयता हमारी एक किस्म की साधना ही थी। हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते (नई किताबें मिलती) तब उन पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का स्थाई उत्सव था।
ब्लू शर्ट और खाकी पेंट में जब हम इंटरमीडिएट कालेज पहूँचे तो पहली दफा खुद के कुछ बड़े होने का अहसास हुआ। गाँव से चार पाँच किलोमीटर दूर के कस्बें में साईकिल से रोज़ सुबह कतार बना कर चलना और साईकिल की रेस लगाना हमारे जीवन की अधिकतम प्रतिस्पर्धा थी। हर तीसरे दिन हैंडपम्प को बड़ी युक्ति से दोनों टांगो के मध्य फंसाकर साईकिल में हवा भरतें मगर फिर भी खुद की पेंट को हम काली होने से बचा न पाते थे।
स्कूल में पिटते मुर्गा बनतें मगर हमारा ईगो हमें कभी परेशान न करता हम देहात के बच्चें शायद तब तक जानते नही थे कि ईगो होता क्या है। क्लास की पिटाई का रंज अगले घंटे तक काफूर हो गया होता, और हम अपनी पूरी खिलदण्डिता से हंसते पाए जाते।धान विश्राम करते रहते।
हम देहात के निकले बच्चें सपनें देखने का सलीका नही सीख पाते, अपनें माँ बाप को ये कभी नही बता पातें कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं।
हम देहात से निकले बच्चें गिरतें सम्भलतें लड़ते भिड़ते दुनिया का हिस्सा बनतें हैं। कुछ मंजिल पा जाते हैं, कुछ यूं ही खो जाते हैं। एकलव्य होना हमारी नियति है शायद। देहात से निकले बच्चों की दुनिया उतनी रंगीन नहीं होती वो ब्लैक एंड व्हाइट में रंग भरने की कोशिश जरूर करतें हैं।
पढ़ाई फिर नौकरी के सिलसिलें में लाख शहर में रहें लेकिन हम देहात के बच्चों के अपने देहातीपन का संकोच जीवनपर्यन्त हमारा पीछा करते हैं, नही छोड़ पाते हैं सुड़क सुड़क की ध्वनि के साथ चाय पीना अनजान जगह जाकर रास्ता कई कई दफा पूछना।कपड़ो को सिलवट से बचाए रखना और रिश्तों को अनौपचारिकता से बचाए रखना हमें नहीं आता है।
अपने अपने हिस्से का निर्वासन झेलते हम बुनते है कुछ आधे अधूरे से ख़्वाब और फिर जिद की हद तक उन्हें पूरा करने का जुटा लाते है आत्मविश्वास।
हम देहात से निकलें बच्चें थोड़े अलग नहीं पूरे अलग होते हैं अपनी आसपास की दुनिया में जीते हुए भी,
खुद को हमेशा पाते हैं,
थोड़ा प्रासंगिक,
थोड़ा अप्रासंगिक ।
Sant SinhaAbsolutely correct Bhaiya .still situation is almost same till now
Anami Sharan Babal
Anami Sharan Babalसच संत पढ़कर पुराने दिनों या बचपन की याद सहसा कौंद सी गयी कि हमलोग भी तो इसी हाल मे ंरहते जाते थे। और कोई साधन व्यवस्था भी कहां थी
Anami Sharan Babal
Anami Sharan Babalतुमने तो यार दिल के ही ही तार छेड़ दिए देश के 80 प्रतिशत स्कूलों का यही हाल है चाहे दिल्ली के संगम विहार हो या मुस्तफाबाद सीलमपु कोणडली मुल्ला कॉलोनी हो या कहो पूरी दिल्ली मं भी यही हाल है ।
Anami Sharan Babal
Write a reply...
Shyamlal Sharma
Shyamlal Sharmavaah kya yad dila diya
Manoj Kanak
Rajesh Sinha
Rajesh Sinhaवाकई यही हकीकत थी
Ashok Gupta
Ashok Guptaयह भाव भीने संस्मरण केवल तुम्हारे नहीं है दोस्त, हम सबके हैं जो कभी विस्मृति के गर्त में विलय नहीं होंगे.
Shailendra Kishore Jaruhar
Shailendra Kishore Jaruharआज भी गॉव के बच्चो का यही हाल है |अभी मंजिल बहुत दूर है कुछ सुधार जरूर हुआ है किंतु मुलाजुला कर हाल यही है|
हमसभी लोग तो इन हालातो से उबर गए क्योकि समावेषी व्यवस्था थी किंतु आज विभिन्न आर्थिक स्तरो की भिन्न भिन्न व्यवस्था है और इन गरीबो को ड्रेस , छात्रवृति और भोजन ने इनके भविष्य को अंधकारमय बना दिया है
Arvind Kumar Singh
Arvind Kumar Singhक्या जबरदस्त शब्दचित्र है भइया
एकदम यथार्थ
Sangeeta Sinha
Sangeeta Sinhaहाहाहा भैया! बहुत खूब चित्रण 😊😊
Binu Srivastava

Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>