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कोबरा पोस्ट के स्टिंग पर रोक लगाने की मांग की

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प्रस्तुति-- हंसराज सुमन पाटिल

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बीजेपी ने बाबरी विध्वंस से जुड़े कोबरा पोस्ट के स्टिंग पर रोक लगाने की मांग की

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BJP requests EC to stop broadcast of Cobrapost sting on Babri demolition
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नई दिल्ली: बाबरी विध्वंस से जुड़े कोबरा पोस्ट के स्टिंग पर बीजेपी ने कड़ा ऐतराज जताया है और चुनाव आयोग से इसके प्रसारण पर रोक लगाने की मांग की है। बीजेपी प्रवक्ता मुख्तार अब्बास नकवी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा कि इस स्टिंग को रोकना जरूरी है, क्योंकि इससे देश का सांप्रदायिक माहौल खराब होगा। मुख्तार अब्बास नकवी ने इस स्टिंग को कांग्रेस की साजिश करार दिया। उन्होंने इस स्टिंग ऑपरेशन की टाइमिंग पर भी सवाल उठाया है। उन्होंने कहा, यह प्रायोजित स्टिंग ऑपरेशन है। देश भर में शांतिपूर्ण और सौहार्दपूर्ण चुनावी माहौल में यह जहर घोलने का प्रयास है।
वहीं कांग्रेस प्रवक्ता मीम अफजल ने बीजेपी के आरोपों से इनकार करते हुए उल्टे उसी पर सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ने की साजिश का आरोप लगाया है।
'ऑपरेशन राम जन्मभूमि'नाम से किए गए इस स्टिंग में यह आरोप लगाया है कि बाबरी मस्जिद को योजनाबद्ध तरीके से गिराया गया और इसकी जानकारी बीजेपी और संघ के कुछ आला नेताओं को थी।
कोबरा पोस्ट का दावा है कि बाबरी मस्जिद को गिराने के लिए एक टीम तैयार की गई थी और उन्हें खास तरह की ट्रेनिंग भी दी गई थी। यही नहीं अगर सारी योजना नाकाम हो जाती, तो ढांचे को डायनामाइट से गिराने की भी तैयारी थी।

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कोबरापोस्ट रिपोर्टमें कोई आपराधिक मामला नहीं है : एसबीआई

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प्रस्तुति-- हंसराज सुमन पाटिल

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चंडीगढ़: ारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के चेयरमैन प्रतीप चौधरी ने गुरुवार को कहा कि ऑनलाइन न्यूज पोर्टल कोबरापोस्ट के स्टिंग ऑपरेशन में कुछ बैंक अधिकारियों को कर से बचने के लिए जमाओं को विभाजित करने के बारे में सुझाव अवांछित रूप से हल्की बातें जरूर हैं लेकिन स्पष्ट रूप से यह आपराधिक मामला नहीं है।

ऑनलाइन पोर्टल कोबरापोस्ट द्वारा बैंक पर मनी-लॉन्ड्रिंग में शामिल होने के आरोप के बारे में पूछे जाने पर चौधरी ने संवाददाताओं से कहा, ‘‘प्रथम दृष्ट्या जो बातें हमारे सामने आई हैं, उसमें अपराध जैसा कुछ नहीं है। अगर कोई आपको अपनी जमाओं को विभाजित करने के लिए कहे। मसलन 50 लाख रुपये की जमा को 50 हजार रुपये या एक लाख रुपये में विभाजित करने के लिए कहता है। यह हल्की बातें जैसी हैं लेकिन यह अवांछित है।’’

उन्होंने यह भी कहा कि इस मामले में ऐसा कुछ नहीं पाया गया है जिससे लगे कि कर्मचारी को लाभ हुआ है।

चौधरी ने कहा, ‘‘कोबरापोस्ट की रिपोर्ट में जो कुछ सामने आया है, वह भ्रष्टाचार नहीं है। कुछ गतिविधियां हैं जिसे मनी लांड्रिंग या कर चोरी का नाम दिया गया है। ऐसा कोई मामला नहीं है जिससे कर्मचारियों को फायदा हुआ है। कुछ मामलों में कर देने से बचने के लिए अपनी जमाओं को विभाजित करते हैं, लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए।’’

बैंक ने इस खुलासे के बाद अपने तीन अधिकारियों को निलंबित किया है।

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IPL फिक्सिंग पर सबसे बड़ा स्टिंग ऑपरेशन, पार्ट-4

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प्रस्तुति-- हंसराज पाटिल सुमन

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आजतक के स्टिंग ऑपरेशन में खुलासा

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प्रस्तुति-- स्वामी शरण,राकेश गांधी, निम्मी नर्गिस
 

आजतक के स्टिंग ऑपरेशन में खुलासा, UP में प्रशासनिक अफसरों की भर्ती में धांधली

अक्षय सिंह [Edited By: अमरेश सौरभ] | इलाहाबाद, 4 जुलाई 2014 | अपडेटेड: 22:00 IST

प्रशासनिक अफसरों की भर्ती में धांधली
उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी प्रशासनिक और सरकारी नौकरियों में धांधली से तूफान मचा है. आजतक ने स्टिंग ऑपरेशन करके उस धांधली का सच बेपर्दा किया है. यूपी पीसीएस में एक जाति विशेष पर इंटरव्यू और बहुत हद तक लिखित परीक्षा में भी नंबर लुटाए गए.समाजवादी पार्टी में संसद से लेकर विधानसभा तक मुलायम सिंह यादव के कुनबे का राज है. संसद में मुलायम सिंह यादव, बहू और भतीजों के साथ खुद विराजमान हैं और विधानसभा में बेटा और भाई. यूपी में सरकार ऐसी है कि कोई इसे बाप-बेटे की सरकार का नाम दे रहा है, तो कोई भाई-भतीजे की सरकार कहकर पुकार रहा है. लोगों के वोट से खानदान भी चुनकर आया है, इसलिए मुलायम सिंह यादव पर कोई सीधा आरोप नहीं लगा सकता.
लेकिन वोट की राजनीति से परे उत्तर प्रदेश के लोक सेवा आयोग में जब मेरिट लिस्ट पर यादव राज सवार हो जाए, तो इल्‍जाम लगना लाजिमी है. जी हां, समाजवादी पार्टी का 'वोट बैंक'अब लोक सेवा आयोग में भी गजब ढा रहा है.
अब तक तो जाति के वोट बैंक के नाम पर सांसद और विधायक बन रहे थे, लेकिन अब यूपी में एसडीएम और डिप्टी एसपी भी वोट बैंक में से निकल रहे हैं. जो अधिकारी आगे चलकर डीएम, एसपी, कमिश्नर, डीआईजी-आईजी की कुर्सी पर विराजेंगे, उनकी खासियत सिर्फ और सिर्फ एक खास जाति होगी.
चौंकिए मत, आजतक के पास वो दस्तावेज हैं, जो जाहिर करते हैं कि किस तरह यूपी में एक खास जाति के नाम पर चुन-चुनकर कैंडिडेट्स को इंटरव्यू बोर्ड तक पहुंचाया, फिर इंटरव्यू में उन पर जमकर नंबर लुटाए गए. आखिरकार यूपी पीसीएस के पूरे इम्तिहान और इंटरव्यू में यादव जाति के कैंडिडेट्स ऊपर से नीचे तक छा गए.
जी हां, विकास धर और हिमांशु कुमार गुप्ता को इंटरव्यू में 102 और 115 नंबर मिले, लेकिन रागेश कुमार यादव पूरे के पूरे 140 लेकर आगे निकल गए. अंकुर सिंह, विनीत सिंह और अभिषेक सिंह को मेन्स यानी लिखित परीक्षा में ज्यादा नंबर मिले हैं, लेकिन इंटरव्यू में 113, 115 पर ही वो सिमट गए, जबकि सुरेंद्र प्रसाद यादव लिखित परीक्षा में काफी पीछे हैं, लेकिन इंटरव्यू में 136 नंबर पाकर फाइनल लिस्ट में जगह बना ली. अमिताभ यादव और मायाशंकर यादव भी जाति के नाम पर इंटरव्यू के नंबर लूटने में कामयाब रहे, जबकि
जनरल कटगरी के बाकी उम्मीदवारों की योग्यता इंटरव्यू में दम तोड़ गई.
सबसे ज्यादा बुरा हाल तो एससी यानी शीड्यूल कास्ट कैटेगरी का है, जिसमें 140 छोड़िए बहुत से उम्मीदवार 100 का आंकड़ा भी नहीं छू पाए.
उत्तर प्रदेश में सरकारी नौकरी के सबसे बडे़ इम्तिहान में की गई सबसे बड़ी धांधली को आज आपकी आंखों के सामने आजतक उजागर कर रहा है. यूपी में आपके बच्चों का भविष्य किस अंधेरी गुफा में जा रहा है. रात-दिन मेहनत करके आपके बच्चे इंटरव्यू बोर्ड तक पहुंचते हैं, लेकिन फाइनल लिस्ट आते-आते मेरिट से गायब हो जाते हैं. दिल्ली और लखनऊ से फोन की एक घंटी घनघनाती है और सिफारिशी कंडिडेट इंटरव्यू में टॉप करके मेरिट लिस्ट में आ जाता है. इलाहाबाद में उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग में सोर्स-सिफारिश का हाल यह है कि आयोग के कर्मचारी भी मानने लगे हैं कि बिना सिफारिश यहां मेरिट में जगह नहीं बनती.
यूपी पीसीएस के इंटरव्यू में 200 नंबर होते हैं, लेकिन नियम है कि अगर किसी उम्मीदवार को 140 से ज्यादा अंक दिए जाते हैं, तो आयोग को उस पर रिमार्क देना होता है. साल 2011 के यूपीपीसीएस का इंटरव्यू पिछले साल हुआ, उसमें यादव उम्मीदवारों को सबसे ज्यादा अंक मिले. 138 से 140 के बीच, जबकि दूसरी जातियों के उम्मीदवार इंटरव्यू में अच्छा अंक पाने से वंचित रह गए.
आइए अब आपको दिखाते हैं यूपी पीसीएस के इम्तिहान की वो फेहरिस्त, जो धांधली का खुद एक सबूत है. देखिए कि किस तरह से यादव जाति के कैंडिडेट्स को 140 और 138 नंबर दिए गए हैं, जबकि ज्यादातर गैर यादव उम्मीदवारों को 100 से 110 में ही समेट दिया गया है....
रागेश कुमार यादव - 140
राहुल यादव- 140
सुरेंद्र यादव- 136
अमिताभ यादव- 140
मायाशंकर यादव- 138
अरविंद कुमार यादव- 140
सिद्धार्थ यादव- 138
धनवीर यादव- 137
ज्योत्स्ना यादव- 138
सोमलता यादव- 138
ब्रजेश यादव- 138
रवींद्र प्रताप यादव- 137
राम अशोक यादव- 139
राम कुमार यादव- 140
सत्येंद्र बहादुर यादव-138
शिव कुमार यादव- 139
अनिल कुमार यादव- 139
नीतू यादव- 138
अशोक कुमार यादव- 137
देव कुमार यादव- 140
रमेश चंद्र यादव- 140
सुप्रिया यादव- 139
विकास यादव- 139
सुशील कुमार यादव- 140
ममता यादव- 140
कितनों का नाम गिनाएं...पीसीएस 2011 परीक्षा का इंटरव्यू अखिलेश यादव सरकार के समय पिछले साल हुआ था.
चौंकाने वाली बात यह है कि पिछड़े वर्ग में 86 उम्मीदवारों को चुना गया, जिसमें से 50 यादव थे. एकाध उम्मीदवारों को छोड़कर यादव जाति में सभी उम्मीदवारों को 135 से 140 के बीच इंटरव्यू में नंबर मिले. खास बात यह रही कि यादव जाति के जिन उम्मीदवारों के नंबर मेंस में दूसरे उम्मीदवारों से कम रहे, वो भी इंटरव्यू में सबसे ज्यादा नंबर पा गए.
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष मुश्ताक अली लोक सेवा आयोग के इम्तिहानों में उम्मीदवारों का इंटरव्यू लेते रहे हैं. मुश्ताक साहब ने खुफिया कैमरे पर लोक सेवा आयोग की कलई खोल दी. इन्होंने खुलासा किया कि भले ही सरकार इंटरव्यू बोर्ड को जितना भी गोपनीय रखे, फिर भी कहीं ना कहीं सिफारिश अपना काम कर जाती है.
यूपी पीसीएस के सचिव अनिल कुमार यादव ने कहा है कि आयोग की कार्य प्रणाली पूरी तरह पारदर्शी है. उम्मीदवारों को योग्यता के हिसाब से अंक मिले हैं. इसे जाति या धर्म के चश्मे से देखना गलत है. वैसे भी चयन प्रक्रिया में आयोग के अध्यक्ष या सचिव का कोई दखल नहीं होता. इंटरव्यू बोर्ड को तो छात्र का रोल नंबर भी मालूम नहीं होता. रही बात स्केलिंग की तो उसका फॉर्मूला सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बना है. इसमें तो डाटा फीड करने पर अंक अपने आप आ जाते हैं. इस तरह के आरोपों का तो कोई आधार ही नहीं है.
बहरहाल, उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की हकीकत क्‍या है, यह अब पूरी तरह सामने आ चुकी है.
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Web Title : sting operation uppsc accused of favouring a particular caste
Keyword : UPPSC, PCS, public service commission, examination, result

Sting

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 प्रस्तुति- अखौरी प्रमोद

From Wikipedia, the free encyclopedia
Sting may refer to:
  • Stinger, a structure of an animal or plant to inject venom, or the injury produced by a stinger

People

Film and television

Sports teams

Video games

Other uses

See also

Heroin Sting Operation Nets Three Arrests

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प्रस्तुति-- दिनेश कुमार सिन्हा
FRONT ROYAL, Va. - With its flower beds and welcoming colonial columns, one would never expect a suburban house to be the scene of a major drug bust.
"It’s a nice quiet neighborhood, it really is,” said Linda Pomeroy, who lives only a few doors down from where the drug bust occurred. "Everybody speaks to each other, and waves to each other. I've even waved to the people over here,” she said, pointing to the house. “Never expected a thing really."
On June 26, 2014 Drug Task Force agents seized 97 individually wrapped bags of heroin from the 400 block of Kerfoot Avenue, which they say has a street value of about $3,000. 
"Most of us can't actually go out and purchase narcotics ourselves,” said Jason Lethcoe, narcotics detection with the Town of Front Royal and the lead investigator in this case. “Especially in a small town, so we use confidential informants to do that."
After months of investigating officers arrested two brothers, Brandon Gibbs-Brown and Cody Gibbs-Brown, and an accomplice, Joseph Williams. All three men have been charged with distribution of heroin.
"Over the past year or two, I’ve been suspicious of something going on,” said Pomeroy. “I’ve seen kids when they're supposed to be in school and they'll meet each other up here on [the corner of] Brown and Kerfoot, and pass something from one had to the other."
Investigators said during their last several confidential purchases, the heroin at Kerfoot Avenue was packaged differently than what they had been seeing. It was labeled under the name "China Power".
"It’s almost like branding clothing,” said Lethcoe. “Every dealer has their own brand of heroin that they sell and generally what we buy in Front Royal is packaged differently than this. It caught our attention because we had seen it before in some other cases that I had worked on when I first got in the task force."
The case is now closed but further charges are pending on all three individuals.
All three men have been released on recognizance and are expected back in court beginning on July 15. 
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‘स्टिंग पत्रकारिता’ के दंश से उबर नहीं पाए बंगारू लक्ष्मण

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‘स्टिंग पत्रकारिता’ के दंश से उबर नहीं पाए बंगारू लक्ष्मण
बंगारू लक्ष्मण (फाइल फोटो)











प्रस्तुति-- अमित कुमार , अभिषेक रसतोगी

भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और पार्टी 
 के शीर्ष दलित नेता बंगारू लक्ष्मण का शनिवार शाम निधन हो गया.
इस दलित नेता को इतिहास में ‘स्टिंग पत्रकारिता’ के सबसे बड़े शिकार के रूप में याद किया जाएगा .
एक पत्रिका के स्टिंग ऑपरेशन के कारण नेता का राजनीतिक करियर समाप्त हो गया और वह दोबारा उभर नहीं सके .
दलित परिवार में 17 मार्च 1939 में जन्मे लक्ष्मण किशोरावस्था से ही राजनीति में सक्रि य रहे और वकालत की . शुरूआती दिनों में वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े रहे .
1969 में जनसंघ की स्थापना के समय लक्ष्मण संस्था का हिस्सा थे और बाद में संगठन भाजपा में बदल गई और वह भाजपा के शीर्ष दलित नेता बनकर उभरे .
सक्रिय राजनीति में आने से पहले वह आंध्र प्रदेश विद्युत बोर्ड से जुड़े रहे और मजदूर संघ में भी सक्रिय रहे .
इंदिरा गांधी सरकार द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौराप विपक्ष के कार्यकर्ताओं के साथ 1975 में वह भी जेल गए .
राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य बनने से पहले लक्ष्मण भाजपा के आंध्र प्रदेश शाखा से जुड़े रहे . बाद में वह पार्टी के राष्ट्रीय सचिव रहे और 2000 में पहली दलित अध्यक्ष भी बने .
वह 1996 से 2002 तक राज्यसभा के सदस्य रहे और अटल बिहार वाजपेयी के नेतृत्व में 1999 और 2000 में राजग की सरकार के दौरान वह केन्द्रीय रेल राज्य मंत्री रहे .
2000-01 में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर रहते हुए तहलका ने उन्हें रक्षा सौदे में एक लाख रूपए का रिश्वत लेते हुए कैमरे पर पकड़ा था . इस स्टिंग के बाद उन्होंने भाजपा अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया और इसके साथ ही सक्रि य राजनीति से उनका अंत हो गया .
दिल्ली की एक अदालत ने 2012 में इस मामले में लक्ष्मण को चार वर्ष कैद की सजा सुनायी लेकिन खराब स्वास्थ्य के कारण उन्हें जमानत मिल गई .
लक्ष्मण की पत्नी सुशीला ने राजस्थान के जालोर से भाजपा की टिकट पर लोकसभा का चुनाव जीता है .
इस मामले में सजा सुनाए जाने के बाद लक्ष्मण भाजपा के किसी कार्यक्र म में बिरले ही नजर आए .
लेकिन बाद में तहलका के संस्थापक-संपादक तरूण तेजपाल को यौन शोषण के मामले में गोवा में गिरफ्तार किया गया तो लक्ष्मण ने एक बयान जारी कर कहा था, ‘‘अब मैं दोषमुक्त हो गया .’’
 

संकट और समाधान के दोराहे पर पत्रकारिता

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प्रस्तुति-- निम्मी नर्गिस, रतन लेन भारती


सोमवार, 12 जुलाई 2010


यह सवाल अब बार-बार पूछा जाने लगा है कि पत्रकारिता क्या खत्म हो जाएगी? इसके मूल्य, सिद्धांत और विचार कूड़ेदान में चले जाएंगे?मनी और मसल पावर की ही जीत होगी?  काफी लोगों को लगता है कि पत्रकारिता के सामने संकट है और इससे निकलने का रास्ता कोई खोज नहीं पा रहा है। इस कर्म से जुड़े ज्यादातर लोग यों किसी भी दौर में व्यवस्था को लेकर संतुष्ट नहीं रहे, पर इस वक्त वे सबसे ज्यादा व्यथित लगते हैं। रविवार की दोपहर दिल्ली के कांस्टीट्यूशन हॉल में उदयन शर्मा फाउंडेशन के संवाद-2010 में विचार व्यक्त करने और दूसरों को सुनने के लिए जिस तरह से मीडिया से जुड़े लोग जमा हुए उससे इतनी आश्वस्ति ज़रूर होती है कि सब लड़ाई को इतनी आसानी से हारने को तैयार नहीं हैं। गोकि इस मसले को अलग-अलग लोग अलग-अलग ढंग से देखते हैं।

खबरों को बेचना सारी बात का एक संदर्भ बिन्दु है, पर घूम-फिरकर हम इस बिजनेस के व्यापक परिप्रेक्ष्य को छूने लगते हैं। फिर बातें पूँजी, कॉरपोरेट कंट्रोल और राजनैतिक-व्यवसायिक हितों के इर्द-गिर्द घूमने लगती हैं। ऐसा भी लगता है कि हम बहुत सी बातें जानते हैं, पर उन्हें खुलकर व्यक्त कर नहीं पाते या करना नहीं चाहते। भारतीय भाषाओं का मीडिया पिछले तीन दशक में काफी ताकतवर हुआ है। यह ताकत राजनीति-समाज और बिजनेस तीनों क्षेत्रों में उसके बढ़ते असर के कारण है। पर तीनों क्षेत्रों में हालात तीन दशक पहले बाले नहीं हैं।   
राजनीति-बिजनेस और पत्रकारिता तीनों में नए लोगों, नए विचारों और नई प्रवृत्तियों का प्रवेश हुआ है। राजनीति में अपराध और बिजनेस के प्रतिनिधि बढ़े हैं। अपराध का एक रूप यूपी और बिहार में नज़र आता है। इसमें अपहरण, हत्या, फिरौती वगैरह हैं। दूसरा रूप आर्थिक है। यह नज़र नहीं आता, पर यह हत्याकारी अपराध से ज्यादा खतरनाक है। यह गुलाबजल और चांदी के वर्क से पगा है। राजनीति में अपराधी का प्रवेश सहज है। वह सत्ता का सिंहासन लेकर चलती है। ऐसा ही मीडिया के साथ है। वह भी व्यक्ति के सामाजिक रुतबे और रसूख को बनाता है। पुराने पत्रकार को पाँच-सौ या हज़ार के नोट दिखाने के बजाय आज बेहतर तरीके मौज़ूद हैं। चैनल शुरू किया जा सकता है। अखबार निकाला जा सकता है।

पत्रकारिता एक नोबल प्रोफेशन है। और नब्बे फीसदी या उससे भी ज्यादा पत्रकार इसे अपने ऊपर लागू करते हैं। इसीलिए वे व्यथित हैं। और उनकी व्यथा ही इसे भटकाव से रोकेगी। पेड न्यूज़ पर पूरी तरह रोक लग पाएगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता, पर वह उस तरीके से ताल ठोककर जारी भी नहीं रह पाएगी। जिस पेड न्यूज़ पर हम चर्चा कर रहे हैं वह पत्रकारों की ईज़ाद नहीं है। यह पैसा उन्हें नहीं मिला। मिला भी तो कुछ कमीशन। एक या दो संवाददाता अपने स्तर पर ऐसा काफी पहले से करते रहे होंगे। पर इस बार मामला इंस्टीट्यूशनलाइज़ होने का था। इसका इलाज़ इंस्टीट्यूशनल लेवल पर ही होना चाहिए। यानी सरकार, इंडियन न्यूज़पेपर सोसायटी और पत्रकारों की संस्थाओं को मिलकर इस पर विचार करना चाहिए। सार्वजनिक चर्चा या पब्लिक स्क्रूटनी से इस मंतव्य पर प्रहार हुआ ज़रूर है, पर कोई हल नहीं निकला है। एक विडंबना ज़रूर है कि मीडिया जो पब्लिक स्क्रूटनी का सबसे महत्वपूर्ण मंच होता था,  इस सवाल पर चर्चा करना नहीं चाहता। एक-दो अखबारों को छोड़ दें तो, ज्यादातर चर्चा मीडिया के बाहर हुई है। इस मामले के असली प्लेयर अभी तक सामने नहीं आए हैं। शायद आएंगे भी नहीं।

कुछ महीने पहले इसी कांस्टीट्यूशन क्लब में एडीटर्स गिल्ड और वीमेंस प्रेस कोर ने मिलकर एक गोष्ठी की थी, जिसमें टीएन नायनन ने कहा था कि सम्पादक को खड़े होकर नाकहना चाहिए।रविवार की गोष्ठी में किसी ने गिरिलाल जैन का उल्लेख किया, जिन्होंने सम्पादकीय विभाग में आए विज्ञापन विभाग के व्यक्ति से कहा कि इस फ्लोर पर सम्पादकीय विभाग की बातों पर चर्चा होती है, बिजनेस की नहीं। कह नहीं सकते कि उस अखबार में आज क्या हालात हैं। पर हमें गिरिलाल जैन के कार्यकाल का अंतिम दौर याद है। उस मसले पर इलस्ट्रेटेड वीकलीमें कवर स्टोरी छपी। यह बात उस दौर के मीडिया हाउसों के मालिकों के व्यवहार और उसमें आते बदलाव पर रोशनी डालती है।

सम्पादक वह छोर है, जहाँ से प्रबंधन और पत्रकारिता की रेखा विभाजित होती है। सम्पादक कुछ व्यक्तिगत साहसी होते हैं, कुछ व्यवस्था उन्हें बनाती है।बहुत से तथ्य शायद अभी सामने आएंगे या शायद न भी आएं। पर इतना साफ है कि मीडिया की साख बनाने की जिम्मेदारी समूचे प्रबंधतंत्र की है। इनमें मालिक भी शामिल हैं।सामान्य पत्रकार कभी नहीं चाहेगा कि उसकी साख पर बट्टा लगे। इसमें व्यक्तिगत राग-द्वेष, महत्वाकांक्षाएं और दूसरे को पीछे धकेलने की प्रवृत्तियाँ भी काम करती हैं। पैराडाइम बदलता है, तब ऐसे व्यक्ति आगे आते हैं, जो खुद को संस्थान और बिजनेस के बेहतर हितैषी के रूप में पेश करते हैं। ऐसे अनेक अंतर्विरोध और विसंगतियां हैं।

इस मामले के दो प्रमुख सूत्रधारों की ओर हम ध्यान नहीं देते। एक मीडिया ओनरिशप और दूसरा पाठक या ग्राहक। देश के पहले प्रेस कमीशन ने मीडिया ओनरशिप का सवाल उठाया था। हम प्रायः दुनिया के दूसरे देशों का इंतज़ार करते हैं। या नकल करते हैं। कहा जाता है कि यही एक मॉडल है, हम क्या करें। पर हमें कुछ करना होगा। जो हालात हैं वे ऐसे ही नहीं रहेंगे। या तो वे सुधरेंगे या बिगड़ेंगे। तत्व की बात यह है कि यह सब किसी कारोबार का मसला नहीं है। यह काम हम पाठक-जनता या लोकतंत्र के लिए करते हैं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जानकारी पाने का हमारा अधिकार जाने-अनजाने दुनिया की सबसे अनोखी संवैधानिक व्यवस्था है। अमेरिकी संवैधानिक व्यवस्था की तरह यह केवल प्रेस की फ्रीडम नहीं है। अपने  लोकतांत्रिक कर्तव्यों को निभाने के लिए हमें सूचना की मुक्ति चाहिए। यह सूचना बड़ी पूँजी या कॉरपोरेट हाउसों की गिरफ्त में कैद रहेगी तो इससे नागरिक हितों को चोट पहुँचेगी। राइट टु इनफॉरमेशनही नहीं हमें फ्रीडम ऑफ इनफॉरमेशनचाहिए।सूचना का अधिकार हमें सरकारी सूचना का अधिकार देता है। पर हमें सार्वजनिक महत्व की हर सूचना की ज़रूरत है। पूँजी को मुक्त विचरण की अनुमति इस आधार पर मिली है कि उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संगति है। उसकी आड़ में मोनोपली, कसीनो या क्रोनी कैपिटलिज्म का प्रवेश अनुचित है। मीडिया की ताकत पूँजी नहीं है। जनता या पाठक-दर्शक है। यदि मीडिया का वर्तमान ढाँचा अपनी साख को ध्वस्त करके सूचना को खरीदने और बेचने लायक कमोडिटी में तब्दील करना चाहता है तो मीडिया की ओनरशिप के बारे में सोचा जाना चाहिए।

चूंकि सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों पर पहल स्टेट और सिविल सोसायटी को लेनी होती है, इसलिए यह राजनेताओं और जन-प्रतिनिधियों के लिए भी महत्वपूर्ण विषय है। इसके कानूनी और सांस्कृतिक पहलू भी हैं। कानूनी व्यवस्था से भी सारी बातें ठीक नहीं हो जातीं। सार्वजनिक व्यवस्था में बीबीसी और जापान के एनएचके काम कर सकते हैं, पर हमारे यहां तमाम कानूनी बदलाव के बावजूद प्रसार भारती कॉरपोरेशन नहीं कर पाता। हमारा लोकतंत्र और व्यवस्थाएं इवॉल्व कर रहीं हैं। उसके भीतर से नई बातें निकलेंगी। नई प्रोसेस, नए चैक्स एंड बैलेंसेज़ और मॉनीटरिंग आएगी। शायद पाठक भी हस्तक्षेप करेगा, जो अभी तक मूक दर्शक है। पेड न्यूज समस्या नहीं समस्या का एक लक्षण है। उसे लेकर पब्लिक स्क्रूटनी शुरू हुई है, यह उसके समाधान का लक्षण है। 


पत्रकारिता के समांतर है उसका कारोबार

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प्रस्तुति- - अखौरी प्रमोद, दिनेश कुमार सिन्हा






जब हम मीडिया के विकास, क्षेत्र विस्तार और गुणात्मक सुधार की बात करते हैं, तब सामान्यतः उसके आर्थिक आधार के बारे में विचार नहीं करते। करते भी हैं तो ज्यादा गहराई तक नहीं जाते। इस वजह से हमारे एकतरफा होने की संभावना ज्यादा होती है। कहने का मतलब यह कि जब हम मूल्यबद्ध होते हैं, तब व्यावहारिक बातों को ध्यान में नहीं रखते। इसके विपरीत जब व्यावहारिक होते हैं तब मूल्यों को भूल जाते हैं। जब पत्रकारिता की बात करते हैं, तब यह नहीं देखते कि इतने लोगों को रोजी-रोज़गार देना और साथ ही इतने बड़े जन-समूह के पास सूचना पहुँचाना मुफ्त में तो नहीं हो सकता।शिकायती लहज़े में अक्सर कुछ लोग सवाल करते हैं कि मीडिया की आलोचना के पीछे आपकी कोई व्यक्तिगत पीड़ा तो नहीं?ऐसे सवालों के जवाब नहीं दिए जा सकते। दिए भी जाएं तो ज़रूरी नहीं कि पूछने वाला संतुष्ट हो। बेहतर है कि हम चीज़ों को बड़े फलक पर देखें। व्यक्तिगत सवालों के जवाब समय देता है।

पत्रकार होने के नाते हमारे पास अपने काम का अनुभव और उसकी मर्यादाओं से जुड़ी धारणाएं हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि हम कारोबारी मामलों को महत्वहीन मानें और उनकी उपेक्षा करें। मेरा अनुभव है कि मीडिया-बिजनेस में तीन-चार तरह की प्रवृत्तियाँ हैं, जो व्यक्तियों के मार्फत नज़र आती हैं। एक है कि हमें केवल पत्रकारीय कर्म और मर्यादा के बारे में सोचना चाहिए। कारोबार हमारी समझ के बाहर है। पत्रकारीय कर्म के भी अंतर्विरोध हैं। एक कहता है कि हम जिस देश-काल को रिपोर्ट करते हैं, उससे निरपेक्ष रहें। जिस राजनीति पर लिखते हैं, उसमें शामिल न हों। दूसरा कहता है कि राजनीति एक मूल्य है। मैं उस मूल्य से जुड़ा हूँ। मेरे मन में कोई संशय नहीं। मैं एक्टिविस्ट हूँ, वही रहूँगा।

तीसरा पत्रकारीय मूल्य से हटकर कारोबारी मूल्य की ओर झुकता है। वह कारोबार की ज़रूरत को भी आंशिक रूप से समझना चाहता है। चौथा कारोबारी एक्टिविस्ट है यानी वह पत्रकार होते हुए भी खुलेआम बिजनेस के साथ रहना चाहता है। वह मार्केटिंग हैड से बड़ा एक्सपर्ट खुद को साबित करना चाहता है। पाँचवाँ बिजनेसमैन है, जो कारोबार जानता है, पर पत्रकारीय मर्यादाओं को तोड़ना नहीं चाहता। वह इस कारोबार की साख बनाए रखना चाहता है। छठे को मूल्य-मर्यादा नहीं धंधा चाहिए। पैसा लगाने वाले ने पैसा लगाया है। उसे मुनाफे के साथ पैसे की वापसी चाहिए। आप इस वर्गीकरण को अपने ढंग से बढ़ा-घटा सकते हैं। इस स्पेक्ट्रम के और रंग भी हो सकते हैं। एक संतुलित धारणा बनाने के लिए हमें इस कारोबार के सभी पहलुओं का विवेचन करना चाहिए।

इन दिनों ब्लॉगिंग चर्चित विषय है। चिट्ठाजगत से हर रोज तकरीबन दस-पन्द्रह नए चिट्ठों के पंजीकरण की जानकारी दी जाती है। वास्तविक नए ब्लॉगों की संख्या इससे कहीं ज्यादा होगी। चिट्ठाजगत में पंजीकृत चिट्ठों की संख्या पन्द्रह हजार के पास पहुँच रही है। हर रोज चार सौ से पाँच सौ के बीच ब्लॉग पोस्ट आती हैं। यानी इनमें से पाँच प्रतिशत भी नियमित रूप से नहीं लिखते। एक तरह की सनसनी है। एक नई चीज़ सामने आ रही है। एक लोकप्रिय एग्रेगेटर ब्लॉगवाणी के अचानक बंद हो जाने से ब्लॉगरों में निराशा है। इस बीच दो-एक नए एग्रेगेटर तैयार हो रहे हैं। यह सब कारोबार से भी जुड़ा है। कोई सिर्फ जनसेवा के लिए एग्रेगेटर नहीं बना सकता। उसका कारोबारी मॉडल अभी कच्चा है। जिस दिन अच्छा हो जाएगा, बड़े इनवेस्टर इस मैदान में उतर आएंगे। ब्लॉग लेखक भी चाहते हैं कि उनके स्ट्राइक्स बढ़ें। इसके लिए वे अपने कंटेंट में नयापन लाने की कोशिश करते हैं। इसके लिए कुछ ने सनसनी का सहारा भी लिया है। अपने समूह बना लिए हैं। एक-दूसरे का ब्लॉग पढ़ते हैं। टिप्पणियाँ करते हैं। वे अपनी बात ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाना चाहते हैं। साथ ही इसे व्यावसायिक रूप से सफल भी बनाना चाहते हैं। मिले तो विज्ञापन भी लेना चाहेंगे। ध्यान से पढ़ें तो मीडिया बिजनेस की तमाम प्रवृत्तियाँ आपको यहाँ मिलेंगी।

भारत में अभी प्रिंट मीडिया का अच्छा भविष्य है। कम से कम दस साल तक बेहतरीन विस्तार देखने को मिलेगा। इसके साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का विस्तार हो रहा है। वह भी चलेगा। उसके समानांतर इंटरनेट का मीडिया आ रहा है, जो निश्चित रूप से सबसे आगे जाएगा। पर उसका कारोबारी मॉडल अभी शक्ल नहीं ले पाया है। मोबाइल तकनीक का विकास इसे आगे बढ़ाएगा। तमाम चर्चा-परिचर्चाओं के बावज़ूद इंटरनेट मीडिया-कारोबार शैशवावस्था में, बल्कि संकट में है।

दुनिया के ज्यातर बड़े अखबार इंटरनेट पर आ गए हैं। वॉशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, गार्डियन, टेलीग्राफ, इंडिपेंडेंट, डॉन, टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दू से लेकर जागरण, भास्कर, हिन्दुस्तान और अमर उजाला तक। ज्यादातर के ई-पेपर हैं और न्यूज वैबसाइट भी। पर इनका बिजनेस अब भी प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मुकाबले हल्का है। विज्ञापन की दरें कम हैं। इनमे काम करने वालों की संख्या कम होने के बावजूद उनका वेतन कम है। धीरे-धीरे ई-न्यूज़पेपरों की फीस तय होने लगी है। रूपर्ट मर्डोक ने पेड कंटेंट की पहल की है। अभी तक ज्यादातर कंटेंट मुफ्त में मिलता है। रिसर्च जरनल, वीडियो गेम्स जैसी कुछ चीजें ही फीस लेकर बिक पातीं हैं। संगीत तक मुफ्त में डाउनलोड होता है। बल्कि हैकरों के मार्फत इंटरनेट आपकी सम्पत्ति लूटने के काम में ही लगा है। मुफ्त में कोई चीज़ नहीं दी जा सकती। मुफ्त में देने वाले का कोई स्वार्थ होगा। ऐसे में गुणवत्ता और वस्तुनिष्ठा नहीं मिलती। डिजिटल इकॉनमी को शक्ल देने की कोशिशें हो रहीं हैं।

कभी मौका मिले तो हफिंगटनपोस्ट को पढ़ें। इंटरनेट न्यूज़पेपर के रूप में यह अभी तक का सबसे सफल प्रयोग है। पिछले महीने इस साइट पर करीब ढाई करोड़ यूनीक विज़िटर आए। ज्यादातर बड़े अखबारों की साइट से ज्यादा। पर रिवेन्यू था तीन करोड़ डॉलर। साधारण अखबार से भी काफी कम। हफिंगटन पोस्ट इस वक्त इंटरनेट की ताकत का प्रतीक है। करीब छह हजार ब्लॉगर इसकी मदद करते हैं। इसके साथ जुड़े पाठक बेहद सक्रिय हैं। हर महीने इसे करीब दस लाख कमेंट मिलते हैं। चौबीस घंटे अपडेट होने वाला यह अखबार दुनिया के सर्वश्रेष्ठ अखबारों की कोटि की सामग्री देता है। साथ में वीडियो ब्लॉगिंग है। सन 2005 से शुरू हुई इस न्यूज़साइट के शिकागो, न्यूयॉर्क, डेनवर, लॉस एंजलस संस्करण निकल चुके हैं। पिछले साल जब फोर्ब्स ने पहली बार मीडिया क्षेत्र में सबसे प्रभावशाली महिलाओं की सूची छापी तो इस साइट की को-फाउंडर एरियाना हफिंगटन को बारहवें नम्बर पर रखा।

इंटरनेट के मीडिया ने अपनी ताकत और साख को स्थापित कर दिया है। पर यह साख बनी रहे और गुणवत्ता में सुधार हो इसके लिए इसका कारोबारी मॉडल बनाना होगा। नेट पर पेमेंट लेने की व्यवस्था करने वाली एजेंसी पेपॉल को छोटे पेमेंट यानी माइक्रो पेमेंट्स के बारे में सोचना पड़ रहा है। जिस तरह भारत में मोबाइल फोन के दस रुपए के रिचार्ज की व्यवस्था करनी पड़ी उसी तरह इंटरनेट से दो रुपए और दस रुपए के पेमेंट का सिस्टम बनाना होगा। चूंकि नेट अब मोबाइल के मार्फत आपके पास आने वाला है, इसलिए बहुत जल्द आपको चीजें बदली हुई मिलेंगी। और उसके बाद कंटेंट के कुछ नए सवाल सामने आएंगे। पर जो भी होगा, उसमें कुछ बुनियादी मानवीय मूल्य होंगे। वे मूल्य क्या हैं, उनपर चर्चा ज़रूर करते रहिए।

चलते-चलते

6 टिप्‍पणियां:

  1. कारोबार का सरोकार इंसानियत को शर्मसार ना करे इस बात का ध्यान रखना सबके लिए जरूरी है जो आज सभी कारोबारी भूल चुके हैं और लोभ-लालच में आकर उनको खुद नहीं पता है की वो अपने और अपने बच्चों के लिए एक सर्वनाश करने वाले वातावरण का निर्माण कर रहें हैं | हम सबको एकजुट होकर इसके खिलाप गंभीर जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है |
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  2. Good article but I feel that the yellow journalism is still very much active. Now there is a debate going on about the 'paid news'!
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  3. सर, सबसे पहले तो इस जानकारीपरक पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया।
    आपने बताया कि मीडिया के बारे में जब कभी हम सोचते हैं तो बहुदा, एक आयाम से ही सोचते हैं। यह बात बिल्कुल सही है। प्रिंट हो या इलेक्ट्रिानिक, दोनों जगह पैसे चाहिए और पैसों के लिए विज्ञापन। यह बात अलग है कि कुछ लोग बिक रहे हैं जो गलत है इसमें सुधार किया जाना चाहिए। जो लोग मीडिया से जुड़े नहीं है और इसके बारे में कुछ भी नहीं जानते वे मीडिया को गाली देते हैं। उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि अगर दो तीन और चार रुपए में मिलने वाला अखबार अगर उन्हें पन्द्रह या बीस रुपए में मिले तो क्या वह इसे खरीदना पसंद करेंगे तो मुझे लगता है अधिकतम लोग नकारात्मक जवाब देंगे। और मीडिया की खिंचाई के लिए कह दो तो तैयार रहेंगे। शो बिजनेस की बात करें तो जब प्रचार चाहिए तो मीडिया और जब प्रचार हो गया तो मीडिया को गाली या धक्का मुक्की। खैर ये लम्बी बहस का मुद्दा हो सकता है।
    दूसरी बात आपने कही कि इस समय करीब पांच फीसदी ब्लॉगर भी नियमित रूप से नहीं लिखते। इसके बारे में मैं कहना चाहूंगा कि दरअसल ब्लॉगर कोशिश करता है वह वहां कुछ नए और अलग प्रकार की सामग्री प्रस्तुत करे, और रोज नए नए विचार आना संभव नहीं है। शायद यही कारण है कि रोज ब्लॉग लिखने वालों की संख्या काफी कम है। जो ब्लॉग रोज लिखे भी जा रहे हैं उनमें पढऩे लायक सामग्री बहुत कम होती है।
    वैसे आपकी यह पोस्ट बहुत शानदार रही बहुत सारी जानकारी मिली। हां हाफिंगटन पर समय मिलते ही जरूर जाउंगा।
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  4. पंकज जी ब्लॉगरों के बारे में मैने केवल तथ्य लिखा है। कम लिखने के कारण अपनी जगह वाजिब हैं। मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि इसने अनेक लोगों को लिखने के लिए प्रेरित किया है। पर रीडरशिप उस अनुपात में न हो पाने के कारण उसका आर्थिक स्वरूप निखर नहीं पा रहा है। मैने शुद्ध आर्थिक अर्थ में यह बात लिखी है। यदि ब्लॉग लिखने के लिए किी प्रकार का प्रोत्साहन हो तो स्थिति बेहतर हो सकती है।
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  5. यह बात सही है सर, अखबारों और पत्रिकाओं में लिखने के लिए प्रोत्साहन राशि मिलती है, इसलिए हर कोई लिखने को तैयार रहता है। यहां भी प्रोत्साहन राशि हो तो कुछ अच्छा हो सकता है।
    अब सवाल यही है कि प्रोत्साहित कैसे किया जाए? तो ब्लॉग पर जितने अधिक हिट होंगे उसी हिसाब से विज्ञापन दिया जा सकता है। हिट कौन करेगा? हिट वही करेगा जो या तो खुद लिखता हो या पढऩे का शौकीन हो। इनकी संख्या बहुत कम है। मुझे लगता है समस्या यहीं है।
    प्रत्‍युत्तर दें
  6. सर नमस्कार इस लेख को पढकर कई तरह की जानकारी मिली. लेकिन मेरे दिमाग में अक्सर प्रशन उठता है मीडिया का जिस तरह विस्तार हो रहा है. उसी तरह उसकी गुणवत्ता का भी हराश हो रहा है. बिज़नस की बात बिलकुल ठीक है. लेकिन जब बात पैड न्यूज़ की होती है तो मामला कुछ समझ में नहीं आता है..

जरा रूके और ठहर कर पत्रिका के भीतर देखे

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प्रस्तुति-- अखौरी प्रमोद, रोहित सिंह बघेल


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मीडिया की भाषा से जुड़े सवाल

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किंशुक पाठक,
 प्राध्यापक, बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय

पत्रकारिता ने हिंदी भाषा को नया जीवंत रूप और संस्कार देने का काम किया है। माना जाता है कि भाषा का ज्ञान पत्रकार का सबसे बड़ा गुण है। साफ है, जिस पत्रकार की भाषा जितनी पैनी होगी, वह उतना ही सफल और सक्षम होगा। किसी भी भाषा की रचना सामान्य परिस्थितियों में नहीं होती। भाषा परिवर्तनों में जन्म लेती है और परिवर्तनों के साथ ही विकसित होती है। नए समाज में विकास की नई परिस्थितियां पैदा होती हैं, नई घटनाएं जन्म लेती हैं। युद्ध, क्रांति या आंदोलन के नए रूप खड़े होते हैं, तब उन्हें अभिव्यक्त करने के लिए नई भाषा, शैली और शब्दावली की जरूरत महसूस होती है। पत्र-पत्रिकाओं का सीधा रिश्ता सामान्य जनता से होता है, इसलिए भाषा में बदलाव की यह जरूरत सबसे पहले समाचार पत्रों को ही महसूस होती है। ऐसे संक्रमण काल में पत्रों के सामने दो नए काम आ खड़े होते हैं- नई शब्दावली की रचना और उसका चलन।
भाषा की रचना में अक्सर ऐसे मोड़ आते हैं कि कुछ नए शब्द किसी खास घटनाक्रम के संदर्भ में अस्तित्व में तो आते ही हैं, किंतु जैसे ही उस घटनाक्रम की चर्चा थमती है, वे शब्द भी धीरे-धीरे लुप्त होने लगते हैं। ऐसे कई शब्द अल्पजीवी होते हैं और कई दीर्घजीवी।  कभी-कभी तो लुप्तप्राय शब्द भी अचानक अस्तित्व में आ जाते हैं। जैसे ‘महाभारत’ टेलीविजन सीरियल में ‘भ्राताश्री’, ‘माताश्री’ वगैरह।
हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार, विकास और परिमार्जन में पत्र-पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। न केवल साहित्यिक दृष्टि से पत्र-पत्रिकाओं का योगदान हिंदी की समृद्धि में उल्लेखनीय है, बल्कि भाषा की दृष्टि से भी वे महत्वपूर्ण हैं। भाषाशास्त्रियों की धारणा है कि प्रयोग के क्षेत्रों के अनुसार भाषा का एक विशिष्ट स्वरूप निर्धारित होता है। भाषा अपनी शब्दावली का विकास स्वयं करती है या प्रचलित शब्दावली में से ही शब्दों का चयन कर लेती है। यही कारण है कि मीडिया और समाचार पत्रों में प्रचलित भाषा साहित्यिक भाषा से कुछ अलग-सी दिखाई देती है। आधुनिक युग में पत्रकारिता पर व्यापक अनुसंधान हुए हैं, किंतु पत्रों की भाषा पर अलग से कोई ठोस काम नहीं किया जा सका है। समाचार पत्रों की भाषा विशुद्ध साहित्यिक नहीं होती, किंतु वह एकदम आमफहम भी नहीं होती। इन दोनों भाषाओं के बीच में ही कहीं पत्रों की भाषा की स्थिति होती है।
लेकिन आजकल भाषा के स्वरूप में विकृति आती जा रही है और व्याकरण के नियमों की घोर उपेक्षा हो रही है। नई परिस्थितियों का वर्णन करने के लिए मीडिया और समाचार पत्र भाषा के जिस स्वरूप को अपना रहे हैं, वह साहित्य में उससे भिन्न है। मीडिया और समाचार पत्रों की भाषा के लिए शुद्धतावादी दृष्टिकोण अपनाना बुरा नहीं है, किंतु भाषा जनसाधारण के लिए सुबोध होनी चाहिए। डेनियल डेफो का कहना था, ‘यदि कोई मुझसे पूछे कि भाषा का सर्वोत्तम रूप क्या हो, तो मैं कहूंगा कि वह भाषा, जिसे सामान्य वर्ग के भिन्न-भिन्न क्षमता वाले पांच सौ व्यक्ति (मूर्खो और पागलों को छोड़कर) अच्छी तरह से समझ सकें।’ आजकल बोलचाल के ठेठ शब्दों के साथ ही पुनरावृत्तिमूलक शब्दों का प्रयोग भी हिंदी समाचार पत्रों में होने लगा है।
हिंदी अखबारों में अनुवाद की जो भाषा घुस रही है, वह चिंता की बात है। यदि बंगाल में कोई घटना घटती है और उसका समाचार बांग्ला में छपता है, तो अंग्रेजी की समाचार एजेंसियां उसे अंग्रेजी में अनूदित कर हिंदी पत्रों को भेजती हैं। हिंदी समाचार पत्र उसका हिंदी में अनुवाद कर छापते हैं, जिससे अक्सर घटना की प्रस्तुति की मूल भावना ही समाप्त हो जाती है। एक तो हिंदी समाचार पत्रों में प्रयुक्त होने वाली हिंदी अंग्रेजी की अनुचर बनकर कांतिहीन और अवरुद्ध गति वाली हो गई है। दूसरे अनुवाद की जूठन और अंग्रेजी की प्रवृत्ति से तैयार किए गए समाचारों से पत्रकारिता का प्रभाव जनमानस पर सीमित हो रहा है। साथ ही भाषा की दृष्टि से हिंदी पत्रकारिता अपने मौलिक स्वरूप की स्थापना नहीं कर पा रही है।
आधुनिक हिंदी समाचार पत्रों में इस प्रकार की दोषपूर्ण भाषा के अनेक उदाहरण खोजे जा सकते हैं। अनुवाद में सरल, तद्भव और प्रचलित शब्दों के स्थान पर तत्सम शब्दावली के प्रति आग्रह के कारण अखबारों की भाषा कठिन और बोझिल हो गई है। पाना, लेना, देना की जगह प्राप्त करना, ग्रहण करना और दान करना जैसे प्रयोगों की क्या आवश्यकता है? हिंदी समाचार पत्रों में भाषा का विन्यास भी कर्मवाच्य में होता है। यह हिंदी की प्रकृति के अनुकूल नहीं है। इसीलिए ‘द्वारा’ शब्द से बार-बार कवायद कराई जाती है और किए जाने, लिए जाने और दिए जाने जैसे प्रयोग करने पड़ते हैं।
मौजूदा हिंदी अखबारों की भाषा में एकरूपता का अभाव दिखाई देता है। कभी-कभी तो किसी समाचार पत्र के एक ही पृष्ठ पर, यहां तक कि एक ही खबर में एक शब्द को भिन्न-भिन्न रूपों में प्रयोग किया जाता है। इस बहुरूपता से समाचार पत्र की मर्यादा को कितनी ठेस पहुंचती है, इसका ध्यान अक्सर नहीं दिया जाता है। हिंदी में हम जैसा बोलते हैं, वैसा ही लिखते हैं, अन्य भाषाओं में ऐसा नहीं होता। पहले हिंदी के अखबार ‘बंद’ को ‘बन्ध’ लिखा करते थे, जैसे ‘बंगाल बन्ध’ लिखा करते थे। यह अंग्रेजी के भाव के कारण ही हुआ है। कुछ लोग एक पूर्व केंद्रीय मंत्री के उपनाम को ‘छागला’ लिखते रहे हैं, कुछ लोग ‘चागला।’ अब शुद्ध किसे माना जाए?
आज का पत्रकार भाषा को गंभीर दृष्टि से नहीं देखता और न ही शब्दों को लेकर कहीं बहस होती है। भाषा में ‘शब्दों’ का जंजाल खड़ा करके शाब्दिक सम्मोहन की स्थिति पैदा करना ठीक नहीं। एक ही भाव को व्यक्त करने के लिए अनेक शब्दों और उनके पर्यायों से परेड करवाना ठीक नहीं। लेकिन पाठकों से सस्ती सराहना हासिल करने के लिए लोग ऐसा ही करने लगे हैं, जैसे कदाचार, दुराचार, अनाचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार, अत्याचार से मुक्त होने के लिए। इन शब्दों में बड़ा सूक्ष्म भेद है। जब तक यह भेद पाठकों के सामने स्पष्ट नहीं किया जा सकता, बात पूरी तरह उसके पल्ले नहीं पड़ सकती।
आज प्रचार-प्रसार तथा संवाद स्थापित करने का सबसे सशक्त माध्यम मीडिया ही है। जिससे अनेक तरह की सूचनाएं और ज्ञानवर्धक सामग्री आसानी से उपलब्ध हो जाती है। लोग पत्र-पत्रिकाओं के शब्दों को प्रामाणिक मानकर ग्रहण करते हैं, चाहे वे अशुद्ध ही क्यों न हों। किंतु समाचार पत्र-पत्रिकाओं और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भ्रामक शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से होता रहा है। इसीलिए अखबारों को अपनी भाषा पर खास ध्यान देना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

हिन्दी पत्रकारिता में अनुवाद: शब्दानुवाद

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(पिछले लेख से आगे) मैंने इस बात की चर्चा की थी कि एनडीटीवी के प्रियदर्शनजी ने तीन शब्दों (वस्तुतः पदबंधों या फ्रेजेज), ‘फैबुलस फोर’, ‘यूजर फेंडली’ तथा ‘पोलिटिकली करेक्ट’, का उदाहरण देते हुए सवाल उठाया था कि क्या अनुवाद हेतु इनके लिए हिन्दी में कोई उपयुक्त शब्द नहीं हैं ? मेरा अनुमान है कि उनका सवाल वस्तुतः अपनी ही न्यूज मीडिया (समाचार माध्यम) की बिरादरी के प्रति संबोधित है । ये सवाल क्यों उठा है ? शायद इसलिए कि आजकल मीडिया के लोग या तो सही-सही शब्द अपने अनुवाद में इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, या बिलाझिझक धड़ल्ले से अंग्रेजी के ही शब्द यथावत् प्रयोग में ले रहे हैं ।
क्या वाकई में हिन्दी इतनी कंगाल है कि उसमें समुचित अभिव्यक्ति के लिए शब्द ही नहीं हैं ? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए सर्वप्रथम मैंने उक्त तीनों पदबंधों के लिए हिंदी में समुचित तथा तुल्य पदों/पदबंधों को खोजने की कोशिश की । मेरी कठिनाई शुरू हुयी ‘फैबुलस फोर’ से । मेरे शब्दकोशों में ‘फैबुलस’ के अर्थ अवश्य मिलते हैं और वे भी कुछ हद तक परस्पर भिन्न-भिन्न (जैसे मिथकीय, पौराणिक, अद्वितीय, चामत्कारिक, असाधारण आदि) । परंतु ‘फैबुलस फोर’ एक सुस्थापित पदबंध के रूप में उन शब्दकोशांं में स्थान नहीं पा सका है । अंतरजाल (इंटरनेट) की शरण में जाने पर मुझे पता चला कि यह तो अलग-अलग प्रसंगों में परस्पर भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, यथा स्वेडन के एक गायकदल के उन चार गीतों के लिए समीक्षकों ने ‘फैबुलस फोर’ नाम दिया जो कई माह तक शीर्षस्थ 10 गीतों में शामिल रहे (1966-67) । यानी वे असाधारण चार या अद्वितीय चार गीत कहलाने लगे । इसके अलावा साठ के दशक में ‘बीटल’ कहे जाने वाले चार गायकों के दल को भी ‘फैबुलस फोर’ का नाम दिया गया था । इसी प्रकार 1991 में प्रदर्शित एक अमेरिकी चलचित्र का नाम भी ‘फैबुलस फोर’ रखा गया था, क्योंकि यह चार असाधारण श्रेणी के कुश्तीबाजों की कहानी पर आधारित थी । और भी कई दृष्टांत देखने को मिले हैं । अभी कल-परसों जब मैं अपने हिन्दी तथा अंग्रेजी अखबार पढ़ रहा था तो उसमें चार क्रिकेटरों (सचिन, द्रविण, लक्ष्मण तथा गांगुली) को ‘फैबुलस फोर’ और संक्षेप में ‘फैब फोर’ कहा गया था । अब आप ही निष्कर्ष निकालिए कि उक्त पदबंध के लिए हिन्दी में क्या लिखा जाये । जाहिर है कि यह पदबंध प्रसंगभेद के अनुरूप लीक से हटकर कुछ अद्वितीय-से लगने वाले चार जनों/वस्तुओं को इंगित करता है, और तदनुसार उसे चामत्कारिक/असाधारण/अद्वितीय या कुछ इसी प्रकार की चौकड़ी अथवा चौगड्डा कहा जा सकता है । तात्पर्य यह है कि क्या उचित होगा इसे प्रसंग को ठीक-से समझ कर ही तय किया जा सकता है और स्वयं सार्थक शब्द/पदबंध खोजे/रचे जा सकते हैं ।
अब आइये अगले पदबंध ‘यूजर फेंडली’ पर । इस पदबंध से मेरा परिचय सर्वप्रथम तब हुआ जब मुझे भौतिकी के साथ-साथ कंप्यूटर विज्ञान पढ़ाने का अवसर अपनी शिक्षण संस्था में मिला था । मेरी जानकारी में यह वस्तुतः कंप्यूटरों के संदर्भ में ही सबसे पहले इस्तेमाल हुआ है, और ये बात मेरी अंग्रेजी डिक्शनरी भी कहती है । अदि आप कंप्यूटरों के विकास पर नजर डालें तो पायेंगे कि आरंभ में उनको प्रयोग में लेना हर किसी के बस में नहीं होता था । उनके प्रयोग की विधि के लिए समुचित प्रशिक्षण की आवश्यकता होती थी । समय के साथ उनकी कार्यप्रणाली में परिवर्तन एवं सुधार होता गया और उनके प्रयोग के लिए अंग्रेजी शब्दों पर आधारित निदेशात्मक भाषाओं का विकास हुआ । इस प्रगति के बाद भी हर किसी के लिए उन्हें प्रयोग में लेना संभव नहीं था । समुचित जानकारी, प्रशिक्षण तथा अध्यास की तब भी आवश्यकता रहती थी । पर आज स्थिति एकदम बदल गयी है । उन्हें प्रयोग में लेना कितना सरल या कठिन है इस भाव को व्यक्त करने के लिए ही इस पदबंध का प्रयोग किया जाने लगा । और आज इसने कई अन्य क्षेत्रों में भी अपनी पैठ बना ली है । वास्तव में ‘यूजर फेंडली’ यह स्पष्ट करता है कि किसी युक्ति, उपकरण, क्रियाप्रणाली अथवा साफ्टवेयर को प्रयोग में लेना कितना सरल है । अब सोचा जा सकता है कि इस भाव को कैसे व्यक्त किया जाये ।
भारत सरकार के वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग ने ‘यूजर फेंडली’ के लिए ‘उपयोक्ता मैत्रीपूर्ण’ सुझाया है । मुझे यह पदबंध संतोषप्रद नहीं लगता है । ऐसा प्रतीत होता है कि आयोग का जोर शाब्दिक अनुवाद पर रहता है न कि भावाभिव्यक्ति पर । इस प्रकार शब्द के लिए शब्द के सिद्धांत पर आधारित अनुवाद कभी-कभी बेहूदा और निरर्थक हो सकता है, जैसा कि ‘गूगल’ पर उपलब्ध अभी विकसित हो रहे ‘अनुवादक’ साफ्टवेयर के माध्यम से प्राप्त अनुवाद के साथ देखा जा सकता है । मेरी राय में ‘यूजर फेंडली’ के लिए सीधे तौर पर ‘सुविधाजनक’ शब्द प्रयोग में लेना पर्याप्त है । और यदि थोड़ा बेहतरी चाहें तो ‘सुविधाप्रदायक’ ठीक होगा । मुझे लगता है कि अंग्रेजी के सामने हम हिंदुस्तानी इस कदर नतमस्तक रहते हैं कि अनुवाद के समय उसके वाक्यों/वाक्यांशों के निहितार्थ को समझकर उसे अपने तरीके से व्यक्त करने की भी हिम्मत नहीं कर पाते हैं । हमारा जोर तो इस पर होना चाहिए कि कही-लिखी गयी बात को अपनी भाषा में अपने शब्दों में हम बिना अर्थ खोये कह पा रहे कि नहीं ।
आइये अब आरंभ में उल्लिखित तीसरे पदबंध ‘पोलिटिकली करेक्ट’ की बात करें । मैं नहीं समझ पाया कि यह उदाहरण संबंधित लेखक ने क्या सोचकर दिया । क्या इसके अर्थ ‘राजनैतिक दृष्टि से उचित/मान्य/स्वीकार्य’ नहीं हैं ? अथवा इसके बदले ‘सियासी तौर पर सही’ कहना ठीक नहीं होगा ? तब समस्या क्या है ? इन वाक्यांशों को सोचने या समझने में कौन सी खास मेहनत करनी पड़ रही है । हां, समस्या तब अवश्य होगी जब शब्द के लिए शब्द वाले सिद्धांत पर हमारा जोर रहेगा । पर किसी भी भाषा में वैसा अनुवाद न तो सदैव संभव हो सकता है और न ही वह अनिवार्यतः वांछित होगा ।
अभी बहुत कुछ इस विषय पर कहना है, अतः चर्चा जारी रहेगी । – योगेन्द्र
Posted by योगेन्द्र जोशी
Filed in अंग्रेजी, अनुवाद, पत्रकारिता, हिन्दी, Uncategorized
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हिन्दी पत्रकारिता तथा कुछ और भी

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हम हिंदुस्तानियों का अंग्रेजी-मोह अद्वितीय और तारीफे-काबिल है । आम पढ़े-लिखे हिंदुस्तानी की दिली चाहत रहती है वह इतनी अंगरेजी सीख ले कि उसमें बिला रुकावट गिटिर-पिटिर कर सके और दूसरों को प्रभावित कर सके । अंगरेजी की खातिर विरासत में मिली अपनी मातृभाषा की अनदेखी करना भी उसे मंजूर रहता है । लेकिन सब कुछ करने के बावजूद कोई न कोई कमी रह ही जाती है । यह कमी कभी-कभी उच्चारण के स्तर पर साफ नजर आ जाती है । पत्रकारिता से जुड़े लोगों के मामले में यह कमी तब नजर में आ जाती है जब उन्हें अंगरेजी में उपलब्ध समाचार की हिन्दी अनुवाद करते हुए कुछ अंगरेजी शब्दों को देवनागरी में लिखना पड़ता है । आगे के चित्र में ऐसे दो दृष्टांत पेश हैं:
Arjun puraskar & Vogue mag
गौर करें कि ऊपर दिये चित्र में अंगरेजी के दो शब्दों,‘याचिंग’ एवं ‘वोग्यू’, को त्रुटिपूर्ण उच्चारण के अनुरूप देवनागरी में लिखा गया है । माथापच्ची करने पर मुझे एहसास हुआ कि ‘याचिंग’ वस्तुतः ‘यौटिंग (या यॉटिंग?)’ के लिए लिखा गया है जिसकी वर्तनी (स्पेलिंङ्) YACHTINGहोती हैं । YACHTवस्तुतः ‘पालदार या ऐसी ही शौकिया खेने के लिए बनी नाव को कहा जाता है । तदनुसार YACHTINGसंबंधित नौकादौड़ में भाग लेने का खेल होता है । जिस व्यक्ति ने इस शब्द का सही उच्चारण न सुना हो (रोजमर्रा की बातचीत में इसका प्रयोग ही कितना होगा भला!) और शब्दकोश की मदद न ली हो, वह इसे यदि‘याचिंग’ उच्चारित करे तो आश्चर्य नहीं है । यह उच्चारण बड़ा स्वाभाविक लगता है । पर क्या करें, अंगरेजी कभी-कभी इस मामले में बड़ा धोखा दे जाती है
और दूसरा शब्द है‘वोग्यू’। समाचार से संबंधित चित्र में जो पत्रिका दृष्टिगोचर होती है उसका नाम है VOGUEनजर आता है । यह अंगरेजी शब्द है जिसका उच्चारण है‘वोग’ और अर्थ है ‘आम प्रचलन में’, ‘व्यवहार में सामान्यतः प्रयुक्त’, ‘जिसका चलन अक्सर देखने में आता है’, इत्यादि । अपने स्वयं के अर्थ के विपरीत VOGUEप्रचलन में अधिक नहीं दिखता और कदाचित् अधिक जन इससे परिचित नहीं हैं । मैंने अपने मस्तिष्क पर जोर डालते हुए उन शब्दों का स्मरण करने का प्रयास किया जो वर्तनी के मामले में मिलते-जुलते हैं । मेरे ध्यान में ये शब्द आ रहे हैं (और भी कई होंगे):
argue, dengue, demagogue, epilogue, intrigue, league, prologue, rogue, synagogue, The Hague (नीदरलैंड का एक नगर), tongue.
इनमें से पहला, argue (बहस करना), एवं अंतिम, tongue (जीभ), सर्वाधिक परिचित शब्द हैं ऐसा मेरा अनुमान है । और दोनों के उच्चारण में पर्याप्त असमानता है । पहला‘आर्ग्यू’है तो दूसरा ‘टङ्’। अतः बहुत संभव है कि मिलते-जुलते वर्तनी वाले अपरिचित नये शब्द का उच्चारण कोई पहले तो कोई अन्य दूसरे के अनुसार करे । उक्त उदाहरण में संभव है कि संवाददाता‘आर्ग्यू’से प्रेरित हुआ हो । समता के आधार पर उच्चारण का अनुमान अंगरेजी में अ संयोग से स्वीकार्य हो सकता है । सच कहूं तो argueकी तरह का कोई शब्द मेरी स्मृति में नहीं आ रहा है । ध्यान दें कि सूची में दिये गये शब्द dengue (मच्छरों द्वारा फैलने वाला एक संक्रमण) का भी उच्चारण शब्दकोश ‘डेंगे’ बताते हैं, न कि ‘डेंग्यू’या ‘डेंङ्’। सूची के अन्य सभी के उच्चारण में परस्पर समानता है और वे इन दो शब्दों से भिन्न हैं ।
‘याचिंग’ तथा ‘वोग्यू’ टाइपिंग जैसी किसी त्रुटि के कारण गलती से लिख गये हों ऐसा मैं नहीं मानता । वास्तव में इस प्रकार के कई वाकये मेरे नजर में आते रहे हैं । हिंदी अखबारों में मैंने आर्चीव (archive आर्काइव के लिए), च्यू (chew चो),कूप (coup कू), डेब्रिस (debris डेब्री), घोस्ट (ghost गोस्ट),हैप्पी (happy हैपी), हेल्दी (healthy हेल्थी), आइरन (iron आयर्न), जिओपार्डाइज (jeopardize ज्येपार्डाइज ), ज्वैल (jewel ज्यूल), लाइसेस्टर (Leicester लेस्टर शहर), लियोपार्ड (leopard लेपर्ड), ओवन (oven अवन), सैलिस्बरी (Salisbury सॉल्सबरी शहर), सीजोफ्रीनिआ (schizophrenia स्कित्सफ्रीनिअ), आदि ।
दोषपूर्ण उच्चारणके अनुसार देवनागरी में लिखित शब्दों के पीछे क्या कारण हैं इस पर विचार किया जााना चाहिए । मेरा अनुमान है कि हिंदी पत्रकारिता में कार्यरत लोगों की हिंदी तथा अंगरेजी, दोनों ही, अव्वल दर्जे की हो ऐसा कम ही होता है । अपने देश में बहुत से समाचार तथा उन्नत दर्जे की अन्य जानकारी मूल रूप में अंगरेजी में ही उपलब्ध रहते हैं । मौखिक तौर पर बातें भले ही हिंदी में भी कही जाती हों, किंतु दस्तावेजी तौर पर तो प्रायः सभी कुछ अंगरेजी में रहता है । ऐसे में हिंदी पत्रकार अनुवाद के माध्यम से ही संबंधित जानकारी हिंदी माध्यमों पर उपलब्ध कराते हैं । व्याकरण के स्तर पर अच्छी अंगरेजी जानने वाले का उच्चारण ज्ञान भी अच्छा हो यह आवश्यक नहीं है, क्योंकि अंगरेजी में उच्चारण सीखना अपने आप में अतिरिक्त प्रयास की बात होती है । अतः समुचित अध्ययन के अभाव में त्रुटि की संभावना अंगरेजी में कम नहीं होती । तब अंगरेजी शब्द VOGUE एवं YACHTINGका देवनागरी में क्रमशः‘वोग्यू’ तथा ‘याचिंग’ लिखा जाना असामान्य बात नहीं रह जाती है ।
मेरी बातें किस हद तक सही हैं यह तो हिंदी पत्रकारिता में संलग्न जन ही ठीक-ठीक बता सकते हैं, अगर इस प्रयोजन से उन्होंने कभी अपने व्यवसाय पर दृष्टि डाली हो तो । अंगरेजी में उच्चारण सीखना कठिन कार्य हैइसकी चर्चा मुझे करनी है । इस बात पर मैं जोर डालना चाहता हूं कि वर्तनी-साम्य देखकर उच्चारण का अनुमान लगाना अंगरेजी में असफल हो सकता है । अपने मत की सोदाहरण चर्चा अगली पोस्टों में मैं जारी रखूंगा । – योगेन्द्र
विगत पोस्ट (२ जनवरी, २००९)के आगे । इस ब्लॉग पर प्रस्तुत मेरे लेख-शृंखला का उद्येश्य रहा है उन कुछ शब्दों की चर्चा करना, जिन्हें हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में सुनते और प्रयोग में लेते रहते हैं । चयनित शब्द केवल उदाहरण मात्र हैं । ऐसे अनेकों शब्द गिने जा सकते हैं जिनके अर्थ इतने स्पष्ट या असंदिग्ध नहीं होते हैं जितने हवा-पानी, देश-विदेश, मीठा-खट्टा या अंधकार-प्रकाश जैसे शब्दों के । मैं उन शब्दों की बात कर रहा हूं जिनके अर्थ श्रोता ठीक वही नहीं समझ रहा होता है जो वक्ता के मन में अपनी बात कहते समय रहती हैं । यह लेख शृंखला की अंतिम किश्त है । मैं स्वयं आश्वस्त नहीं हूं कि मेरी बातें पाठकगण ठीक वैसे ही समझ पा रहे होंगे जैसा कि मेरे मन में हैं । संभव है कि मैं कुछ कह रहा हूं और वे कुछ अलग ही समझ रहे हों !आगे पढ़ने के लिए >>यहां क्लिक करें
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विगत पोस्ट (२२ दिसंबर, २००८)के आगे ।
भ्रष्टाचार -भ्रष्टाचार भी उन तमाम शब्दों में से एक है जिसे हम आम जिंदगी में सुनते हैं । इस शब्द का सर्वाधिक प्रयोग राजनैतिक, शासकीय, प्रशासनिकएवं न्यायिकसंदर्भों में किया जाता है । इस शब्द को जोर-शोर से इस्तेमाल करते हुए सत्तासीन राजनैतिक दलों का विरोध किया जाता है और उन्हें सत्ताच्युत करने के प्रयास किये जाते रहे हैं । किंतु भ्रष्टाचार क्या है इसकी समझ सब की अपनी अलग-अलग है । प्रायः सभी लोग इसकी परिभाषा करते समय इस बात के लिए सचेत रहते हैं कि कहीं कही जा रही बात उनके स्वयं के विरुद्ध तो नहीं निकल पड़ेगी । वे कोई न कोई तर्क खोज ही लेते हैं जिसके आधार पर वे खुद साफ-सुथरे नजर आयें । सैद्धांतिक स्तर पर भ्रष्टाचार की असंदिग्ध तथा स्पष्ट व्याख्या करना कदाचित् संभव है, परंतु व्यवहार में कम ही लोग उसे स्वीकारेंगे । परिभाषा को थोड़ा-बहुत लचीला बनाने की आवश्यकता सभी मानते हैं और इस लचीलेपन के साथ ही शब्द के अर्थ अक्सर बेमानी हो जाते हैं ।शेष के लिए क्लिक करें >>
विगत पोस्ट (११ दिसंबर, २००८)के आगे ।
धर्मनिरपेक्षता– राजनीति के क्षेत्र में यह शब्द बहुधा सुनने को मिलता है और उसी के परिप्रेक्ष में बुद्धिजीवी वर्ग भी इस पर चर्चाएं करता आया है । मैं समझता हूं कि अपने देश में इस शब्द की महत्ता हाल के वर्षों में बहुत बढ़ गयी है, और राजनेताओं के लिए यह जनसामान्य को भ्रमित करके अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करने का एक अच्छा हथियार बन चुका है । मेरी समझ में हर कोई इस शब्द की व्याख्या सुविधानुसार और मनमाने तरीके से कर रहा है ।
क्या है धर्मनिरपेक्षता ? अपने देश में यह अंग्रेजी के‘सेक्युलर’ (secular)के लिए हिन्दी का समानार्थी शब्द के तौर पर प्रयोग में लिया जा रहा है । शब्दकोष सेक्युलर के अर्थ यूं देते हैं: “1. denoting attitudes, activities, or other things that have no religious or spiritual basis; 2. not subject to or bound by religious rules; not belonging to or living in a monastic or other order.” (अभिवृत्तियां/रवैया, कर्म/कार्य, अथवा अन्य बातें जिनका आधार धार्मिक या आध्यात्मिक न हो; धार्मिक नियमों के अधीन या उनसे बंधा हुआ न हो; मठ-आवासीय या अन्य प्रकार के नियमों से असंबद्ध, अथवा तदनुरूप जीवनयापन से परे; संदर्भ: Oxford Dictionary of Difficult Words)”
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मैं दैनिक समाचारपत्र ‘हिन्दुस्तान’ (लखनऊ संस्करण) का नियमित पाठक हूं । इस समाचारपत्र के साथ सप्ताह में कुछएक दिन ‘रीमिक्स’ नामक परिशिष्ट भी पाठकों को मिलता है । इस परिशिष्ट को देखकर मुझे ऐसा लगता है कि इसकी सामग्री आज के युवा पाठकों को ध्यान में रखकर ही चुनी जाती है । इसमें बहुत कम ऐसी विषयवस्तु मिलेगी जो मुझ जैसे उम्रदराज लोगों की रुचि की हो । इस बारे में मुझे कोई आपत्ति नहीं है । किंतु जो मेरे समझ से परे और कुछ हद तक मुझे अस्वीकार्य लगता है वह है इसमें अंग्रेजी के शब्दों का खुलकर इस्तेमाल किया जाना, भले ही उनके तुल्य शब्दों का हिन्दी में कोई अकाल नहीं है । ऐसा प्रतीत होता है कि ‘रीमिक्स’ की भाषा उन युवाओं को समर्पित है जो बोलने में तो हिंग्लिश के आदी हो ही चुके हैं और अब उसे बाकायदा लिखित रूप में भी देखना चाहेंगे । मैं समझता हूं कि उक्त समाचारपत्र का संपादक-मंडल यह महसूस करना है कि आने वाला समय वर्णसंकर भाषा हिंग्लिश का है और उसे आज ही व्यवहार में लेकर सुस्थापित किया जाना चाहिए ।
(‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र वेबसाईटhttp://hindustandainik.com/पर पढ़ा जा सकता है । यह ‘ई-पेपर’ के रूप में भी उपलब्ध है ।)
मैं अपनी बातें उक्त ‘रीमिक्स’ (हिन्दुस्तान, १० नवंबर) के इस उदाहरण से आरंभ करता हूं:
‘प्रॉब्लम: ऑयली स्किन की, सॉल्यूशन: वाटरबेस्ड फाउंडेशन’
यह है ‘रीमिक्स’ के दूसरे पृष्ठ के एक लेख का शीर्षक । मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि यह वाक्यांश हिन्दी का है या अंग्रेजी का, जो देवनागरी लिपि में लिखा गया हो । हिन्दी के नाम पर इसमें मात्र एक पद है: ‘की’, शेष सभी अंग्रेजी के पद हैं । यदि देवनागरी लिपि हिन्दी की पहचान मान ली जाये तो इसे हिन्दी कहा ही जायेगा, भले ही पाठ फ्रांसीसी का हो या चीनी भाषा का । पर मुझे संदेह है कि कोई वैसा भी सोचता होगा । और अगर आप यह मानते हैं कि अंग्रेजी के सभी शब्द तो अब हिन्दी के ही मान लिए जाने चाहिए, तब मेरे पास आगे कुछ भी कहने को नहीं रह जाता है । उस स्थिति में आगे कही जा रही बातों पर नजर डालने की जरूरत भी आपको नहीं हैं । आगे की उन बातों को फिजूल कहकर अनदेखा करना होगा । आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें >>
(पिछले लेख से आगे) मैंने पिछली बार अपना मत व्यक्त किया था कि अनुवाद में भावों को महत्त्व दिया जाना चाहिए और उसके लिए संबंधित दोनों भाषाओं में शब्द के लिए शब्द वाला प्रयोग करना सदैव सार्थक हो यह आवश्यक नहीं । आवश्यक हो जाने पर नये शब्दों/पदबंधों की रचना करने अथवा अन्य भाषाओं से शब्द आयातित करना भी एक मार्ग है । कुछ भी हो यह निर्विवाद कहा जायेगा कि अनुवाद में संलग्न व्यक्ति को संबंधित भाषाओं पर अच्छी पकड़ होनी चाहिए और उसकी शब्दसंपदा दोनों में पर्याप्त होनी चाहिए । फिर भी समस्याएं खड़ी हो सकती हैं । मेरे विचार से साहित्यिक रचनाओं के मामले में अनुवाद-कार्य जटिल सिद्ध हो सकता है । वस्तुतः साहित्यिक भाषा अक्सर आलंकारिक तथा मुहावरेदार होती है और बहुधा ऐसे असामान्य शब्दों से भी संपन्न रहती है जो अधिसंख्य लोगों की समझ से परे हों । वाक्य-रचनाएं भी सरल तथा संक्षिप्त हों यह आवश्यक नहीं । कभी-कभार ऐसी स्थिति भी पैदा हो सकती है कि पाठक पाठ्य के निहितार्थ भी ठीक न समझ सके, या जो वह समझे वह लेखक का मंतव्य ही न हो । साहित्यिक लेखकों की अपनी-अपनी शैली होती है और लेखन में उनकी भाषायी विद्वत्ता झलके कदाचित् यह अघोषित कामना भी उसमें छिपी रहती है ।
इसके विपरीत वैज्ञानिक तथा व्यावसायिक विषयों के क्षेत्र में लेखन, जिसका थोड़ा-बहुत अनुभव मुझे है, में सरल तथा संक्षिप्त वाक्यों के प्रयोग की अपेक्षा की जाती है । इन क्षेत्रों में लेखक से यह उम्मींद की जाती है कि उसकी अभिव्यक्ति स्पष्ट हो और लिखित सामग्री उन लोगों के लिए भी बोधगम्य हो जो भाषा का विद्वतापूर्ण ज्ञान न रखते हों । संक्षेप में भाषा वस्तुनिष्ठ होनी चाहिए न कि व्यक्तिनिष्ठ । हां, लेखों को समझने में पाठक की विषय संबंधी पृष्ठभूमि का स्वयं में महत्त्व अवश्य रहता है ।
मेरी दृष्टि में पत्रकारिता की स्थिति काफी हद तक वैज्ञानिक आदि के क्षेत्रों की जैसी होनी चाहिए । मैं समझता हूं कि साहित्यक रचनाओं का पाठकवर्ग अपेक्षया छोटा होता है और उसकी साहित्य में विशिष्ट रुचि होती है । इसके विरुद्ध पत्रकारिता से संबद्ध पाठकवर्ग बहुत विस्तृत रहता है और पाठकों की भाषायी क्षमता अतिसामान्य से लेकर उच्च कोटि तक का हो सकता है । पत्रकार को तो उस व्यक्ति को भी ध्यान में रखना चाहिए जो लेखों को समझने में अपने दिमाग पर अधिक जोर नहीं डाल सकता है । इसलिए मैं तो यही राय रखता हूं कि पत्रकार सरल तथा स्पष्ट लेखन करे । यदि अन्य भाषा का मूल लेख इस श्रेणी का हो अनुवाद करना भी सरल ही होना चाहिए । कुछ भी हो यह तो तब भी आवश्यक ही माना जायेगा कि पत्रकार का संबंधित भाषाओं का ज्ञान अच्छा हो और तदनुकूल वह अपने भाषाज्ञान में उत्तरोत्तर सुधार करे ।
परंतु हिन्दी पत्रकारिता में लगे लोगों में क्या हिन्दी के प्रति इतना सम्मान रह गया है कि वे उस पर अपनी पकड़ को मजबूत करें । देश में इस समय जो स्थिति चल रही है उसमें पढ़े-लिखे लोगों के बीच हिंग्लिश का प्रचलन बढ़ता जा रहा है । मैं समझता हूं कि हिंग्लिश से प्रायः सभी परिचित होंगे । हिंग्लिश, जिसे कुछ लोग हिंग्रेजी कहना अधिक पसंद करेंगे, एक नयी वर्णसंकर भाषा है, जिसका व्याकरणीय ढांचा तो हिंदी का है किंतु जिसकी शब्दसंपदा पारंपरिक न होकर अंग्रेजी से उधार ली गयी है । वस्तुतः हिंग्लिश का हिन्दी से कुछ वैसा ही संबंध है जो उर्दू का है । पढ़े-लिखे लोगों की यह दलील है कि हमें मुक्त हृदय से अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करना चाहिए । इन ‘अन्य भाषाओं’ में कोई और नहीं केवल अंग्रेजी है । उनसे पूछा जाये कि उन्होंने बांग्ला-मराठी और थोड़ा आगे बढ़कर तेलुगू-कन्नड़ के कितने शब्द आयातित किये हैं तो वे निरुत्तर मिलेंगे । इस तर्क को मैं निहायत बेतुका मानता हूं और यह कहने में मुझे बिल्कुल भी हिचक नहीं होती कि यह ‘कुतर्क’ वे अपनी हिन्दी-संबंधी भाषायी अक्षमता को छिपाने के लिए देते हैं । उनका हिन्दी शब्द-भंडार इस कदर कमजोर हो चुका है कि वे हिन्दी में किसी विषय पर बोल ही नहीं सकते । लेकिन यही वे लोग हैं जो अंग्रेजी की शुद्धता के प्रति अतिसचेत मिलेंगें । भूले से भी वे कभी अंग्रेजी में हिन्दी अथवा अन्य देसी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग करते हुए नहीं मिलेंगे । मुझे तो तब हंसी आती है जब इस प्रकार का कुतर्क स्वयं हिन्दी रचनाकारों के मुख से भी सुनता हूं ।
मैं दूरदर्शन पर प्रसारित समाचारों में थोड़ा-बहुत साफ-सुथरी हिन्दी सुन लेता हूं । समाचारों की यह गुणवत्ता निजी चैनलों पर कुछ कम मिलती है । समाचार कक्ष से प्रसारित समाचार कुछ हद तक सावधानी से लिखे रहते हैं । किंतु बाहर घटनास्थल से जीवंत वार्ता (लाइव न्यूज) पेश करने वाले संवाददाता के मुख से अंग्रेजी-मिश्रित हिन्दी ही सुनने को मिलती है । संवाददाता अपनी बात कुछ यूं कहता है (एक बानगी):-
“रशियन प्रेजिडेंट दमित्री मेद्वेदेव ने कहा है कि रूस अगले दो सालों में एअरक्राफ्ट कैरियर का लार्ज-स्केल कंस्ट्रक्शन लांच करेगा …”
आपत्ति की जा सकती है कि इस उदारण में कुछ अधिक ही अंग्रेजी शब्द हैं । मान लेता हूं, किंतु क्या कोई उक्त बात को कुछ यूं पेश करेगा ? -
“रूसी राष्ट्रपति दमित्री मेद्वेदेव ने कहा है कि रूस अगले दो सालों में वायुयान वाहकों का वृहत्तर स्तर पर निर्माण-कार्य आरंभ करेगा …”
शायद कोई इस प्रकार से समाचार लिख भी ले, परंतु बोलते वक्त तो स्वाभाविक तौर पर अंग्रेजी शब्द ही वार्ताप्रेषकों के मुख से निकलेंगे । लेकिन कोई भी अंग्रेजी पत्रकार भूले से हिन्दी शब्दों का प्रयोग करता हुआ नहीं पाया जायेगा, भले ही किसी उपयुक्त शब्द की तलाश में वह कुछ क्षण रुक जाये । इस सबके पीछे हमारी यह मानसिकता है कि हिन्दी में तो कुछ भी ठूंस दें चलेगा, परंतु अंग्रेजी में तो शुद्धता रखनी ही पड़ेगी । शुद्ध अंग्रेजी हमारी प्रतिष्ठा के लिए अनिवार्य है, और अंग्रेजीमिश्रित हिन्दी पर हम लज्जित होने की भला क्यों सोचे ? (हिंग्लिश पर अपने विचार बाद में अलग से कभी पेश करूंगा ।)
जब स्थिति यह हो कि पत्रकार अपनी बातें हिन्दी में प्रस्तुत करने में बेझिझक अंग्रेजी शब्द प्रयोग करें और कभी पूरा वाक्य ही अंग्रेजी का बोल जायें तो फिर अनुवाद की गुणवत्ता का प्रश्न कहां उठता है ? किसको चिंता होगी तब हिन्दी शब्दों की ? – योगेन्द्र
(पिछले लेख से आगे) मैंने इस बात की चर्चा की थी कि एनडीटीवी के प्रियदर्शनजी ने तीन शब्दों (वस्तुतः पदबंधों या फ्रेजेज), ‘फैबुलस फोर’, ‘यूजर फेंडली’ तथा ‘पोलिटिकली करेक्ट’, का उदाहरण देते हुए सवाल उठाया था कि क्या अनुवाद हेतु इनके लिए हिन्दी में कोई उपयुक्त शब्द नहीं हैं ? मेरा अनुमान है कि उनका सवाल वस्तुतः अपनी ही न्यूज मीडिया (समाचार माध्यम) की बिरादरी के प्रति संबोधित है । ये सवाल क्यों उठा है ? शायद इसलिए कि आजकल मीडिया के लोग या तो सही-सही शब्द अपने अनुवाद में इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, या बिलाझिझक धड़ल्ले से अंग्रेजी के ही शब्द यथावत् प्रयोग में ले रहे हैं ।
क्या वाकई में हिन्दी इतनी कंगाल है कि उसमें समुचित अभिव्यक्ति के लिए शब्द ही नहीं हैं ? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए सर्वप्रथम मैंने उक्त तीनों पदबंधों के लिए हिंदी में समुचित तथा तुल्य पदों/पदबंधों को खोजने की कोशिश की । मेरी कठिनाई शुरू हुयी ‘फैबुलस फोर’ से । मेरे शब्दकोशों में ‘फैबुलस’ के अर्थ अवश्य मिलते हैं और वे भी कुछ हद तक परस्पर भिन्न-भिन्न (जैसे मिथकीय, पौराणिक, अद्वितीय, चामत्कारिक, असाधारण आदि) । परंतु ‘फैबुलस फोर’ एक सुस्थापित पदबंध के रूप में उन शब्दकोशांं में स्थान नहीं पा सका है । अंतरजाल (इंटरनेट) की शरण में जाने पर मुझे पता चला कि यह तो अलग-अलग प्रसंगों में परस्पर भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, यथा स्वेडन के एक गायकदल के उन चार गीतों के लिए समीक्षकों ने ‘फैबुलस फोर’ नाम दिया जो कई माह तक शीर्षस्थ 10 गीतों में शामिल रहे (1966-67) । यानी वे असाधारण चार या अद्वितीय चार गीत कहलाने लगे । इसके अलावा साठ के दशक में ‘बीटल’ कहे जाने वाले चार गायकों के दल को भी ‘फैबुलस फोर’ का नाम दिया गया था । इसी प्रकार 1991 में प्रदर्शित एक अमेरिकी चलचित्र का नाम भी ‘फैबुलस फोर’ रखा गया था, क्योंकि यह चार असाधारण श्रेणी के कुश्तीबाजों की कहानी पर आधारित थी । और भी कई दृष्टांत देखने को मिले हैं । अभी कल-परसों जब मैं अपने हिन्दी तथा अंग्रेजी अखबार पढ़ रहा था तो उसमें चार क्रिकेटरों (सचिन, द्रविण, लक्ष्मण तथा गांगुली) को ‘फैबुलस फोर’ और संक्षेप में ‘फैब फोर’ कहा गया था । अब आप ही निष्कर्ष निकालिए कि उक्त पदबंध के लिए हिन्दी में क्या लिखा जाये । जाहिर है कि यह पदबंध प्रसंगभेद के अनुरूप लीक से हटकर कुछ अद्वितीय-से लगने वाले चार जनों/वस्तुओं को इंगित करता है, और तदनुसार उसे चामत्कारिक/असाधारण/अद्वितीय या कुछ इसी प्रकार की चौकड़ी अथवा चौगड्डा कहा जा सकता है । तात्पर्य यह है कि क्या उचित होगा इसे प्रसंग को ठीक-से समझ कर ही तय किया जा सकता है और स्वयं सार्थक शब्द/पदबंध खोजे/रचे जा सकते हैं ।
अब आइये अगले पदबंध ‘यूजर फेंडली’ पर । इस पदबंध से मेरा परिचय सर्वप्रथम तब हुआ जब मुझे भौतिकी के साथ-साथ कंप्यूटर विज्ञान पढ़ाने का अवसर अपनी शिक्षण संस्था में मिला था । मेरी जानकारी में यह वस्तुतः कंप्यूटरों के संदर्भ में ही सबसे पहले इस्तेमाल हुआ है, और ये बात मेरी अंग्रेजी डिक्शनरी भी कहती है । अदि आप कंप्यूटरों के विकास पर नजर डालें तो पायेंगे कि आरंभ में उनको प्रयोग में लेना हर किसी के बस में नहीं होता था । उनके प्रयोग की विधि के लिए समुचित प्रशिक्षण की आवश्यकता होती थी । समय के साथ उनकी कार्यप्रणाली में परिवर्तन एवं सुधार होता गया और उनके प्रयोग के लिए अंग्रेजी शब्दों पर आधारित निदेशात्मक भाषाओं का विकास हुआ । इस प्रगति के बाद भी हर किसी के लिए उन्हें प्रयोग में लेना संभव नहीं था । समुचित जानकारी, प्रशिक्षण तथा अध्यास की तब भी आवश्यकता रहती थी । पर आज स्थिति एकदम बदल गयी है । उन्हें प्रयोग में लेना कितना सरल या कठिन है इस भाव को व्यक्त करने के लिए ही इस पदबंध का प्रयोग किया जाने लगा । और आज इसने कई अन्य क्षेत्रों में भी अपनी पैठ बना ली है । वास्तव में ‘यूजर फेंडली’ यह स्पष्ट करता है कि किसी युक्ति, उपकरण, क्रियाप्रणाली अथवा साफ्टवेयर को प्रयोग में लेना कितना सरल है । अब सोचा जा सकता है कि इस भाव को कैसे व्यक्त किया जाये ।
भारत सरकार के वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग ने ‘यूजर फेंडली’ के लिए ‘उपयोक्ता मैत्रीपूर्ण’ सुझाया है । मुझे यह पदबंध संतोषप्रद नहीं लगता है । ऐसा प्रतीत होता है कि आयोग का जोर शाब्दिक अनुवाद पर रहता है न कि भावाभिव्यक्ति पर । इस प्रकार शब्द के लिए शब्द के सिद्धांत पर आधारित अनुवाद कभी-कभी बेहूदा और निरर्थक हो सकता है, जैसा कि ‘गूगल’ पर उपलब्ध अभी विकसित हो रहे ‘अनुवादक’ साफ्टवेयर के माध्यम से प्राप्त अनुवाद के साथ देखा जा सकता है । मेरी राय में ‘यूजर फेंडली’ के लिए सीधे तौर पर ‘सुविधाजनक’ शब्द प्रयोग में लेना पर्याप्त है । और यदि थोड़ा बेहतरी चाहें तो ‘सुविधाप्रदायक’ ठीक होगा । मुझे लगता है कि अंग्रेजी के सामने हम हिंदुस्तानी इस कदर नतमस्तक रहते हैं कि अनुवाद के समय उसके वाक्यों/वाक्यांशों के निहितार्थ को समझकर उसे अपने तरीके से व्यक्त करने की भी हिम्मत नहीं कर पाते हैं । हमारा जोर तो इस पर होना चाहिए कि कही-लिखी गयी बात को अपनी भाषा में अपने शब्दों में हम बिना अर्थ खोये कह पा रहे कि नहीं ।
आइये अब आरंभ में उल्लिखित तीसरे पदबंध ‘पोलिटिकली करेक्ट’ की बात करें । मैं नहीं समझ पाया कि यह उदाहरण संबंधित लेखक ने क्या सोचकर दिया । क्या इसके अर्थ ‘राजनैतिक दृष्टि से उचित/मान्य/स्वीकार्य’ नहीं हैं ? अथवा इसके बदले ‘सियासी तौर पर सही’ कहना ठीक नहीं होगा ? तब समस्या क्या है ? इन वाक्यांशों को सोचने या समझने में कौन सी खास मेहनत करनी पड़ रही है । हां, समस्या तब अवश्य होगी जब शब्द के लिए शब्द वाले सिद्धांत पर हमारा जोर रहेगा । पर किसी भी भाषा में वैसा अनुवाद न तो सदैव संभव हो सकता है और न ही वह अनिवार्यतः वांछित होगा ।
अभी बहुत कुछ इस विषय पर कहना है, अतः चर्चा जारी रहेगी । – योगेन्द्र
कल के दैनिक समाचार-पत्र ‘हिन्दुस्तान’ में एनडीटीवी टीवी चैनल से संबद्ध प्रियदर्शनजी का लिखा एक आलेख पढ़ने को मिला । लेखक इन शब्दों के साथ अपने विचार रखते हैः- “‘फैबुलस फोर’ को हिन्दी में क्या लिखेंगे ? ‘यूजर फ्रेंडली’ के लिए क्या शब्द इस्तेमाल करना चाहिए ?’ क्या ‘पोलिटिकली करेक्ट’ के लिए कोई कायदे का अनुवाद नहीं है? ऐसे कई सवालों से हिन्दी पत्रकारिता जूझ रही है । …” (हिन्दुस्तान में छपा आलेख देखें)
इसके पश्चात् हिन्दी पत्रकारिता से संबंधित कुछेक प्रश्नों को लेकर लेखक ने अपनी टिप्पणियां प्रस्तुत की हैं । जहां तक उपर्युक्त तथा ऐसे ही अनेक अन्य अंग्रेजी शब्दों का प्रश्न है, उनके लिए समुचित तुल्य हिन्दी शब्दों का अभाव है ऐसा कहना गलत होगा । अवश्य ही कुछ स्थलों पर नयी आवश्यकताओं के अनुरूप नितांत नवीन शब्दों की आवश्यकता किसी भी भाषा में पड़ सकती है । अतः हिन्दी में कभी उचित शब्द किसी को न सूझ पा रहा हो तो आश्चर्य नहीं होगा । ऐसे अवसरों पर नितांत नये शब्दों की रचना की आवश्यकता पड़ सकती है । हिन्दी के मामले में तब संस्कृत सहायतार्थ उपलब्ध है । या फिर अन्य भाषाओं से वांछित शब्द स्वीकारा और अपने शब्दसंग्रह में शामिल किया जा सकता है ।
इस मामले में अंग्रेजी कोई अपवाद नहीं है और उसने विगत काल में सदा ग्रीक तथा लैटिन का सहारा लिया है, या फिर अन्य भाषाओं, विशेषतः अन्य यूरोपीय भाषाओं, से शब्द उधार लिए हैं । कुछेक शब्द तो स्वयं संस्कृत से भी अंग्रेजी में पहुंचे हैं, जैसे अहिंसा, आत्मा, मोक्ष आदि । भारतीय दार्शनिक चिंतन से जुड़े इन शब्दों के सही-सही तुल्य शब्दों की उम्मींद वहां नहीं की जा सकती थी । अंग्रेजी में तो विज्ञान जैसे विषयों के लिए नये तकनीकी शब्दों की रचना अपारंपरिक तरीके से भी यदा-कदा की गयी है, जैसे laser (light amplification by stimulated emission of radiation) जिससे to lase, lasing, lased जैसे क्रिया/क्रियापदों की रचना की गयी है । और ऐसे ही है पदार्थ-जगत् के मूलकण के लिए सुझाया गया नाम ुनंता है । रोजमर्रा का शब्द बन चुका robot वस्तुतः चेक लेखक Karel Capek के नाटक Rossum’s Universal Robots में मशीन की तरह के मानव-पात्रों के लिए प्रयुक्त हुआ है । कंप्यूटर विज्ञान में bit, pixel, alphameric आदि नयी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए रचे गये शब्द हैं । ये सब प्रयास विज्ञान तक ही सीमित नहीं हैं । हालिया वर्षों में हिन्दी के कुछ शब्द अंग्रेजी में इसलिए पहुंचे, क्योंकि वे एक नयी सामाजिक परिस्थिति के लिए उपयुक्त पाये गये, जैसे dharna, gherao आदि । —
लेकिन नये शब्दों की रचना की आवश्यकता विरले मौकों पर ही पड़ती है । आम तौर पर एक भाषा के किसी शब्द के अर्थ के तुल्य अर्थ वाला शब्द अन्य उन्नत भाषा में भी मिल ही जाता है । किंतु इस सब के लिए अपना शब्द-सामर्थ्य बढ़ाने की आवश्यकता होती है । मैं न तो हिन्दी का विद्वान रहा हूं और न ही पत्रकारिता मेरा व्यवसाय रहा है । व्यावसायिक तौर पर जीवन भर विज्ञान का अध्येता, अनुसंधानकर्ता और अध्यापक होने के बावजूद मैं भाषाओं के प्रति सचेत रहा हूं । मेरी राय में किसी भी भाषा की पत्रकारिता में संलग्न व्यक्ति के लिए उस भाषा की समुचित जानकारी होनी ही चाहिए और उसका भाषा पर अधिकार सामान्य जन की तुलना में कहीं अधिक होना चाहिए । और अगर वह व्यक्ति अंग्रेजी से अनुवाद पर निर्भर हो तो उसे दोनों ही भाषाओं पर अधिकार होना चाहिए । वास्तव में पत्रकारिता का क्षेत्र ऐसा है जिसमें एकाधिक भाषाओं की जानकारी उपयोगी और कभी-कभी निहायत जरूरी हो सकती है ।
पर दुर्भाग्य से स्थिति इतनी सरल नहीं है । अपने देश में अपनी भाषाएं इस हाल तक तिरस्कृत हो चली हैं कि उनको चलते-चलाते जितना हम सीख गये हों उससे एक कदम आगे बढ़ने का विचार हम लोगों में नहीं रहता । मुझे विज्ञान जैसे क्षेत्र में ऐसे विशेषज्ञ ढूढ़े नहीं दीखते जो देसी भाषाओं में जनसामान्य के अपर्याप्त अंग्रेजी-ज्ञान को ध्यान में रखते हुए अपने विचारों को स्पष्ट अभिव्यक्ति दे सकें । कदाचित् पत्रकारिता भी इस कमजोरी से ग्रस्त है । (यह चर्चा अभी जारी रहेगी ।) – योगेन्द्र
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कम्यूनिकेशन में भाषा की भूमिका

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देवनागरी के वर्णों, वर्तनी और इनके मानकीकरण के बारे में ''राजभाषा हिंदी''ब्लॉग पर लिख चुका हूं। उसके आगे की कुछ कड़ियों में हिंदी भाषा की कुछ मूलभूत बातों पर चर्चा करूंगा। प्रस्तुत है अगली कड़ी। इसका लिंक भी ''राजभाषा हिंदी''ब्लॉग पर दिया गया है।
-डॉ. दलसिंगार यादव
भाषा और शब्द

भाषा की व्यापक परिभाषा में जाएं तो यह कहा जा सकता है कि हर प्राणी की अपनी भाषा होती है और वह अपने भाव संप्रेषण के लिए उसका उपयोग करता है। परंतु हम मनुष्य द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले भाव या विचार संप्रेषण के माध्यम की बात करने जा रहे हैं। धरती पर मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो अपने भाव संप्रेषण के लिए शब्द का उपयोग करता है। यदि शब्द के दार्शनिक पहलू पर विचार करें तो स्पष्ट हो जाता है कि इसका मतलब क्या है?


"श्रोत्रोपलब्धिर्बुद्धिनिर्ग्राह्यः प्रयोगेणाभिज्वलित आकाशदेशः शब्दः।"इसका अर्थ है कि कानों से सुनकर जिसका बोध हो, जो बुद्धि से निरंतर ग्रहण करने योग्य हो, उच्चारण से प्रकाशित हो और जिसके रहने का स्थान आकाश हो उसे शब्द कहते हैं। इसका मतलब है कि शब्द सार्थक वस्तु है। हम इस पर बाद में चर्चा करेंगे। पहले शब्द कैसे बनता है इस पर चर्चा कर लें। शब्द एक निश्चित सीमा तक, प्रयुक्त होने वाली सार्थक ध्वनियों का समूह है। हम बोलते समय, एक समय में एक ध्वनि का ही उच्चारण कर सकते हैं। अतः क्रमशः, ध्वनियों का उच्चारण करके शब्द बोला जाता है। जब हम शब्द का उच्चारण करते हैं तो एक बार में एक ही स्वर का उच्चारण कर सकते हैं। उस स्वर से पहले एक या स्वर रहित कई व्यंजनों का उपयोग हो सकता है। शब्द उच्चारण करते समय एक स्वर के साथ प्रयुक्त व्यंजन या व्यंजनों का समूह "अक्षर"कहलाता है। इसी अक्षर या अक्षरों के संयोग से बना "अक्षर समूह"शब्द कहलाता है (ऋक् प्रातिशाख्य)। एसे शब्दों से "पद"बनते हैं, पदों से "वाक्यांश"बनते हैं और फिर "वाक्य"बनता है। भाषा की अंतिम परिणति वाक्य है। हम अपने संवाद या संप्रेषण में वाक्य का प्रयोग करते हैं। वाक्य में प्रयुक्त होने वाले शब्दों को, उनके प्रकार्य (फ़ंक्शन) के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। वाक्य को मोटे तौर पर दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है- कर्ता और क्रिया। इसे उद्देश्य और विधेय भी कहा जाता है। हर वाक्य द्वारा कोई न कोई उद्देश्य पूरा करने की मंशा होती है। हर वाक्य में न्यूनतम तीन आधार होते हैं- कर्ता, कर्म और क्रिया। इन तानों आधारों को व्यक्त करने के लिए "शब्द"का प्रयोग होता है। यह बात विश्व की समस्त भाषाओं के बारे में समान रूप सेलागू है। विचारों के आदान प्रदान के लिए संप्रेषण का मॉडल इस प्रकार है।

अतः इस सत्र में हम भाषा के आधारभूत पहलुओं पर विचार करेंगे। ध्वनि, उच्चारण, शब्दों की व्याख्या, शब्द निर्माण उपकरण तथा अर्थ निष्पत्ति जैसे आवश्यक एवं महत्वपूर्ण अंगों पर चर्चा करेंगे।


शब्द निर्माण

जैसा कि पहले, हमने कहा है कि शब्द एक निश्चित सीमा तक, प्रयुक्त होने वाली सार्थक "ध्वनियों"का समूह है। अतः ध्वनि पर विचार करना आवश्यक होगा। ध्वनियों के बारे में हमें संस्कृत का सहारा लेना पड़ेगा क्योंकि संस्कृत में ध्वनि विज्ञान का सर्वोत्कृष्ट अध्ययन प्रस्तुत किया गया है (ऋक् प्रातिशाख्य)। उसी विज्ञान के आधार पर अक्षर निर्माण होता है। ध्वनि आधारित अक्षर व शब्द के लेखन के लिए जिन प्रतीकों का संस्कृत "देवनागरी"के लिए प्रयोग किया जाता है उन्हीं का प्रयोग हिंदी की देवनागरी के लिए भी किया जाता है। अतः हिंदी में शब्द निर्माण और उनके लेखन की वही प्रणाली अपनाते हुए स्वर, व्यंजन, संधि, संयोग और समास पर चर्चा की जा रही है। शब्द के चार भेद किए जाते हैं- नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात। पदार्थ या द्रव्य को सूचित करने वाले शब्दों को नाम या संज्ञा कहा जाता है। पदार्थ के भाव या गुण सूचित करने वाले शब्दों को आख्यात कहा जाता है। किसी शब्द के प्रारंभ में जोड़कर किसी अन्य शब्द की रचना करने वाले शब्द को उपसर्ग कहा जाता है। निपात जिन्हें अव्यय भी कहा जाता है, का प्रयोग ऊंचे, नीचे नाना प्रकार के अर्थ देने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। चूंकि यह शब्द के अर्थ को ऊपर उठा देता है या नीचे गिरा देता है इसलिए इन्हें निपात कहा जाता है।    

संप्रेषण का आधारभूत अवयव - वाक्य

सबसे पहले हम वाक्य बनाने वाले अवयवों के बारे में चर्चा  करेंगे। वाक्य का पहला घटक है- उद्देश्य। उद्देश्य के रूप में प्रयुक्त शब्दों को "संज्ञा पद"के नाम से जाना जाता है। संज्ञा (नाम) व्यापक वर्ग है जितके अंतर्गत वे सभी आते हैं जो क्रिया से भिन्न हों। द्रव्य और गुणों के वाचक शब्दों को संज्ञा कहते हैं। गुण वाची शब्द भी संज्ञा में आते हैं परंतु स्वतंत्र न होकर किसी न किसी द्रव्य के आश्रित होते हैं। आख्यात (क्रिया) के अंतर्गत उद्देश्य की पूर्ति की स्थिति दर्शाने वाला अवयव शामिल हैं, अर्थात्, ऐसे शब्द जो चेष्टा और व्यापार आदि के बोधक हों, जैसे, होता है, करता है, पकाता है, सोता है, इत्यादि।   
हर भाषा में शब्द निर्माण के नियम होते हैं। उन्हीं के आधार पर आवश्यकतानुसार नए शब्दों की रचना की जाती है और उन पर अर्थारोपण करके उन्हें प्रचलन में डाल दिया जाता है।  
शब्द निर्माण के वे उपकरण

शब्द निर्माण के वे उपकरण हैं- धातु (verbal root), प्रत्यय (suffix), उपसर्ग (prefix) और समास प्रक्रिया। इन उपकरणों का उपयोग करके हम सामान्य 'पारिभषिक'शब्दों की रचना कर रहे हैं। 
'शब्द'और 'पारिभषिक'में अंतर
'शब्द'और 'पारिभषिक'शब्द में अंतर होता है। शब्द सामान्य और व्यापक अर्थ देने वाला होता है जबकि पारिभाषिक संकुचित और विनिर्दिष्ट अर्थ देने वाला होता है जो विषय के संदर्भ में प्रयुक्त होता है। 


धातु (verbal root), प्रत्यय (suffix), उपसर्ग (prefix) द्वारा शब्दों की रचना
शब्द में धातु एक ही होती है और उसमें उपसर्ग तथा प्रत्यय कई हो सकते हैं, जैसे, सांप्रदायिक। इसमें 'सम्-'और 'प्र-'दो उपसर्ग 'दा'धातु, '-घञ्'और '-इक'प्रत्ययों का उपयोग किया गया है। पहले 'प्र-'उपसर्ग, 'दा'धातु और '-घञ्'प्रत्यय से 'प्रदाय'शब्द बनाया गया जिसे 'उपहार'या 'भेंट'देने के अर्थ देने वाला माना गया, अर्थात् इस पर इन अर्थों को चिपकाया गया। इसके बाद 'सम्-'उपसर्ग लगाकर 'संप्रदाय'शब्द बनाया गया और इसे किसी विशेष समूह को व्यक्त करने का अर्थ देने वाला बताया गया। बाद में इसमें,विशेषण शब्द बनाने के लिए 'इक'प्रत्यय लगाकर सांप्रदायिक शब्द बनाया गया जिसे आजकल अंग्रेज़ी भाषा में प्रयुक्त 'Communal'शब्द का पर्यायी बनाया गया। '-इक'प्रत्यय लगाने पर शब्द के आदि स्वर की वृद्धि हो जाती है। संप्रदाय+इक =सांप्रदायिक, बना।

'समास प्रक्रिया'द्वारा शब्दों की रचना


शब्द बनाने का दूसरा उपकरण है 'समास प्रक्रिया'। समास प्रक्रिया में दो भिन्न शब्दों को जोड़कर या एक के बाद दूसरा रखकर एक नई अभिव्यक्ति या शब्द बना दिया जाता है और उस पर नया अर्थ या संकल्पना चिपका दी जाती है। इस प्रक्रिया से बनी अभिव्यक्ति या शब्द यातो दोनों या प्रयुक्त सभी शब्दों के अर्थों को व्यक्त करता है अथवा उन शब्दों के परे किसी और ही अर्थ या संकल्पना को व्यक्त करता है।

शब्द निर्माण, नामकरण की प्रक्रिया है। जब कोई नई अवधारणा या संकल्पना मूर्त रूप ले लेती है तो उसकी पहचान का प्रश्न उत्पन्न होता है। अतः उस मूर्त रूप को कोई न कोई नाम दिया जाता है जिससे उसे संबोधित किया जाता है। आमतौर पर उदाहरण लें तो जन्म के 21 दिन उपरांत शिशु का नामकरण किया जाता है और फिर उसे उसी नाम से संबोधित किया जाता है। नामकरण का आधार उस संकल्पना या अवधारणा की गुण-धर्म होता है, अर्थात्, उस मूर्त वस्तु क्या काम करती है? उसका क्या प्रभाव होता है? आदि। शिशु के नामकरण में हम उन गुणों को आरोपित करके कोई सार्थक शब्द या शब्द युग्मों का उपयोग करते हैं। कभी अति अप्रचलित शब्दों का उपयोग किया जाता है तो कभी प्रचलित। कभी एक ही भाषा के एक शब्द का उपयोग किया जाता है तो कभी एक ही भाषा के दो शब्दों का उपयोग किया जाता है तो कभी दो अलग अलग भाषाओं के शब्दों का। जब दो शब्दों का उपयोग करके एक नाम (संज्ञा) दिया जाता है तो उस नामकरण की प्रक्रिया को समास प्रक्रिया कहा जाता है। कामता प्रसाद गुरु के अनुसार दो या अधिक शब्दों का परस्पर संबंध बताने वाले शब्दों से बनने वाले स्वतंत्र शब्द को "सामासिक"शब्द और उस प्रक्रिया को "समास"कहते हैं।  


आधुनिक हिंदी और कार्यालयी हिंदी में समास प्रक्रिया केवल हिंदी शब्दों तक ही सीमित नहीं है। दो विभिन्न भाषाओं के शब्दों को मिलाकर भी सामासिक शब्द की रचना की जा सकती है, जैसे, "सेल्स मानव"। यह शब्द प्रवीण पांडेय के ब्लॉग पर अभी हाल ही में नोकिया फ़ोन में हिंदी की सुविधा का उल्लेख करते हुए गढ़ा गया नवीनतम शब्द है। इसकी प्रतिक्रिया में 88 लोगों ने प्रतिक्रिया व्यक्त की। बाकी सभी ने तो फ़ोन की अच्छाई, कीबोर्ड की सुविधा असुविधा, कीमत आदि पर राय व्यक्त की परंतु सतीश सक्सेना (सेल्स मानव), निशांत मिश्र (सेल्समानव), पद्म सिंह (सेल्स मानव) और गिरधारी खंकरियाल (सेल्समानव/बिक्रीमानव) ने प्रवीण पांडेय द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्द "सेल्समानव"को सराहा। खंकरियाल ने दूसरा विकल्प "बिक्रीमानव"सुझाया। सामासीकृत शब्दों के लेखन का व्याकरणिक नियम है कि जब दोनों पद सजातीय हों (एक ही भाषा या मूल के) तो उन्हें मिलाकर लिखा जाए अन्यथा अलग-अलग बिना योजक चिह्न (-) लगाए। यहाँ पर "सेल्स"और "मानव"दो विजातीय शब्द या पद हैं इसलिए इन्हें "सेल्स मानव"लिखा जाए। यदि खंकरियाल केदूसरेविकल्प को लिया जाए तो इसे "बिक्रीमानव"लिखा जा सकता है।

 निर्माण के आधार पर शब्दों की किस्में

निर्माण के आधार पर शब्द तीन प्रकार के होते हैं – यौगिक, रूढ़ि और योगरूढ़ि। इन तीनों को क्रमशः जाति, गुण और क्रिया भी कहते हैं। यौगिक उनको कहते हैं जो धातु और प्रत्यय, धातु, प्रत्यय और अवयव (समास द्वारा बना अवयव) के योग से बनते हों, जैसे, कर्त्ता, हर्त्ता, दाता, अध्येता, अध्यापक, लंबकर्ण, शास्त्रज्ञान, कालज्ञान इत्यादि। रूढ़ि उनको कहते हैं जो धातु और प्रत्यय के संयोग से न बनते हों परंतु नाम (संज्ञा) बोधक हों। योगरूढ़ि उनको कहते हैं जो दो अवयवों से तो बने हों परंतु दोनों अवयवों के अर्थ से भिन्न अर्थ देते हों, जैसे, दामोदर, सहोदर, पंकज इत्यादि।

भाषा का मज़बूत आधार - व्याकरण की शिक्षा 

कार्यालयी कार्य प्रमुखतः, अंग्रेज़ी भाषा में करने और उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी होने के कारण हम दोनों भाषओं को समान रूप से सीखने और उनका प्रयोग करने का प्रयास करते हैं। समान परिस्थिति व माहौल न होने के कारण हमारी भाषा शिक्षा, व्याकरण आधारित न होकर, प्रयोजनशील तरीके से हो रही है इसलिए हमें भाषा का मज़बूत आधार नहीं मिल पा रहा है। भाषा के व्याकरण आधारित ज्ञान के अभाव हमें वाक्य संरचना में आत्म विश्वास की कमी नज़र आती है। यदि प्रारंभिक स्तर पर भाषा की व्याकरण सम्मत शिक्षा हो तो उससे भाषा की नींव पक्की होगी और हम वाक्य संरचना में पारंगत हो सकेंगे। इसी सिलसिले में हम शब्द संरचना के व्याकरणिक पहलू पर चर्चा करने जा रहे हैं।

हम जिस अंग्रेज़ी भाषा की पढ़ाई करते हैं उसकी वाक्य रचना प्रणाली हिंदी से भिन्न है और शब्द संपदा विभिन्न स्रोतों से लिए गए शब्दों का मिश्रित भंडार है। इसकी शब्दावली में प्रमुखतः लैटिन, ग्रीक, फ़्रेंच और इतालवी भाषा के शब्द तो हैं ही इसे किसी भी भाषा से शब्द उधार लेने में परहेज़ नहीं है। इसीलिए इसके शब्दों की वर्तनी में नियमों की एकरूपता नहीं है। अंग्रेज़ी भाषा के विद्वान बर्नार्ड शॉ ने कहा था कि अंग्रेज़ी शब्दों की वर्तनी अंतरराष्ट्रीय विपदा है (इंग्लिश स्पेलिंग इज़ ऐन इंटरनैशनल कैलैमिटी)। परंतु लैटिन और ग्रीक शब्दों में संस्कृत जैसी शब्द निर्माण की प्रक्रिया को अपनाया गया है। अधिकतर शब्द लैटिन मूल के हैं और उनके निर्माण में धातु, प्रत्यय और उपसर्गों का उपयोग करके शब्दों की निष्पत्ति की गई है। हम यहां पर ऐसे शब्दों के बारे में चर्चा करने जा रहे हैं। यदि इन नियमों का अध्ययन करके इनका अनुसरण किया जाए तो शब्दों के अर्थ समझने में आसानी होगी और हमारी समझने की शक्ति में सुधार होगा। 

........ अगली पोस्ट में

मीडिया

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प्रस्तुति-- राकेश गांधी

मीडियाके निम्न अर्थ हो सकते हैं:

संचार

मीडीया का सामान्य अर्थ "सन्चार माध्यम"होता है।

कंप्यूटिंग

फाइन आर्ट

जीव विज्ञान

इन्हें भी देखें


फ़िल्मफ़ेयर

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फ़िल्मफ़ेर
Filmfare
आवृत्तिपाक्षिक
प्रसार१.४ लाख
प्रथम संस्करण१९५२[1]
कंपनीWorldwide Media
भाषाअंग्रेज़ी
जालस्थलfilmfare.com
फ़िल्मफ़ेरभारतीय सिनेमा संबंधी एक अंग्रेज़ी पत्रिका है. मीड़िया सेवाओं में कार्यरत भारत के सबसे बड़े समूह 'द टाइम्स ग्रूप', मुंबई (बंबई) इसका प्रकाशन करते हैं, बौलीवुडफ़िल्मों की चटपटी ख़बरें और रोचक तसवीरें इस पत्रिका की विशिष्टता है. यह भारत की सर्वाधिक लोकप्रिय मनोरंजन पत्रिका है और दुनिया भर में बसे भारतीयों द्वारा पढ़ी जाती है.
यह पत्रिका 'फ़िल्मफ़ेर अवॉर्ड्स' (Filmfare Awards)और 'फ़िल्मफ़ेर अवॉर्ड्स साउथ' (Filmfare Awards South) का आयोजन और प्रायोजन करती है.

पत्रिका

फ़िल्मफ़ेरभारत की सबसे पुरानी फ़िल्म पत्रिका है, और इसके द्वारा प्रायोजित अवॉर्ड्स भी सबसे पुराने पुरस्कार हैं। पहले यह, मीड़िया सेवाओं में कार्यरत भारत के सबसे बड़े समूह 'द टाइम्स ग्रूप'का ही एक हिस्सा थी, जो द टाईम्स ऑफ़ इंडिया, दि इकनौमिक टाइम्स, नवभारत टाइम्सऔर महाराष्ट्र टाइम्सभी प्रकाशित करते हैं। 2005 में, फ़िल्मफ़ेरऔर कुछ अन्य प्रकाशन, ख़ासकर फ़ेमिना , का बंटवारा एक उप-कंपनी में हुआ। नई कंपनी वर्ल्डवाइड मीड़िया, टाइम्स समूह और बीबीसी वर्ल्डवाइड के प्रकाशन विभाग बीबीसी मैगेज़ींसके बीच 50:50 की साझेदारी से बनी संयुक्त कंपनी है।
2008 के शुरुआत में पत्रिका ने अपने रूप-रंग और प्रकाशन की समय-सारिणी में परिवर्तन किया. फिर माह के हर 15 दिनों में फ़िल्मफ़ेर का प्रकाशन होने लगा, और श्री जितेश पिल्लई के संपादकत्त्व में इसकी पूरी रूपरेखा और नियमित विभागों का आधुनिकीकरण होता रहा है। आज भी इसमें तसवीरों को व्यापक रूप से प्रस्तुत करने का काम जारी है। इसके लेखकगण में अनुराधा चौधरी, संगीता ऐंजेला कुमार और फ़हीम रुहानी शामिल हैं।
फ़िल्मफ़ेर ने फ़िल्मों के लिए, फ़िल्म-प्रेमियों की राय पर आधारित दो अवॉर्ड्स प्रस्तुत किये हैं: हिंदीफ़िल्मों के लिए फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार, और कन्नड़, मलयालम, तमिलऔर तेलुगु भाषा की फ़िल्मों के लिए फ़िल्मफ़ेर अवॉर्ड्स साउथ

नियमित विभाग

  • आई स्पाय - इस विभाग में हिंदी फ़िल्म जगत के अभिनेता/अभिनेत्रियों के बीच होते झगड़े, बहुचर्चित गपशप, और छोटी-मोटी अफ़वाहें जैसी ताज़ा खबरों को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
  • बिग टिकेट - इस विभाग में आने वाली और रिलीज़ हुई फ़िल्मों की समीक्षा की जाती है और चूंकि फ़िल्म-प्रेमी और फ़िल्म-निर्माता दोनों ये जानने को उत्सुक रहते हैं कि यह दमदार पत्रिका उनकी फ़िल्मों के प्रति क्या राय रखती है इसलिए यह विभाग दोनों वर्गों में अत्यंत लोकप्रिय है. बिलकुल अपनी शैली के अनुरूप, फ़िल्मफ़ेरमें छपने वाले पूर्वावलोकन व समीक्षाएं संक्षिप्त और रोचक होतीं हैं, ताकि साथ छपी तसवीरें ही सारी बातें ज़ाहिर कर सकें।
  • फ़ैशन प्ले - लेख-संपादिका संगीता ऐंजेला कुमार का कहना है कि फ़िल्म-जगत के सभी सितारे इस विभाग को पढ़ते हैं क्योंकि इस विभाग में हिंदी फ़िल्म की पलटन की फ़ैशन संबंधी जानकारी का ताज़ा आंकलन किया जाता है।[कृपया उद्धरण जोड़ें]सितारों को फ़ैशन-संबंधी उनकी अपनी समझ के मुताबिक़ बड़ी प्रमुखता से 'हॉट'या 'नहीं'घोषित किया जाता है।
  • फ़ोटो शूट्स - फ़िल्मफ़ेर के 'फ़ोटो शूट्स'विभाग में छपने वाली तसवीरें मुन्ना एस, दब्बू रत्नानी और अतुल कसबेकर इत्यादि फ़ोटोग्राफ़र्स द्वारा खींची हुईं और अकसर किसी ख़ास विषय पर आधारित होतीं हैं।
  • फ़्यूचर स्टॉक - इस विभाग में कलाकारों, संगीतकारों, या निर्देशकों की नई पीढ़ी के उभरते नन्हें सितारे, और आगामी दिग्गजों की तक़दीर की भविष्यवाणी की जाती है।
  • जेन नेक्स्ट - इसमें आम तौर पर युवा पीढ़ी के सितारों के बारे में यहाँ-वहाँ से संग्रहित कुछ सच्ची-झूठी बातों का ख़ुलासा किया जाता है।

इन्हें भी देखें

संदर्भ

  1. Press in India, Issue 33. Office of the Registrar of Newspapers. 1989. pp. 75.

बाह्य सूत्र

अस्पताल में बदले गए, बदल गया जीवन

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जापान में एक बच्चे को 60 साल पहले अस्पताल में बदल दिया गया. इस घटना ने उसे महल के बजाए झोपड़ी में पहुंचा दिया. अब अदालत ने अस्पताल से इस शख्स को 3.8 करोड़ येन का मुआवजा देने को कहा है.
सुनने में किसी पुरानी हिन्दी फिल्म की कहानी जैसा लगता है. 60 साल का हो चुका यह व्यक्ति चाहता है कि किसी तरह घड़ी की सूइयों को पीछे कर दे और उस सच को बदल दे जो झूठ होने के बाद भी उसकी जिंदगी का हिस्सा बन गया. उसने बताया कि जब उसे सच्चाई का पता चला तो उसके लिए यह बहुत बड़ा धक्का था. अगर यह घटना ना हुई होती तो उसका जीवन आज बहुत अलग हो सकता था.
टोक्यो की जिला अदालत ने अस्पताल से 1953 में हुई इस गलती के बदले इस व्यक्ति को 3.8 करोड़ येन का मुआवजा देने को कहा है. जिस बच्चे के साथ वह बदल गया था वह उससे 13 मिनट बाद पैदा हुआ था.
60 साल के व्यक्ति की पहचान अभी तक सार्वजनिक नहीं की गई है. उस व्यक्ति ने कहा, "मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि ऐसा हो भी कैसे सकता है. सच कहूं तो मैं इसे स्वीकार ही नहीं करना चाहता था."अदालत ने कहा कि 3.2 करोड़ येन इस आदमी को और बाकी 60 लाख उसके असल में सगे तीन भाइयों को दिए जाएं. अस्पताल की इस बारे में अभी प्रतिक्रिया नहीं आई है कि वह फैसले के खिलाफ अपील करेगा कि नहीं.
क्या होता जीवन
अगर अस्पताल ने यह गलती ना की होती तो इस आदमी का जीवन बिल्कुल अलगहोता. आज एक गैर शादीशुदा ट्रक ड्राइवर का जीवन गुजार रहे इस शख्स का पालन पोषण एक अमीर परिवार में हुआ होता. परिवार में सबसे बड़े पुत्र यही हैं. इनके बाद पैदा हुए तीनों भाइयों को सारी सुख सुविधाएं मिलीं. यहां तक कि उन्हें पढ़ाने के लिए निजी ट्यूटर भी आया करते थे.
इस सबके बदले उसे वह जीवन मिला जहां कई जरूरतें सरकारी पैसे से पूरी हुईं. पिता के मरने के बाद मां ने अकेले काम करके उसे और उससे बड़े भाई बहनों की जरूरतों को पूरा किया. वह दिन में फैक्टरी में काम करता था और रात में स्कूल की पढ़ाई. एक कमरे के मकान में सुविधाओं के नाम पर बस रेडियो ही था.
पालने वाली महिला के लिए उसने कहा, "वह तो जैसे परेशानियां उठाने के लिए ही पैदा हुई थी."वह महिला अब जीवित नहीं है. यह व्यक्ति अपने उन भाइयों की भी मदद करता आया है जिन्हें वह अब तक अपना सगा समझता था.
कैसे पता चला
सच्चाई तब खुली जब इस शख्स के असली भाइयों ने माता पिता के मरने के बाद अपने सबसे बड़े भाई का डीएनए परीक्षण करवाया. वह देखने में उनसे बिल्कुल अलग था. इसके बाद उन्होंने अस्पताल के रिकॉर्ड चेक किए, तब पिछले साल उन्हें अपने सबसे बड़े सगे भाई के बारे में पता चला.
बीते सालों को दोबारा तो नहीं लाया जा सकता लेकिन चारों भाई एक साथ मिलकर अब एक दूसरे के साथ समय बिताकर अपने रिश्ते को मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं.
अपनी मां को याद करते हुए इस शख्स ने कहा, "मुझे पता चला है कि मेरी मां को हारना पसंद नहीं था. मुझमें भी यह गुण है कि मुझे हारना पसंद नहीं. मैं अक्सर सोचा करता था कि यह मुझमें कहां से आया. जब मुझे उनके बारे में पता चला तब मुझे समझ आया कि यह वजह थी."
भारी नुकसान
इस व्यक्ति ने बताया कि पैदाइश के समय बदले जाने की बात जानने के बाद वह कई महीनों तक हर रात रोता रहा, "जब मैंने अपने असली माता पिता की तस्वीर देखी तो मैं उन्हें जिंदा देखना चाहता था. महीनों तक जब कभी भी मैं उनकी तस्वीर देखता था अपने आंसू रोक नहीं पाता था."
उन्होंने बताया, "मेरा एक भाई कहता है हमारे पास, जीने के लिए 20 साल और बचे हैं, हम एक साथ मिल कर बीते सालों का हिसाब पूरा कर लेंगे. मुझे यह सुनकर बहुत खुशी हुई और मैं यह करना भी चाहता हूं."
चारों भाइयों ने मिलकर अपने नुकसान के लिए 25 करोड़ येन के मुआवजे की मांग की थी. दोनो ही परिवारों की मांओं को अक्सर ऐसा महसूस होता था कि वे किसी और के बच्चे को बड़ा कर रही हैं.
इस व्यक्ति के सगे भाइयों का कहना है कि उन्हें याद है उनकी मां ने एक बार कहा था, उनका पहला बच्चा अस्पताल में उनके हाथों में गलत कपड़े पहन कर आया था. वे कपड़े नहीं जो उन्होंने दिए थे.
रिपोर्ट: समरा फातिमा (एएफपी)
संपादन: एन रंजन

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इलेक्ट्रॉनिक मीडिया - दूरदर्शन का इतिहास

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  1. दूरदर्शन का पहला टेलीविजन केंद्र दिल्ली में 1959 में खोल गया था ।
  2. दूरदर्शन के पहले टीवी केंद्र का उद्घाटन डॉ राजेंद्र प्रसाद ने किया था । 
  3. भारत में टीवी का दूसरा केंद्र मुंबई में 1972 में खोल गया । 
  4. 1972 से 1982 के बीच पांच और टीवी स्टेशन कोलकत्ता, चेन्नई, जालंधर, लखनऊ और श्री नगर में खोले गए।
  5. बीबीसी के ज़रिये टीवी पर नियमित प्रसारण 1937 में शुरू किया गया । 
  6. कोलकत्ता में दूरदर्शन केंद्र  की स्थापना 8 अगस्त 1975 में हुई थी ।
  7. दूरदर्शन को 1976 में आकाशवाणी से अलग कर दिया गया था ।
  8. दूरदर्शन में पहली बार ओ. वि. वेन 15 अगस्त 1982 में प्रयोग में लाई गयी । 
  9. 19 नवम्बर 1984 में मेट्रो चैनल की शुरुआत हुई थी । 
  10. दूरदर्शन पर संसद की कार्यवाही का पहली बार प्रसारण 20  दिसंबर 1989 में हुआ । 
  11. दूरदर्शन ने 14 नवम्बर 1995 में अपना चैनल 3 शुरू किया । 
  12. 10 जुलाई 1999 से दूरदर्शन पर रोज़ हर घंटे मुख्य समाचारों का प्रसारण शुरू किया गया । 
  13. दूरदर्शन की पहुँच आज 95 % आबादी तक है ।

हिन्दी पत्रकारिता दिवस

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आज हिन्दी पत्रकारिता दिवस है। 184 साल हो गए। मुझे लगता है कि हिन्दी पत्रकार में अपने कर्म के प्रति जोश कम है। तमाम बातों पर ध्यान देने की ज़रूरत है। उदंत मार्तंड इसलिए बंद हुआ कि उसे चलाने लायक पैसे पं जुगल किशोर शुक्ल के पास नहीं थे। आज बहुत से लोग पैसा लगा रहे हैं। यह बड़ा कारोबार बन गया है। जो हिन्दी का क ख ग नहीं जानते वे हिन्दी में आ रहे हैं, पर मुझे लगता है कि कुछ खो गया है। क्या मैं गलत सोचता हूँ?

पिछले 184 साल में काफी चीजें बदलीं हैं। हिन्दी अखबारों के कारोबार में काफी तेज़ी आई है। साक्षरता बढ़ी है। पंचायत स्तर पर राजनैतिक चेतना बढ़ी है। साक्षरता बढ़ी है। इसके साथ-साथ विज्ञापन बढ़े हैं। हिन्दी के पाठक अपने अखबारों को पूरा समर्थन देते हैं। महंगा, कम पन्ने वाला और खराब कागज़ वाला अखबार भी वे खरीदते हैं। अंग्रेज़ी अखबार बेहतर कागज़ पर ज़्यादा पन्ने वाला और कम दाम का होता है। यह उसके कारोबारी मॉडल के कारण है। आज कोई हिन्दी में 48 पेज का अखबार एक रुपए में निकाले तो दिल्ली में टाइम्स ऑफ इंडिया का बाज़ा भी बज जाए, पर ऐसा नहीं होगा। इसकी वज़ह है मीडिया प्लानर।

कौन हैं ये मीडिया प्लानर? ये लोग माडिया में विज्ञापन का काम करते हैं, पर विज्ञापन देने के अलावा ये लोग मीडिया के कंटेंट को बदलने की सलाह भी देते हैं। चूंकि पैसे का इंतज़ाम ये लोग करते हैं, इसलिए इनकी सुनी भी जाती है। इसमें ग़लत कुछ नहीं। कोई भी कारोबार पैसे के बगैर नहीं चलता। पर सूचना के माध्यमों की अपनी कुछ ज़रूरतें भी होतीं हैं। उनकी सबसे बड़ी पूँजी उनकी साख है। यह साख ही पाठक पर प्रभाव डालती है। जब कोई पाठक या दर्शक अपने अखबार या चैनल पर भरोसा करने लगता है, तब वह उस  वस्तु को खरीदने के बारे में सोचना शुरू करता है, जिसका विज्ञापन अखबार में होता है। विज्ञापन छापते वक्त भी अखबार ध्यान रखते हैं कि वह विज्ञापन जैसा लगे। सम्पादकीय विभाग विज्ञापन से अपनी दूरी रखते हैं। यह एक मान्य परम्परा है।



मार्केटिंग के महारथी अंग्रेज़ीदां भी हैं। वे अंग्रेज़ी अखबारों को बेहतर कारोबार देते हैं। इस वजह से अंग्रेज़ी के अखबार सामग्री संकलन पर ज्यादा पैसा खर्च कर सकते हैं। यह भी एक वात्याचक्र है। चूंकि अंग्रेजी का कारोबार भारतीय भाषाओं के कारोबार के दुगने से भी ज्यादा है, इसलिए उसे बैठने से रोकना भी है। हिन्दी के अखबार दुबले इसलिए नहीं हैं कि बाज़ार नहीं चाहता। ये महारथी एक मौके पर बाज़ार का बाजा बजाते हैं और दूसरे मौके पर मोनोपली यानी इज़ारेदारी बनाए रखने वाली हरकतें भी करते हैं। खुले बाज़ार का गाना गाते हैं और जब पत्रकार एक अखबार छोड़कर दूसरी जगह जाने लगे तो एंटी पोचिंग समझौते करने लगते हैं।

पिछले कुछ समय से अखबार इस मर्यादा रेखा की अनदेखी कर रहे हैं। टीवी के पास तो अपने मर्यादा मूल्य हैं ही नहीं। वे उन्हें बना भी नहीं रहे हैं। मीडिया को निष्पक्षता, निर्भीकता, वस्तुनिष्ठता और सत्यनिष्ठा जैसे कुछ मूल्यों से खुद को बाँधना चाहिए। ऐसा करने पर वह सनसनीखेज नहीं होता, दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में नहीं झाँकेगा और तथ्यों को तोड़े-मरोड़ेगा नहीं। यह एक लम्बी सूची है। एकबार इस मर्यादा रेखा की अनदेखी होते ही हम दूसरी और गलतियाँ करने लगते हैं। हम उन विषयों को भूल जाते हैं जो हमारे दायरे में हैं।

मार्केटिंग का सिद्धांत है कि छा जाओ और किसी चीज़ को इस तरह पेश करो कि व्यक्ति ललचा जाए। ललचाना, लुभाना, सपने दिखाना मार्केटिंग का मंत्र है। जो नही है उसका सपना दिखाना। पत्रकारिता का मंत्र है, कोई कुछ छिपा रहा है तो उसे सामने लाना। यह मंत्र विज्ञापन के मंत्र के विपरीत है। विज्ञापन का मंत्र है, झूठ बात को सच बनाना। पत्रकारिता का लक्ष्य है सच को सामने लाना। इस दौर में सच पर झूठ हावी है। इसीलिए विज्ञापन लिखने वाले को खबर लिखने वाले से बेहतर पैसा मिलता है। उसकी बात ज्यादा सुनी जाती है। और बेहतर प्रतिभावान उसी दिशा में जाते हैं। आखिर उन्हे जीविका चलानी है।

अखबार अपने मूल्यों पर टिकें तो उतने मज़ेदार नहीं होंगे, जितने होना चाहते हैं। जैसे ही वे समस्याओं की तह पर जाएंगे उनमें संज़ीदगी आएगी। दुर्भाग्य है कि हिन्दी पत्रकार की ट्रेनिंग में कमी थी, बेहतर छात्र इंजीनियरी और मैनेजमेंट वगैरह पढ़ने चले जाते हैं। ऊपर से अखबारों के संचालकों के मन में अपनी पूँजी के रिटर्न की फिक्र है। वे भी संज़ीदा मसलों को नहीं समझते। यों जैसे भी थे, अखबारों के परम्परागत मैनेजर कुछ बातों को समझते थे। उन्हें हटाने की होड़ लगी। अब के मैनेजर अलग-अलग उद्योगों से आ रहे हैं। उन्हें पत्रकारिता के मूल्यों-मर्यादाओं का ऐहसास नहीं है।

अखबार शायद न रहें, पर पत्रकारिता रहेगी। सूचना की ज़रूरत हमेशा होगी। सूचना चटपटी चाट नहीं है। यह बात पूरे समाज को समझनी चाहिए। इस सूचना के सहारे हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी होती है। अक्सर वह स्वाद में बेमज़ा भी होती है। हमारे सामने चुनौती यह थी कि हम उसे सामान्य पाठक को समझाने लायक रोचक भी बनाते, पर वह हो नहीं सका। उसकी जगह कचरे का बॉम्बार्डमेंट शुरू हो गया। इसके अलावा एक तरह का पाखंड भी सामने आया है। हिन्दी के अखबार अपना प्रसार बढ़ाते वक्त दुनियाभर की बातें कहते हैं, पर अंदर अखबार बनाते वक्त कहते हैं, जो बिकेगा वहीं देंगे। चूंकि बिकने लायक सार्थक और दमदार चीज़ बनाने में मेहनत लगती है, समय लगता है। उसके लिए पर्याप्त अध्ययन की ज़रूरत भी होती है। वह हम करना नहीं चाहते। या कर नहीं पाते। चटनी बनाना आसान है। कम खर्च में स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन बनाना मुश्किल है। 



चटपटी चीज़ें पेट खराब करतीं हैं। इसे हम समझते हैं, पर खाते वक्त भूल जाते हैं। हमारे मीडिया मे विस्फोट हो रहा है। उसपर ज़िम्मेदारी भारी है, पर वह इसपर ध्यान नहीं दे रहा। मैं वर्तमान के प्रति नकारात्मक नहीं सोचता और न वर्तमान पीढ़ी से मुझे शिकायत है, पर कुछ ज़रूरी बातों की अनदेखी से निराशा है।  







पत्रकारिता के मानदंड

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रामदत्त त्रिपाठी 

  रामदत्त त्रिपाठी|रविवार, 30 मई 2010, 12:52 IST
अभी दो दिन पहले कानपुर गया था, आईआईटी प्रवेश परीक्षा में सफल एक ग़रीब मोची के बेटे से साक्षात्कार करने. लेकिन वहाँ मुझे एक और सच्चाई से साक्षात्कार करना पड़ा.
अपना काम खत्म करके चलने लगा तो एक सज्जन सकुचाते हुए आए अपनी समस्या बताने.
वो कोई डिप्लोमा होल्डर डॉक्टर हैं और उसी ग़रीब बस्ती में प्रैक्टिस करते हैं. मोहल्ले के लोग उनकी बड़ा आदर करते हैं.
उनकी समस्या ये है कि किसी लोकल चैनल के एक पत्रकार आए. उनकी क्लीनिक की तस्वीरें उतारीं, फिर डराया कि वो झोलाछाप डाक्टर हैं और अगर उनसे लेन देन करके मामले में कुछ समझौता नहीं कर लेते तो वह अफसरों से कहकर उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करा देंगे.
पत्रकारों के इस तरह के ब्लैकमेलिंग के किस्से काफ़ी दिनों से सुनाई दे रहे हैं. लेकिन दूसरों के मुंह से. पहली बार किसी भुक्तभोगी के मुंह से यह बात सीधे सुनने को मिली.
रविवार को हिंदी पत्रकारिता दिवस है और इस मौक़े पर यही किस्सा मेरे दिमाग में गूंज रहा है. लोग पत्रकार क्यों बनते हैं. जन सेवा के लिए या फिर जैसे- तैसे पैसा कमाने के लिए.
यह बात केवल लोकल चैनल के पत्रकारों पर लागू नहीं होती. कई बड़े बड़े चैनलों और अख़बारों के पत्रकारों, संपादकों और मालिकों के बारे में भी यही बातें सुनने को मिलती हैं.
कई अखबार और चैनल रिपोर्टर बनाने के लिए अग्रिम पैसा लेते हैं.
अनेक अपने संवाददाताओं से नियमित रूप से विज्ञापन एजेंट का काम करवाते हैं, जो बिजनेस बढ़ाने के लिए ख़बरों के माध्यम से दबाव बनाते हैं. फिर कई चैनल और अख़बार बाकायदा पेड न्यूज़ छापते या दिखाते हैं.
प्रेस काउन्सिल है मगर वह भी कुछ कर नही सकती.
हिंदी पत्रकारिता दिवस पर जब हम लोग गोष्ठियों में गणेश शंकर विद्यार्थी और पराडकर जी का गुणगान करेंगे, शायद हमें सामूहिक रूप से इस समस्या पर भी आत्मचिंतन करना चाहिए.
माना कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं, यह एक प्रोफेशन और बिजनेस है. मगर क्या हर प्रोफेशन और बिजनेस का कोई एथिक्स नही होता?

टिप्पणियाँटिप्पणी लिखें

  • 1. 14:59 IST, 30 मई 2010 Ankit : पहले तो मैं आपको बधाई दूंगा कि आपने पत्रकारिता के इस विषय को उठाने की हिम्मत की. आप सही कह रहे हैं कि आज का भारतीय मीडिया अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है. मीडिया के काफी बड़े हिस्से ने सरकार से हाथ मिला लिया है और एक ने उससे भी आगे बढ़कर अपने व्यावसायिक हितों के लिए समानांतर सरकार चलाने जैसी कोशिश भी की है.
  • 2. 15:18 IST, 30 मई 2010 Surjeet Rajput Dubai : रामदत्त जी, मैं आपकी बात से सहमत हूं. पत्रकारिता एक व्यवसाय का रूप ले चुकी है. इस समय भारत में देशभक्ति से पूर्ण पत्रकारिता की जरूरत है जो आजादी से पहले हुआ करती थी. आज सस्ती टीआरपी की होड़ लगी है. एक बार भारत ने अग्नि मिसाइल का सफल प्रक्षेपण किया, यह महत्वपूर्ण समाचार भारतीय समाचार पत्रों और टीवी में बड़ी खबर बनकर नहीं आई लेकिन दूसरे देशों के समाचार पत्रों में इस खबर को कहीं अधिक प्राथमिकता दी.
  • 3. 15:36 IST, 30 मई 2010 परमजीत बाली: विचारणीय पोस्ट लिखी है. जब ऊपर से लेकर नीचे तक यही हाल है तो ऐसे में पत्रकार कैसे अछूते रह सकते हैं.
  • 4. 15:46 IST, 30 मई 2010 Prem Verma: आज पत्रकारिता दिवस पर बीबीसी हिंदी की पूरी टीम और आपको ढेर सारी बधाइयां. इस दिवस के परिप्रेक्ष्य में आपकी ओर से उठाया गया मसला काफी ज्वलंत है. समाज में व्याप्त बुराइयां इस पवित्र पेशे को भी दागदार बना चुकी हैं. जब दर्पण ही दागदार हो गया तो वह भला कैसे बता सकेगा समाज की सच्ची तस्वीर. सुंदर ब्लॉग के लिए साधुवाद.
  • 5. 16:42 IST, 30 मई 2010 Navinchandra Daund: भद्र लोगों के पेशे पत्रकारिता में आज के समय दिखाई देने वाला ट्रेंड काफी निराशाजनक है. पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है. जब न्यायपालिका को छोड़कर लोकतंत्र के बाकी स्तंभ भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की समस्याओं से जूझ रहे हैं, तो ऐसे समय पत्रकारिता की सामाजिक जिम्मेदारी कहीं अधिक बढ़ जाती है. अब तो समाचारों की विश्वसनीयता पर भी संदेह होने लगा है. पत्रकारों का यह दायित्व है कि वे लोगों को सही खबरों से अवगत कराएं और उनमें लोकतंत्र की आस्था को मजबूत करें.
  • 6. 16:58 IST, 30 मई 2010 विजय शर्मा: आपने एक बहुत ही गंभीर समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया है. एक ईमानदार मीडिया लोकतंत्र की सफलता के लिए बहुत जरूरी है. परंतु आजकल ज्यादातर चैनल खबर में मसाला लगाकर सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को बेच देते हैं. एक गलत और झूठी खबर से तो खबर का न होना ज्य़ादा अच्छा है.
  • 7. 17:07 IST, 30 मई 2010 brajkiduniya: रामदत्तजी ग्रास रूट लेवल से लेकर ऊपर तक हिंदी पत्रकारों का यही हाल है. बिहार में पत्रकारिता करते हुए मैंने इसे महसूस भी किया है. जब अख़बारों के मालिक ही राजनीतिक दलों से डील कर पैसे लेकर उनके पक्ष में समाचार छापते हैं तब फिर मातहत अधिकारी और कर्मी भी तो यही करेंगे. गंगा गंगोत्री से ही मैली हो रही है. सफाई की शुरुआत भी वहीं से करनी होगी लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा ?
  • 8. 18:53 IST, 30 मई 2010 IBRAHIM KUMBHAR PAKISTAN: रामदत्त जी आपने आज जिस मुद्दे पर अपना ब्लॉग लिखा है वो कम से कम मेरे लिए इस वजह से है कि इस मामले पर कोई लिखने को तैयार ही नहीं. आपकी बात दो अलग अलग मुद्दों पर है-एक वो डाक्टर हैं जिनके पास सही डिग्री नहीं होती. वो या तो डिप्लोमा होते हैं या टेक्नीशियन होते हैं जो शहरों या गावों में अस्पताल खोल कर बैठ जाते हैं. आपने यह उल्लेख नहीं किया है कि ये नान प्रोफेशनल डॉक्टर किस तरह तबाही करते हैं. मैं अपने देश पाकिस्तान की बात करुंगा जहां सरकारी आंकड़ों के मुताबिक नान प्रोफेशनल डाक्टर प्रोफेशनल डॉक्टरों से ज्यादा हैं. पाकिस्तान में तो ये मुसीबत है और भारत में भी यकीनन होगी कि किसी डाक्टर से एक दो सप्ताह काम सीखा और बस अपनी क्लीनिक खोलकर कारोबार शुरू. स्वास्थ्य विभाग का कोई अधिकारी देख ले या पूछ ले तो इसका हफ़्ता बांध लो बस. मैं मानता हूँ कि आपका मुद्दा उन अनपढ़ डॉक्टरों के हवाले से नहीं है लेकिन आपको इस मामले की ओर भी ध्यान देना चाहिए. जहां तक बात है उन ब्लैकमेल करने वाले पत्रकारों की तो ऐसे लोगों को सज़ा मिलनी चाहिए. आपने सही कहा है कि यहां खाली पत्रकार ही नहीं, बड़े संस्थाओं और समूहों के मालिक इस काम से जुड़े हुए हैं. आपने सही सवाल उठाया है कि लोग पत्रकार क्यों बनते हैं-जन सेवा के लिए या फिर जैसे- तैसे पैसा कमाने के लिए. माना अब पत्रकारिता अब मिशन नहीं रहा, लेकिन इसको मिशन बनाया जा सकता है. आपने जो सच लिखा है ये भी किसी मिशन से कम नहीं और आप जैसे लोग इन ब्लैकमेलरों के खिलाफ़ आवाज़ उठाते रहें, हम आपके साथ हैं.
  • 9. 19:47 IST, 30 मई 2010 नीरज वशिष्‍ठ, नयी दिल्‍ली : हर व्‍यवसाय का अपना एथिक्स होता है और होना भी चाहिए, मगर इसके बावजूद इन एथिक्स से छेड़छाड़ और अपने स्‍वार्थ के लिए एक रास्‍ता बनाना मानवीय स्‍वभाव है, जो काफी चिंताजनक है. यह स्‍वभाव ही समाज को दुखों और अवसाद की ओर ले जाता है. और यह पत्रकारिता जैसे व्‍यवसयाय के साथ ही नहीं हो रहा है बल्‍िक हर व्‍यवसाय आज इस कुचक्र से घिरा है. दरअसल, कोई व्‍यवसाय अच्‍छा या बुरा नहीं होता है, यह तो व्‍यवसायी पर निर्भर करता है कि उसका चरित्र कैसा है. डॉक्‍टरी का पेशा कितना मानवीय है और भगवान जैसा दर्जा है उसको, मगर कोई डाक्‍टर जब किडनी बेचता है या पैसों के अभाव में किसी को मरने छोड़ देता है तो. इसलिए पत्रकारिता ही नहीं, कई व्‍यवसाय इस रोग से ग्रस्‍त हैं. मैं समझता हूं जब मानव अपना स्‍वभाव, चरित्र नहीं बदलेगा तब तक समाज में इस प्रकार दुख कायम रहेंगे. मनुष्‍य जब अपना उत्‍तरदायित्‍व समझता है तो वह मनुष्‍यता के पराकाष्‍ठा पर होता है और यही होना उसका स्‍वभाव है. हमें अपना स्‍वभाव पहचानना चाहिए. यही जीवन का सही मापदंड हो सकता है.
  • 10. 21:55 IST, 30 मई 2010 अमित कुमार यादव: पत्रकारिता अब प्रोफ़ेशन भी नहीं रहा अब ये फ़ैशन बन गया है....हर कोई ग्लैमर और चमक-दमक से आकर्षित होकर मुंह उठाकर इधर चला आता है....ऐसे में नैतिकता की बात करना ही बेमानी लगता है....
  • 11. 01:25 IST, 31 मई 2010 SHABBIR KHANNA,RIYADH,SAUDIA ARABIA: वाह रामदत्त जी मैं आपको सलाम करता हूं सच्चाई को खुल कर लिखने पर. हक़ीक़त ये है कि ये पेशा लोगों को ब्लैकमेल करने का नंबर-1 पेशा बना हुआ है. रहा सवाल पत्रकारिता में ईमानदारी या ग़रीबों की मदद करने का तो आप राजस्थान के बीकानेर ज़िले के सूई गांव में जाकर देखें कि दो पत्रकारों लूना राम और नारायण बारेठ ने एक ग़रीब की मदद कर किस प्रकार उसकी ज़िंदगी में बहार पैदा कर दिया है. इसलिए ये कहना कि सब बेईमान हैं उससे मैं सहमत नहीं हूं. लेकिन 90 प्रतिशत पत्रकार अपने पेशे के प्रति ईमानदार नहीं हैं.
  • 12. 07:38 IST, 31 मई 2010 Bibhu Bhusal: आपका लेख दमदार हैं. मगर मिडिया मालिक पत्रकारों का बहुत शोषण करते हैं. मुलतः ये समस्या ग़रिब मुल्क के पत्रकारों को झेलनी पड़ रही है. बढ़ती महँगाई एवं बंधा वेतन और जब अनिश्चित्ता मुख्य समस्याएँ है तो वे क्यों ऐसा न करें. और भी कई समस्याएँ हैं पत्रकारिता में...
  • 13. 11:55 IST, 31 मई 2010 dinesh prajapati: बात बहुत पते की है. लेकिन सामने कौन आ रहा है. इस प्रकार की प्रतिक्रिया करने वालों को लोग तवज्जो भी देते हैं. लेकिन जो ईमानदारी से काम कर रहा है उसका कहीं सहयोग किया क्या. यह भी सही है कि ऐसे लोग बेमतलब में शिकार बन रहे हैं और बेईमान पर हाथ डालने की हिम्मत पत्रकारों में नहीं है.
  • 14. 12:26 IST, 31 मई 2010 jigyasa: मैं आपसे 100 प्रतिशत सहमत हूँ. मैं भी एक मीडिया संस्थान से जुड़ी रही हूँ. दोस्ती के लिए यहां सबकुछ चलता है चाहे उस दोस्त ने कितना ही बड़ा कारनामा क्यों न कर रखा हो. लेकिन दूसरों के लिए नियम एकदम अलग थे उनके चेहरे परसे नक़ाब हटाने का दबाव हमारे बॉस हम पर हर दम बनाए रखते. लेकिन अब उनकी कथनी और करनी का अंतर मालूम हो चुका है. हमें पत्रकारिता में सच्चाई के लिए लड़ना सिखाया गया था और मेरा भी वही उद्देश्य था और इसीलिए मैं मीडिया से जुड़ी भी थी लेकिन आज उससे बहुत दूर जा चुकी हूं क्योंकि उसकी सच्चाई वो नहीं थी वो तो सिर्फ़ एक परछाई थी जिसे मैं पकड़ने की कोशिश कर रही थी.
  • 15. 12:53 IST, 31 मई 2010 ranjeet gupta: सर, आपने जो कानपुर में सुना है, वह बिलकुल सत्य है क्योंकि मैं पिछले महीने अपनी इंटर्नशिप कर रहा था, उस समय, मैं जब भी दिल्ली सरकार के सचिवालय जाता था तो वहां नामी गिरामी चैनलों के रिपोर्टर ख़बर पर कम दिल्ली सचिवालय के अधिकारीयों को ढूंढ़ कर उनसे अपने निजी काम करवाने को ज़्यादा प्रयासरत रहते थे.
    दूसरी घटना अपने गृहनगर टुंडला की बता रहा हूँ , ये दिल्ली हावड़ा रूट पर है, मेरे यहाँ एक निजी केबल आपरेटर ने अपना सिटी न्यूज़ चैनल डाला है उन्होंने जो सिटी रिपोर्टर बनाए हैं, उनकी हालत जब मैंने सुनी तो मैं सुनकर दंग रह गया. ये लोग थाने में जाकर पुलिस वालों से 100 - 100 रुपए वसूल करते हैं, और यदि कोई ना करे तो उन्हें ब्लैक मेल करते हैं ........सर अब तक पुलिस के बारे में तो सुनता था, लेकिन पुलिस वालों को ब्लैक मेल किया जाने लगा है. इस पेशे में ये सोच कर आया था कि इमानदारी का इकलौता पेशा यही बचा है जिसके माध्यम से देश और समाज की सेवा कर सकता हूँ लेकिन क़रीब आने पर पता चला कि यहाँ भी सफ़ाई की ज़रूरत है. स्वतंत्रता जैसे शब्द के मायने भी इस पेशे से ख़त्म हो गए हैं. बड़ी मछली छोटी मछली को निगलने के लिए तैयार बठी है, शायद इसी कारण पत्रकारिता सिर्फ़ शब्द बनकर रह गया है.
  • 16. 13:50 IST, 31 मई 2010 RANDHIR KUMAR JHA: आजकल जिस प्रकार के समाचार हमें देखने या सुनने को मिलते हैं उसमें लगभग 80 प्रतिशत तो मसालेदार होते हैं और जो 20 प्रतिशत महत्वपूर्ण होते हैं उसमें भी 60 प्रतिशत से भी ज़्यादा मिलावट होती है या सामाचार का झुकाव उस ओर होता है जिस ओर से समाचार चैनलों का फ़ायदा हो या वह उस समाचार के ज़रिए अपनी रंजिश निकाल सकते हों. इसलिए वर्तमान समाचार में एक साधारण नागरिक को किसी भी समाचार को देख या पढ़ कर बिना विचारे उसपर विश्वास करना बेवक़ूफ़ी है. मीडिया या पत्रकारिता आज भारत में व्याप्त भ्रष्ट क्षेत्रों में से एक है.
  • 17. 13:59 IST, 31 मई 2010 Syyed Faizan Ali: सही बात तो ये है कि हम आजकी पत्रकारिता को किसी प्रोफ़ेशन और बिज़नेस से भी नहीं मिला सकते. क्यूँकि किसी प्रोफ़ेशन और बिज़नेस में भी किसी को डरा धमकाकर पैसा नहीं कमाया जाता बल्कि अपनी सुविधाएं या ज़रूरत की चीज़ें बेचकर कमाया जाता है. लेकिन पत्रकारिता एक बेहद ग़लत दिशा में बढ़ रही है. मेरी राय में इसको रोकने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक शिकायत सेन्टर स्थापित करना चाहिए जिससे इस तरीक़े की असामाजिक चीज़ों को रोका जा सके.
  • 18. 19:14 IST, 31 मई 2010 Anubhav: आपका लेख पढ़कर, मुझे 'जाने भी दो यारों'के ख़बरदार अख़बार की संपादक शोभा की याद आ गई.
  • 19. 13:41 IST, 01 जून 2010 नवीन जोशी: राम दत्त जी, शुक्रिया कि आपने यह बात उठाई. हम लोग सचमुच इस गिरावट से चिंतिंत हैं. समाज में पत्रकार का सम्मान ख़त्म होता जा रहा है. कुछ लोग धंधा करने के लिए पत्रकार का चोला ओढ़ लेते हैं तो कई पत्रकार धीरे-धीरे यह धंधा अपना लेते हैं. इसे बढ़ावा देने में संस्थानों का भी कम हाथ नहीं.
  • 20. 13:52 IST, 01 जून 2010 Mohammad Athar Khan Faizabad Bharat: आपने बिल्कुल सही लिखा. पत्रकारिता भ्रष्ट हो चुकी है. सच्चाई कम और नाटक ज़्यादा किया जाता है. सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए कि न्यूज़ चैनल पर ड्रामा न दिखाया जाए. अब तो सरकार को पत्रकारों को मिलने वाली सरकारी सुविधा वापस ले लेनी चाहिए जिससे इन्हें सबक़ मिले.
  • 21. 19:03 IST, 01 जून 2010 santosh kumar pandey: क्या आप इसको ब्लॉग के माध्यम से लिख देने से ही समस्या का समाधान समझते हैं. अगर हां तो ठीक है... लेकिन इसको मुहिम के रूप में चलाने की ज़रूरत है.
  • 22. 19:18 IST, 01 जून 2010 sushil gangwar: ---कल का चोर आज का पत्रकार ---
    ये बात क़रीब 15 साल पूरी नहीं है, हमारे गांव में छिदु नामक एक आदमी था वह अक्सर घर आता जाता था. हमारी माँ को दीदी कह कर पुकारता हम भी मामा कहने से नहीं चूकते थे एक दिन गांव में पुलिस आई तो जानकारी मिली ,छिदु मामा को पुलिस ने चोरी इल्ज़ाम में पकड़ लिया है. एक दिन छिदु मामा से हमारी मुलाक़ात हो गई. मामा बोले कि आजकल क्या कर रहे हो भांजे , मैंने भी कह दिया मामा मैं डेल्ही में पत्रकार हूँ. मामा बोले अरे फिर तो हम दोनों की ख़ूब जमेगी. मैंने पूछा वो कैसे... अरे हम भी पत्रकार हैं - मुझे याद है कि छिदु मामा तो काला अक्षर भैंस बराबर हैं. फिर फटाक से जेब से डेल्ही के समाचार पत्र का आईकार्ड दिखाया. फिर बोले भांजे मैं crime रिपोर्टर हूँ. मैंने पूछा ये कैसे बनवाया. अरे यार मैंने 500 /- रूपये में डेल्ही से मंगवाया है ख़ूब नोट छाप रहा हूँ. मैं उनकी बातें सुन कर हैरान कम परेशान ज़्यादा था....
  • 23. 13:59 IST, 02 जून 2010 Shankar Mondal, Delhi: ऐसे काम में लिप्त लोगों को पत्रकार कहलाने का हक नहीं और वरिष्ठ पत्रकारों को इसके लिए एक सुनियोजित व्यवस्था बनानी चाहिए.

  • 24. 10:08 IST, 03 जून 2010 shashi kumar: लोकतंत्र का चौथा खंभा बुरी तरह हिल रहा है. जनता को वही ख़बरें मिल रही हैं जिससे चैनल या अख़बारों को फ़ायदा हो.अपने फ़ायदे और पैसे के लिए वे किसी भी विज्ञापन को ख़बर बनाकर पेश कर रहे हैं. सबसे शर्म की बात यह है कि वे पैसे की लालच में वे राय भी दे रहे हैं. मीडिया का काम केवल जनता तक ख़बरें पहुँचाना है, राय देना नहीं. इस संवेदनशील मुद्दे को उठाने के लिए रामदत्त जी को धन्यवाद.
  • 25. 17:33 IST, 03 जून 2010 yaswant: विचारणीय मगर जब कुँए में भांग पड़ी हो तो कोई क्या कर लेगा. जब सेठ बड़े हाथ मारते हों तो मुनीम (पत्रकार) क्यों पीछे रहेंगे.
  • 26. 01:02 IST, 04 जून 2010 आनन्‍द राय- दैनिक जागरण लखनऊ : आपने बहुत सही मुद्दा उठाया है। पर यह गंभीर मसला देश व्‍यापी है। बड़े बड़े चैनल भी तो स्टिंग आपरेशन के नाम पर यह गोरखधंधा कर रहे हैं। सचमुच इस पर विमर्श होना चाहिये और सामूहिक जवाबदेही तय होनी चाहिये।
  • 27. 17:38 IST, 04 जून 2010 पवन कुमार अरविंद: आपने बहुत जोरदार विषय उठाया है, इसके लिए आपको धन्यवाद.
    लेकिन केवल विषय उठाने से क्या होगा, आज करने की ज्यादा जरूरत है, कहने की कम.
    यदि प्रेस परिषद कुछ नहीं कर पाती तो इसके जिम्मेदार हम खुद ही हैं.

  • 28. 01:47 IST, 05 जून 2010 Dileep kumar sinha: मैं आपकी लेखनी का कायल हूं. आप हमेशा ही सार्थक मसलों को उठाते हैं.
  • 29. 02:34 IST, 06 जून 2010 अक्षय कुमार झा: मेरा मानना है कि ये सारा खेल आज से नहीं बल्कि कई दशकों से चला आ रहा है... और जब-तक मीडिया में इंट्री का कोई मापदंड नहीं होता है यही होगा. जिनको क,ख लिखने जिनको नहीं आता है, वो जब शीर्ष पर बैठता है तो शायद ऐसा ही होता है.
  • 30. 11:52 IST, 06 जून 2010 govind goyal, sriganganagar: ईमान हो,
    ना हो,
    गांठ में
    पैसा जरुरी है,
    आज के
    जीवन की
    ये सबसे बड़ी
    मज़बूरी है.

  • 31. 15:54 IST, 06 जून 2010 mansi: यह भी देखना चाहिए कि पत्रकार किस हालत में हैं? खुद मीडिया हाउस भी इन्हें ग्लैमर का लालच दिखाकर पैसे ऐंठते हैं. बाद में इंटर्न बनाकर इनका शोषण करते हैं. खबरों के लिए कितनी मसक्कत करनी पड़ती है और फिर हाथ में मुट्ठी भर पैसे. मेरे साथ तो कम से कम यही बीती है और अपने आस-पास यही देखा है.
  • 32. 10:26 IST, 09 जून 2010 vipul rege: बड़ी-बड़ी बातें करने वाले इन बुद्धिजीवियों से मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या उन्हें पता है कि छोटे शहरों में काम करने वाले पत्रकारों को वेतन कितना मिलता है? अपनी जिंदगी पत्रकारिता को समर्पित करने वाले ये पत्रकार अगर ईमानदारी से काम करें तो उनके बीवी-बच्चे भूखे मर जाएँगे. त्रिपाठी जी का पेट भरा हुआ है तो वे बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं. क्या आपको पता है कि केबिन में बैठकर एसी की हवा खाने वाले संपादक की तनख़्वाह एक लाख रुपए तक होती है, वहीं एक रिपोर्टर का वेतन सात हज़ार रुपए से अधिक नहीं होता है. वह भी ईमानदार हो सकता है, अगर उसपर ध्यान दिया जाए. कोई भी अपना घर फूंककर तमाशा नहीं देखता है. इसलिए रामदत्त जी अपने श्रीवचन अपने पास रखें.
  • 33. 02:21 IST, 14 जून 2010 Rakesh: आपने एक बीमार होते तंत्र को बचने का प्रयास किया है... निश्चित रूप से आपका प्रयास सराहनीय है...
  • 34. 15:54 IST, 16 जून 2010 pradeep kapoor: मुझे ख़ुशी है कि आपने ये मुद्दा उठाया. ऐसे लोग जो पत्रकार के नाम पर लोगों का शोषण कर रहे हैं और इसे नुक़सान पहुंचा रहे हैं हमें ऐसे लोगों की पोल खोल देनी चाहिए और ऐसी घटना को रोकने के लिए कोई रणनीति तैयार करनी चाहिए.

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