अपने आपको मानसिक रूप से तैयार रखिये. सरकार नया प्रेस एक्ट लाएगी. आने को ये अभी आ रहे पांच राज्यों के विधानसभा तो क्या, आगामी लोकसभा चुनाव के बाद भी आ सकता है. लेकिन उसकी प्रक्रिया अब कभी भी शुरू हो सकती है. सूचना मंत्री अम्बिका सोनी तो यही कह रही हैं. उन ने बताया है कि नए प्रेस अधिनियम पे चर्चा संसद की बिजनेस एडवाइज़री कमेटी में हो सकती है.
नया बिल लाने से पहले सरकार मीडिया जगत में खासकर जस्टिस काटजू के बयानों के बाद छिड़ी बहस पर नज़र रखे हुए है. ज़रूरी नहीं है कि वो सिर्फ मीडिया की माने. पुराना अधिनियम संदर्भहीन हो चुका, वे वो मान रही है. नए बिल में मीडिया की नई विधा, वेब मीडिया शामिल होगी. उस से सम्बंधित नियम भी होंगे. कंटेंट और उसकी भाषा पर सरकार चुप है. लेकिन संसद में ये मसला उठाया गया है. कंटेंट हो न हो, भाषा को लेकर कुछ मानदंड तय हो सकते हैं. लग ये रहा है कि सरकार भारतीय मीडिया को खुला छोड़ते हुए भी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा से बचा के रखने का प्रयास करेगी. इस के लिए उसकी कुछ शर्तें या हिदायतें हो सकती हैं.
ऐसा माना जा रहा है कि खासकर जस्टिस काटजू के प्रेस काउन्सिल का अध्यक्ष बनने के बाद से पिछले एक्ट और अब की स्थितियों में आये बदलाव पर कुछ गहन चिंतन, मनन हुआ है. जस्टिस काटजू के मीडिया के आचरण के सम्बन्ध में आये बयान इसी कारण आये हो सकते हैं. एक बहस की शुरुआत हुई है. ये काउन्सिल और सरकार की तरफ से पहल का संकेत है. बहस आधिकारिक तौर पे भी आगे बढाई जा सकती है. एक्ट लाने से पहले सरकार सब के मन टटोलेगी. मगर जस्टिस काटजू के रहते ज़रूरी नहीं है कि सरकार वही करे जो मीडिया चाहे. वेब मीडिया पे भी दूसरे मीडिया जैसे नियमों का लागू होना मान के चलिए. कपिल सिब्बल के बयान से देश को मानसिक रूप से तैयार करने का काम सरकार कर ही चुकी है. कल रात दिग्विजय सिंह ने एनडीटीवी पे भी यही कहा. उन ने कहा बरखा से कि आप अनचाहे संदेशों या तस्वीरों से निजात पा सकती हैं.
संसद में इस मुद्दे पे बहस सरकार की तरफ से इस मुद्दे पे गंभीरता के संकेत है. सरकार समय के साथ चलेगी. लेकिन भारत में मीडिया के अंश और वंश का अपभ्रंश नहीं होने देगी. वो ये मान के चल रही है कि जहां तक वेब मीडिया पर नकेल का सवाल है तो उसे प्रिंट और टीवी मीडिया का सहयोग मिल सकता है. वो स्थापित मीडिया को समझाने का प्रयास करेगी कि बहुत ज्यादा नेटबाज़ी अंतर्राष्ट्रीय मीडिया प्रतिस्पर्धा के लिहाज़ से भारतीय मीडिया के लिए मुनासिब नहीं है. बता ही रही है सरकार कि देश में छोटे बड़े 77 हज़ार अखबार तो आज हैं. किसी भी तरह की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा से भारतीय बाज़ार और पाठक और भी घटेंगे तो संकट होगा ही. देश के लगभग सभी चैनल भी घाटे में हैं ही. कुछेक बड़े अखबारों को छोड़ दें बाकी अखबारों की आर्थिक स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है. ऐसे में सरकार की सोच के हिसाब से अमल हो भी सकता है. सो, भारत में भविष्य के मीडिया के लिए तैयार रहिये.