प्रस्तुति- प्रियदर्शी किशोर / गणेश प्रसाद
संवादसेतु
मीडिया का आत्मावलोकन…
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हिन्दी पत्रकारिता की दशा और दिशा
वर्तमान समय में हिन्दी भाषा को और व्यापक रूप देने के लिए जो संघर्ष चल रहा है उससे सभी भली-भांति परिचित हैं। क्या आपको लगता है कि पत्रकारिता जगत में भी हिन्दी भाषा का जो प्रयोग हो रहा है वह सही प्रकार से नहीं हो रहा है? इसमें भी कहीं कुछ त्रुटियां या अशुद्धियां व्याप्त है, क्या हिन्दी भाषा के वर्तमान प्रयोग की स्थिति पूरी तरह से उचित और अर्थ पूर्ण है?वर्तमान में जो मीडिया में हिन्दी का स्तर गिरता जा रहा है, उसके पीछे सबसे बड़ा कारण पाश्चात्य संस्कृति का बढ़ता स्तर है। हर व्यक्ति अपने को अंग्रेजी भाषा बोलने में गौरवान्वित महसूस करता है। इसके उत्थान के लिए सबसे पहले हमें ही शुरूआत करनी होगी क्योकि जब हम शुरूआत करेंगे तभी दूसरा हमारा अनुसरण करेगा।
सोहन लाल भारद्वाज, राष्ट्रीय उजाला
संस्कृत मां, हिन्दी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी है, ऐसा कथन डा. फादर कामिल बुल्के का है, जो संस्कृत और हिन्दी की श्रेष्ठता को बताने के लिए सम्पूर्ण है। मगर आज हमारे देश में देवभाषा और राष्ट्रभाषा की दिनों-दिन दुर्गति होती जा रही है। या यूं कह लें कि आज के समय में मां और गृहिणी पर नौकरानी का प्रभाव बढ़ता चला जा रहा है तो गलत नहीं होगा। टीवी के निजी चैनलों ने हिन्दी में अंग्रेजी का घालमेल करके हिन्दी को गर्त में और भी नीचे धकेलना शुरू कर दिया और वहां प्रदर्शित होने वाले विज्ञापनों ने तो हिन्दी की चिन्दी की जैसे नीम के पेड़ पर करेला चढ़ गया हो। इसी प्रकार से रोज पढ़े जाने वाले हिन्दी समाचार पत्रों, जिनका प्रभाव लोगों पर सबसे अधिक पड़ता है, ने भी वर्तनी तथा व्याकरण की गलतियों पर ध्यान देना बंद कर दिया और पाठकों का हिन्दी ज्ञान अधिक से अधिक दूषित होता चला गया। मैं ये बात अंग्रेजी का विरोध करने के लिए नहीं कह रहा हूं, बल्कि मेरी ये बात तो हिन्दी के ऊपर अंग्रेजी को प्राथमिकता देने पर केन्द्रित है।
अवनीश सिंह राजपूत, हिन्दुस्थान समाचार
हिन्दी पत्रकारिता स्वतंत्रता पूर्व से ही चली आ रही है और आजादी के आंदोलन में इसका बहुत बड़ा योगदान भी रहा है, लेकिन आज जो मीडिया में हिन्दी का स्तर गिरता दिखाई दे रहा है, वह पूरी तरह से अंग्रेजी भाषा के बढ़ते प्रभाव के कारण हो रहा है। आज मीडिया ही नहीं बल्कि हर जगह लोग अंग्रेजी के प्रयोग को अपना भाषाई प्रतीक बनाते जा रहे हैं। इसके लिए सभी को एकजुट होकर हिन्दी भाषा को प्रयोग में लाना होगा।
धर्मेन्द्र सिंह, दैनिक हिन्दुस्तान
अगर आज आप किसी को बोलते है कि यंत्र तो शायद उसे समझ न आए लेकिन मशीन, शब्द हर किसी की समझ में आएगा। इसी प्रकार आज अंग्रेजी के कुछ शब्द प्रचलन में हैं, जो सबके समझ में है। इसलिए यह कहना कि पूर्णतया हिन्दी पत्रकारिता में सिर्फ हिन्दी भाषा का प्रयोग ही हो यह तर्क संगत नहीं है। हां, यह जरूर है कि हमें अपनी मातृभाषा का सम्मान अवश्य करना चाहिए और उसे अधिक से अधिक प्रयोग में लाने का प्रयास करना चाहिए।
नागेन्द्र, दैनिक जागरण
हिन्दी दिवस मतलब चर्चा-विमर्श, बयानबाजी, मानक हिन्दी बनाम चलताऊ हिन्दी। हिन्दी के ठेकेदार और पैरोकार की लफ्फाजी। बस करो यार! भाषा को बांधो मत, भाषा जब तक बोली से जुड़ी है, सुहागन है। जुदा होते ही वह विधवा के साथ-साथ बांझ बन जाती है। वह शब्दों को जन्म नहीं दे पाती। बंगाली, मराठी, गुजराती, उर्दू, फारसी, फ्रेंच, इटालियन कहीं से भी हिन्दी से मेल खाते शब्द मिले, उसे उठा लो। बरसाती नदी की तरह। सबको समेटते हुए। तभी तो हिन्दी समंदर बन पाएगी। रोक लगाओगे तो नाला, नहर या बहुत ज्यादा तो डैम बन कर अपनी ही जमीं को ऊसर करेगी। कॉर्पोरेट मीडिया तो इस ओर ध्यान दे नहीं रहा। हां, लोकल मीडिया का योगदान सराहनीय जरूर है। अरे हां, ब्लॉगरों की जमात को भी इसके लिए धन्यवाद।
चंदन कुमार, जागरण जोश.कॉम
हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है और हमें इसका सम्मान करना चाहिए लेकिन समाज में कुछ ऐसे लोग हैं जो हिन्दी के ऊपर उंगली उठाकर हिन्दी का अपमान करते रहते हैं। बात करें पत्रकारिता की तो हिन्दी पत्रकारिता में आजकल हिन्दी और इंग्लिश का मिला जुला रूप प्रयोग किया जा रहा है जो कि हमारे हिसाब से सही नहीं है। मैं आपको बता दूं कि हिन्दी के कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनका इस्तेमाल न करने से वह धीरे-धीरे विलुप्त होते जा रहे हैं जो हमारे लिए शर्म का विषय है। मैं अपने हिन्दी-भाषियों से निवेदन करता हूं कि हिन्दी को व्यापक रूप देने में सहयोग करें और हिन्दी को गर्व से अपनी राष्ट्रभाषा का दर्जा दें।
आशीष प्रताप सिंह, पीटीसी न्यूज
भाषाई लोकतंत्र का ही तकाजा है कि नित-नए प्रयोग हों। हां, पर वर्तनी आदि की गलतियां बिल्कुल अक्षम्य है। त्रुटियां-अशुद्धियां तो हैं ही। उचित और अर्थपूर्ण तो जाहिर है कि नहीं है। लेकिन यह सवाल इतना महत्वपूर्ण नहीं है। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है भाषा के अर्थशास्त्र का सवाल। हिन्दी दिवस पर इस बारे में बात होनी चाहिए।
कुलदीप मिश्रा, सीएनईबी
पत्रकारिता के क्षेत्र में हिंदी का प्रयोग अपनी सहूलियत के हिसाब से होता रहा है। यह जो स्थिति है उसका एक कारण हिंदी के एक मानक फान्ट का ना होना भी है। ज्यादातर काम कृति फान्ट में होता है लेकिन जगह-जगह उसके भी अंक बदल जाते है। कहीं श्रीदेव है तो कहीं ४सी गांधी और न जाने कितने फान्ट्स की भरमार है। अब पत्रकारिता में काम करने वाला कोई भी व्यक्ति एक संस्थान से दूसरे संस्थान में जाते समय फान्ट की समस्या से रूबरू होता है। इसलिए यहां हिंदी का प्रयोग सहूलियत के अनुसार हो रहा है, लेकिन पिछले कुछ दिनों में यूनिकोड के आने से कुछ स्थिरता जरूर आई है। दूसरी बड़ी समस्या यह है कि हम अभी भी यही मानते हैं कि अंग्रेजी हिंदी से बेहतर है। इसलिए जान- बूझकर हिंदी को हिंगलिश बना कर काम करना पसंद करते हैं और ऐसा मानते हैं कि अगर मुझे अंग्रेजी नहीं आती तो मेरी तरक्की की राह दोगुनी मुश्किल है। पत्रकारिता भी आम समाज से अलग नहीं है, उसने भी अन्य बोलियों के साथ-साथ विदेशी भाषा के शब्दों को अपना लिया है।
विकास शर्मा, आज समाज
सितम्बर अंक २०११
सौदेबाजी की राह पर पत्रकारिता: अशोक टंडन
भारत में पत्रकारिता ने अपनी शुरूआत मिशन के तौर पर की थी जो धीरे-धीरे पहले प्रोफेशन और फिर कामर्शियलाइजेशन में तब्दील हो गई। आज पत्रकारिता कमर्शियलाइजेशन के दौर से भी आगे निकल चुकी है जिसके संदर्भ में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विशवविद्यालय के पूर्व निदेशक अशोक टंडन से बातचीत के कुछ अंश यहां प्रस्तुत है।Image may be NSFW.
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पत्रकारिता के क्षेत्र में आपका आगमन कैसे हुआ इस दौरान आपके क्या अनुभव रहें ?
दिल्ली विश्वविद्यालय से जब मैं राजनीति शास्त्र में एम.ए. कर रहा था तो उस समय कुछ पत्रकारों को देखकर इस क्षेत्र की ओर आकर्षण बढ़ा। एम.ए. पूरी करने के बाद वर्ष 1970 में मुझे हिन्दुस्थान समाचार से विश्वविद्यालय बीट कवर करने का मौका मिला। वर्ष 1972 में मैंने पीटीआई में रिपोर्टिंग शुरू की और वहां विश्वविद्यालय, पुलिस, दिल्ली प्रशासन, संसद, विदेश मंत्रालय समेत लगभग सभी बीट कवर की। 28 वर्षों के दौरान मैंने लगभग 28 देशों की यात्राएं की। पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य करना चुनौतीपूर्ण होता है।अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पत्रकारिता के आपके क्या अनुभव रहें?
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रकारिता के लिए पहले अपने देश को समझना होता है। भारत में जब वर्ष 1980 के दशक की शुरूआत में नान अलाइनमेंट समिट और कामनवेल्थ गेम्स समिट हुई तो उसमें रिपोर्टिंग का अवसर मिला। वर्ष 1985 में मुझे विदेश मंत्रालय की बीट सौंपी गई। इस दौरान भारत के प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के साथ विदेश जाने का मौका मिला। वर्ष 1988 में मुझे पीटीआई लंदन का संवाददाता नियुक्त कर दिया गया। जब कोई पत्रकार विदेश में रहकर पत्रकारिता करता है तो उसका फोकस अपने देश पर ही रहता है।आप पूर्व प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार के रूप में कार्य कर चुके हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय में आपका क्या अनुभव रहा?
वर्ष 1998 में लंदन से जब वापिस आया तो प्रधानमंत्री कार्यालय में काम करने का मौका मिला। इस दौरान अपने साथी पत्रकारों से सहयोग करने का कार्य किया। आमतौर पर पत्रकार मेज के एक तरफ और अधिकारी दूसरी तरफ होता है। यहां मैंने मेज के दूसरी तरफ का भी अनुभव किया। प्रधानमंत्री कार्यालय में रहते हुए देशभर के पत्रकारों व विश्व के कुछ पत्रकारों के साथ सरकार की ओर से वार्तालाप किया जो एक अलग अनुभव रहा।मीडिया में कमर्शियलाइजेशन का दौर कब से आया?
वर्ष 1947 से पहले पत्रकारिता को मिशन माना जाता था, वर्ष 1947-75 तक मीडिया में प्रोफेशन का दौर था। आपातकाल के खत्म होने के बाद पत्रकारिता में गिरावट आनी शुरू हो गई थी और वर्ष 1991 से उदारीकरण के कारण मीडिया में कमर्शियलाइजेशन का दौर आया। लेकिन पेड न्यूज के दौर में पत्रकारिता के लिए कमर्शियल शब्द भी छोटा पड़ रहा है।वर्तमान समय में पत्रकारिता जगत में आप क्या बदलाव देखते हैं?
वर्तमान दौर में सौदेबाजी की पत्रकारिता हो रही है। यदि किसी को मीडिया द्वारा कवरेज करवानी है तो उसका मूल्य पहले से ही निर्धारित होता है। कमर्शियल में समाचार पेड नहीं होता, विज्ञापन के जरिए पैसा कमाया जाता है लेकिन अब पत्रकारिता में डील हो रही है। जो लोग इसको कर रहे है वह इसे व्यावसायिक पत्रकारिता मानते हैं। पत्रकारिता में 10 साल पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। हालांकि पूरा पत्रकारिता जगत ही खराब है, मैं ऐसा नहीं मानता। पत्रकारिता में कुछ असामाजिक तत्वों के कारण पूरे पत्रकारिता जगत पर आक्षेप लगाना सही नहीं है।वर्तमान समय में जहां चौथे स्तम्भ की भूमिका पर सवालिया निशान खड़े किए जा रहें हैं, ऐसी दशा में क्या आपको लगता है कि इसमें कोई सुधार हो सकता है?
पत्रकारिता के स्तर में गिरावट जरूर आई है। यदि कोई बहुराष्ट्रीय कम्पनी अगर अपना उत्पाद बाजार में लेकर आती है तो उसे मीडिया के माध्यम से समाचार के रूप में प्रस्तुत करवाती है। राजनैतिक दलों द्वारा भी चुनाव के समय मीडिया से डील किया जाता है और संवाददाता के जरिए उम्मीदवार का प्रचार कराया जाता है। पत्रकारिता को बचाने वाले अब कम ही लोग रह गए हैं और अन्य धक्का देकर निकल रहे हैं, लेकिन मीडिया में अब भी कई लोग ईमानदारी से काम कर रहे हैं। पत्रकारिता में अभी स्थिति वहां तक नहीं पहुंची कि कुछ सुधार नहीं किया जा सकता। अच्छी पत्रकारिता आवाज बनकर उठेगी। भारतीय समाज की खूबी है कि यहां कोई भी विकृति अपनी चरम सीमा पर नहीं पहुंचती, उसे रास्ते में ही सुधार दिया जाता है। पत्रकारिता में अब तक जो भी निराशाजनक स्थिति सामने आई है वह अवश्य चिंता की बात है। लेकिन जब सीमा पार होने लगती है तो कोई न कोई उसे अवश्य रोकता है। भारत में पत्रकारिता का भविष्य उज्जवल है।हाल ही में हुए जन आन्दोलन पर मीडिया कवरेज का क्या रूख रहा?
इलेक्ट्रानिक मीडिया घटना आधारित मीडिया है। घटना यदि होगी तो लोग उसे देखेंगे और इससे चैनल की टीआरपी बढ़ेगी। कुछ लोगों का आरोप है कि मीडिया खुद घटना बनाता है जो काफी हद तक ठीक भी है। प्रिंस जब गड्ढे में गिरा तो उसे तीन दिन तक दिखाया गया जिसके कारण अन्य महत्वपूर्ण खबरें छूट गई। वहीं अन्ना के आंदोलन को भी मीडिया ने पूरे-पूरे दिन की कवरेज दी जो कुछ हद तक सही था क्योंकि आम जनता टेलीविजन के माध्यम से ही इस आन्दोलन से जुड़ी। मीडिया के प्रभाव के कारण यह आन्दोलन सफल हो पाया। हालांकि सरकार ने इस दौरान मीडिया की आलोचना की क्योंकि यह कवरेज उनके पक्ष में नहीं था। मीडिया की कवरेज का ही नतीजा था कि लोगों ने इस आन्दोलन के जरिए अपनी भड़ास निकाली। यदि ऐसा नहीं होता तो इसका परिणाम हानिकारक होता। मीडिया के माध्यम से ही विदेशों में भी लोगों ने इस आन्दोलन को देखा। चीन ने तो चिंता भी व्यक्त की कि भारत का मीडिया चीन के मीडिया को बिगाड़ रहा है। भारत का मीडिया स्वतन्त्र रूप से कार्य करता है। जब मैं प्रधानमंत्री कार्यालय में कार्यरत था तो गर्व महसूस किया कि विदेशों में भारतीय लोकतन्त्र की सराहना की जाती है। वह भारत की न्यायिक स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के कारण भारत के मीडिया को जीवन्त मीडिया की संज्ञा देते हैं।विश्व की चार सबसे बड़ी समाचार समितियां विदेशी ही है। क्या आपको लगता है कि उनका प्रभाव भारतीय मीडिया पर भी है?
यह चारों समाचार समितियां बहुराष्ट्रीय हैं और इनका मानना है कि यह स्वतन्त्र पत्रकारिता कर रही हैं लेकिन यह समाचार समिति भी किसी देश की ही है और इनके लिए देश का हित सर्वोपरि होता है। यहां राष्ट्रहित व निजी हित विरोधाभासी है। ए.पी. अमेरिका की प्रतिष्ठित समाचार समिति है। इसे सबसे पहले प्रिंट के लिए शुरू किया गया और 180 देशों में फैलाया गया। इसके पीछे उद्देश्य था कि पूरी दुनिया सूचना के तंत्र को अमेरिका के नजरिए से देखे। चीन भी आर्थिक महाशक्ति बनने के साथ अपनी समाचार समिति शिन्हुआ को विश्व में फैला रहा है। वहीं दूसरी ओर भारत आर्थिक महाशक्ति के रूप में तो उभर रहा है लेकिन दुर्भाग्यवश सूचना के क्षेत्र में हम काफी पीछे हैं। सूचना के क्षेत्र में हम पहले की अपेक्षा सिकुड़ रहे हैं। प्रसार भारती, आकाशवाणी व दूरदर्शन पहले से सिकुड़ गए हैं। भारतीय समाचार समितियों की भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। हमारे देश में न तो सरकारी मीडिया का विकास हुआ और न ही समाचार समितियों को विस्तृत होने दिया गया। भारत में स्थित शिन्हुआ के ब्यूरो में 60 व्यक्ति रायटर्स के ब्यूरो में 250 व्यक्ति व एपी के ब्यूरो में 350 व्यक्ति कार्यरत है। यह समाचार समितियां भारत को विश्व में अपने चश्मे से प्रस्तुत कर रही हैं। जिस तरह भारत के फिल्म उद्योग ने विश्व में अपनी पहचान बनाई है, उसी तरह हमें सूचना के क्षेत्र में भी आगे बढ़ना चाहिए था लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका।पाशचात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण आज अंग्रेजी भाषा का जो प्रचलन बढ़ा है, ऐसे में हिन्दी पत्रकारिता को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?
हिन्दी पत्रकारिता की हम जब भी चर्चा करते हैं तो हम उसको अंग्रेजी के सामने लाकर खड़ा कर देते हैं जो गलत है। हिन्दी अंग्रेजी की प्रतिस्पर्धी भाषा नहीं है। भारतीय पत्रकारिता ने अंग्रेजी भाषा को कभी भी अपना प्रतिस्पर्धी नहीं माना लेकिन जब भी हिन्दी पत्रकारिता को बढ़ाने की बात की गई तो हमने कह दिया कि अंग्रेजी के कारण ऐसा नहीं हो रहा। पिछले 10 सालों में हिन्दी पत्रकारिता का विस्तार हुआ है। मैं नहीं मानता कि अंग्रेजी के कारण हिन्दी पत्रकारिता को नुकसान पहुंचा है। शिक्षा में बढ़ोतरी के साथ हिन्दी के स्तर में भी वृद्धि हुई है। आज हिन्दी भाषी समाचार चैनलों की संख्या अंग्रेजी भाषी चैनलों से कहीं अधिक है। भारत में अंग्रेजी भाषा वर्ष 1947 से पहले ब्रिटिष शासन की देन है। अमेरिका के महाशक्ति बनने के कारण आज अंग्रेजी वैश्विक भाषा बन गई है। जिन देशों को अंग्रेजी नहीं आती थी, वह अंग्रेजी सीख रहे हैं। भारत को अंग्रेजी का लाभ वर्तमान समय में मिल रहा है।नेहा जैन, सितम्बर अंक २०११
पत्रकारिता के प्रकाशपुंज बाबूराव विष्णु पराड़कर
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भारत में पत्रकारिता का उद्भव पुनर्जागरण और समाज कल्याण के उद्देश्य से हुआ था। महात्मा गांधी, बाबूराव विष्णु पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, महर्षि अरविंद आदि युगपुरूष पत्रकारिता की इसी परंपरा के प्रस्थापक थे, जिसने पत्रकारिता को देशहित में कार्य करने के लिए लक्ष्य और प्रेरणा दी। पत्रकारिता में उनके आदर्श ही पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी के लिए दिशा-निर्देश के समान हैं, जिन पर चलकर पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी अपनी इस अमूल्य विधा के साथ न्याय कर सकती है। पत्रकारिता की अमूल्य विधा वर्तमान समय में अपने संक्रमण काल के दौर से गुजर रही है। दरअसल पत्रकारिता में यह संक्रमण उन आशंकाओं का अवतरण है, जिसकी आशंका पत्रकारिता के युगपुरूषों ने बहुत पहले ही व्यक्त की थी। संपादकाचार्य बाबूराव विष्णुराव पराड़कर ने भविष्य में पत्रकारिता में बाजारवाद, नैतिकता के अभाव और पत्रकारों की स्वतंत्रता के बारे में कहा था-
पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े-बड़े धनियों अथवा सुसंगठित कंपनियों के लिए ही संभव होगा। पत्र सर्वांग सुंदर होंगे। आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गंभीर गवेषणा की झलक होगी, ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब कुछ होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त अथवा मानवता के उपासक महाप्राण संपादकों की नीति न होगी- इन गुणों से सम्पन्न लेखक विकृत मस्तिष्क समझे जाएंगे, संपादक की कुर्सी तक उनकी पहुंच भी न होगी। वेतनभोगी संपादक मालिक का काम करेंगे और बड़ी खूबी के साथ करेंगे। वे हम लोगों से अच्छे होंगे। पर आज भी हमें जो स्वतंत्रता प्राप्त है वह उन्हें न होगी। वस्तुतः पत्रों के जीवन में यही समय बहुमूल्य है। (संपादक पराड़कर में उद्धृत)पराड़कर जी का यह कथन वर्तमान दौर की पत्रकारिता में चरितार्थ होने लगा हैं, जब पत्रकारों की कलम की स्याही फीकी पड़ने लगी है और समाज हित जैसी बातें बेमानी होने लगी हैं। इसका कारण पत्रकार नहीं बल्कि वे मीडिया मुगल हैं जो मीडिया के कारोबारी होते हैं। पत्रकारिता पर पूंजीपतियों के दखल और उसके दुष्प्रभावों के बारे में पराड़कर जी ने कहा था-
पत्र निकालने का व्यय इतना बढ़ गया है कि लेखक केवल अपने ही भरोसे इसमें सेवा प्राप्त नहीं कर सकता। धनियों का सहयोग अनिवार्य हो गया है। दस जगह से धन संग्रह कर आप कंपनी बनाएं अथवा एक ही पूंजीपति पत्र निकाल दे, संपादक की स्वतंत्रता पर दोनों का परिणाम प्रायः एक सा ही होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि पत्रों की उन्नति के साथ-साथ पत्रों पर धनियों का प्रभाव अधिकाधिक परिमाण में अवश्य पड़ेगा।‘(इतिहास निर्माता पत्रकार, डा. अर्जुन तिवारी)बाजार के बढ़ते प्रभाव के कारण समाचारपत्र के स्वरूप और समाचारों के प्रस्तुतिकरण में आ रहे बदलावों के बारे में पराड़कर जी ने कहा था-
पत्र बेचने के लाभ से अश्लील समाचारों को महत्व देकर तथा दुराचरण मूलक अपराधों का चित्ताकर्षक वर्णन कर हम परमात्मा की दृष्टि में अपराधियों से भी बड़े अपराधी ठहर रहे हैं, इस बात को कभी न भूलना चाहिए। अपराधी एकाध अत्याचार करके दण्ड पाता है और हम सारे समाज की रूचि बिगाड़ कर आदर पाना चाहते हैं। (प्रथम संपादक सम्मेलन 1925 के वृंदावन हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षीय वक्तव्य से)पराड़कर जी का यह कथन वर्तमान समय में और भी प्रासंगिक लगता है, जब खबर के बाजार में मीडिया मुगल अश्लील खबरों के माध्यम से बाजार पर हावी होने के प्रयास में रहते हैं। पत्रकार को देश के समसामयिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक और विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों के बारे में जानकारी अवश्य होनी चाहिए। तभी वह अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है। इसका वर्णन करते हुए पराड़कर जी ने कहा था –
मेरे मत से संपादक में साहित्य और भाषा ज्ञान के अतिरिक्त भारत के इतिहास का सूक्ष्म और संसार के इतिहास का साधारण ज्ञान तथा समाज शास्त्र, राजनीति शास्त्र और अंतर्राष्ट्रीय विधानों का साधारण ज्ञान होना आवश्यक है। अर्थशास्त्र का वह पण्डित न हो पर कम से कम भारतीय और प्रान्तीय बजट समझने की योग्यता उसमें अवश्य होनी चाहिए।‘(इतिहास निर्माता पत्रकार, अर्जुन तिवारी)अभी हाल ही में प्रधानमंत्री ने टिप्पणी की थी कि मीडिया अब जज की भूमिका अदा करने लगा है,‘यह कुछ अर्थों में सही भी है। पत्रकारों पर राजनीति का कलेवर हावी होने लगा है, पत्रकारिता के राजनीतिकरण पर टिप्पणी करते हुए पराड़कर जी ने कहा था-
आज का पत्रकार राजनीति और राजसत्ता का अनुकूल्य उपलब्ध करने के लिए उनके मुहावरे में बोलने लगा है। उपभोक्ता संस्कृति के अभिशाप को लक्ष्य कर राजनेताओं की तरह आवाज टेरने वाले पत्रकार स्वयं व्यावसायिक चाकचिक्य के प्रति सतृष्ण हो गए हैं और उपभोक्ता संस्कृति ही इनकी संस्कृति बनती जा रही है। (पत्रकारिता इतिहास और प्रश्न, कृष्णबिहारी मिश्र)संपादकाचार्य पराड़कर जी की पत्रकारिता का लक्ष्य पूर्णतः स्वतंत्रता प्राप्ति के ध्येय को समर्पित था। पराड़कर जी ने अपने उद्देश्य की घोषणा इन शब्दों में की थी-
शब्दों में सामर्थ्य का भरें नया अंदाज।5 सितंबर, 1920 को आज की संपादकीय टिप्पणी में अपनी नीतियों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा था-
बहरे कानों को छुए अब अपनी आवाज।
हमारा उद्देश्य अपने देश के लिए सर्व प्रकार से स्वातंत्र्य उपार्जन है। हम हर बात में स्वतंत्र होना चाहते हैं। हमारा लक्ष्य है कि हम अपने देश के गौरव को बढ़ावें, अपने देशवासियों में स्वाभिमान संचार करें।पराड़कर जी की पत्रकारिता पूर्णतः ध्येय समर्पित पत्रकारिता थी, जिसका वर्तमान पत्रकार पीढ़ी में सर्वथा अभाव दिखता है। बाबूराव विष्णु पराड़कर पत्रकारिता जगत के लिए सदैव स्मरणीय आदर्श पत्रकार हैं। पत्रकारिता के सही मूल्यों को चरितार्थ करने वाले बाबूराव विष्णु पराड़कर जी की पत्रकारिता के पदचिन्ह वर्तमान पत्रकार पीढ़ी के लिए पथप्रदर्शक के समान हैं।
सूर्यप्रकाश, सितम्बर अंक २०११
पूंजी प्रवाह के आगे नतमस्तक पत्रकारिता
लोकतंत्र में पत्रकारिता ही एक ऐसा पेशा है जिसे सामाजिक सरोकारों का सच्चा पहरूआ कह सकते हैं क्योंकि पत्रकारिता का लक्ष्य सच का अन्वेषण है। सामाजिक शुचिता के लिए सच का अन्वेषण जरूरी है। सच भी ऐसा कि जो समाज में बेहतरी की बयार को निर्विरोध बहाये जिसके तले हर मनुष्य खुद को संतुष्ट समझे।पत्रकारिता का उद्भव ही मदांध व्यवस्था पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से हुआ था लेकिन आज की वर्तमान स्थिति में यह बातें बेमानी ही नजर आ रहीं हैं। खुद को आगे पहुंचाने और लोगों की भीड़ से अलग दिखने की चाह में जो भी अनर्गल चीज छापी या परोसी जा सकती हैं, सभी किया जा रहा है। अगर आज की पत्रकारिता को मिशन का चश्मा उतार कर देखा जाये तो स्पष्ट ह¨ता है कि मीडिया समाचारों के स्थान पर सस्ती लोकप्रियता के लिए चटपटी खबरों को प्राथमिकता दे रही है।
एक दौर हुआ करता था जब पत्रकारिता को निष्पक्ष एवं पत्रकारों को श्रद्धा के रूप में देखा जाता था। जो समाज के बेसहारों का सहारा बन उनकी आवाज को कुम्भकर्णी नींद में सोए हुक्मरानों तक पहुंचाने का माद्दा रखती थी। उस दौर के पत्रकार की कल्पना दीन-ईमान के ताकत पर सत्तामद में चूर प्रतिष्ठानों की चूलें हिलाने वाले क्रांतिकारी फकीर के रूप में होती थी। यह बात अब बीते दौर की कहानी बन कर रह गयी है। आज की पत्रकारिता के सरोकार बदल गये हैं और वह भौतिकवादी समाज में चेरी की भूमिका में तब्दील हो गयी है। जिसका काम लोगों के स्वाद को और मजेदार बनाते हुए उनके मन को तरावट पहुंचाना है। देश के सामाजिक चरित्र के अर्थ प्रधान होने का प्रभाव मीडिया पर भी पड़ा है और आज मीडिया उसी अर्थ लोलुपता की ओर अग्रसर है, या यूं कहिए की द्रुत गति से भाग रही है। इस दौड़ में पत्रकारिता ने अपने चरित्र को इस कदर बदला है कि अब समझ ही नहीं आता कि मीडिया सच की खबरें बनाती है या फिर खबरों में सच का छलावा करती है, लेकिन जो भी हो यह किसी भी दशा में निष्पक्ष पत्रकारिता नहीं है।
पत्रकारिता का मूल उद्देश्य है सूचना, ज्ञान और मनोरंजन प्रदान करना। किसी समाचार पत्र को जीवित रखने के लिए उसमें प्राण होना आवश्यक है। पत्र का प्राण होता है समाचार, लेकिन बढ़ते बाजारवाद और आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण विज्ञापन इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि पत्रकारिता का वास्तविक स्वरूप ही बदल गया है। राष्ट्रीय स्तर के समाचारों के लिए सुरक्षित पत्रों के प्रथम पृष्ठ पर भी अर्द्धनग्न चित्र विज्ञापनों के साथ प्रमुखता से प्रकाशित हो रहे हैं। समाचार पत्रों का सम्पादकीय जो समाज के बौद्धिक वर्ग क¨ उद्वेलित करता था, जिनसे जनमानस भी प्रभावित होता था, उसका प्रयोग आज अपने प्रतिद्वन्द्वी को नीचा दिखाने के लिए किया जा रहा है। इससे पत्रकारिता के गिरते स्तर और उसकी दिशा को लेकर अनेक सवाल खडे़ हो गये हैं। फिल्म अभिनेत्रियों की शादी और रोमांस के सम्मुख आम महिलाओं की मौलिक समस्याएं, उनके रोजगार, स्वास्थ्य उनके ऊपर होने वाले अत्याचारों से संबंधित समाचार स्पष्ट रूप से नहीं आ पा रहें हैं। यदि होता भी है तो बेमन, केवल दिखाने के लिए।
पत्रकारिता के इतिहास पर नजर डाले तो समझ आता है कि भारत में पत्रकारिता अमीरों के मनोरंजन के साधन के रूप में विकसित होने की बजाय स्वतंत्रता संग्राम के एक साधन के रूप में विकसित हुई थी। इसलिए जब सन् 1920 के दशक में यूरोप में पत्रकारिता की सामाजिक भूमिका पर बहस शुरू हो रही थी, भारतीय पत्रकारिता ने प्रौढ़ता प्राप्त की। सन् 1827 में राजा राममोहन राय ने पत्रकारिता के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा था- ‘मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि जनता के सामने ऐसे बौद्धिक निबंध उपस्थित करूं जो उनके अनुभव को बढ़ाएं और सामाजिक प्रगति में सहायक सिद्ध हो। मैं अपने शक्तिशाली शासकों को उनकी प्रजा की परिस्थितियों का सही परिचय देना चाहता हूं और प्रजा को उनके शासकों द्वारा स्थापित विधि व्यवस्था से परिचित कराना चाहता हूं ताकि जनता को शासन अधिकाधिक सुविधा दे सके। जनता उन उपायों से अवगत हो सके जिनके द्वारा शासकों से सुरक्षा पाई जा सके और अपनी उचित मांगें पूरी कराई जा सके। वर्तमान में राजा रामम¨हन राय की यह बातें केवल शब्द मात्र हैं जिन पर चलने में किसी भी पत्रकार की कोई रूचि नहीं है। आखिर उसे भी समाज में अपनी ऊंचाईयों को छूना है। आज के समय में मीडिया अर्थात् पत्रकारिता से जुड़े लोगों का लक्ष्य सामाजिक सरोकार न होकर आर्थिक सरोकार हो गया है। वैसे भी व्यवसायिक दौर में सामाजिक सरोकार की बातें अपने आप में ही बेमानी हैं। सरोकार के नाम पर अगर कहीं किसी कोने में पत्रकारिता के अंतर्गत कुछ हो भी रहा है तो वो भी केवल पत्रकारिता के पेशे की रस्म अदायगी भर है।
पत्रकारिता के पतित पावनी कार्यनिष्ठा से सत्य, सरोकार और निष्पक्षता के विलुप्त होने के पीछे वैश्वीकरण की भूमिका भी कम नहीं है। सभी समाचार-पत्र अन्तर्राष्ट्रीय अर राष्ट्रीय समाचारों के बीच झूलने लगे हैं। विदेशी पत्रकारिता की नकल पर आज अधिकांश पत्र सनसनी तथा उत्तेजना पैदा करने वाले समाचारों को सचित्र छापने की दौड़ में जुटे हैं। इन्टरनेट से संकलित समाचार कच्चे माल के रूप में जहां इन्हें सहजता से उपलब्ध हो रहे हैं, वहीं प्रौद्योगिकी का उपयोग कर अपने पत्रों को क्षेत्रीय रूप दे रहे हैं, जिसके कारण पत्रकारिता का सार्वभौमिक स्वर ही विलीन होने लगा है। ऐसी पत्र-पत्रिकाएं व टेलीविजन चैनल जो गे डे यानी कि समलैंगिकता दिवस मनाते हैं संस्कृति की रक्षा की बातों को मोरल पोलिसिंग कहकर बदनाम करने की कोशिशें करते हैं, भारतीय परंपरराओं और जीवन मूल्यों का मजाक उड़ाते हैं, खुलकर अश्लीलता, वासनायुक्त जीवन और अमर्यादित आचरणों का समर्थन करते हैं और कहते हैं कि यह सब वे पब्लिक डिमांड यानी कि जनता की मांग पर कर रहे हैं। परन्तु वास्तविकता यही है कि बाजारवाद से लाभान्वित होने के प्रयास में दूसरों पर दोषारोपण करके स्वयं को मुक्त नहीं किया जा सकता।
आज यदि महात्मा गांधी, राजा राममोहन राय, बाबू राव विष्णु पराड़कर या माखनलाल चतुर्वेदी जीवित होते तो क्या वे इसे सहन कर पाते, क्या उन जैसे पत्रकारों की विरासत को आज के पत्रकार ठीक से स्मरण भी कर पा रहे हैं\ क्या आज के पत्रकारों में उनकी उस समृद्ध विरासत को संभालने की क्षमता है\ ये प्रश्न ऐसे हैं जिनके उत्तर आज की भारतीय पत्रकारिता को तलाशने की जरूरत है, अन्यथा न तो वह पत्रकारिता ही रह जाएगी और न ही उसमें भारतीय कहलाने लायक कुछ होगा। इसके अलावा पत्रकारिता के लिए बड़ा खतरा गलत दिशा में बढ़ा कदम है, जिसके लिए बाजारवादी आकर्षण से मुक्त होकर पुनः स्थापित परंपरा का अनुसरण करना ही होगा, तभी पत्रकारिता की विश्वसनीयता बढ़ेगी। मीडिया संस्थानों और पत्रकारों को पीत पत्रकारिता एवं सत्ताभोगी नेताओं के प्रशस्ति गान के बजाय जनमानस के दुःख दर्द का निवारण, समाज एवं राष्ट्र के उन्नयन के लिए निःस्वार्थ भाव से कर्तव्य-पालन करना होगा, तभी वह लोकतंत्र में चौथे स्तंभ का अस्तित्व बनाये रखने में सफल हो सकेंगे।
आकाश राय, अगस्त अंक 2011
मिशन से प्रोफेशन तक का सफर
आजादी से पहले पत्रकारिता मिशन के रूप में थी। गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबू राव विष्णु पराड़कर, महात्मा गांधी, जुगल किशोर जैसे पत्रकारों ने अंग्रेजों की यातनाएं सहने के बावजूद भी अपने कलम की धार को पैना बनाए रखा और देश की आजादी में अपना सम्पूर्ण योगदान दिया। आजादी के बाद पत्रकारिता का व्यावसायीकरण होने के आरोप लगते रहे हैं। कहा जाता है कि आज पत्रकारिता मिशन न होकर केवल अपने निजी हितों की पूर्ति कर रहा है। आधुनिक भारतीय पत्रकारिता ने स्वतंत्रता संघर्ष की विरासत से स्वयं को डी लिंक कर लिया है। आप इससे कहां तक सहमत हैं ?मेरे विचारों में आज की पत्रकारिता निश्चित रूप से व्यवसायीकरण के झूले में झूल रही है। पत्रकारिता को जिन लोगों ने उज्ज्वल बनाया वे समझौतावादी नहीं थे। उस दौर के हमारे सामने गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबू राव विष्णु पराड़कर, लाला लाजपत राय आदि उदाहरण हैं, जो पत्रकारिता समाज सेवा के लिए किया करते थे। उस दौर के उदाहरण तो हमें याद हैं लेकिन आज के दौर में हम ऐसे कितने ईमानदार लोगों के नाम गिना सकते हैं, शायद इक्का या दुक्का ही ऐसे लोग होंगे जो इस देश के समाज के उत्थान में कलम के सच्चे सिपाही हैं। खबर की कीमत आज के आधुनिक पत्रकार जान पा रहे हैं कि जिस खबर से पैसा न निकले वे खबर नही है। खबर से पैसा कितना निकल सकता है सभी समाचार उद्योग ये ही देखते हैं।
अरूण कुमार (लेगेसी इंडिया)
ये बात सही है कि आज पत्रकारिता व्यावसायिक है। पहले लोगों का जीवन खेती पर निर्भर था। आज औद्योगिकीकरण का दौर है। लोग शहर में नौकरी की तलाश में आते हैं। ऐसे में उनके पास आजीविका का साधन केवल नौकरी ही होती है और यदि वे किसी मिषन के लिये अपना जीवन दांव पार लगा भी दे तो क्या वो संस्था उसके परिवार की जिम्मेदारी लेगी, ये वही भारत है, जहां सीमा पर शहीद हुये जवानों की विधवा मुआवजे के लिये आजीवन सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाती रहती है।
रिचा वर्मा (आकाशवाणी)
अंग्रेजों की यातनाएं सहने के बावजूद भी गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबू राव विष्णु पराड़कर, महात्मा गांधी, जुगल किशोर जैसे पत्रकारों ने अपने कलम की धार को पैना बनाए रखा बिल्कुल सही। सवाल यह है कि ये बड़े नाम किसके लिए लिख रहे थे, स्वयं के लिए, लोक-हित के लिए। हम व्यवसाय के लिए लिख रहे हैं। हमारे कलम की स्याही मीडिया मालिक खरीदता है, इसलिए उसकी धार भी वही तय करता है। पत्रकारिता के मिशन की बजाय राहुल के यूपी मिशन पर ध्यान दें, तरक्की जल्दी होगी। वरना पैर में हवाई चप्पल और कंधे पर झोले के सिवाय पत्रकारिता हमें कुछ नहीं दे सकती। हां, अगर व्यवस्था से लड़ने का इतना ही जूनून है तो पत्रकारों को पहले खुद की लड़ाई लड़नी होगी। 10-20 हजार में खुश होकर मालिक के अहसानों के तले दबने के बजाय मीडिया में ही काम करने वाले आईटी, मैनेजमेंट कर्मियों के समान वेतन की लड़ाई लड़नी होगी। जो खुद की लड़ाई नहीं लड़ सकता, वह पत्रकारिता की लड़ाई क्या खाक लड़ेगा.
चंदन कुमार (उप-संपादक, जागरण जोश.कॉम)
ये सही है कि आजादी से पूर्व पत्रकारिता एक मिशन के रूप में थी और आज पत्रकारिता मिशन न होकर केवल अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति भर रह गयी है। मैं इसे थोड़ा अलग नजरिए से भी देखता हूं, पहले भले ही पत्रकारों के विचार अलग-अलग रहें हों मगर सभी का मकसद एक था, सिर्फ और सिर्फ आजादी। आज भी वैचारिक तौर पर पत्रकारों में भिन्नता तो दिखती है मगर साथ ही एक मकसद विहीन पत्रकारिता की अंधी दौड़ में भी वो शामिल दिखाई देते हैं, जो पहले नहीं था। ऐसे में पत्रकारिता के भी मायने बदले हैं, काम का तरीका बदला है स्वरूप बदला है।
अनूप आकाश वर्मा (पंचायत संदेश, संपादक)
आज की पत्रकारिता मिशन से हटकर केवल प्रोफेशन बन गयी है! किसी भी मीडियाकर्मी को इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि उसके द्वारा बनायी गयी न्यूज का क्या प्रभाव पड़ता है और उसका क्या औचित्य है ? मतलब सिर्फ इस बात से है कि उसे उस खबर के बदले रकम मिलती है या नहीं। वो रकम जिसके जरिये वो अपना और अपने परिवार को सुख सुविधाएं दिला सके। ऐसे में किसी पर आरोप लगाना कि वह कर्म के बजाये अर्थ को महत्व देने लगा है सही नहीं होगा क्योंकि कहीं न कहीं उसने समाज के बदलते परिवेश के साथ समझौता कर लिया है और ये कहना कि समाज की दिशा गलत है, ठीक नहीं!
आकाश राय (हिन्दुस्थान समाचार)
आजादी के पहले पत्रकारिता मिशन थी लेकिन धीरे धीरे जब समाज का विकास हुआ तो पत्रकारिता का भी विकास हुआ। सभी अखबार और चैनल टीआरपी की होड़ में जुट गए। इसके लिए उन्हें अपने जमींर से समझौता करते हुए पूंजी की ओर झुकना पड़ा, इसीलिए पैसा कमाने के चक्कर में पत्रकारिता का धीरे धीरे व्यावसायीकरण होने लगा। आज पत्रकारिता भी पैसा कमाने और रोजी रोटी चलाने का जरिया बन गई है।
आशीष सिंह (पीटीसी न्यूज)
पत्रकारिता आज एक व्यवसाय है ये बात एक दम साफ है इसमें कोई दो राय नहीं हैं। रामदेव और अन्ना के मामले में मीडिया की भूमिका सबके सामने है। अपनी स्वतंत्रता का रोना रोने वाली मीडिया ने सरकार का बचाव कुछ ऐसे किया कि कोई अंधा और विवेकहीन भी समझ जाये की मीडिया कितनी स्वतंत्र है। उसके बाद एक के बाद एक कई घटनाएं चाहे मुंबई ब्लास्ट के बाद राहुल वाणी, कश्मीर में तिरंगा या फिर दिग्गी राजा की हर बात पर संघ को बदनाम करने की नाकाम कोशिश, मीडिया ने इन सबको खूब जोर शोर से छापा और अपना मिशन दिखाया। सभी लोग भ्रष्टाचारी हैं या बेईमान हैं ऐसा कहना गलत है लेकिन हर बार बेईमानी को मजबूरी बता देना किसी भी लिहाज से ठीक नहीं है।
विकास शर्मा (आज समाज)
अगस्त अंक, २०११
पूंजीपतियों के चरणों में अर्पित पत्रकारिता- माखनलाल चतुर्वेदी
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वर्तमान समय में पत्रकारिता के कर्तव्य, दायित्व और उसकी भूमिका को लोग संदेह से परे नहीं मान रहे हैं। इस संदेह को वैश्विक पत्रकारिता जगत में न्यूज आफ द वर्ल्ड और राष्ट्रीय स्तर पर राडिया प्रकरण ने बल प्रदान किया है। पत्रकारिता जगत में यह घटनाएं उन आशंकाओं का प्रादुर्भाव हैं जो पत्रकारिता के पुरोधाओं ने बहुत पहले ही जताई थीं। पत्रकारिता में पूंजीपतियों के बढ़ते प्रभाव के बारे में पत्रकारिता के महान आदर्श माखनलाल चतुर्वेदी ने कहा था-
दुख है कि सारे प्रगतिवाद, क्रांतिवाद के न जाने किन-किन वादों के रहते हुए हमने अपनी इस महान कला को पूंजीपतियों के चरणों में अर्पित कर दिया है। (पत्रकारिता: इतिहास और प्रश्न – कृष्ण बिहारी मिश्र)भारत की पत्रकारिता की कल्पना हिंदी से अलग हटकर नहीं की जा सकती है, परंतु हिंदी पत्रकारिता जगत में भी अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। भाषा के मानकीकरण की दृष्टि से यह उचित नहीं कहा जा सकता। माखनलाल चतुर्वेदी भाषा के इस संक्रमण से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने कहा कि-
राष्ट्रभाषा हिंदी और तरूणाई से भरी हुई कलमों का सम्मान ही मेरा सम्मान है।‘(राजकीय सम्मान के अवसर पर)राष्ट्रभाषा हिंदी के विषय में माखनलाल जी ने कहा था-
जो लोग देश में एक राष्ट्रभाषा चाहते हैं, वे प्रांतों की भाषाओं का नाश नहीं चाहते। केवल विचार समझने और समझाने के लिए राष्ट्रभाषा का अध्ययन होगा, बाकि सब काम मातृभाषाओं में होंगे। ऐसे दुरात्माओं की देश को जरूरत नहीं, जो मातृभाषाओं को छोड़ दें। (पत्रकारिता के युग निर्माता- माखनलाल चतुर्वेदी, शिवकुमार अवस्थी)पत्रकारिता पर सरकारी नियंत्रण एक ऐसा मुद्दा है, जो हमेशा जीवंत रहा है। सरकारी नियंत्रण के बारे में भी माखनलाल चतुर्वेदी ने अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए अपने जीवनी लेखक से कहा था-
जिला मजिस्ट्रेट मिओ मिथाइस से मिलने पर जब मुझसे पूछा गया कि एक अंग्रेजी वीकली के होते हुए भी मैं एक हिंदी साप्ताहिक क्यों निकालना चाहता हूं तब मैंने उनसे निवेदन किया कि आपका अंग्रेजी साप्ताहिक तो दब्बू है। मैं वैसा समाचार पत्र नहीं निकालना चाहता हूं। मैं एक ऐसा पत्र निकालना चाहूंगा कि ब्रिटिश शासन चलता-चलता रूक जाए। (पत्रकारिताः इतिहास और प्रश्न – कृष्ण बिहारी मिश्र)माखनलाल चतुर्वेदी ने पत्रकारिता के ऊंचे मानदंड स्थापित किए थे। उनकी पत्रकारिता में राष्ट्र विरोधी किसी भी बात को स्थान नहीं दिया जाता था। यहां तक कि माखनलाल जी महात्मा गांधी के उन वक्तव्यों को भी स्थान नहीं देते थे जो क्रांतिकारी गतिविधियों के विरूद्ध होते थे। सरकारी दबाव में कार्य करने वाली पत्रकारिता के विषय में उन्होंने अपनी नाराजगी इन शब्दों में व्यक्त की थी-
मैंने तो जर्नलिज्म में साहित्य को स्थान दिया था। बुद्धि के ऐरावत पर म्यूनिसिपल का कूड़ा ढोने का जो अभ्यास किया जा रहा है अथवा ऐसे प्रयोग से जो सफलता प्राप्त की जा रही है उसे मैं पत्रकारिता नहीं मानता।‘‘ (पत्रकारिताः इतिहास और प्रश्न- कृष्ण बिहारी मिश्र)
वर्तमान समय में हिंदी समाचारपत्रों को पत्र का मूल्य कम रखने के लिए और अपनी आय प्राप्त करने के लिए विज्ञापनों पर निर्भर रहना पड़ता है, क्योंकि पाठक न्यूनतम मूल्य में ही पत्र को लेना चाहते हैं। हिंदी पाठकों की इस प्रवृत्ति से क्षुब्ध होकर माखनलाल जी ने कहा-
मुफ्त में पढ़ने की पद्धति हिंदी से अधिक किसी भाषा में नहीं। रोटी, कपड़ा, शराब का मूल्य तो वह देता है पर ज्ञान और ज्ञान प्रसाधन का मूल्य चुकाने को वह तैयार नहीं। हिंदी का सबसे बड़ा शत्रु यही है। (पत्रकारिता के युग निर्माता- माखनलाल चतुर्वेदी, शिवकुमार अवस्थी)माखनलाल चतुर्वेदी पत्र-पत्रिकाओं की बढ़ती संख्या और गिरते स्तर से भी चिंतित थे। पत्र-पत्रिकाओं के गिरते स्तर के लिए उन्होंने पत्रों की कोई नीति और आदर्श न होने को कारण बताया। उन्होंने लिखा था-
हिंदी भाषा का मासिक साहित्य एक बेढंगे और गए बीते जमाने की चाल चल रहा है। यहां बरसाती कीड़ों की तरह पत्र पैदा होते हैं। फिर यह आश्चर्य नहीं कि वे शीघ्र ही क्यों मर जाते हैं। यूरोप में हर एक पत्र अपनी एक निश्चित नीति रखता है। हिंदी वालों को इस मार्ग में नीति की गंध नहीं लगी। यहां वाले जी में आते ही, हमारे समान चार पन्ने निकाल बैठने वाले हुआ करते हैं। उनका न कोई आदर्श और उद्देश्य होता है, न दायित्व। (इतिहास- निर्माता पत्रकार, डा. अर्जुन तिवारी)पत्रकारिता को किसी भी राष्ट्र या समाज का आईना माना गया है, जो उसकी समसामयिक परिस्थिति का निष्पक्ष विश्लेषण करता है। पत्रकारिता की उपादेयता और महत्ता के बारे में माखनलाल चतुर्वेदी जी ने कर्मवीर के संपादकीय में लिखा था-
किसी भी देश या समाज की दषा का वर्तमान इतिहास जानना हो तो वहां के किसी सामयिक पत्र को उठाकर पढ़ लीजिए, वह आपसे स्पष्ट कर देगा। राष्ट्र के संगठन में पत्र जो कार्य करते हैं वह अन्य किसी उपकरण से होना कठिन है। (माखनलाल चतुर्वेदी, ऋषि जैमिनी बरूआ)किसी भी समाचार पत्र की सफलता उसके संपादक और उसके सहयोगियों पर निर्भर करती है, जिसमें पाठकों का सहयोग प्रतिक्रिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। समाचारपत्रों की घटती लोकप्रियता के लिए माखनलाल जी ने संपादकों और पाठकों को जिम्मेदार ठहराते हुए लिखा था-
इनके दोषी वे लोग ही नहीं हैं जो पत्र खरीदकर नहीं पढ़ते। अधिक अंशों में वे लोग भी हैं जो पत्र संपादित और प्रकाशित करते हैं। उनमें अपने लोकमत की आत्मा में पहुंचने का सामर्थ्य नहीं। वे अपनी परिस्थिति को इतनी गंदी और निकम्मी बनाए रखते हैं, जिससे उनके आदर करने वालों का समूह नहीं बढ़ता है।‘(पत्रकारिता के युग निर्माता- माखनलाल चतुर्वेदी, शिवकुमार अवस्थी)भारतीय पत्रकारिता अपने प्रवर्तक काल से ही राष्ट्र और समाज चेतना के नैतिक उद्देश्य को लेकर ही यहां तक पहुंची है। वर्तमान समय में जब पत्रकार को पत्रकारिता के नैतिक कर्तव्यों से हटकर व्यावसायिक हितों के लिए कार्य करने में ही कैरियर दिखने लगा है। ऐसे समय में पत्रकारिता के प्रकाशपुंज माखनलाल चतुर्वेदी के आदर्षों से प्रेरणा ले अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ने की आवश्यकता है।
सूर्यप्रकाश
धुंधले होते सपने, मीडिया संस्थान की देन
पत्रकार शब्द सुनते ही हाथ में कलम, पैरों में हवाई चप्पल व कंधे पर एक झोला टांगे हुए व्यक्ति दिखाई देता है, जो देश की समस्यों पर गहन विचार करता है, लेकिन वास्तविकता में वर्तमान समय में इसका परिदृश्य बदल रहा है। पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र की ओर युवाओं का आकर्षण बढ़ा है जिसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह बदल रहा परिदृश्य ही है। पत्रकारिता के क्षेत्र में अधिकतर युवा मीडिया के ग्लैमर का हिस्सा बनने के सपने संजोए आते है। किंतु धीरे-धीरे उन्हें जब वास्तविकता से चित-परिचित होना पड़ता है तो उनके यह सपने धुंधले होते जाते है कि यहां अपना स्थान प्राप्त करना बड़ा सरल है।इसका एक कारण जगह-जगह पर दुकानों की तरह खुलते मीडिया के शिक्षण संस्थान भी है। यह शिक्षण संस्थान व्यावहारिक ज्ञान की अपेक्षा किताबी ज्ञानों पर अधिक जोर देते हैं। जिसके कारण विद्यार्थी व्यावहारिक ज्ञान के अभाव में मीडिया जगत में स्वयं का स्थान बना पाने में अपने को असहज महसूस करता है।
विश्वविद्यालय तथा अनुदान प्राप्त कालेजों मे चल रहे पत्रकारिता कोर्सों में दी जा रही शिक्षा गुणवत्ता की कसौटी पर खरी नहीं उतर रही है। यहां पिछले डेढ़ दशक से वही घिसा-पिटा कोर्स पढ़ाया जा रहा है। इस तकनीकी युग में जब हर दिन एक नई तकनीक का विस्तार और आविष्कार हो रहा है तो वहां इस कोर्स की क्या अहमियत होगी! एक ओर जहां थ्रीडी, नए कैमरा सेटअप, न्यू मीडिया का प्रचलन बढ़ गया है, तो वहीं दूसरी ओर विश्वविद्यालयों का पाठ्यक्रम ज्यों का त्यों ही है।
इन कॉलेजों या संस्थानों में यह भी ध्यान नहीं दिया जाता कि वह इन छात्रों की प्राथमिक जरूरतें पूरी कर रहे हैं या नहीं। पत्रकारिता के क्षेत्र में अध्ययनरत विद्यार्थी को व्यवहारिक प्रशिक्षण के लिए प्रयोगशाला, उपकरणों व अच्छे पुस्तकालय की आवश्यकता होती है पर अधिकांश संस्थानों द्वारा इस समस्या की ओर ध्यान केन्द्रित नहीं किया जाता है। यह संस्थान मोटी फीस के बाद भी पुराने ढर्रे पर चलने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं।
विडम्बना यह है कि विश्वविद्यालय के इन छात्रों ने किसी कैमरे के लेंस से यह झांककर भी नहीं देखा कि इससे देखने पर बाहर की दुनिया कैसी दिखाई देती है़, पत्रकारिता में दाखिला लेने और अपने तीन साल कॉलेज में बिताने के बदले छात्रों को एक डिग्री दे दी जाती है। ये एक ऐसा सर्टिफिकेट होता है जो किसी छात्र को बेरोजगार पत्रकार बना देता है। कुछ डिग्रीधारकों को चवन्नी पत्रकारिता करने का अवसर मिल जाता है तो उन्हें सफल होने में कई साल लग जाते हैं। इसका कारण यह है कि उसे जो पढ़ाई के समय पर सिखाया जाना चाहिए था. उसे वह धक्के खाने के बाद सीखने को मिलता है। इस कारण कुछ छात्रों में इतनी हताशा घर कर जाती है कि वे पत्रकारिता को प्रणाम कर किसी और व्यवसाय को चुन लेते हैं।
यह कॉलेज तथा संस्थान न केवल उदीयमान पत्रकारों के भविष्य के साथ धोखा और भटकाव की स्थिति उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी हैं, अपितु भविष्य की पत्रकारिता को प्रश्न चिन्हों की ओर धकेल रहे हैं। जल्द ही कुछ उपाय करने होंगे ताकि गुणवत्ता वाले पत्रकार उभर सकें। इसके लिए कम्प्यूटर की बेहतर शिक्षा, लैब और लाइब्रेरी की जरूरतों को पूरा करने के साथ ही देश और दुनिया की सही समझ विकसित करने का काम भी इन संस्थानों को करना होगा।
वंदना शर्मा, जुलाई अंक, २०११
सोशल नेटवर्किंग साइट्स का युवा पीढ़ी पर प्रभाव
जब से समाज की स्थापना हुई है तब से मनुष्य समाज में रहने वाले अन्य लोगों के साथ निरंतर संपर्क साधता रहता है। इसी संपर्क साधने की प्रक्रिया में विकास के चलते नई खोज हुई और सोशल नेटवर्किग साइट्स अस्तित्व में आई। इन साइट्स के जरिए लोग एक दूसरे से संपर्क स्थापित करते हैं। युवा पीढ़ी के लिए यह जानकारी प्राप्त करने, मनोरंजन तनाव से मुक्त रहने, नए लोगों से पहचान बनाने का साधन बन गया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर वह अपनी बात अपने संपर्क के लोगों के साथ सांझा करते हैं।अपने शुरूआती दौर में सोशल नेटवर्किंग साइट एक सामान्य सी दिखने वाली साइट होती थी और इसके जरिए उपयोगकर्ता एक-दूसरे से चैटरूम के जरिए बात करते थे और अपनी निजी जानकारी व विचार एक-दूसरे के साथ बांटते थे। इन साइट्स में द वेल, (1985, ‘द ग्लोब डाट काम, 1994, ट्राईपोड डाट काम (1995 शामिल थीं। 90 के दशक से इन साइट्स में बदलाव आया और इसमें फोटो, वीडियो, संगीत, शेयरिंग, आनलाइन गेम्स, विज्ञान, कला. ब्लागिंग, चैटिंग, आनलाइन डेटिंग जैसी तमाम सुविधाएं बढ़ीं। भारत में सबसे ज्यादा प्रयोग होने वाली वेबसाइट्स में फेसबुक, ट्विटर व आरकुट शामिल हैं। इसके अलावा हाय फाइव, बेबो, याहू 360, फ्रेंड ज़ोर्पिया आदि कई सोशल नेटवर्किंग साइट उपलब्ध हैं। फेसबुक फरवरी 2004 में लांच हुई थी जिसने बहुत कम समय में युवाओं के बीच पहुंच बनाकर प्रसिद्धि पाई । वहीं आरकुट वर्ष 2004 में बनाई गई थी जिस पर गूगल इंक का स्वामित्व है। ट्विटर वर्ष 2006 में जैक डर्सी द्वारा बनाई गई थी । इसके प्रयोगकर्ता अपने एकाउंट से कोई भी संदेश छोड़ते है जिसे ट्वीटर कहा जाता है।पत्रकारिता के क्षेत्र में शोध कर रहीं शोधार्थी पंकज द्वारा सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर शोध किया जा रहा है और इस शोध का प्रयोजन यह जानना है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स निजी एवं सामाजिक समस्याओं पर निर्णय लेने में युवाओं को कैसे प्रभावित करती है\ क्या यह किसी मुद्दे पर युवाओं की सोच में परिवर्तन कर सकती है\ क्या सोशल नेटवर्किंग साइट आज सूचनाओं एवं मनोरंजन का एक तीव्र माध्यम बन गई है, क्या युवा पीढ़ी इन साइट्स की आदी हो चुकी है\
इसमें कोई शक नहीं है कि आज जीवनशैली को इंटरनेट ने बहुत प्रभावित किया है। सूचना एवं प्रौद्योगिकी की इस नई तकनीक ने विष्व की सीमाओं को तोड़ दिया है। मैकलुहन के शब्दों में पूरी दुनिया एक वैश्विक ग्राम में बदल चुकी है।
इंटरनेट ने आज विश्व के लोगों को एक-दूसरे से जोड़ दिया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिए आज कोई भी व्यक्ति एक-दूसरे से कहीं से भी संपर्क साध सकता है। इसका प्रयोग करने वाले युवाओं की संख्या निरंतर बढ़ रही है। न्यू मीडिया के इस साधन पर यह शोध कार्य महत्वपूर्ण है।
शोधार्थी- पंकज, सीडिंग इंस्टीट्यूट फार मीडिया स्टडीज (जयपुर नेशनल यूनिवर्सिटी)
क्रान्तिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी
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गणेश शंकर विद्यार्थी! यह एक नाम ही नहीं बल्कि अपने आप में एक आदर्श विचार है। वह एक पत्रकार होने के साथ-साथ एक महान क्रांतिकारी और समाज सेवी भी थे। पत्रकारिता के नैतिक कर्तव्य को निभाते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। उनका समस्त जीवन पत्रकारिता जगत के लिए अनुकरणीय आदर्श है। विद्यार्थी जी का जन्म अश्विन शुक्ल 14, रविवार सं. 1947,1890 ई.) को अपने ननिहाल इलाहाबाद के अतरसुइया मुहल्ले में हुआ था। उनकी माता का नाम गोमती देवी तथा पिता का नाम मुंशी जयनारायण था। गणेश शंकर विद्यार्थी मूलतः फतेहपुर(उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। उनके पिता ग्वालियर रियासत में मुंगावली के ऐंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल के हेडमास्टर थे। गणेश शंकर विद्यार्थी का बाल्यकाल भी ग्वालियर में ही बीता तथा वहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई।
विद्यारंभ उर्दू से हुआ और 1905 ई. में भेलसा से अंग्रेजी मिडिल परीक्षा पास की। 1907 ई. में प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में कानपुर से एंट्रेंस परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला कालेज में प्रवेश लिया। उसी समय से पत्रकारिता की ओर झुकाव हुआ और इलाहाबाद के हिंदी साप्ताहिक कर्मयोगी के संपादन में सहयोग देने लगे। सन १९०८ में गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर के करेंसी ऑफिस में ३० रुपये मासिक पर नौकरी की, लेकिन एक अंग्रेज अधिकारी से झगड़ा होने के पश्चात् विद्यार्थी जी ने इस नौकरी को त्याग दिया। नौकरी छोड़ने के पश्चात् सन १९१० तक विद्यार्थी जी ने अध्यापन कार्य किया । यही वह समय था जब विद्यार्थी जी ने सरस्वती, कर्मयोगी, स्वराज्य, हितवार्ता आदि पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखना प्रारंभ किया।
सन १९११ में गणेश शंकर विद्यार्थी को सरस्वती पत्रिका में महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कुछ समय बाद सरस्वती, छोड़कर वह अभ्युदय में सहायक संपादक हुए जहां विद्यार्थी जी ने सितम्बर १९१३ तक अपनी कलम से राष्ट्रीय चेतना की अलख जगाने का कार्य किया। दो ही महीने बाद 9 नवंबर, 1913 को कानपुर से स्वयं अपना हिंदी साप्ताहिक प्रताप के नाम से निकाला। गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप के प्रथम अंक में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक आर्थिक क्रांति, राष्ट्रीय गौरव, साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत के लिए ही उनकी पत्रकारिता समर्पित है। प्रताप पत्र में अंग्रजों की दमनपूर्ण नीति की मुखर आलोचना के कारण सरकार ने प्रताप का प्रकाशन बंद करवाकर गणेश शंकर विद्यार्थी पर राजद्रोह का मुकदमा लगाकर जेल भेज दिया।
अंग्रेजों की इस दमनपूर्ण कार्रवाई के बाद भी गणेश शंकर विद्यार्थी की राष्ट्रवादी कलम की प्रखरता कम न हो सकी। जेल से छूटने के बाद आर्थिक संकट से जूझते विद्यार्थी जी ने किसी तरह व्यवस्था जुटाई तो 8 जुलाई 1918 को फिर प्रताप की शुरूआत हो गई। प्रताप के इस अंक में विद्यार्थी जी ने सरकार की दमनपूर्ण नीति की ऐसी जोरदार खिलाफत कर दी कि आम जनता प्रताप को मुक्त हस्त से आर्थिक सहयोग करने लगी। इस का परिणाम यह हुआ कि विद्यार्थी जी ने २३ नवम्बर १९१९ से साप्ताहिक प्रताप का प्रकाशन दैनिक समाचार पत्र के रूप में प्रारंभ कर दिया। विद्यार्थी जी के दैनिक पत्र प्रताप का प्रताप ऐसा था कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध व्यापक स्तर पर जन-जागरण हुआ। कहा जाता है कि स्वाधीनता आन्दोलन की अग्नि को प्रखर करने वाले समाचार पत्रों में प्रताप का प्रमुख स्थान था।
लगातार अंग्रेजों के विरोध में लिखने से प्रताप की पहचान सरकार विरोधी बन गई और तत्कालीन मजिस्ट्रेट मि. स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामे में प्रताप को ‘बदनाम पत्र’ की संज्ञा देकर जमानत की राशि जब्त कर ली। अंग्रेजों का कोपभाजन बने विद्यार्थी जी को 23 जुलाई 1921 में भी जेल की सजा दी गई परन्तु उन्होंने सरकार के विरुद्ध कलम की धार को कम नहीं किया। विद्यार्थी जी की कलम ने स्वाधीनता आन्दोलन की क्रांति को ही प्रखर नहीं किया, बल्कि पूंजीवाद और सामन्तवाद की जनविरोधी नीतियों का भी अपनी पत्रकारिता के माध्यम से विरोध किया। विद्यार्थी जी वह पत्रकार थे जिन्होंने अपने प्रताप की प्रेस से काकोरी कांड के नायक रामप्रसाद बिस्मिल की जीवनी का प्रकाशन किया। गणेश शंकर विद्यार्थी का प्रताप ही वह पत्र था जिसमें भगत सिंह ने अपने फरारी के दिनों में छद्म नाम से पत्रकारिता की थी। विद्यार्थी जी का सम्पूर्ण पत्रकार जीवन ही राष्ट्रवाद, भारतीय संस्कृति, साम्प्रदायिक सद्भाव को समर्पित रहा।
पत्रकारिता के पुरोधा गणेश शंकर विद्यार्थी साम्प्रदायिकता के भी स्पष्ट विरोधी थे। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी सुनाये जाने पर देशभर में भड़के साम्प्रदायिक दंगों को रोकने में विद्यार्थी जी ने अपना जीवन भी दांव पर लगा दिया। इन्हीं दंगों के दौरान गणेश शंकर विद्यार्थी निस्सहायों को बचाते हुए शहीद हो गए।
गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या के पश्चात् महात्मा गाँधी ने बड़े ही मार्मिक शब्दों में उनको श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि मुझे यह जानकर अत्यंत शोक हुआ कि गणेश शंकर विद्यार्थी अब हमारे बीच नहीं हैं। उनके जैसे राष्ट्रभक्त और स्वार्थहीन व्यक्ति की मृत्यु पर किस संवेदनशील व्यक्ति को कष्ट नहीं होगा।’’कलम का यह सिपाही असमय ही चला गया लेकिन उनकी प्रेरणाएं पत्रकारिता जगत और समस्त देश को सदैव प्रेरित करती रहेंगी। पत्रकारिता जगत के इस अमर पुरोधा को सादर नमन…..
पं जवाहरलाल नेहरु ने दुःख व्यक्त करते हुए कहा यह जानकर अत्यंत दुःख हुआ कि हमारे प्रिय मित्र और राष्ट्रभक्त गणेश शंकर विद्यार्थी की साम्प्रदायिक दंगे में हत्या कर दी गई है। गणेश शंकर की शहादत एक राष्ट्रवादी भारतीय की शहादत है, जिसने दंगों में निर्दोष लोगों को बचाते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया।
सूर्यप्रकाश, जुलाई अंक, २०१२
दाम मजदूर से कम, काम मालिक की निगरानी
पत्रकारिता के प्रारम्भिक दौर में इसे अभिव्यक्ति के साथ-साथ जनजागरण का माध्यम माना जाता था। किन्तु वर्तमान परिवेश में बदल रही पत्रकारिता की दिशा और दशा दोनों ही चिन्ता का विषय बनते जा रहें हैं। पत्रकारिता जगत में हो रहे इस परिवर्तन में कौन सी प्रक्रिया उचित है? इसके बारे में हम यहां राष्ट्रदेव पत्रिका के संपादक श्री अजय मित्तल जी से उनके विचार जानने का प्रयास कर रहें हैं-प्रश्न 1 आपका पत्रकारिता के क्षेत्र में आने का क्या उद्देश्य रहा ?
उत्तर- पत्रकारिता चुनौतिपूर्ण व्यवसाय है। जो सत्ता सारी व्यवस्थाओं की निगरानी करती है, उसकी भी निगरानी करने का दायित्व पत्रकार का है। इसीलिए समाज को कुछ वैचारिक बदल की ओर अग्रसर करने के लिए मैंने पत्रकारिता को चुना जिससे आम लोग समाज में सकारात्मक परिवर्तन के लिए अपना योगदान दे सकें।प्रश्न 2 वर्तमान समय में आप पत्रकारिता के क्षेत्र में क्या बदलाव देखते है ?
उत्तर- आज पत्रकारिता अपने मार्ग से भटक रही है। पत्रकारिता के आधार पर प्राप्त शक्तियों का पत्रकार दुरूपयोग कर रहे हैं। पहले पत्रकार देश में हो रहे घपलों, घोटालों व भ्रष्टाचार को उजागर करते थे लेकिन अब वह इसका हिस्सा बन रहे हैं। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में जिस तरह शीर्ष पत्रकारों का नाम आया उससे पत्रकार की गरिमा पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। पत्रकारिता के क्षेत्र में सभी स्तरों के पत्रकार प्रेस को प्राप्त अधिकारों को अपने विशेषाधिकार समझने लगे हैं और इसका दुरुपयोग कर रहे हैं। स्वयं की सहूलियत के लिए पत्रकार ऐसा करते हैं। उनमें अब समाज के दिशा निर्देशक के बजाए राजनेता के गुण आ रहे हैं।प्रश्न 3 राष्ट्रीय महत्व के मुददों पर मीडिया की भूमिका और प्रभाव को आप किस प्रकार से देखते हैं?
उत्तर- सामान्य आदमी के पास न तो तथ्यों की जानकारी होती है और न ही विश्लेषण क्षमता। तथ्य और उनका विश्लेषण वह मीडिया से ही प्राप्त करता है। मीडिया ने आम आदमी की इसी कमजोरी का लाभ उठाकर अपनी इच्छानुसार तथ्यों और विश्लेषणों को प्रस्तुत करना और उसके अनुसार समाज को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। मीडिया को अगर भ्रष्टाचार से कुछ प्राप्त होने की उम्मीद होती है तो वह तथ्यों में बदलाव कर देती है या उसे खत्म ही कर देती है। वहीं मीडिया को यदि कुछ निजी लाभ नहीं मिलता तो वह उन्हीं तथ्यों को खोजी पत्रकारिता का नाम दे देती है। ऐसे पत्रकार अपने प्रभाव का दुरुपयोग कर समाज को अधूरे तथ्य, अर्द्ध-सत्य, असत्य बताकर पत्रकारिता के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।प्रश्न 4 आपकी पत्रिका राष्ट्रदेव ग्रामीण क्षेत्रों में जाती है। ग्रामीण पाठकों के बारे में आपका क्या अनुभव रहा है?
उत्तर- ग्रामीण पाठक देश की समस्याओं के बारे में जानने के लिए उत्सुक रहते हैं। वह अपने स्थानीय परिवेश से बाहर जाकर राष्ट्र स्तर पर विचार करना चाहते हैं, देश के इतिहास, महापुरूषों को जानना चाहते हैं। वह पत्रिका के राष्ट्रीय विचारों का बड़ी संख्या में स्वागत करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के पाठकों के बीच किए गए सर्वे के दौरान पता चला कि वह देश के बारे में सोचने की ललक रखते हैं और इसीलिए वह राष्ट्रीय विचारों को पढ़ना भी पसंद करते हैं।प्रश्न 5 आप अपनी पत्रिका के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना जगाने का प्रयास करते रहे हैं। क्या आज का मीडिया राष्ट्रवाद के प्रश्न पर अपनी भूमिका का निर्वाह सही ढंग से कर रहा है?
उत्तर- राष्ट्रीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाले पत्रों का स्वर राष्ट्रहित के अनुकूल है। अंग्रेजी मीडिया भारतीय परिवेश व संस्कृति को नहीं समझती। वह देश की समस्याओं और यहां के परिवेश को पश्चिमी चश्मे से निहारती है और विश्लेषण प्रस्तुत करती है। अक्सर यह देखा गया है कि जो अखबार राष्ट्रवाद के समर्थक थे उनकी प्रसार संख्या में अच्छी वृद्धि हुई है और जिन्होंने पंथ-निरपेक्षता के नाम पर राष्ट्रवाद को गिराने का कार्य किया वह ज्यादा नहीं चल पाए।प्रश्न 6 वर्तमान समय में व्यवस्था परिवर्तन को लेकर चल रहे आंदोलनों के परिप्रेक्ष्य में जनजागरण के विषय पर मीडिया की भूमिका कितनी उपयोगी साबित हुई है?
उत्तर- चाहे अन्ना का आंदोलन हो या बाबा रामदेव का सौभाग्य से मीडिया ने अच्छा प्रदर्शन किया। मीडिया ने अच्छे पक्षों को लगभग ठीक प्रकार से प्रस्तुत किया। इसीलिए राजनेताओं ने इन आंदोलनों को बदनाम करने के लिए कार्रवाई की। मीडिया इस समय व्यवस्था परिवर्तन के मुद्दे पर लगभग समान और अनुकूल विचार रख रहा है।प्रश्न 7 आप उत्तर प्रदेश पत्रकार एसोसिएशन मेरठ के अध्यक्ष हैं। पत्रकारों की कौन सी प्रमुख समस्याएं हैं, जिनको लेकर पत्रकार को लड़ाई लड़ने की आवश्यकता पड़ती है?
उत्तर- पत्रकारों, विशेषकर जो छोटे और मंझले पत्रों में काम कर रहे हैं, के सामने सबसे बड़ी समस्या वेतन की है। छोटे अखबारों में तो वेतन सरकार द्वारा अकुशल कर्मियों के लिए निर्धारित न्यूनतम मजदूरी दर से भी कम है। छोटे अखबारों में पत्रकारों को मिट्टी ढोनेवाले मजदूरों को मिलने वाले वेतन से भी आधा वेतन मिलता है। जबकि पत्रकारों की बड़ी संख्या इन्हीं छोटे एवं मंझले समाचार पत्रों व चैनलों में कार्यरत हैं। वहीं पत्रकारों के लिए काम के घंटे भी बहुत अधिक है जिसके कारण वह न तो अपना श्रेष्ठतम योगदान दे सकते हैं और न ही उन्हें अध्ययन के लिए समय मिल पाता है। यह स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। इसके अलावा पत्रकारों के बेहतर भविष्य के लिए बीमा जैसी योजनाएं भी होनी चाहिए। आज यह आवश्यक है कि पत्रकार आर्थिक रूप से इस लायक तो हो कि वह वर्तमान और भविष्य की चिंता से मुक्त रह सकें।प्रश्न 8 जेडे हत्याकांड से एक बार फिर पत्रकारों की सुरक्षा का मुददा सामने आया है। पत्रकारों की सुरक्षा के लिए आपके अनुसार क्या कदम उठाए जाने चाहिए?
उत्तर- पत्रकारों के लिए सुरक्षा नीति बनाए जाने की आवश्यकता है। यह संभव नहीं है कि हरेक पत्रकार के साथ एक अंगरक्षक चल सके लेकिन इसके लिए बेहतर कानून होना चाहिए। राज्य स्तर पर कर्मचारियों के काम में बाधा डालने वाले पर कार्रवाई का कानून बना हुआ है, लेकिन पत्रकार को उसके काम के लिए धमकी अथवा रूकावट को इस कानून के दायरे में नहीं लिया जाता। पत्रकारों के विरूद्ध आपराधिक मामले की जांच भी जिले के एसपी स्तर के अधिकारी की देखरेख में होनी चाहिए क्योंकि छोटे स्तर के पुलिस अधिकारियों तक अपराधियों की पहुंच होती है। यह जिला स्तर का पुलिस अधिकारी पत्रकार-संबंधी किसी भी मामले की जांच की जानकारी राज्य शासन को भी नियमित भेजे।प्रश्न 9 वर्तमान समय में किस पत्रकार की पत्रकारिता आपको आदर्श पत्रकारिता के सबसे निकट दिखाई देती है?
उत्तर- पत्रकारिता क्षेत्र सेवा क्षेत्र है। पांचजन्य समाचार पत्र आज कम वेतन में भी समाज को सर्वोत्कृष्ट दे रहा है। आजादी से पहले बाबूराव विष्णु पराड़कर जैसे पत्रकारों की पत्रकारिता बड़ी आदर्श थी। उन्होंने अपने समाचार पत्र आज, और रणभेरी में अंग्रजों के खिलाफ जमकर लिखा और किसी भी प्रकार के प्रलोभन में नहीं आए। मेरे विचार में वर्तमान समय में ऐसी ही पत्रकारिता की आवश्यकता है जैसी पराड़कर जी के द्वारा की गई थी। वैसे तो हिन्दी पत्रकारिता की नींव ही त्याग, बलिदान और संघर्ष पर रखी गई थी। आदि संपादक जुगल किशोर शुक्ल ने अपने उदंत मार्तण्ड नामक हिंदी के प्रथम पत्र को सरकारी प्रलोभनों से दूर रखकर आर्थिक कठिनाइयों से ही चलाया। आज के पत्रकार को इन उदाहरणों को भूलना नहीं चाहिए।नेहा जैन, जुलाई अंक, २०११