अनामी शरण बबल
चंद्रास्वामी को सत्ता के विवादास्पद स्वामी कहें या दलाल कहें, कोई अंतर नहीं पड़ता, सब चलेगा। राजस्थान के मामूली से एक युवक ने सता और हथियारों की दलाली के लिए संतई का नकाब क्या ओढा कि इनके दरबार में भारतीय सत्ता के शीर्षस्थ चेहरों से लेकर विदेशों के तमाम विवादास्पद सौदागरों से लेकर राजा महाराजाओं, लड़कियों और सत्ता के दलालों ने अपने कारोबार को बढाने के लिए इस चंद्रास्वामी का दामन थामा। हालांकि 198- से लेकर 1996 का समय इस स्वामी के जीवन का चंद्रकाल था। इनके परम शिष्य चंद्रशेखर और पीवी नरसिम्हा राव तो देश के प्रधानमंत्री रहे। दूसरों के जीवन में आए शनि और राहू केतु को ठीक करने वाले बहरोड़ राजस्थान के चंद्रास्वामी के जीवन में भी 1996 के बाद ग्रह और नक्षत्रों का एेसा कुचक्र चला कि फिर वे इससे पार नहीं पा सके। गुमनामी बदनामी के भंवर में स्वामी इस तरह उलझते गए कि खुद को संभालना भी इनके लिए मुमकिन ना रहा। और दक्षिण दिल्ली के कुतुब होटल के पीछे स्वामी की विवादास्पद कोठी ही अंत तक इनके लिए कालघर साबित हुआ। कभी सत्ता की नब्ज थामने वाले चंद्रास्वामी के निधन की खबर अभी अभी खबरिया टीवी के किसी न्यूज चैनल के टीकर न्यूज में दे्खी। स्वाामी के अवसान की खबर पाते ही उनके साथ मुलाकात की पांच सात लम्हों की यादें ताजी हो गयी। दो तीन मुलाकात तो अपने बड़े भाई समान दिल्ली के धुरंधर पत्रकार दिवंगत आलोक तोमर के साथ हुई.थी। इसो यों भी कहा जा सकता है कि चंद्रास्वामी से मेरी मुलाकात कराने का श्रेय हमारे सदाबहार आलोक तोमर को ही जाता है। समय सूत्रधार पत्रिका के लिए 1992 में इंटरव्यू का समय तय कराने का श्रेय भी हमारे आलोक तोमर भैय्या को ही जाता है। समय सूत्रधार पत्रिका में इंटरव्यू छपने के बाद स्वामी मेरे लिए बड़े मुनाफा के सूत्र बने।
चंद्रास्वामी के साथ हुई पांच छह मुलाकातों को कई इंटरव्यू का रूप देकर मैने इसे कई फीचर एंजेसियों को दे डाला। जिससे ना केवल मुझे कुछ आर्थिक लाभ के साथ साथ स्वामी का इंटरव्यू भी सैकड़ों अखबारों में यदा कदा तो कभी लगातार गाहे बेगाहे कई साल तक छपते रहा। यानी स्वामी के कारण मेरा ups भी बढ़ता रहा या गया। स्वामी से आखिरी मुलाकात 20008 मे हुई. जब मैं टाटा मोबाईल के साथ एक बिल भुगतान के विवाद में उपभोक्ता अदालत में कुतुब होटल के पीछे जाना पड़ता था। इसी दौरान एक बारगी मन में स्वामी से मिलने की इच्छा प्रबल हुई तो बीमार से चल रहे प्रभाहीन चंद्रास्वामी एंड कंपनी से मिलन हो पाया। मगर मिलने पर मुझे आलोक तोमर की याद दिलाकर ही अपनी पहचान बतानी पड़ी. तब कहीं जाकर स्वामी मुझे पहचान सके। भारतीय जनमानस और अखबारी दुनिया से भी चंद्रास्वामी लापता हो गए है। मेरी यादों के जंगल से भी स्वामी लगभग लापता हो गए है। एकाएक प्रकट ही तब हुए जब उनके नहीं रहने की खबर देखी। इन पर यह महज एक औपचारिक नमन है। बतौर श्रद्धांजलि इन पर एक लेख का मशाला मेरे पास है। जिसे जरूर कभी शब्दार्थ दिया जाएगा। चंद्रास्वामी भले ही अब हमारे बीच नहीं रहे, मगर संतई चादर ओढ़कर सत्ता के शीर्षस्थ ओहदें पर बैठे लोगों को दुनिया के सबसे बदनाम हस्तियों से मुलाकात करने कराने के लिए स्वामी जैसे ही चांद की शरण लेनी पड़ती है। इसी दलाली के संतई आवरण के चांद यानी चंद्रास्वामी के जीवन का अंतिम काल भी संकटग्रस्त रहा. इनके तारणहार लगभग सभी शिष्य परलोक चले गए और जो इस भूलोक पर हैं भी तो शायद ही किसी में इतना दम हो कि वे भोडसी आश्रम के बलियाटेकी नेता चंद्रशेखर की तरह दुनियां के सबसे बदनाम हस्ती को भी बेखौफ होकर अपना मित्र या अपने लोग कहने की ताकत रखता हो। यानी मित्र मंडली में भी स्वामी के दिन लद गए हैं। पर राजनीति पर अंकुश रखने वाले स्वामी के जीवन लीला पर संभव है कि बहुत सारी कहानियां फिर देखने और पढने को मिले। प्याज के छिलकों की तरह परत दर परत रहस्मयी स्वामी के बारे में जितना भी लिखा जाए वह कम है. एेसे सदाबहार विवादास्पद स्वामी की जीवनलीला की काफी मस्त मजेदार सा है।