..आज पत्रकारिता दिवस है.... यानी इसको "जानने"का खास दिन....!
जो पत्रकार साथी पत्रकारिता को जान चुके हैं, पहचान चुके हैं, समझ चुके हैं....और उसे पूरी शिद्दत से निभा रहे हैं... उन्हें कोशिश: बधाई.....!
जो जानने, समझने और निभाने का प्रयास कर रहे हैं.... उन्हें बहुत बहुत बधाई....!
परन्तु उन्हें केवल बधाई..... जो पत्रकारिता को न जानना चाहते हैं.... न पहचाना चाहते हैं.... न समझना चाहते हैं....और न उस पर चलना ही चाहते हैं....
सम्भवतः देवर्षि नारद से चली आ रही यह गौरवशाली परम्परा आज भी उतनी ही ताकतवर है.... जितनी देवर्षि के समय में रहने की बात आती है....!
बस एक फर्क दिखता है.... "सहिष्णुता"का...!
प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ-साथ इस समय पोर्टल न्यूज का भी जमाना है....!
परन्तु एक बात बिल्कुल कामन है कि.... वे चाहे जो लिखें.... चाहे जो दिखायें.... चाहे जो परोसें.... हमें देखना-सुनना-पढ़ना ही होगा....हमारी उसमें रुचि हो अथवा न हो...!
मगर "वे"अपनी मर्जी के बिना अपने वाल, अपने पन्ने, अपने स्क्रीन पर और कुछ भी पढ़ना - देखना स्वीकार नहीं कर सकते....!
आखिर पत्रकारिता को जीने वाले बन्धु या बन्धु की विपरीत जेन्डर की भी लोग... यह क्यों नहीं एहसास कर पाते कि उनकी खबरों पर तो लोग सहिष्णु बने रहें.... मगर वे सहिष्णु नहीं रह सकते....!
कोई पत्रकार हो सकता है.... मगर उसके पहले वह इंसान तो होता ही होता है....हाड़ - मास से बना तो वह भी होता है....उसके भी देखने - सुनने - समझने - परखने में मानवीय चूक हो सकती है.... ईष्या - राग - द्वेष - काम - क्रोध का भाव परिस्थिति वश ही सही उत्सर्जित हो सकता है....!
मगर कुछ ने यह मान ही लिया है कि वह पत्रकार हो चुके हैं.... इसलिए इस सबसे "वे"विलग हो चुके हैं.... जबकि नारद कथा बताती है कि सर्वोच्च नैतिकता के जमाने में भी मानव दुर्बलता कुछ पल के लिए ही सही मगर अन्दर तक घर कर गई थी....!
क्या पत्रकारिता दिवस पर कुछ आत्ममंथन हो सकता है ...?
मनो.... बस ऐसे ही पूछ रहे थे.....!
जो पत्रकार साथी पत्रकारिता को जान चुके हैं, पहचान चुके हैं, समझ चुके हैं....और उसे पूरी शिद्दत से निभा रहे हैं... उन्हें कोशिश: बधाई.....!
जो जानने, समझने और निभाने का प्रयास कर रहे हैं.... उन्हें बहुत बहुत बधाई....!
परन्तु उन्हें केवल बधाई..... जो पत्रकारिता को न जानना चाहते हैं.... न पहचाना चाहते हैं.... न समझना चाहते हैं....और न उस पर चलना ही चाहते हैं....
सम्भवतः देवर्षि नारद से चली आ रही यह गौरवशाली परम्परा आज भी उतनी ही ताकतवर है.... जितनी देवर्षि के समय में रहने की बात आती है....!
बस एक फर्क दिखता है.... "सहिष्णुता"का...!
प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ-साथ इस समय पोर्टल न्यूज का भी जमाना है....!
परन्तु एक बात बिल्कुल कामन है कि.... वे चाहे जो लिखें.... चाहे जो दिखायें.... चाहे जो परोसें.... हमें देखना-सुनना-पढ़ना ही होगा....हमारी उसमें रुचि हो अथवा न हो...!
मगर "वे"अपनी मर्जी के बिना अपने वाल, अपने पन्ने, अपने स्क्रीन पर और कुछ भी पढ़ना - देखना स्वीकार नहीं कर सकते....!
आखिर पत्रकारिता को जीने वाले बन्धु या बन्धु की विपरीत जेन्डर की भी लोग... यह क्यों नहीं एहसास कर पाते कि उनकी खबरों पर तो लोग सहिष्णु बने रहें.... मगर वे सहिष्णु नहीं रह सकते....!
कोई पत्रकार हो सकता है.... मगर उसके पहले वह इंसान तो होता ही होता है....हाड़ - मास से बना तो वह भी होता है....उसके भी देखने - सुनने - समझने - परखने में मानवीय चूक हो सकती है.... ईष्या - राग - द्वेष - काम - क्रोध का भाव परिस्थिति वश ही सही उत्सर्जित हो सकता है....!
मगर कुछ ने यह मान ही लिया है कि वह पत्रकार हो चुके हैं.... इसलिए इस सबसे "वे"विलग हो चुके हैं.... जबकि नारद कथा बताती है कि सर्वोच्च नैतिकता के जमाने में भी मानव दुर्बलता कुछ पल के लिए ही सही मगर अन्दर तक घर कर गई थी....!
क्या पत्रकारिता दिवस पर कुछ आत्ममंथन हो सकता है ...?
मनो.... बस ऐसे ही पूछ रहे थे.....!