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महाबली का डर / संजय कुंदन

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*महाबली का डर*

वह नींद में कोड़े फटकारता है
और चिल्लाता है वैज्ञानिकों, डॉक्टरों पर
-जल्दी शोध पूरा करो, हमें दवा चाहिए
टीका चाहिए इस बीमारी का

वह परेशान है
अपने देश में लाशों के लगते ढेर से नहीं
आकाश की बढ़ती नीलिमा से
नदियों के पारदर्शी होते पानी से
साफ और भारमुक्त होती हवा से

वह घबराया हुआ है कि
सड़कों पर बेफिक्र दौड़ रहे हैं हिरण
फुटपाथों पर धमाचौकड़ी मचा रहे ऊदबिलाव
संग्रहालय का निरीक्षण कर रही पेंग्विनें

समुद्र तट पर लौट आई हैं डॉल्फिनें
लौट आए हैं लहरों के राजहंस
एक शहर की जिंदगी में फिर से दाखिल हुआ एक पहाड़
जैसे तीरथ करके वापस आए हों कोई बुजर्गवार

एक गोरा आदमी बीमार काले आदमी के
आंसू पोंछ रहा है
एक मुसलमान हिंदू की अर्थी उठा रहा है

यह कौन सी दुनिया है
कहीं इसी में रम न जाए संसार
महाबली सोचता है
कहीं नीले आकाश के पक्ष में लोग
कल घर से निकलने से ही इनकार न कर दें
वे जुगनुओं के लिए रोज थोड़ी देर बत्तियां न गुल करने लगें
वे पेड़ों की जगह अपनी इच्छाओं पर कुल्हाड़ियां न चलाने लग जाएं
वे एक ही कमीज और पैंट में महीना न काटने लग जाएं

चिंतित है महाबली
कि कहीं विकास का पहिया थम न जाए
कहीं युद्ध बंद न हो जाएं
अलकायदा के लड़ाके हथियार छोड़कर
कहीं अफगानी क्रिकेटरों से क्रिकेट न सीखने लग जाएं
किम जोंग उन बाल मुंडवाकर किसी बौद्ध विहार में
ओम मणि पद्मे हुम के जाप में न लग जाएं

वह डरा हुआ है
कि लोग कहीं उससे डरना बंद न कर दें
कहीं उसका नीला रक्त लाल न हो जाए!
.......
संजय कुंदन
13.4.20


  • (कुंदन नवभारत टाइम्स में वरिष्ठ पत्रकार हैं)



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