Desire To Win
August 23, 2011
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सन 1947 के दौरान और उसके बाद की पत्रकारिता का उद्देश्य शुद्ध जानकारीय्यों को समाज तक पहुंचाकर जागरुक करना था। जैसे-जैसे वक्त गुजरता गया, पत्रकारिता का मतलब काफ़ी हद तक बदलता गया। आजादी से पहले और उसके बाद की पत्रकारिता पर नजर डालें और आज की पत्रकारिता की ओर देखे तो दोनो पत्रकारिता के बीच एक बहुत बडा फ़ासला दिखाई दे जाता है। 21वी सदी की पत्रकारिता का अर्थ “व्यवसाय” होकर रह गया है। कहना अनुचित न होगा कि इसी व्यवसायीकरण ने ही पत्रकारिता को पूरी तरहं बदल डाला है। अब पत्रकारिता का मूल उद्देश्य सूचनाओं को समाज तक पहुंचाना नही रह गया बल्कि समाज का मनोरंजन कर किसी तरहं जल्द से जल्द शोहरत और पैसा बटोरा जाये यह रह गया है।
प्रोफ़ेसर अनंद कुमार का यह कहना कि आज की मीडिया “ट्रिप्पल-सी” यानी क्राईम,सिनेमा,क्रिकेट के इर्दगिर्द ही घूमती दिखाई देती है आज की मीडिया पर बिलकुल सटीक ठहरता है इसके साथ ही मीडिया कार्यप्रणाली कहां तक सीमित हो गई है, इसको बखूबी बयान करता है। आज अगर देखा जाये तो न्यूज चेनल हो या न्यूज पेपर सभी इन्ही “ट्रिप्पल-सी” के इर्दगिर्द की खबरे बडे चाऊ के साथ प्रकाशित और प्रसारित करते दिखते है। कहना गलत न होगा कि समाज भी बडे ही चाऊ के साथ इसे पढता, देखता और सुनता दिखाई देता है।
इस बात से हम सभी बखूबी वाकिफ़ होगें कि हमारा देश गांवो का देश है। आज भी हमारी जनसंख्या के सत्तर प्रतिशत नागरिक ग्रामीण इलाको में ही निवास करते हैं। इसके अलावा चाहे हम कितना ही क्यों ना इस भ्रम में रहकर ये भले ही सोच लें कि आज हमारे देश में अंधविश्वास खतम हो गया है। लेकिन सच्चाई यही है कि आज भी हमारे भारत में रह रहा एक बडा तबका अंधविश्वास को अपना धर्म मान चुका है। ऐसे में सभी जानते है कि इस अंधविश्वास की इस समस्यां को काफ़ी हद तक खत्म करने में लोकतंत्र के चौथे खम्भे का एक सबसे मजबूत और ताकतवर भाग इलेक्ट्रोनिक मीडिया यानी न्यूज़ चेनल्स बहुत ही कामयाब भूमिका निभा सकते है। पर ऐसा सोचना ठीक है लेकिन शायद ऐसा हो पाना मुशकिल लगता है। क्योंकि आज के समाचार चेनल्स टी० आर० पी० रूपी कैंसर से पूरी तरह पीडित हो गये हैं। अब तो चेनल को क्या चाहिये सिर्फ़ टी० आर० पी०, क्योंकि जितनी टि० आर० पी० सातवे आसमान पे होगी उतनी ही मोटी कमाई होगी यानी जितने ज्यादा लोग चैनल को देखेगें चैनल उतना प्रसिद्धि की सीढीयां चढेगा तो जाहिर सी बात है कि बड़ी-बड़ी और नामी गिरामी कंपनीया अपने उत्पाद को बेचने के लिये उनके पास दौड़ी चली आयेगीं जो समाचार चैनलों के लिये एक ऐसा होगा जैसे किसी जन्मो से प्यासे को पानी मिल गया हो। नोएडा के एक मकान में सात महीने से बंद रहने वाली दोनो बहनो के प्रकरण की कवरेज को लगभग सारे समाचार चैनलों ने इतनी ज्यादा तवज्जो दी कि चैनल पर तीन दिन तक कोई भी दूसरी खबर का खुल कर विवरण दिया ही नही गया और घूम-फ़िर बार-बार बस एक ये ही खबर दिखाई जाती रही। लग तो ऐसा रहा था मानो पता नही कितने दिनो से चैनल बस ऐसी ही अलग खबर का जोर-शोर से इंतजार कर रहे थे। कुछ कवरेज में तो लगभग सभी चनलों ने मनोवैज्ञानिको के थोड़े बहुत विश्लेषणों के माध्यम से दिखाए कि दोनो बहने “डिप्रेशन” रूपी भयंकर बिमारी का शिकार हो गयी थी जिसके चलते उन्होने ऐसा कदम उठाया पर इन वैज्ञानिक सटीक विश्लेषणों से खबर को ज्यादा बढा चढा कर पेश नही किया जा सकता था और चेनलो को अलग खबर जब तक नही मिलनी थी तब तक तो टी० आर० पी० को कायम तो रखना ही था। अब जहां इंडिया टी०वी अपनी भारी भरकम डरावनी आवाज के इस्तेमाल के लिये जाना जाता है वही सभी चेनलो का खबर बताने का तरिका डरावनी भारीभरक आवाज में तबदील तब होता दिखा जब बड़ी बहन की डायरी में काला जादू का जिक्र आया। सभी चेनलो ने एक-एक करके काले जादू के जिक्र को इतना उठाया कि कितनो को तो ऐसा लगने लगा होगा कि शायद दोनो बहनो की ये हालत काले जादू के कारण ही हुई थी। अगर चेनल चाहते तो परिवार की हालत के पीछे काले जादू की प्रभाव होने वाली बात को खण्डित कर सकते थे। पर ऐसा क्यों करेगें वे! क्योंकि आज चेनलो का लक्ष्य लोगो को जागरुक करना नही बल्कि लोगो को भ्रम में रख कर मोटी कमाई करना है। अगर हालिया के किये गये एक सर्वे कि बात की जाये तो करीब 70 प्रतिशत लोगो ने इस बात को मना कि आज भी गांवो में क्या शहरो में अंधविश्वास कम नही हुआ है। चैनलों के ऐसे रवये को देखते हुये तो यही कहा जा सकता है कि अंधविश्वास के प्रति लोग जागरुक होने बजाये इसकी गहरी खाई में लगातार गिरते चले जायेगें और चेनल अपने लालच रूपी तीर को साधते हुये आम जनता के मन में काले जादू जैसे अंधविश्वास के आकार को फ़ेलाने में अपनी भूमिका निभाते जायेगें।
पेड न्यूज:- पेड+न्यूज के बारे में हम सभी परिचित क्योंकि कोई भी जानकारी जब किसी संचार माध्यम से लोगो तक पहुंचती है वही न्यूज कहलाती है और अब बात आयी कि अखिर यह पेड न्यूज क्या है भला? पेड न्यूज को हम इस प्रकार समझ सकते है कि जब किसी घटना स्थल मोजूद व्यक्ति से पैसे लेने के बाद न्यूज को किसी प्रकार तोड-मरोडकर दिखाना है, ये फ़िक्स कर लिया जाता है और जानकारी या न्यूज को पैसे देने वाले के बताये अनुसार चाहे वह गलत हो या सही सीधा लोगो तक संचार माध्यम से पहुंचा दिया जाता है। अब सवाल उठता है कि लोकतंत्र या समाज को अखिर पेडन्यूज से क्या नुकसान है? तो सीधी बात समज आती है कि एक जानकारी ही मानव को उसके आस-पास क्या घटित हो रहा है एक न्यूज के रूप में उस तक पहुंचती है और अगर वही जानकारी गलत न्यूज के रूप में लोगो तक पहुंचेगी तो उसका कोई अच्छा प्रभाव तो पडने वाला है नही! जाहिर सी बात है कि अगर जानकारी लोगो तक पहुंचेगी तो उनका नजरिया भी एक गलत दिशा में जाने लगेगा यानी अगर सीएजी जांच कमेटी की रिपोर्ट में दि गई पडताल को ठीक उलट बताकर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की छ्वी को मीडिया पैसे लेने के बाद बिलकुल पाक-साफ़ बता कर प्रसारित और प्रकाशित कर देती तो शायद हमारा नजरिया भी यही कहता कि शीला दीक्षित ने भ्रष्टाचार में कोई भूमिका नही निभाई।अब क्या कहे आज की पत्रकारिता को बस यही कह सकते है कि पत्रकारिता बदल-बदल कर बदल गयी!