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रवि अरोड़ा की नजर में

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धर्म यात्री बनाम पेट यात्री

रवि अरोड़ा


दो साल पहले अमरनाथ की यात्रा पर गया था   । कश्मीर की सीमा से पहले जवाहर टनल के निकट एक साथ दर्जनों रेस्टोरेंट से दिखाई दिये । किसी मॉल के फ़ूड कोर्ट की तरह वहाँ उत्तरी भारत के तमाम पकवानों के साथ साथ दक्षिणी भारतीय खाने, चाइनीज़ फ़ूड, दर्जनों तरह के मिष्ठान, चाट पकौड़ी और तमाम तरह के पेय पदार्थों के भी अनेक स्टॉल मौजूद थे । जानकार बड़ी हैरानी हुई कि सभी के सभी रेस्टोरेंट निशुल्क थे । दरअसल वे रेस्टोरेंट नहीं अमरनाथ यात्रियों के लिए शिव भक्तों द्वारा लगाये गए भंडारे थे और जिनका संचालक पूरे देश भर के श्रद्धालु हर साल यात्रा के दिनो में करते हैं। देशी घी के पकवानों की इतनी लंबी चौड़ी फ़ेहरिस्त थी वहाँ कि सिर ही चकरा गया । आप कुछ भी फ़रमाइश कीजिये , वहाँ आपको निशुल्क मिल जाएगी । वैष्णोदेवी में भी चूँकि टी सीरीज़ वालों का एसा ही एक स्टॉल मैं पहले देख चुका हूँ अतः हैरानी अधिक देर तक मेरे साथ नहीं रही । यूँ भी अपने शहर में नवरात्र पर लगने वाले अष्टमी व नवरात्रि के भंडारे , हनुमान जयंती के लंगर , शहीदी दिवस पर मीठे जल की छबील मैं बचपन से देखता ही आ रहा हूँ । मकर संक्रान्ति पर बँटती खिचड़ी , शनिवार का भंडारा और विश्वकर्मा पूजा पर आलू-पूड़ी तो कई बार मैं भी खा चुका हूँ । बेशक कांवड यात्रा में कभी शामिल नहीं हुआ मगर कांवड़ियों के लिए चलते मुफ़्त लंगर और भंडारे भी ख़ूब देखे हैं । ख़ास बात यह है कि मुफ़्त भोजन कराने के लिए धार्मिक यात्री को भोले भोले कहते हुए अपने स्टाल पर आने की मनुहार सी आयोजक करते हैं ।  फ़ुर्सत में कभी अपने देश की इन परम्पराओं के बाबत सोचता हूँ तो अपनी संस्कृति पर गर्व होता है मगर उसी समय जब यह ख़याल आता है कि अब लॉकडाउन में जब प्रतिदिन हमारे बीच से होकर सैकड़ों-हज़ारों लोग भूखे-प्यासे सड़कों और रेल की पटरियों पर गुज़र रहे हैं तब हमारी संस्कृति को क्यों लकवा मार रहा है ?

बेशक शहर की अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं और समाजसेवियों ने अपनी ओर से बहुत अच्छी पहल की और ज़िला प्रशासन ने भी प्रतिदिन हज़ारों लोगों को निशुल्क भोजन उपलब्ध कराया मगर लॉकडाउन के दौरान शहर से होकर गुज़रे हज़ारों हज़ार श्रमिकों को भोजन मिला हो एसा दावा कोई नहीं कर सकता । शहर की झुग्गी झौपड़ियों और मलिन बस्तियों में भी सभी भरे पेट सो रहे हैं , इसकी गारंटी भी नहीं ली जा सकती । कड़वी सच्चाई तो यह है कि एक तिहाई ज़रूरतमंदों तक भी दया भाव वाले लोग अभी तक नहीं पहुँचे हैं। सबसे दुखद पहलू तो यह रहा कि भंडारे और लंगर लगाने वाले कहीं नहीं दिख रहे। कांवड़ियों पर पुष्पवर्षा करने वाली और जगह जगह रोक कर उनके पाँव दबाने वाली पुलिस भी इन लाचार लोगों को लठियाते और उट्ठक़ बैठक लगवाती नज़र आ रही है। बेशक कांवड यात्रा में भी यही लोग थे जो अब कंधे पर अपने बच्चे और बग़ल में कपड़े की पोटली लिए जा रहे हैं । इस बार तो उनके साथ महिलायें भी हैं मगर उनके रास्ते में अब कहीं  कोई भोजन अथवा आराम करने के शिविर नहीं दिख रहे । हैरानी तो इस बात की भी है कि कांवड़ यात्री होते ही जो लोग तमाम सरकारों के लिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं , लाचार श्रमिक के रूप में वही इतने ग़ैर ज़रूरी कैसे हो गये ? कांवड़िया होते हुए उनकी जो वोट एक होती है , मज़दूर होकर वह आधी तो नहीं हो जाती, फिर यह सब क्या है ?

बुरा न मानें तो कहूँ कि धर्म हमारे लिए आत्मसंतोष और परमार्थ के लिए नहीं वरन दिखावे की कोई शय हो गया है । अपनी मूँछ ऊँची करने के कारण उपलब्ध कराता है अब हमें धर्म । वरना भरे पेट के किसी पैसे वाले धार्मिक यात्री को  ज़बरन मुफ़्त भोजन कराने से अधिक किसी भूखे आदमी को भोजन कराने में शायद हमारा ईश्वर अधिक ख़ुश होता । कहीं एसा तो नहीं कि हम अपने ईश्वर को ग़लत समझ रहें हैं , या फिर समझ ही नहीं रहे ?

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