मुझे रोज़ दिल्ली हापुड़ मार्ग पर लाइन से पैदल जाते हुए मज़दूरों का जत्था दिखाई दे जाता है, मैंने कुछ लोगों से बात की तो पता चला कि वो पंजाब, दिल्ली और न जाने कहां कहां से पैदल चलते चले आ रहे हैं।सरकार ने जिन मिल मालिकों, फैक्ट्रियों के मालिकोंको कहा था कि मालिकान मजदूरों और श्रमिकों को पूरा पैसा देंगे पर मालिकों और ठेकेदारों ने उन्होंने उन्हें रोटी के लिए तरसा दिया। मकान मालिक किराया के लिए सुबह शाम हांक लगा रहे थे तो उनके पास कोई चारा नहीं है ,अब मरना ही है तो क्यों न अपनी मिट्टी में जाकर मरें। हमारे समझाने पर कि आपके लिए ट्रेन और बस चला दी गई हैं तो उनकी आंखों में अविश्वास से भरी चमक दिखाई पड़ी। कुछ सरकारी संस्थाएं भोजन भी करा रही थीं पर शायद सब मिलकर उसको विश्वास नहीं दिलवा पा रहे थे ।मैंने जो महसूस किया उसपर चंद पंक्तियां लिखने का प्रयास किया है क्योंकि दूसरों की पीड़ा लिखना कठिन काम है-
वो चलता चला जा रहा है
चलता चला जा रहा है
उसके पास हर सवाल
का एक ही उत्तर है
रोटी और केवल रोटी
सवाल पूछने वाले
भूखे आदमी के उत्तर
को ग़लत करार देते हैं
सवाल पूछने वाले
कैमरामैन, पुलिसवालों के
अलग-अलग तर्क हैं कि
अलग-अलग सवालों के
अलग-अलग ज़बाब होते हैं
पर भरे पेट लोगों की भाषा
में हर प्रश्न का उत्तर
अलग-अलग है और
उनका हर उत्तर सही
साबित होता है।
वह नहीं चाहता भोजन के
लिए हाथ फैलाना क्योंकि
ये मेहनतकश हाथ हैं
पर क्या करें काम
नहीं है लाकडाउन है
पेट भोजन मांग रहा
पर स्वाभिमान रोक रहा
तभी दिखाई दे जाती हैं
किवाड़ों की सुराखों से
मुन्नी की क्षुधातुर आंखें
तो आंख नीचे और
हाथ ऊपर हो जाते है
उसकी श्रमधारा से
बनता था नदियों पर बांध
रेल की पटरियां भी
वही बिछाता था पर
स्वाभिमान जिंदा रखता था
बनाए थे उसने शहर के
सभी मकान पर उसका
अपना कोई घर नहीं था
और इस लाकडाउन में
और वह दर ब दर था ।
पेट की आग बुझती नहीं
इसलिए मीलों चल रहे
रोटी और अपनी मिट्टी की
खुशबू तलाशते हुए
कांधे पर झोला रखें
पैर की बैसाखियों पर
घिसटते हुए
मजदूरिन के पांव पर
छाला और गोद में
भूख से बिलबिलाता बच्चा है
थकी हारी पत्नी से
वह कहता अभी तो
थोड़ा पेट भरा होगा न
हां हवा से भरा हुआ है।
मजदूर बोला सब्र करो
रास्ते बड़े हैं
न चाहते हुए भी उसके
मुंह से बेसाख्ता
निकल पड़ा
पर भूख और भी बड़ी है।।।