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पत्रकारिता में भी चोर दरवाजा ? – डॉ. वेदप्रताप वैदिक

क्या जेफरी यह कहना चाहते हैं कि ‘अनुसूचितों’ के लिए भारतीय मीडिया के द्वार जान-बूझकर बंद हैं? वे उनकी तुलना अपने देश के अश्वेत लोगों से करते हैं। यह तुलना गलत है। अखबारों और टीवी चैनलों में उम्मीदवारों की योग्यता देखी जाती है। उनकी जात, मज़हब, हैसियत आदि को नहीं देखा जाता। घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या? करोड़ों-अरबों रू. की लागत से चलनेवाले अखबार और चैनल डूब जाएंगे। यह सरकारी नौकरी नहीं है कि अपनी जात, प्रांत, पार्टी या जान-पहचान के लोगों को आंख मींचकर भर लें। यदि अनुसूचित उम्मीदवार सामने ही नहीं आएंगे तो क्या आप उन्हें पकड़-पकड़कर जबर्दस्ती पत्रकार बना देंगे? बिना योग्यता के आप सांसद, मंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तो बन सकते हैं लेकिन किसी अखबार में रिपोर्टर भी नहीं बन सकते।
जेफरी क्या चाहते हैं कि पत्रकारिता जैसा निष्पक्ष और पवित्र व्यवसाय भी राजनीति की तरह पक्षधरता और अपवित्रता का अड्डा बन जाए? ब्राह्ममण पत्रकार ब्राह्मण पत्रकारिता करे और दलित पत्रकार दलित पत्रकारिता करे तो पत्रकारिता और वेश्यावृत्ति में क्या अंतर रह जाएगा? पत्रकारिता के धर्म का क्या होगा?
दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को पत्रकारिता में जरूर लाया जाए और बड़ी संख्या में लाया जाए लेकिन चोर दरवाजे से नहीं। उन्हें शिक्षा में आरक्ष्ज्ञण देकर इस योग्य बनाया जाए कि भर्ती-परीक्षा में वे अन्य सबको मात कर दें। तभी पत्रकार बनकर वे संपूर्ण समाज के साथ न्याय कर सकेंगे।
dr.vaidik@gmail.com
(लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
ए-19, प्रेस एनक्लेव, नई दिल्ली-17, फोन घरः 2651-7295,
मो. 98-9171-1947
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