बात 17 सिंतबर, 1977 की है। सोवियत संघ की यात्रा समाप्त कर अगला ठौर युगोस्लाविया था। सुबह सवेरे बारिश के बीच मॉस्को के अपने होटल से साढ़े पांच बजे निकल गया। एयरपोर्ट डेढ़ घंटा पहले पहुंचना था। वक़्त से पहले ही मैं एयपोर्ट या रेलवे स्टेशन में पहुंचने में विश्वास रखता हूं। आठ बजे की फ्लाइट थी।समय पर बेलग्राद पहुंच गया। तब मास्को के ग्यारह बजे थे लेकिन बेलग्राद में नौ। बताया गया कि बेलग्राद का समय ग्रीनविच रेखा के अनुसार है यानी लंदन और बेलग्राद का समय समान है। बेलग्राद हवाई अड्डे पर इमीग्रेशन अधिकारी को अपना पासपोर्ट दिया तो देखने के बाद बिना मोहर लगाये हंस कर मुझे लौटाते हुए कहा 'आप तो गुटनिरपेक्ष देश के हैं अर्थात हमारे अपने हैं, मोहर की क्या ज़रूरत है।'उस अधिकारी के व्यवहार से मुझे खुशी और हैरत दोनों हुईं लेकिन मैं ने अपने पासपोर्ट पर मोहर लगाने का जब इसरार किया तो मेरा अनुरोध वह टाल नहीं सका। इससे पहले 1975 में भी मैं इस तरह के आश्चर्य का सामना पहले लंदन और बाद में टोरंटो में भी कर चुका था जहां मैं बिना वीज़ा लिए इसलिए स्वीकार कर लिया गया था क्योंकि मैं राष्ट्रकुल देश का नागरिक हूं। उन देशों में तो राष्ट्रकुल देशों के यात्रियों की कतार ही अलग लगती है। गुटनिरपेक्ष देशों में भी ऐसी व्यवस्था है, इसकी जानकारी बेलग्राद पहुंचने पर हुई। नामुमकिन नहीं इस व्यवस्था का लाभ कुछ अवांछित तत्व भी उठाते रहे हों। बहरहाल मैं इमीग्रेशन अधिकारी का धन्यवाद कर एयरपोर्ट के बाहर आ गया।
मैं युगोस्लाव सरकार का मेहमान था इसलिए मुझे लेने लिए एक अधिकारी आया हुआ था। उसका नाम था मिस्टर डैलीच। वह मुझे पैलेस होटल में छोड़ फिर मिलने का वादा कर चला गया। यह हिदायत ज़रूर देता गया कि आप खायें जो मर्ज़ी लेकिन पीने का भुगतान आपको खुद करना होगा। यह आम बात है। जिस दिन मैं वहां पहुंचा उन दिनों गुटनिरपेक्ष दिवस के उपलक्ष्य में समारोह चल रहे थे जो पूरा सिंतबर बड़ी शिद्दत के साथ मनाये जाते हैं। जगह जगह राष्ट्रपति ब्रोज़ टीटो के पोस्टर चिपके हुए थे। शायद यही कारण था कि आव्रजन अधिकारी मेरे पासपोर्ट पर मोहर लगाने से हिचकिचा रहा था। जिस दिन मैं बेलग्राद पहुंचा उस दिन शनिवार था। शनिवार और रविवार को औपचारिक मेल मुलाकातें वहां नहीं होतीं लिहाज़ा मैं ने इन दोनों दिनों का इस्तेमाल बेलग्राद दर्शन और खोज के लिए रख लिया। क्योंकि मैं लंबे समय से यूरोप के दौरे पर था इसलिए अगला कोई कार्यक्रम न देख मै 'केशी स्नान 'किया। ज़रूर भी थी। बहुत राहत मिली। कुछ समय तक लेटा रहा और अपनी यात्राओं को दिमाग के एक कोने में दर्ज करता रहा। उठने के बाद उन्हें अपनी डायरी पर उतारा। मुझे मास्को में अपने भारतीय मित्र देव मोरारका से हुई बातचीत याद आ रही थी जो पिछले बारह बरस से वहां रह रहा था। उसका मानना था कि रूस में खासी आज़ादी है लेकिन पश्चिमी देश इसे अपने चश्मे से देखते हैं जिन्हें रूस में बुराइयां ही नज़र आती हैं। देव मोरारका का तर्क था1कि हर देश की अपनी शासन व्यवस्था और प्रणाली होती है जो उस देश के अनुकूल होती है। सोवियत संघ की अपनी शैली है जिसे वह अपने देशवासियों के अनुकूल मानता है, इसमें पश्चिम को दिक्कत क्यों है। देव की दलील में दम है, उसे खारिज इसलिए भी नहीं किया जा सकता कि मैं अपनी दो यात्राओं में लोगों के चेहरों पर खुशी और संतोष के भाव देख चुका हूं।
जहां तक युगोस्लाविया का प्रश्न है, है तो यह भी समाजवादी देश लेकिन इसके साथ मार्शल टीटो का नाम जुड़ा है जो उस समय सब से कद्दावर नेता थे, दुनिया में उनकी जोड़ का कोई दूसरा नेता नहीं था। उनकी शासन करने की अपनी एक 'स्वतंत्र लीक'थी जो गुटनिरपेक्ष देशों के संस्थापक नेता की थी और उनके नाम के साथ जुड़े थे भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और मिस्र के राष्ट्रपति गमाल अब्दुल नासिर के नाम।इस तिकड़ी की धाक तब की तथाकथित दोनों विश्व शक्तियों के लिए किसी तीसरी ताकत से कम नहीं थी। गुटनिरपेक्ष देशों का दायरा इतना व्यापक हो गया था कि उसकी उपेक्षा करने का शायद ही किसी देश में साहस हो।इसलिए जब मैं बेलग्राद पहुंचा तो मार्शल टीटो जैसा महान नेता आज भी दूसरे देशों के लिए चुनौती माना जाता था। गुटनिरपेक्ष देश होने के नाते यहां के लोगों को हर तरह के बुनियादी अधिकार प्राप्त हैं, सूचना का अधिकार संविधान में निहित है जिस के चलते हर किसी को सरकार के कार्यों की जानकारी पाने का हक़ है। प्रेस पूरी तरह से आज़ाद है। यहां के अधिसंख्य समाचार पत्र औऱ पत्रिकाएं सर्ब और क्रोशियन भाषाओं में छपती हैं लेकिन विदेशी भाषाओं को अपने समाचारपत्र निकलने या विदेशों से मंगाने की पूरी छूट है। समाचार एजेंसी तानजुंग सभी भाषाओं के पत्रकारों में खासी लोकप्रिय है। वहां पत्रकारों से यही अपेक्षा की जाती है कि एक तो मार्शल टीटो की घोषणा नीतियों की अवहेलना न हो और दूसरे गुटनिरपेक्षता की उपेक्षा न हो।
होटल से बाहर निकला। थोड़ी दूर चलने पर एक बड़ा लम्बा चौड़ा बाजार देखा।दोनों तरफ दुकानें थीं।लोग पैदल ही चल रहे थे। न कोई साईकल, स्कूटर, टैक्सी थी और न ही कोई प्राइवेट कार। बताया गया यहां यातायात की मनाही है, ग्राहक पैदल चल कर खरीददारी करते हैं। सहसा मुझे दिल्ली के अजमल खान और करोलबाग याद आ गयी जहां की भीड़ और ट्रैफिक की गड्डमड्ड से खरीददारी का मज़ा ही किरकिरा हो जाता है। बताया गया कि बेलग्राद का यह पैदल बाजार दो किलोमीटर से ज़्यादा लंबा है। मैंने भी वहां कुछ देर चहलकदमी की लेकिन वह बाजार खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था।उसी बाजार में घूमते हुए मुझे चार हिंदुस्तानी मिल गये जो अपने आप को लुधियाना का बता रहे थे।एक कहता है कि वह पहले भी तीन बरस यूरोप में रह चुका। वे वहां से ग्रीस जाने की जुगाड़ में थे। एक बार ऐसे ही मुझे पोलैंड की राजधानी वॉरसॉ में भी कुछ लोग मिल गए थे। लगता है ये लोग बेचारे ट्रेवल एजेंटों के मारे थे । अब मुझे लगा कि मैंने अपने पासपोर्ट पर मोहर लगवा कर अच्छा ही किया। इतवार को मैं चर्च देखने चला गया। खूब रौनक थी।बड़ी तादाद में लोग आ जा रहे1थे, शादी की पोशाक में कुछ जोड़े भी। युवाओं की संख्या भी खासी थी। इबादत करने के लिए कुर्सियां भी रखी थीं।कुछ बुज़ुर्ग दीवार के साथ सटी कुर्सियों पर धंसे हुए थे। सब कुछ1बहुत अनुशासित था। अर्थ यह कि युगोस्लाविया में धर्म की आज़ादी है।
बेलग्राद डेन्यूब नदी के दोनों छोरों पर बसा है। युगोस्लाव डेन्यूब को दुनाव कहते हैं। इस नदी के एक छोर पर पुराना शहर है जबकि दूसरे छोर पर नया। वहां के1वास्तुशिल्प को देखकर पुराने और नये बेलग्राद की पहचान सहज हो जाती है। पुराने शहर के मकान सामंतवाद का प्रतीक दीखते हैं, अधिक ऊंचे नहीं बल्कि ज़्यादा खुले हुए। इनके बीच नये और ऊंचे मकान बन1गए हैं। लेकिन पुरानों की भव्यता बरकरार है। नये बेलग्राद में कई मंज़िला इमारतें हैं जो आधुनिक वास्तुकला का प्रतीक लगती हैं। यहां पर विभिन्न कारखानों की तरफ से अपने कर्मचारियों के लिए फ्लैट भी बनाए गए हैं। युगोस्लाविया में निजी संपत्ति रखने का भी लोगों को अधिकार है और वहां पूंजीपतियों की कमी नहीं।नये बेलग्राद में ज़्यादातर नई आबादी ही है जो अपने आपको पुराने शहर से कटी हुई लेकिन अधिक आज़ाद पाती है। कई लोग तो अपने पुराने घरों को छोड़ या बेचकर नये बेलग्राद के फ्लैटों में शिफ्ट हो गए हैं। इन फ्लैटों को आधुनिकता की सोच शायद इसलिए माना जाता है क्योंकि इन फ्लैटों में बुद्धिजीवी, चित्रकार, अन्य शिल्पों से जुड़े संस्कृति प्रेमी निवास करते हैं। कुछ लोग नये बेलग्राद को अधिक संपन्न, ताज़ा आबोहवा वाला, स्वच्छ पर्यावरण से सुकून भरा मानते हैं। यहां की रौनक और ग्लैमर आम युगोस्लाव को पश्चिम यूरोप के करीब होने का बोध कराता है। यहां पर हर तरह का विदेशी साहित्य उपलब्ध है, 80 प्रतिशत युवा अंग्रेज़ी पढ़ना पसंद करते हैं जबकि 20 फीसदी ही जर्मन, फ्रेंच आदि में दिलचस्पी है। रूसी भाषा के प्रति रुचि नहीं के बराबर है। यहां पर मार्शल टीटो के चित्र खूब चिपके हुए दीखे। एक तो गुटनिरपेक्ष दिवस के कारण और दूसरे मार्शल टीटो के 40 बरसों से सत्तारूढ़ होने की वजह से। यूरोप के ज़्यादातर देश नदियों के आसपास हैं या नदियां शहरों के बीचोंबीच बहती हैं जैसे मस्क्वा नदी शहर में सांप की तरह बहती है, पीटर्सबर्ग की नीवा नदी और उसकी शाखाएं शहर को घेरे हुए हैं, लंदन में थेम्स और हंगरी में बुदापेश्त की कहानी भी डेन्यूब के दोनों छोरों के आसपास की कथा ही कहती है।
सोमवार को मुलाकातों के दौर चले। विदेश मंत्रालय के अधिकारियों से बातचीत हुई तो सामाजिक सरोकारों से जुड़े लोगों से मिलने और संस्थाओं को देखने के अवसर मिले।विदेश मंत्रालय में मार्शल टीटो की प्रशस्तिगान हुआ औऱ गुटनिरपेक्ष आंदोलन में उनकी भूमिकाओं को रेखांकित किया गया तो सवाल यह भी उठा कि उनके बाद इस आंदोलन का क्या होगा। बेलग्राद में टीटो के बाद युगोस्लाविया की एकता और अखंडता पर भी चर्चा हुई। उस समय भी यह साफ नहीं था कि टीटो के बाद क्या होगा। मीडिया के लोगों से बातचीत करने पर यह आभास तो हो गया कि टीटो के बाद युगोस्लाविया को विघटन अवशम्भावी है, किसी दूसरे नेता में इसे एकजुट रखने की न तो ताकत है और न ही रुतबा। इन सरकारी और सामाजिक लोगों के अलावा भारतीय दूतावास के प्रेस कॉउंसलकर श्री तवाकली से भी भेंट हुई। पहले तो उन्होंने अपनी कार से बेलग्राद का नगर दर्शन कराया। उस समय यह शहर बहुत ही खूबसूरत, साफ सुधरा और दिलकश नज़र आया। प्रेस की स्वाधीनता के बारे में उनकी राय थी कि अन्य समाजवादी देशों की तुलना में मार्शल टीटो के रहते इस देश में काफी स्वतंत्रता है।उनके घर जाने, दूसरे कई राजनियको से मिलने के साथ साथ श्रीमती तवाकली के हाथों का घरेलू भोजन करने का भी लुत्फ उठाया।
चार दिन के अपने प्रवास में युगोस्लाविया को कई कोणों और पहलुओं से देखने समझने का अवसर मिला। एक यूगोस्लाव लेखिका ग्रोजदाना ओलिच भी मिलने के लिए आयीं। उन्ही4बताया कि उनके पांच उपन्यास छप चुके हैं।अंग्रेज़ी के अमेरिका या इंग्लैंड में छपते हैं जबकि एकउपन्यास पंजाबी और हिंदी में भी छपा है। उन्होंने अज्ञेय और अमृता प्रीतम की कुछ कविताओं का सर्ब भाषा में अनुवाद किया है जिसे वहां बहुत पसंद किया गया। वह राजपाल प्रकाशन के महेंद्र कुलश्रेष्ठ से भी परिचित हैं जिनका ज़िक्र उन्होंने अपनी बातचीत में कई बार किया। दिल्ली लौटकर मैं ने महेंद्र कुलश्रेष्ठ को ग्रोजदाना ओलिच का अभिवादन निवेदित कर दिया।
युगोस्लाविया की इस यात्रा को मैं यादगार और महत्वपूर्ण इस मायने में मानता हूं कि तब युगोस्लाविया एक देश था और।आज वह तीन देशों में विभाजित हो गया है सर्बिया, स्लोवेनिया औऱ क्रोशिया में। यह भी विडंबना है कि मार्शल टीटो का जन्म मई, 1892 में क्रोशिया में हुआ, 4 मई, 1980 में निधन स्लोवेनिया में हुआ तथा दफन 8 मई, 1980 को बेलग्राद में किये गये।उनके निधन के बाद शुरू में आवर्ती व्यवस्था से शासन चलाने का प्रयास हुआ । जब यह प्रयोग सफल नहीं हुआ तो तीनों इकाइयों ने अलग हो जाने में ही भलाई समझी। इसी प्रकार सोवियत संघ बनाने और उसे संगठित रखने में लेनिन, स्टालिन, ख्रुचेव, ब्रेज़्नेव काफी हद तक कामयाब रहे लेकिन मिखाइल गोर्बाचेव का पेरेस्त्रोइका उन्हें 15 देशों के रूप में आज़ादी दे गया दिसंबर 1990 में। जर्मनी के विली ब्रांट के प्रयास दो जर्मनी को 3 अक्टूबर, 1990 को एकजुट कर गये। ये सभी बेशक़ ऐतिहासिक और साहसिक फैसले थे जो सदा यादगार पल रहेंगे।