मेरी गाइड अग्नेश गजब की किस्सागो है। जिन दिनों मैंने हंगरी की यात्रा की थी वहां समाजवादी शासन प्रणाली थी। कहा जा सकता हैं कि ऐसी प्रणाली वाले देशों में पश्चिमी देशों के मुकाबले कम आज़ादी है लेकिन हंगरी आकर मुझे ऐसा बिल्कुल नहीं लगा। पूर्व और पश्चिम की जीवन शैली में साम्य दिखाने की गर्ज से अग्नेश मुझे बुदापेश्त के रात्रि जीवन की एक झलक दिखाने के लिए बाहर ले गयी। वह कहती है कि आप ऑस्ट्रिया वालों से पूछ लें कि दोनों देशों के बीच उन्हें कोई फर्क दीखता है। वह बताती है कि शुक्रवार रात या शनिवार सुबह ऑस्ट्रियाई हंगरी के बॉर्डर शहरों में खाली गाड़ियां और लंबे बाल लिये आते हैं और जब इतवार की शाम ऑस्ट्रिया लौटते हैं तो उनका हुलिया बदला होता है। हमारे यहां सैलून सस्ते हैं और खाने पीने और पहनने की चीज़ों से उनकी गाड़ियां भरी होती हैं। हंगरी ऑस्ट्रिया के मुकाबले बहुत सस्ता है। 1990 के बाद हंगरी ने भी पश्चिमी शैली की शासन प्रणाली अपना ली है मुमकिन है अब हंगरी के प्रति ऑस्ट्रिया वालों का वैसा आकर्षण न रहा हो। लेकिन अग्नेश की एक और बात याद आती है जब वह कहती है कि हंगेरी भारतीयों से कम भावुक नहीं होते। उनमें मेज़बानी जैसा ज़ज़्बा दूसरे किसी यूरोपीय देश में देखने को नहीं मिलेगा।वह बताती हैं कि 1926 में जब रवींद्रनाथ टैगोर यहां आकर अस्वस्थ हो गए थे तो उन्हें पूर्ण स्वस्थ होने के लिए बुदापेश्त से 90 किलोमीटर पश्चिम में बालतोंन झील के पास के सैनिटोरियम 'आलमी कोहराज' के आरोग्य गृह में ठहरा तक तब तक सेवा की गई थी जब तक वह पूर्ण रूप से स्वस्थ नहीं हो गए। यह स्थान मैं आपको दिखाने के लिए ले जाऊंगी दूसरी हमारी भारत से करीबी अमृता शेरगिल के रूप में है जिस के पिता उमराव सिंह शेरगिल सिख थे और उनकी माँ मारिया अन्टोइनेटते गोटतेसमान हंगेरी और तीसरी पहचान जिप्सी लोग, उनके आचार व्यवहार औऱ संगीत के रूप में है। साथ के चित्रों में अमृता शेरगिल का स्वनिर्मित छविचित्र है और उन्हीं की किसान की पेंटिंग के साथ साथ जिप्सी और प्रस्फुटनशील वृक्ष है। रवींद्रनाथ टैगोर की धड़ मूर्ति है जिसके नीचे अंकित है कि मैं जब इस धरा पर नहीं रहूंगा, मेरा यह पेड़ मेरी याद ताजा रखेगा। जब तक लोग यहां आते रहेंगे इसे प्यार करते रहेंगे। नीचे लिखा है -- रवींद्रनाथ टैगोर, 8 नवंबर, 1926।
अग्नेश इतनी जानकारी देने के बाद मुझे बालतोंन ले जाती है। बुदापेश्त और बालतोंन के बीच की बहुत ही अच्छी सड़क है। घंटे भर में हम लोग बालतोंन झील के पास1थे। हंगरी के लोग बालतोंन झील को यूरोप की सब से बड़ी झील मानते हैं। माना जाता है कि इस झील में स्नान करने से हर रोग दूर हो जाता है। यह झील 600 वर्ग किलोमीटर में फैली हुई है । इसकी लंबाई 77 किलोमीटर है और चौड़ाई दो से 14 किलोमीटर तथा गहराई औसतन तीन मीटर। जहां कम गहराई होती है वहां बच्चों की किलकारियां सुनने में आनंद आता है।।टैगोर जिस सैनिटोरियम में रहते थे वह झील के बिल्कुल करीब है। शाम को इस झील के किनारे टहलना टैगोर की नियमित दिनचर्या में शामिल था। इस झील के आसपास के माहौल और वातावरण में इतनी तासीर है जिसने टैगोर को भला चंगा कर दिया। झील के किनारे कुछ बेंच भी रखी हुई हैं जहां ज़रूरत पड़ने पर लोग विश्राम भी कर सकते हैं। सुबह शाम यहां आने वाले लोगों का मेला सा लगा रहता है।केवल रोगी ही यहां नहीं आते, बल्कि घुमक्कड़ी के शौकीन के स्त्री पुरूष औऱ बच्चे भी यहां देखे जा सकते हैं। सैलानियों का भी यह मनपसंद स्थल है। अग्नेश एक तरफ इशारा करती हुई बताती है कि टैगोर घूमते हुए जब थक जाते थे तो वह फलां बेंच पर बैठ कर विश्राम किया करते थे। बालतोंन झील की खूबसूरती और उसमें पानी की उठती बैठती लहरों में वह अक्सर खो जाया करते थे। बताया जाता है कि झील के किनारे बैठ कर उन्होंने साहित्य भी रचा था। 'आलमी कोहराज'सैनिटोरियम के सामने छोटे बड़े पेडों के झुरमुट दिखते हैं जो एक दिलकश नज़ारा पेश करते हैं। ये पेड़ महकते हैं और साथ ही इतिहास का अंग भी बन गए हैं। इन1पेड़ों को विश्व की महत्वपूर्ण हस्तियों ने रोपा है जो आज खासे बड़े पेड़ बन गए हैं। एक पेड़ रवींद्रनाथ टैगोर ने भी लगाया था। यह बहुत बड़ा औऱ आकर्षक है। भारत के जिन अन्य लोगों ने यहां पेड़ लगाए थे उनके नाम हैं डॉ.ज़ाकिर हुसैन (जून, 1966), वी.वी.गिरि (अक्टूबर, 1970), श्रीमती इंदिरा गांधी (जून , 1972), फखरुद्दीन अली अहमद (सिंतबर, 1975) आदि। अन्य कई देशों के नेताओं, कवियों, लेखकों, वैज्ञानिकों, राजनीतिकों के नाम पर रोपे गए पौधे बड़े पेड़ों की शक्ल अख्तियार कर चुके हैं। टैगोर ने यहां तीन माह रहकर पूर्ण स्वास्थ्यलाभ प्राप्त किया।बालतोंन में झील का प्रमुख आकर्षण है, बावजूद इसके यहां एक पुराना गिरिजाघर भी है जहां बच्चे, बूढ़े, जवान सभी मोमबत्तियां जलाते हैं और घुटने टेक कर प्रार्थना भी करते हैं।
इस बार मेरे साथ योसेफ साबो थे जो भारत में हंगरी के सांस्कृतिक विभाग के निदेशक रह चुके थे। उन्होंने मुझे बुदा स्थित वह स्थान दिखाया जहां अमृता शेरगिल का 30 जनवरी, 1913 को जन्म हुआ था। उनके पिता1सरदार उमराव सिंह शेरगिल विद्वान थे, दार्शनिक थे, संस्कृत और फ़ारसी भाषाओं पर समान अधिकार था और हंगरी के उच्च समाज में उनका खासा दबदबा था। उनकी मां वहां की एक विदुषी महिला थीं। दोनों ने शादी कर ली और उनकी दो संतान हुईं अमृता और इंदिरा।अमृत बड़ी थी सुंदर, दिलकश और होशियार।शेरगिल दम्पति ने बड़े प्यार से उनका लालन पालन किया। लेकिन प्रथम विश्व युद्ध ने उनके सारे सपने चकनाचूर कर दिये और वे घर से बेघर हो गये। अमृता ने बहुत छोटी उम्र से पढ़ना1शुरू कर दिया। अपनी रंगीन पेंसिलों से ड्राइंग बनाती, स्कूल की किताबों में जो खिलौने बने देखती हूबहू उसकी नकल करती। युद्ध खत्म होने के बाद वे लोग कुछ समय तक मारग्रेट द्वीप होटल में रहे। अमृता की विलक्षण बुद्धि की लोग चर्चा करते हुए उसकी मां को समझाते कि इस हीरे को सम्हाल कर रखना। बरास्ता पेरिस जब भारत आने लगे तो अमृता की नज़र मोनालिसा की पेंटिंग के प्रतिरूप पर पड़ी और वह उसी ओर खिंचती चली गयी। उसने पेंटिंग की तरफ ही अपने आप को समर्पित कर दिया।इंदिरा संगीत की ओर आकर्षित हुई।दिल्ली पहुंच कर अमृता शेरगिल पेंटिंग बनाने में ही डूब गई। अपना एक खूबसूरत स्टूडियो बनवाया जहां वह दिन1रात पेंटिंग बनाने में मग्न रहतीं। 1936 में दिल्ली में अपनी प्रदर्शनी की जहां उसे स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ । जून, 1938 में वह हंगरी लौट गई और अपनी मौसी के बेटे डॉ.विक्टर एगान से शादी कर ली।5 दिसंबर, 1941 को मात्र 28 साल की उम्र में लाहौर में अंतिम सांस ली।वह अपने पीछे पेंटिंग्स का जखीरा छोड़ गई हैं जो भारत औऱ हंगरी में सुरक्षित है। {मैटर जारी जिप्सी पर अगली पोस्ट में)